प्रवचनसार: ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा -1 उत्पादादिका क्षणभेद हटाकर द्रव्यत्व का द्योतन
#1

श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार : ज्ञेयतत्त्वाधिकार

गाथा -102 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )

तम्हा तस्स णमाइं किच्चा णिचं पि तम्मणो होज्ज /
वोच्छामि संगहादो परमहविणिच्छयाधिगमं // *1 //



गाथा -1 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -103 (आचार्य प्रभाचंद्र  की टीका अनुसार )
अत्थो खलु दव्यमओ दव्वाणि गुणप्पगाणि भणिदाणि /
तेहिं पुणो पज्जाया पन्जयमूढा हि परसमया // 1 //


आगे ज्ञेयतत्त्वका कथन करते हुए उसमें भी पहले पदार्थोंको द्रव्य, गुण, पर्याय, स्वरूप कहते हैं-[खल] निश्चयसे [अर्थः [ ज्ञेयपदार्थ [ द्रव्यमयः] सामान्य स्वरूप वस्तुमय है [तु] तथा [द्रव्याणि] समस्त द्रव्य [गुणात्मकानि] अनन्तगुण स्वरूप [ भणितानि ] कहे हैं / [पुनः और [तैः] उन द्रव्य गुणोंके परिणमन करनेसे [पर्यायाः ] पर्याय हैं, अर्थात् द्रव्यपर्याय और गुणपर्याय ये दो भेद सहित पर्याय हैं, और [पर्ययमूढा] अशुद्ध पर्यायोंमें मूढ़ अर्थात् आत्मबुद्धिसे पर्यायको ही द्रव्य माननेवाले अज्ञानी [हि] निश्चयकर [परसमयाः] मिथ्यादृष्टि हैं / 

भावार्थ-जितने ज्ञेयपदार्थ हैं, वे समस्त गुण पर्याय सहित हैं, इसलिये द्रव्य एक आधारभूत अनन्तगुणस्वरूप है / गुणका नाम विस्तार है, और पर्यायका नाम आयत है। विस्तार चौड़ाईको कहते हैं, और आयत लम्बाईको कहते हैं / गुण चौड़ाईरूप अविनाशी सदा सहभूत ( साथ रहनेवाले ) हैं. और पर्याय लम्बाईरूप हैं जिससे कि अतीत अनागत वर्तमान कालमें क्रमवर्ती हैं। पर्यायके दो भेद हैं-एक द्रव्यपर्याय और दूसरे गुणपर्याय / इनमेंसे अशुद्ध द्रव्यपर्यायका लक्षण कहते हैं कालके क्रमसे नाना प्रकारसे परिणमन होनेसे एक अनेकता लिये शुक्लादि गुणोंका गुणस्वरूप स्वभावपर्याय है, उसी प्रकार सभी द्रव्योंमें सूक्ष्म अपने अपने अगुरुलघुगुणोंसे समय समय षट्गुणी हानि वृद्धिसे नाना स्वभावगुणपर्याय हैं। और जैसे वस्त्रमें अन्य द्रव्यके संयोगसे वर्णादि गुणोंकी कृष्ण पीततादि भेदोंसे पूर्व उत्तर अवस्थामें हीन अधिकरूप विभावगुणपर्याय होते हैं, उसी प्रकार पुद्गलमें वर्णादि गुणोंकी तथा आत्मामें ज्ञानादि गुणोंकी परसंयोगसे पूर्व उत्तर (पहली-आगेकी) अवस्थामें हीन अधिक विभावगुणपर्याय हैं / इस प्रकार संपूर्ण द्रव्योंके गुणपर्यायोंको भगवानकी वाणी ही दिखलानेमें समर्थ है, अन्यमती नहीं दिखा सकते / क्योंकि वे सब एक नयका ही अवलंबन लेते हैं, और एक नयसे सब द्रव्य, गुण, पर्यायके स्वरूप नहीं कहे जा सकते / ऐसे अनेक जीव अशुद्ध पर्याय मात्रका अवलंबन करते हुए मिथ्या मोहको प्राप्त होकर परसमयी होते हैं

मुनि श्री प्रणम्य सागर जी  प्रवचनसार


Manish Jain Luhadia 
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#2

Certainly, all objects-of-knowledge (jñeya) are substances (dravya) having existence as their general nature. All substances (dravya) have qualities (guna) and due to transformation in substance and qualities, modes (paryāya) exist; thus, modes (paryāya) are of two kinds: mode-of-substance (dravyaparyāya) and mode-of-qualities (gunaparyāya). Those who mistake the mode (paryāya) for the substance (dravya) are wrong-believers (mithyādrsti).

