08-25-2022, 08:12 AM
श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -57 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -59 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
परदव्वं ते अक्खा णेव सहावो ति अप्पणो भणिदा।
उवलद्धं तेहि कधं पञ्चक्खं अप्पणो होदि // 57 //
आगे इंद्रियज्ञान प्रत्यक्ष नहीं है, ऐसा निश्चित करते हैं-[आत्मनः ] आत्माका [स्वभावः] चेतनास्वभाव [नैव ] उन इन्द्रियोंमें [ नैव ] नहीं है, [ इति ] इसलिये [ तानि अक्षाणि ] वे स्पर्शनादि इन्द्रियाँ [परद्रव्यं] अन्य पुद्गलद्रव्य [भणितानि ] कही गई हैं। [:] उन इंद्रियोंसे [उपलब्धं ] प्राप्त हुए (जाने हुए) पदार्थ [आत्मनः] आत्माके [कथं कैसे [ प्रत्यक्ष ] प्रत्यक्ष [भवति] होवें ? कभी नहीं होवें।
भावार्थ-आत्मा चैतन्यस्वरूप है, और द्रव्येन्द्रियाँ जड़स्वरूप हैं / इन इन्द्रियोंके द्वारा जाना हुआ पदार्थ प्रत्यक्ष नहीं हो सकता, क्योंकि पराधीनतासे रहित आत्माके आधीन जो ज्ञान है, उसे ही प्रत्यक्ष कहते हैं, और यह इंद्रियज्ञान पुद्गलकी इंद्रियोंके द्वारा उनके आधीन होकर पदार्थको जानता है, इस कारण परोक्ष है तथा पराधीन है / ऐसे ज्ञानको प्रत्यक्ष नहीं कह सकते
गाथा -58 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -60 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
जं परदो विण्णाणं तं तु परोक्खं ति भणिदमढेसु /
जदि केवलेण णादं हवदि हि जीवेण पञ्चक्खं // 58 //
आगे परोक्ष और प्रत्यक्षका लक्षण दिखाते हैं-[यत् ] जो [परतः ] परकी सहायतासे [अर्थेषु ] पदार्थोंमें [विज्ञानं ] विशेष ज्ञान उत्पन्न होवे, [तत् ] वह [परोक्षं] परोक्ष है, [इति भणितं ] ऐसा कहा है / [तु] परंतु [ यदि ] जो [ केवलेन] परकी सहायता विना अपने आप ही [जीवेन] आत्माकर [हि] निश्चयसे [ज्ञातं] जाना जावे, [तदा] तो वह [प्रत्यक्ष] प्रत्यक्षज्ञान [ भवति] है।
भावार्थ-जो ज्ञान मनसे, पाँच इंद्रियोंसे, परोपदेशसे, क्षयोपशमसे, पूर्वके अभ्याससे और सूर्यादिकके प्रकाशसे उत्पन्न होता है, उसे परोक्षज्ञान कहते हैं, क्योंकि यह ज्ञान इन्द्रियादिक परद्रव्य स्वरूप निमित्तोंसे उत्पन्न होता है, औरपरजनित होनेसे पराधीन है। परंतु जो ज्ञान, मन इन्द्रियादिक परद्रव्योंकी सहायताके विना केवल आत्माकी ही सहायतासे उत्पन्न होता है, तथा एक ही समयमें सब द्रव्य पर्यायोंको जानता है, उसे प्रत्यक्षज्ञान कहते हैं, क्योंकि वह केवल आत्माके आधीन है, यही महा प्रत्यक्षज्ञान आत्मीकस्वाभाविक सुखका साधन माना है
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार गाथा - 57, 58
गाथा 57
अन्वयार्थ - (ते अक्खा) वे इन्द्रियाँ (परदव्वं) पर द्रव्य हैं (अप्पणो सहावो त्ति) आत्मस्वभाव रूप (णेव भणिदा) नहीं कहा है, (तेहि) उनके द्वारा (उवलद्धं) ज्ञात (अप्पणी) आत्मा का (पच्चक्खं) प्रत्यक्ष (कधं हवदि) कैसे हो सकता है?
