08-10-2022, 08:31 AM
श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -50 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -51 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
उप्पज्जदि जदि णाणं कमसो अट्ठे पडुच्च णाणिस्स।
तण्णेव हवदि णिच्चं ण खाइयं णेव सव्वगदं ॥50॥
अन्वयार्थ - (जदि) यदि (णाणिस्स णाणं) आत्मा का ज्ञान (कमसो) क्रमशः (अट्ठे पडुच्च) पदार्थों का अवलम्बन लेकर (उप्पज्जदि) उत्पन्न होता हो, (तं) तो वह (ज्ञान) (णेव णिच्चं हवदि) नित्य नहीं है, (ण खाइगं) क्षायिक नहीं है (णेव सव्वगदं) और सर्वगत् नहीं हैं।
आगे जो ज्ञान पदार्थोंको क्रमसे जानता है, वह सर्वगत नहीं हो सकता, ऐसा सिद्ध करते हैं-[यदि जो [ज्ञानिनः] आत्माका [ज्ञानं] चैतन्यगुण [अर्थान् ] पदार्थोंको [क्रमशः] क्रमसे [प्रतीत्य] अवलम्बन करके [उत्पद्यते] उत्पन्न होता है, [तदा] तो [तत्] वह ज्ञान [नैव] न तो [नित्यं] अबिनाशी [भवति है, [न क्षायिकं] न क्षायिक है, और [नैव सर्वगतं] न सबका जाननेवाला होता है / भावार्थ-जो ज्ञान एक एक पदार्थका अवलम्बन ( ग्रहण) करके क्रमसे प्रवर्तता है, एक ही बार सबको नहीं जानता है, वह ज्ञान विनाशीक है, एक पदार्थके अवलम्बनसे उत्पन्न होता है, दूसरेके ग्रहणसे नष्ट होता है, इस कारण अनित्य है / यही ज्ञानावरणीकर्मके क्षयोपशमसे हीनाधिक होता है, इसलिये क्षायिक भी नहीं है, किंतु क्षयोपशमरूप है, और अनंत द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव जाननेमें असमर्थ है, इसलिये सबके न जाननेसे असर्वगत है। सारांश यह है, कि जिस ज्ञानसे पदार्थ क्रमपूर्वक जाने जाते हैं, वह ज्ञान पराधीन है / ऐसे ज्ञानसे सर्वज्ञ पदका होना असिद्ध है, अर्थात् सर्वज्ञ नहीं कहा जाता
गाथा -51 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -52 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
तिकालणिचविसमं सयलं सव्वत्थ संभवं चित्तं /
जुगवं जाणदि जोण्हं अहो हि णाणस्स माहप्पं // 51 //
अन्वयार्थ - (तक्कालणिच्चविसमं) तीनों काल में सदा विषम (असमान जाति के) (सव्वत्थ संभवं) सर्वक्षेत्र के (चित्तं) अनेक प्रकार के (सकलं) समस्त पदार्थों को (जोण्हं) जिनदेव का ज्ञान (जुगवं जाणदि) एक साथ जानता है। (अहो हि) अहो! (णाणस्स माहप्पं) ज्ञान का माहात्म्य।
आगे जो ज्ञान एक ही बार सबको जानता है, उस ज्ञानसे सर्वज्ञ पदकी सिद्धि है, ऐसा कहते हैं-[जैनं] केवलज्ञान नित्यविषमं] अतीतादि तीनों कालसे सदाकाल ( हमेशा) असम ऐसे [सर्वत्र संभवं] सब लोकमें तिष्ठते [चित्रं] नाना प्रकारके [सकलं] सब पदार्थ [युगपत् ] एक ही बार [जानाति] जानता है / [अहो] हे भव्यजीवो, [हि] निश्चयकर यह [ज्ञानस्य] ज्ञानकी [माहात्म्यं] महिमा है / भावार्थ-जो ज्ञान एक ही बार सकल पदार्थोंका अवलंबनकर प्रवर्तता है, वह नित्य है, क्षायिक है, और सर्वगत है / जिस कारण केवलज्ञानमें सब