प्रवचनसारः गाथा -86 - पदार्थों का सम्यक द्रव्य गुण
#1

श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित 
प्रवचनसार

गाथा -86 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -93 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )


जिणसत्थादो अढे पचक्खादीहिं बुज्झदो णियमा।
खीयदि मोहोवचयो तम्हा सत्थं समधिदव्वं // 86 //


आगे मोहका क्षय करनेके लिये अन्य उपायका विचार करते हैं[प्रत्यक्षादिभिः] प्रत्यक्ष, परोक्ष, प्रमाण ज्ञानों करके [जिनशास्त्रात्] वीतराग सर्वज्ञ प्रणीत आगमसे [अर्थान् ] पदार्थोंको [बुध्यमानस्य] जाननेवाले पुरुषके [ नियमात् ] नियमसे [मोहोपचयः] मोहका समूह अर्थात् विपरीतज्ञान व श्रद्धान [क्षीयते] नाशको प्राप्त होता है, [तस्मात् ] इसलिये [शास्त्रं] जिनागमको [समध्येतव्यं अच्छी तरह अध्ययन करना चाहिये। 

भावार्थ-पहले मोहके नाश करनेका उपाय, अहंतके द्रव्य, गुण, पर्यायके जाननेसे आत्माका ज्ञान होना बतलाया है, परंतु वह उपाय दूसरे उपायको भी चाहता है, क्योंकि अर्हतके द्रव्य, गुण• पर्यायका ज्ञान जिनागमके विना नहीं होता / इसलिये जिनागम मोहके नाशमें एक बलवान् उपाय है, जिन भव्यजीवोंने पहले ही ज्ञान-भूमिकामें गमन किया है, वे कुनयोंसे अखंडित जिनप्रणीत आगमको प्रमाण करके क्रीड़ा करते हैं / जिनागमके बलसे उनके आत्म-ज्ञान-शक्तिरूप संपदा प्रगट होती है / तथा प्रत्यक्ष परोक्ष ज्ञानसे सब वस्तुओंके ज्ञाता द्रष्टा होते हैं, और तभी उनके यथार्थ ज्ञानसे मोहका नाश होता है / इसलिये मोहनाशके उपायोंमें शास्त्ररूप शब्द-ब्रह्मकी सेवा करना योग्य है / भावश्रुत ज्ञानके बलसे दृढ़ परिणाम करके आगम-पाठका अभ्यास करना, यह बड़ा उपाय है 

मुनि श्री प्रणम्य सागर जी  प्रवचनसार गाथा 86 

प्रत्यक्ष आदि अनुमान प्रमाण द्वारा , जाने पदार्थ जिन आगम भान द्वारा ।
तो नाश मोह उसका अनिवार्य होता , सद्शास्त्र का मनन तू कर आर्य श्रोता ॥


अन्वयार्थ - ( जिणसत्थादो ) जिनशास्त्र द्वारा ( पच्चक्खादीहिं ) प्रत्यक्षादि प्रमाणों से ( अद्वे ) पदार्थों को ( बुज्झदो ) जानने वाले के ( णियमा ) नियम से ( मोहोपचयं ) मोह समूह ( खीयदि ) क्षय हो जाता है , ( तम्हा ) इसलिये ( सत्थं ) शास्त्र का ( समधिदव्वं ) सम्यक् प्रकार से अध्ययन करना चाहिए ।




Manish Jain Luhadia 
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#2

The man who acquires through the study of the Scripture expounded by the Omniscient Lord valid knowledge (pramāna) –
direct (pratyaksa) and other – of the reality of substances destroys, as a rule, the heap of delusion (moha). It is imperative,
therefore, to study the Scripture meticulously.

Explanatory Note: Earlier, it was made clear that to destroy delusion (moha) one must realize the nature of the soul through the knowledge of the Arhat with respect to substance (dravya), qualities (guna), and modes (paryāya). But how to know the Arhat with respect to substance (dravya), qualities (guna), and modes (paryāya)? The knowledge of the Arhat is acquired with the help of the Scripture. In other words, the Scripture is a powerful tool to destroy delusion (moha). Those who venture in the field of knowledge turn to the incontrovertible Scripture expounded by the Omniscient Lord; only such Scripture is free from faulty expressions and conclusions. By the strength of the Scripture, one develops the wealth of knowledge about the nature of the soul. Through acquisition of direct (pratyaksa) and indirect (paroksa)
knowledge, one knows and sees all objects; acquisition of such knowledge results in the destruction of delusion (moha). In order to destroy delusion (moha), one must, therefore, attend to and assimilate the knowledge contained in the Scripture. Relying on the soul’s inherent knowledge-strength, one must incessantly, and with determination, practise the study of the Scripture.
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#3

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -85,86

तत्वोंका अयथार्थ समादर नर पशुओं पर निर्दयता
भोगोंमें आसक्तिभाव भी जहाँ मोहकी समर्थता
जिनशासन के पढ़ने से गुणपर्यययुत तत्वार्थमति
होकर मोहनाश हो ऐसे शास्त्र पठनकी सुसङ्गति ॥ ४३ ॥


सारांश:- जो वस्तु के स्वरूप को ठीक तरह से न समझकर और का और ही समझता हो, मनुष्य और तिर्यचों पर निर्दयता रखता हो, बिना मतलब ही उन्हें कष्ट देने में तत्पर रहता हो, कफमें फैसी हुई मक्खी की तरह विषय भोगों में अत्यन्त आसक्ति रखता हो, वह मोही जीव होता है, ऐसा समझना चाहिये। उक्त तीनों बातें मोह की पहिचान हैं। यदि इन तीनों में से एक भी हो तो वहाँ मोह (मिथ्यात्व) का होना अवश्यंभावी है और तीनों ही हों तब तो कहना ही क्या है? अतः मोह को दूर करने का उपाय करना चाहिए। इसके लिए निरन्तर जैनागम का अभ्यास करना चाहिए, यही एक उसका समुचित उपाय है।