गाथा 57- इन्द्रियाँ पर द्रव्य हैं ,ये इन्द्रियाँ आत्मा का स्वभाव नही है ,आत्मा का स्वभाव ज्ञान औऱ दर्शन है ,इन्द्रियों के द्वारा जो ज्ञान आत्मा तक जाता हैं वह ज्ञान परोक्ष ज्ञान है ,,आत्मा जो ज्ञान स्व महसूस करे या अतीन्द्रिय ज्ञान ही प्रत्यक्ष ज्ञान हैं अर्थात सुख हैं |
गाथा-58
अन्वयार्थ - (परदो) पर के द्वारा होने वाला (जं) जो (अट्ठेसु विण्णाणं) पदार्थ सम्बन्धी विज्ञान है, (तं तु) वह तो (परोक्ख त्ति भणिदं) परोक्ष कहा गया है, (जदि) यदि (केवलेण जीवेण) मात्र जीव के द्वारा ही (णादं हवदि हि) जाना जाये तो (पच्चक्खं) वह ज्ञान प्रत्यक्ष है।
गाथा-58 जो पर से ज्ञान हो रहा हैं वह परोक्ष है ,जो केवलज्ञान के द्वारा ज्ञान जाना जाता हैं वही जीव का प्रत्यक्ष ज्ञान है ,आत्मा के स्वभाव के अलावा सब पर हैं।
जो पर से ज्ञान हो रहा हैं वह परोक्ष है ,जो केवलज्ञान के द्वारा ज्ञान जाना जाता हैं वही जीव का प्रत्यक्ष ज्ञान है ,आत्मा के स्वभाव के अलावा सब पर हैं।
सच्चा ज्ञान हमेशा सुख देता है,जब भी दुख आये तो समझना वह हमारी अज्ञानता के कारण आया है।इसलिए अज्ञान से दूर रहना चाहिए।
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -57 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -59 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
परदव्वं ते अक्खा णेव सहावो ति अप्पणो भणिदा।
उवलद्धं तेहि कधं पञ्चक्खं अप्पणो होदि // 57 //
आगे इंद्रियज्ञान प्रत्यक्ष नहीं है, ऐसा निश्चित करते हैं-[आत्मनः ] आत्माका [स्वभावः] चेतनास्वभाव [नैव ] उन इन्द्रियोंमें [ नैव ] नहीं है, [ इति ] इसलिये [ तानि अक्षाणि ] वे स्पर्शनादि इन्द्रियाँ [परद्रव्यं] अन्य पुद्गलद्रव्य [भणितानि ] कही गई हैं। [:] उन इंद्रियोंसे [उपलब्धं ] प्राप्त हुए (जाने हुए) पदार्थ [आत्मनः] आत्माके [कथं कैसे [ प्रत्यक्ष ] प्रत्यक्ष [भवति] होवें ? कभी नहीं होवें।
भावार्थ-आत्मा चैतन्यस्वरूप है, और द्रव्येन्द्रियाँ जड़स्वरूप हैं / इन इन्द्रियोंके द्वारा जाना हुआ पदार्थ प्रत्यक्ष नहीं हो सकता, क्योंकि पराधीनतासे रहित आत्माके आधीन जो ज्ञान है, उसे ही प्रत्यक्ष कहते हैं, और यह इंद्रियज्ञान पुद्गलकी इंद्रियोंके द्वारा उनके आधीन होकर पदार्थको जानता है, इस कारण परोक्ष है तथा पराधीन है / ऐसे ज्ञानको प्रत्यक्ष नहीं कह सकते
गाथा -58 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -60 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
जं परदो विण्णाणं तं तु परोक्खं ति भणिदमढेसु /
जदि केवलेण णादं हवदि हि जीवेण पञ्चक्खं // 58 //