पदार्थ टंकोत्कीर्णन्यायसे प्रतिभासते हैं, और प्रकार नहीं / इस ज्ञानको कुछ और जानना अवशेष ( बाकी ) नहीं है, जो इसमें ज्ञेयाकारोंकी पलटना होवे, इस कारण यह ज्ञान नित्य है। इस ज्ञानकी कोई शक्ति कर्मसे ढंकी हुई नहीं है, अनंत शक्तियाँ खुली हैं, इसलिये यह ज्ञान क्षायिक है, और यह अनंतद्रव्य, क्षेत्र, काल, भावोंको प्रगट करता है, इससे यह ज्ञान सर्वगत है / सारांश-केवलज्ञानकी महिमा कोई भी नहीं कह सकता, ऐसे ही ज्ञानसे सर्वज्ञ पदकी सिद्धि होती है |
गाथा -52 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -53 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
ण वि परिणमदि ण गेण्हदि उप्पजदिणेव तेसु अढेसु /
जाणण्णवि ते आदा अबंधगो तेण पण्णत्तो // 52 //
अन्वयार्थ - (आदा) आत्मा (केवलज्ञानी) (ते जाणण्णवि) पदार्थों को जानता हुआ भी (ण वि परिणमदि) उस रूप परिणमित नहीं होता, (ण गेण्हदि) उन्हें ग्रहण नहीं करता (अट्ठेसु णेव उप्पज्जदि) और उन पदार्थों के रूप नहीं होता (तेण) इसलिये (अबंधगो पण्णत्तो) उसे अबन्धक कहा है।
आगे केवलीके ज्ञानकी क्रिया है, परंतु क्रियाका फल-बंध नहीं है, ऐसा कथन संक्षेपसे कहकर आचार्य ज्ञानाधिकार पूरा करते हैं-आत्मा] केवलज्ञानी शुद्धात्मा [ तान् ] उन पदार्थीको [जानन् अपि] जानता हुआ भी [ येन ] जिस कारण [ अपि] निश्चय करके [न परिणमति] न तो परिणमता है, [न गृह्णाति] न ग्रहण करता है, [ नैव] और न [ तेषु अर्थेषु] उन पदार्थोंमें [ उत्पद्यते] उत्पन्न होता है, [तेन] उसी कारणसे वह [अबन्धकः] नवीन कर्मबंधसे रहित [प्रज्ञप्तः] कहा गया है। भावार्थयद्यपि केवलज्ञानी सब पदार्थोंको जानता है, तो भी उन पदार्थोंको राग, द्वेष, मोह भावसे न परिणमता है, न ग्रहण करता है, और न उनमें उत्पन्न होता है, इस कारण बंध रहित है / क्रिया दो प्रकारकी है, एक ज्ञप्तिक्रिया और दूसरी ज्ञेयार्थपरिणमनक्रिया, उनमें ज्ञानकी राग द्वेष मोह रहित जाननेरूप क्रियाको 'ज्ञप्तिक्रिया' और जो राग द्वेष मोहकर पदार्थका जानना, ऐसी क्रियाको 'ज्ञेयार्थपरिणमनक्रिया' कहते हैं। इनमें से ज्ञेयार्थपरिणमनक्रियासे बंध होता है, ज्ञप्तिक्रियासे नहीं होता / केवलीके ज्ञप्तिक्रिया है, इसलिये उनके बंध नहीं है / पहले "उदयगदा कम्मंसा" आदि गाथासे ज्ञेयार्थ परिणमन क्रियाको बँधका कारण कहा है, सो यह केवलीके नहीं है / और "गेण्हदि णेव ण मुंचदि" आदि गाथासे केवलीके देखने जाननेरूप क्रिया कही है, सो इस ज्ञप्तिक्रियासे बंध नहीं है|
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार गाथा - 50, 51, 52
क्षायिक ज्ञान , क्षयोपशम ज्ञान
इस विडियो के माध्यम से हम जानेंगे क्षयोपशम ज्ञान क्या जानता है और क्षायिक ज्ञान क्या जानता है? क्षयोपशम ज्ञान जिस तरह से जानता है उस तरह से क्षायिक ज्ञान नहीं जानता है!
क्षयोपशम ज्ञान पराधीन होता है जबकि क्षायिक ज्ञान पराधीन नहीं होता है!
