प्रवचनसारः गाथा -56 - इन्द्रियों के विषय
#1

श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार

गाथा -56 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -58 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )

फासो रसो य गंधो वण्णो सहो य पुग्गला होति /
अक्खाणं ते अक्खा जुगवं ते णेव गेण्हति // 56 //


आगे इंद्रियज्ञान यद्यपि अपने जानने योग्य मूर्तीक पदाऑको जानता है, तो भी एक ही बार नहीं जानता, इसलिये हेय है, ऐसा कहते हैं- [अक्षाणां] पाँचो इन्द्रियोंके [ स्पर्शः ] स्पर्श [ रसः] रस [च गन्धः] और गंध [ वर्णः ] रूप [च] तथा [ शब्दः ] शब्द ये पाँच विषय [ पुद्गलाः ] पुद्गलमयी [ भवन्ति ] हैं। अर्थात् पाँच इंद्रियाँ उक्त स्पर्शादि पाँचों विषयोंको जानती हैं, परंतु [ तानि अक्षाणि ] वे इंद्रियाँ [ तान्] उन पाँचों विषयोंको [युगपत् ] एक ही बार [ नैव] नहीं [गृह्णन्ति] ग्रहण करतीं | 

भावार्थ
ये स्पर्शनादि पाँचों इन्द्रियाँ अपने अपने स्पर्शादि विषयोंको ग्रहण करती हैं, परंतु एक ही समय ग्रहण नहीं कर सकतीं / अर्थात् जिस समय जिह्वा इंद्रिय रसका अनुभव करती है, उस समय अन्य श्रोत्रादि इंद्रियोंका कार्य नहीं होता / सारांश-एक इंद्रियका जब कार्य होता है, तब दूसरीका बन्द रहता है, क्योंकि अंतरंगमें जो क्षायोपशमिकज्ञान है, उसकी शक्ति क्रमसे प्रवर्तती है / जैसे काकके दोनों नेत्रोंकी पूतली एक ही होती है, परंतु वह पूतली ऐसी चंचल है, कि लोगोंको यह मालूम पड़ता है, जो दोनों नेत्रों में जुदी जुदी पूतली हैं। यथार्थमें वह एक ही है, जिस समय वह जिस नेत्रसे देखता है, उस समय उसी नेत्र में  आ जाती है, परंतु एक बार दोनों नेत्रोंसे नहीं देख सकता / यही दशा क्षायोपशमिकज्ञानकी है। यह ज्ञान स्पर्शादि पाँचों विषयोंको एक ही बार जाननेमें असमर्थ है / जिस समय जिस इंद्रियरूप द्वारमें जाननेरूप प्रवृत्ति करता है, उस समय उसी द्वारमें रहता है, अन्य द्रव्येन्द्रिय द्वारमें नहीं / इस कारण एक ही काल सब इन्द्रियोंसे ज्ञान नहीं होता / इसी लिये इन्द्रियज्ञान परोक्ष है, पराधीन है, और हेय है॥

मुनि श्री प्रणम्य सागर जी  प्रवचनसार गाथा - 56

अन्वयार्थ - 
(फासो) स्पर्श (रसो य) रस (गंधो) गंध (वण्णो) वर्ण (सद्दो य) और शब्द (पोग्गला) पुद्गल है, वे (अक्खाणं होंति) इन्द्रियों के विषय हैं, (ते अक्खा) (परन्तु) वे इन्द्रियाँ (ते) उसे (भी) (जुगवं) एक साथ (णेव गेण्हेदि) ग्रहण नहीं करती (नहीं जान सकतीं)।


1. यदि हमारे भीतर संपूर्ण ज्ञान नहीं हैं तो हमें संपूर्ण सुख नहीं मिलता हैं।

2. हमें संपूर्ण सुख कैसे प्राप्त होगा और कब होगा? यह भी इस गाथा में बताया गया हैं।

3. अतीन्द्रिय सुख उपादेय हैं, एवं इन्द्रिय सुख हेय हैं।

4. सुख हमें न कल मिला था, न आज मिल रहा हैं और न कल मिलेगा, क्योंकि आत्मा के अंदर अनंत ज्ञान की शक्तियां पड़ी हैं, उसे हमने केवल मन की आदत में जोड़ दिया हैं।

5. यदि हमारे भीतर इच्छाएँ अधिक हो और हम उसे प्राप्त नहीं कर पाएं तो उससे हमारे अंदर जो खेद खिन्नता आती हैं उसी का नाम दुःख हैं।


Manish Jain Luhadia 
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#2

The objects that the senses (of touch, taste, smell, sight, and hearing) know are physical matter. Moreover, the senses are unable to apprehend these objects simultaneously.

Explanatory Note: 
The five senses of touch (sparśana), taste (rasana), smell (ghrāna), sight (caksu), and hearing (śrotra, karna) comprehend their respective sense-objects one by one; these cannot comprehend the sense-objects collectively. The reason is that the knowledge (jñāna) that arises on the destruction-cum-subsidence (ksayopaśama) of the knowledge-obscuring (jñānāvaranīya) karmas operates sequentially. The crow has two eyes with a single eyeball that moves extremely fast to the operational eye; to the onlooker it appears that it has two eyes with independent eyeballs. The crow cannot see with two eyes at the same time. The same is the state of the knowledge (jñāna) that arises on the destruction-cum-subsidence (ksayopaśama) of the knowledge-obscuring (jñānāvaranīya) karmas. It cannot know through all the five senses simultaneously. At any particular time, it operates through a single sense; all five senses cannot operate simultaneously. Knowledge through the senses, therefore, is indirect, dependent, and worthy of rejection.
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#3

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -55,56

है अमूर्त यह किन्तु मूर्तिगत है अनादि से इसीलिये ।।
जाया करता मूर्त चीजको यथायोग्य व्यवधान किये।

स्पर्श और रसगन्धवर्ण या शब्दरुप पुद्गल क्रमसे ।
जाती जाया करती किन्तु न एक साथ इन्द्रिय श्रमसे २८



गाथा -55,56
सारांश: – यह चेतना लक्षण वाला आत्मा यदि अपने स्वभाव में आजावे तब तो बिलकुल अमूर्त है। आकाश के समान किसी से भी बाँधा हुआ बँध नहीं सकता। जल में गल नहीं सकता। अग्नि से जल नहीं सकता और हवा से सुख नहीं सकता है किन्तु यह तो अनादिकाल से मूर्त्तिमान् पुद्गलके साथ में घुलमिल रहा है। अपने आपमें न होकर मूर्त्तपन धारण किये हुए है अत: इस मूर्त शरीरगत स्पर्शनादि इन्द्रियों द्वारा मूर्त पदार्थ को ही अवग्रहादिक के रूपमें कुछ कुछ जानता रहता है। ऐसा जानना, इस विश्वप्रकाशक आत्मा प्रभु के लिए न जानने के समान ही है। स्पर्शन इन्द्रियके द्वारा स्पर्श का, जीभ के द्वारा रसका, नाक से गंध का, आँख से रूपका और कान से शब्दरूप पुद्गल का स्थूल ज्ञान होता है। यह भी एक साथ न होकर क्रमपूर्वक होता है। जिस समय रूप को देखता है, उस समय रसको  नहीं चख सकता है। जिस समय रस को चखता है, उस समय गंध को नहीं सूंघ सकता है अर्थात् एक समय में एक ही इन्द्रियके विषय का ज्ञान कर सकता है।


शङ्काः—जब हम आम चूसते हैं तब जीभसे उसके रसको, नाकसे उसको गंधको, हाथसे उसके स्पर्शको और आँख से उसके रूपको एकसाथ हो तो जानते हैं?
उत्तर:- स्थूल दृष्टि से तुम कह रहे हो वैसा ही है परन्तु यदि गंभीरता के साथ विचार कर देखें तो वहाँ समय का भेद बना हुआ रहता है। जैसे किसी मनुष्य ने सैकड़ों पानों के समूहमें बड़े वेग के साथ सूई चुभी दी, जिससे उन सब पानों में छेद हो गया। तब हम लोग कहते हैं कि इसने एक ही साथ इन सब पानों में छेद कर दिया है। वास्तवमें  देखा जाये तो छेद, उन पत्तों में एकसाथ न होकर क्रमपूर्वक ही हुआ है। इसी प्रकार इन्द्रिय ज्ञान को प्रवृत्ति भी भिन्न भिन्न इन्द्रियों के विषयों में क्रम पूर्वक ही होती है। इन्द्रियों के द्वारा जो ज्ञान होता है, वह परोक्ष ज्ञान होता है.
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