(१) तत्व की अन्यथा प्रतिपत्ति तो मिथ्यात्व का, नर पशुओं पर करुणा का न होना, द्वेष का और विषयों में आसक्ति का होना, राग का चिह्न है। ये सब तीनों, मोह के चिह्न हैं। ऐसा अर्थ भी इस गाथा नं० ८५ का किया जा सकता है किन्तु करुणा का होना, मोह का चिह्न है ऐसा अर्थ तो किसी भी तरह समझमें नहीं आता है क्योंकि स्वयं कुन्दकुन्द स्वामी ने हो करुणा को 'धम्मो दयाविशुद्धो' आदि बोधपाहुडकी गाथा नं० २५ आदि में धर्म बताया है।


यहाँ पर मूल ग्रंथकार ने मोह होने का दूसरा चिह्न “करुणाभावो य तिरियमणुएसु" बताया। है इसका अर्थ अमृतचन्द्राचार्य कृत टोकामे 'तिर्यमनुधषु प्रेक्षाष्वपि कारुण्यबुद्धि' अर्थात् पशु और मनुष्यों पर भी दयाबुद्धि का होना, मोह (मिथ्यात्व) के सद्भावका दूसरा चिह्न है, ऐसा लिखा है। इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि मनुष्य एवं पशुओं पर दया करनेवाला जीव मोही मिथ्यादृष्टि घोर पापी बहिरात्मा होता है। यह ऐसा अर्थ सम्पूर्ण जैनागमके विरुद्ध पड़ता है।

श्री अमृतचन्द्राचार्य जैसे मान्य विद्वान्‌की हुई टीकामें यह अर्थ कैसे है? स्वयं टीकाकारके ही लेखन प्रमाद से ऐसा अर्थ हुआ है या उनके बाद के किसी लेखक महाशय की कृपासे ऐसा होगया है, यह हम नहीं कह सकते हैं। ऐसा अर्थ श्री अमृतचन्द्राचार्यके बहुत समयके बादमें होनेवाले तात्पर्यवृत्तिकार श्री जयसेनस्वामीजी को भी अवश्य खटका है। इसीलिए उन्होंने अपनी कलमसे 'करुणाभावों' का अर्थ शुद्धात्मोपलब्धिलक्षणपरोक्षास दमाद्विपरीत करुणाभावोदयापरिणामोऽथवा व्यवहारेण करुणाया अभावश्च' इसप्रकार लिखा है।

जयसेनाचार्यजी कहते हैं कि निश्चयनय से तो दया करना ही उपेक्षा संयम से विपरीत होने के कारण मोह का चिह्न है। व्यवहारनयसे  देखा जावे तो दया का न करना ही मोह का चिह्न है। इस प्रकार लिख कर सङ्गति बिठाने की चेष्टा की है, फिर भी इसमें सफल नहीं हो सके हैं क्योंकि यहाँ मोह शब्द से दर्शनमोह को ही लिया गया है। दयालुता दर्शनमोह का लक्षण कभी भी नहीं माना जा सकता है। आंशिक चारित्रमोह का लक्षण कहा जा सकता है।
यदि यह कहा जावे कि निश्चयनय में चारित्रमोह और दर्शनमोह भिन्न भिन्न कहाँ हैं? जब भिन्न भिन्न नहीं हैं तो चारित्रमोहका लक्षण ही दर्शनमोहका लक्षण है इसलिये ऐसा कहना भी नहीं बन सकता है क्योंकि यहाँ ग्रन्थकार ने दर्शनमोह (मिथ्यात्व) और चारित्रमोह (राग द्वेष) को स्पष्टरूपसे भिन्न भिन्न बताया है। अतः यह मानना चाहिए कि ग्रंथकर्ता का यह सब वर्णन व्यवहारनयको  लेकर ही है। इसीका समर्थन ग्रंथकार को आगेवाली ८६ वीं गाथासे और भी स्पष्टरूपमें मिल रहा है। अतः करुणाभाव का अर्थ निर्दयता (क्रूरता) लेना हो ठीक है। ग्रंथकार कहते हैं कि जिसप्र कार विपरीताभिनिवेश, मिथ्यादर्शनके सद्भावको बतलाता है वैसे ही क्रूरता (संकल्पी हिंसा, शिकार खेलना, मांस खाना आदि) भी मिथ्यादर्शनके बिना नहीं हो सकती है।

शङ्काः – करुणा के अभाव को मिध्यादर्शनका चिह्न (लक्षण) कहने पर वीतरागियों के मिथ्यादर्शन – होने का प्रसंग आ जाता है क्योंकि वहाँ करुणा (दयारूप परिणाम) का अभाव है।

उत्तर:- 'दुःख प्रतिकरण लक्षणं कारुण्यं' अर्थात् होते हुए दुःखको न होने देना, उसे हटा देना ही कारुण्य हैं। ऐसी दशा में वीतरागियों की आत्मा में कारुण्य का सद्भाव नहीं है, यह बात ही गलत है क्योंकि वीतरागियों ने अपनी आत्मा में होनेवाले दुःख का तो मूलोच्छेद ही कर दिया है एवं औरों के भी दुःख को हटाने के लिए भी वे परमादर्श बने हुए हैं, ऐसा समझना चाहिये।
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