आगे परोक्ष और प्रत्यक्षका लक्षण दिखाते हैं-[यत् ] जो [परतः ] परकी सहायतासे [अर्थेषु ] पदार्थोंमें [विज्ञानं ] विशेष ज्ञान उत्पन्न होवे, [तत् ] वह [परोक्षं] परोक्ष है, [इति भणितं ] ऐसा कहा है / [तु] परंतु [ यदि ] जो [ केवलेन] परकी सहायता विना अपने आप ही [जीवेन] आत्माकर [हि] निश्चयसे [ज्ञातं] जाना जावे, [तदा] तो वह [प्रत्यक्ष] प्रत्यक्षज्ञान [ भवति] है।
भावार्थ-जो ज्ञान मनसे, पाँच इंद्रियोंसे, परोपदेशसे, क्षयोपशमसे, पूर्वके अभ्याससे और सूर्यादिकके प्रकाशसे उत्पन्न होता है, उसे परोक्षज्ञान कहते हैं, क्योंकि यह ज्ञान इन्द्रियादिक परद्रव्य स्वरूप निमित्तोंसे उत्पन्न होता है, औरपरजनित होनेसे पराधीन है। परंतु जो ज्ञान, मन इन्द्रियादिक परद्रव्योंकी सहायताके विना केवल आत्माकी ही सहायतासे उत्पन्न होता है, तथा एक ही समयमें सब द्रव्य पर्यायोंको जानता है, उसे प्रत्यक्षज्ञान कहते हैं, क्योंकि वह केवल आत्माके आधीन है, यही महा प्रत्यक्षज्ञान आत्मीकस्वाभाविक सुखका साधन माना है
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार गाथा - 57, 58
गाथा 57
अन्वयार्थ - (ते अक्खा) वे इन्द्रियाँ (परदव्वं) पर द्रव्य हैं (अप्पणो सहावो त्ति) आत्मस्वभाव रूप (णेव भणिदा) नहीं कहा है, (तेहि) उनके द्वारा (उवलद्धं) ज्ञात (अप्पणी) आत्मा का (पच्चक्खं) प्रत्यक्ष (कधं हवदि) कैसे हो सकता है?
गाथा 57- इन्द्रियाँ पर द्रव्य हैं ,ये इन्द्रियाँ आत्मा का स्वभाव नही है ,आत्मा का स्वभाव ज्ञान औऱ दर्शन है ,इन्द्रियों के द्वारा जो ज्ञान आत्मा तक जाता हैं वह ज्ञान परोक्ष ज्ञान है ,,आत्मा जो ज्ञान स्व महसूस करे या अतीन्द्रिय ज्ञान ही प्रत्यक्ष ज्ञान हैं अर्थात सुख हैं |
गाथा-58
अन्वयार्थ - (परदो) पर के द्वारा होने वाला (जं) जो (अट्ठेसु विण्णाणं) पदार्थ सम्बन्धी विज्ञान है, (तं तु) वह तो (परोक्ख त्ति भणिदं) परोक्ष कहा गया है, (जदि) यदि (केवलेण जीवेण) मात्र जीव के द्वारा ही (णादं हवदि हि) जाना जाये तो (पच्चक्खं) वह ज्ञान प्रत्यक्ष है।
गाथा-58 जो पर से ज्ञान हो रहा हैं वह परोक्ष है ,जो केवलज्ञान के द्वारा ज्ञान जाना जाता हैं वही जीव का प्रत्यक्ष ज्ञान है ,आत्मा के स्वभाव के अलावा सब पर हैं।
जो पर से ज्ञान हो रहा हैं वह परोक्ष है ,जो केवलज्ञान के द्वारा ज्ञान जाना जाता हैं वही जीव का प्रत्यक्ष ज्ञान है ,आत्मा के स्वभाव के अलावा सब पर हैं।
सच्चा ज्ञान हमेशा सुख देता है,जब भी दुख आये तो समझना वह हमारी अज्ञानता के कारण आया है।इसलिए अज्ञान से दूर रहना चाहिए।