हम कभी भी पांचो इंद्रियों से किसी भी पदार्थ को एक साथ नहीं जान सकते है! कोई भी इन्द्रिय एक समय में एक ही प्रकार का उपयोग रखती है।
मतिज्ञान हमेशा क्रम - क्रम से ही जानता है। क्रमशः होने वाला ज्ञान कभी नित्य नहीं होता है।
अंतर मुहूर्त का मतलब केवल 48 मिनट ही नहीं होता है । एक सेकंड भी अंतर मुहूर्त में ही आता है। 1 सेकंड का दसवॉं बीसवॉं भाग भी अंतर मुहूर्त में आता है।
क्षायिक ज्ञान एक साथ सभी पदार्थों को जानता है।
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -50 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -51 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
उप्पज्जदि जदि णाणं कमसो अट्ठे पडुच्च णाणिस्स।
तण्णेव हवदि णिच्चं ण खाइयं णेव सव्वगदं ॥50॥
अन्वयार्थ - (जदि) यदि (णाणिस्स णाणं) आत्मा का ज्ञान (कमसो) क्रमशः (अट्ठे पडुच्च) पदार्थों का अवलम्बन लेकर (उप्पज्जदि) उत्पन्न होता हो, (तं) तो वह (ज्ञान) (णेव णिच्चं हवदि) नित्य नहीं है, (ण खाइगं) क्षायिक नहीं है (णेव सव्वगदं) और सर्वगत् नहीं हैं।
आगे जो ज्ञान पदार्थोंको क्रमसे जानता है, वह सर्वगत नहीं हो सकता, ऐसा सिद्ध करते हैं-[यदि जो [ज्ञानिनः] आत्माका [ज्ञानं] चैतन्यगुण [अर्थान् ] पदार्थोंको [क्रमशः] क्रमसे [प्रतीत्य] अवलम्बन करके [उत्पद्यते] उत्पन्न होता है, [तदा] तो [तत्] वह ज्ञान [नैव] न तो [नित्यं] अबिनाशी [भवति है, [न क्षायिकं] न क्षायिक है, और [नैव सर्वगतं] न सबका जाननेवाला होता है / भावार्थ-जो ज्ञान एक एक पदार्थका अवलम्बन ( ग्रहण) करके क्रमसे प्रवर्तता है, एक ही बार सबको नहीं जानता है, वह ज्ञान विनाशीक है, एक पदार्थके अवलम्बनसे उत्पन्न होता है, दूसरेके ग्रहणसे नष्ट होता है, इस कारण अनित्य है / यही ज्ञानावरणीकर्मके क्षयोपशमसे हीनाधिक होता है, इसलिये क्षायिक भी नहीं है, किंतु क्षयोपशमरूप है, और अनंत द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव जाननेमें असमर्थ है, इसलिये सबके न जाननेसे असर्वगत है। सारांश यह है, कि जिस ज्ञानसे पदार्थ क्रमपूर्वक जाने जाते हैं, वह ज्ञान पराधीन है / ऐसे ज्ञानसे सर्वज्ञ पदका होना असिद्ध है, अर्थात् सर्वज्ञ नहीं कहा जाता
गाथा -51 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -52 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
तिकालणिचविसमं सयलं सव्वत्थ संभवं चित्तं /
जुगवं जाणदि जोण्हं अहो हि णाणस्स माहप्पं // 51 //
अन्वयार्थ - (तक्कालणिच्चविसमं) तीनों काल में सदा विषम (असमान जाति के) (सव्वत्थ संभवं) सर्वक्षेत्र के (चित्तं) अनेक प्रकार के (सकलं) समस्त पदार्थों को (जोण्हं) जिनदेव का ज्ञान (जुगवं जाणदि) एक साथ जानता है। (अहो हि) अहो! (णाणस्स माहप्पं) ज्ञान का माहात्म्य।
आगे जो ज्ञान एक ही बार सबको जानता है, उस ज्ञानसे सर्वज्ञ पदकी सिद्धि है, ऐसा कहते हैं-[जैनं] केवलज्ञान नित्यविषमं] अतीतादि तीनों कालसे सदाकाल ( हमेशा) असम ऐसे [सर्वत्र संभवं] सब लोकमें तिष्ठते [चित्रं] नाना प्रकारके [सकलं] सब पदार्थ [युगपत् ] एक ही बार [जानाति] जानता है / [अहो] हे भव्यजीवो, [हि] निश्चयकर यह [ज्ञानस्य] ज्ञानकी [माहात्म्यं] महिमा है / भावार्थ-जो ज्ञान एक ही बार सकल पदार्थोंका अवलंबनकर प्रवर्तता है, वह नित्य है, क्षायिक है, और सर्वगत है / जिस कारण केवलज्ञानमें सब पदार्थ टंकोत्कीर्णन्यायसे प्रतिभासते हैं, और प्रकार नहीं / इस ज्ञानको कुछ और जानना अवशेष ( बाकी ) नहीं है, जो इसमें ज्ञेयाकारोंकी पलटना होवे, इस कारण यह ज्ञान नित्य है। इस ज्ञानकी कोई शक्ति कर्मसे ढंकी हुई नहीं है, अनंत शक्तियाँ खुली हैं, इसलिये यह ज्ञान क्षायिक है, और यह अनंतद्रव्य, क्षेत्र, काल, भावोंको प्रगट करता है, इससे यह ज्ञान सर्वगत है / सारांश-केवलज्ञानकी महिमा कोई भी नहीं कह सकता, ऐसे ही ज्ञानसे सर्वज्ञ पदकी सिद्धि होती है |
गाथा -52 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -53 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
ण वि परिणमदि ण गेण्हदि उप्पजदिणेव तेसु अढेसु /
जाणण्णवि ते आदा अबंधगो तेण पण्णत्तो // 52 //
अन्वयार्थ - (आदा) आत्मा (केवलज्ञानी) (ते जाणण्णवि) पदार्थों को जानता हुआ भी (ण वि परिणमदि) उस रूप परिणमित नहीं होता, (ण गेण्हदि) उन्हें ग्रहण नहीं करता (अट्ठेसु णेव उप्पज्जदि) और उन पदार्थों के रूप नहीं होता (तेण) इसलिये (अबंधगो पण्णत्तो) उसे अबन्धक कहा है।
आगे केवलीके ज्ञानकी क्रिया है, परंतु क्रियाका फल-बंध नहीं है, ऐसा कथन संक्षेपसे कहकर आचार्य ज्ञानाधिकार पूरा करते हैं-आत्मा] केवलज्ञानी शुद्धात्मा [ तान् ] उन पदार्थीको [जानन् अपि] जानता हुआ भी [ येन ] जिस कारण [ अपि] निश्चय करके [न परिणमति] न तो परिणमता है, [न गृह्णाति] न ग्रहण करता है, [ नैव] और न [ तेषु अर्थेषु] उन पदार्थोंमें [ उत्पद्यते] उत्पन्न होता है, [तेन] उसी कारणसे वह [अबन्धकः] नवीन कर्मबंधसे रहित [प्रज्ञप्तः] कहा गया है। भावार्थयद्यपि केवलज्ञानी सब पदार्थोंको जानता है, तो भी उन पदार्थोंको राग, द्वेष, मोह भावसे न परिणमता है, न ग्रहण करता है, और न उनमें उत्पन्न होता है, इस कारण बंध रहित है / क्रिया दो प्रकारकी है, एक ज्ञप्तिक्रिया और दूसरी ज्ञेयार्थपरिणमनक्रिया, उनमें ज्ञानकी राग द्वेष मोह रहित जाननेरूप क्रियाको 'ज्ञप्तिक्रिया' और जो राग द्वेष मोहकर पदार्थका जानना, ऐसी क्रियाको 'ज्ञेयार्थपरिणमनक्रिया' कहते हैं। इनमें से ज्ञेयार्थपरिणमनक्रियासे बंध होता है, ज्ञप्तिक्रियासे नहीं होता / केवलीके ज्ञप्तिक्रिया है, इसलिये उनके बंध नहीं है / पहले "उदयगदा कम्मंसा" आदि गाथासे ज्ञेयार्थ परिणमन क्रियाको बँधका कारण कहा है, सो यह केवलीके नहीं है / और "गेण्हदि णेव ण मुंचदि" आदि गाथासे केवलीके देखने जाननेरूप क्रिया कही है, सो इस ज्ञप्तिक्रियासे बंध नहीं है|
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार गाथा - 50, 51, 52
क्षायिक ज्ञान , क्षयोपशम ज्ञान
इस विडियो के माध्यम से हम जानेंगे क्षयोपशम ज्ञान क्या जानता है और क्षायिक ज्ञान क्या जानता है? क्षयोपशम ज्ञान जिस तरह से जानता है उस तरह से क्षायिक ज्ञान नहीं जानता है!
क्षयोपशम ज्ञान पराधीन होता है जबकि क्षायिक ज्ञान पराधीन नहीं होता है!
हम कभी भी पांचो इंद्रियों से किसी भी पदार्थ को एक साथ नहीं जान सकते है! कोई भी इन्द्रिय एक समय में एक ही प्रकार का उपयोग रखती है।
मतिज्ञान हमेशा क्रम - क्रम से ही जानता है। क्रमशः होने वाला ज्ञान कभी नित्य नहीं होता है।
अंतर मुहूर्त का मतलब केवल 48 मिनट ही नहीं होता है । एक सेकंड भी अंतर मुहूर्त में ही आता है। 1 सेकंड का दसवॉं बीसवॉं भाग भी अंतर मुहूर्त में आता है।
क्षायिक ज्ञान एक साथ सभी पदार्थों को जानता है।