Explanatory Note: All objects-of-knowledge (jñeya) have both, qualities (guna) and modes (paryāya). The substance (dravya) is the substratum comprising infinite qualities (guna). Qualities (guna) exhibit eternal association (anvaya) with the substance.
Modes (paryāya) exhibit distinction (vyatireka) and change sequentially in the three times, the past, the present and the future. Modes are of two kinds: mode-of-substance (dravyaparyāya) and mode-of-qualities (gunaparyāya). The impure modeof- substance (dravyaparyāya) is the mode obtained on the union of multiple substances. The mode-of-substance (dravyaparyāya) is of two kinds: 
1) samānajātīya dravyaparyāya – by the union of atoms of the same class of substance, like different kinds of physical matter, 
 2) asamānajātīya dravyaparyāya – by the union of different classes of substances, like the humans, and the celestial beings. 
The mode-of-qualities (gunaparyāya), too, is of two kinds:
1) svabhāva gunaparyāya – as the substance of soul (jīva) transforms with its intrinsic agurulaghuguõa, which manifests in
satgunahanivrddhi, and 
2) vibhāva gunaparyāya – as the quality of knowledge in the substance of the soul (jīva) becomes less or more due to association with the matter (pudgala).

As illustration, the cloth is one with its quality (guna), like whiteness, and mode (paryāya); in the same way, the substance
(dravya) is one with its quality (gunõa), and mode (paryāya). Union of threads of the same kind in the cloth makes the samānajātīya dravyaparyāya; in the same way, union of atoms of the same class of matter (pudgala) makes the samānajātīya dravyaparyāya.
Union of threads of different kinds (cotton and silk) in the cloth makes the asamānajātīya dravyaparyāya; in the same way, union of the soul (jīva) and the matter (pudgala), which results in the impure states of the soul – like the humans or the celestial beings (deva) – makes the asamānajātīya dravyaparyāya.
As the cloth, due to its intrinsic agurulaghuguõa, which manifests in satgunahanivrddhi, has the quality like whiteness,
similarly, all substances (dravya) have their natural mode-ofqualities – svabhāva guõaparyāya. As the cloth, due to union with other substances, exhibits sequentially – before and after – changes in quality (guna) like whiteness, similarly, all substances (dravya), due to union with other substances, exhibit such changes in quality (guna). These are their unnatural mode-of-qualities – vibhāva guõaparyāya. In the matter (pudgala), sequential changes take place in qualities like colour, and in the soul (jīva), sequential changes take place in knowledge, due to union withother substances; these are unnatural mode-of-qualities – vibhāva gunaparyāya. Since every substance (dravya) has infinite number of qualities (guna) and modes (paryāya), only the Words of the Omniscient Lord Jina are able to expound these. Those who rely on absolutistic point-of-view cannot expound such complexities. People who rely solely on the impure states of substances are under delusion and are wrong-believers (mithyādrsti).
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#3

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

२ - ज्ञेयाधिकार

जो वस्तु ज्ञानका विषय हो उसे ज्ञेय कहते हैं। वह वस्तु गुण और पर्यायात्मक होती है, ऐसा न मानकर जो पर्याय मात्रको मानता हो वह पर समय होता है, ऐसा यहाँ बताते हैं


गाथा -1,2
बोधका विषय वस्तु गुणी गुणपर्यय वाला होता है ।
जो केवल पर्याय बुद्धि परसमय वही सुख खोता है ॥
नरपर्ययादिमय हो अपने को माने परसमय वहीं ।
रागरोषसे हीन हुआ आत्मस्वभाव निजसमय सही ॥ १ ॥

सारांश:- ज्ञानके द्वारा जानने योग्य वस्तु गुण पर्यायात्मक होती है। यह अपने आपमें सदाके लिए अनेक गुणोंको लिये हुए उनका अखण्ड पिण्ड स्वरूप होती है। प्रत्येक गुण भी अपने आपमें निरन्तर एकके बाद एकरूपसे उत्पन्न होनेवाली पर्यायोंमें किसी न किसी एक पर्यायकी अवस्थाको लिये हुए हर समय बना रहता है। ऐसा पहिले बता चुके हैं। इसका यह अर्थ होता है कि हरएक ही वस्तु तात्कालिक होकर भी शाश्वत है। उस वस्तु के भूत और भविष्यत्को बिलकुल भी याद न रखकर केवल वर्तमान अवस्था मात्रको ही स्वीकार करनेवाला मोही (भूल करनेवाला अज्ञानी) जीव होता है।
वह मूढ अपनी मूढताके कारण जिस समय जैसी अवस्था धारण करता है उस समय अपने आपको वैसा ही मान बैठता है। मनुष्य शरीर धारण करने पर अपने आपको मनुष्य तथा पशु शरीर धारण करने पर अपने आपको पशु ही समझा करता है। मनुष्यता और पशुता न तो केवल जीवकी ही अवस्था है और न केवल अजीव कहलानेवाले पुद्गल द्रव्यकी ही अवस्था है। यह तो जीव और पुद्गल इन दोनों की संयोगी अवस्था होती है।

जो जीव अपनेको मनुष्य या पशु मानता है वह पर (पुद्गल) को आप और आप (जीव) को पर (पुद्गल) माननेवाला होनेसे परसमय होता है। किन्तु इसके विपरीत अपने शरीर तथा शरीरसे संबंधित अन्य पदार्थोंके प्रति रहनेवाले अहंकार ममकार भावसे सर्वथा रहित होकर अपने आपको शुद्ध बुद्ध सच्चिदानन्दरूप अनुभव करनेवाला जीव स्वसमय होता है। स्वसमय तथा परसमय ये दोनों ही तादृश विश्वास एवं तदनुरूप चेष्टासे घटित होते हैं।

घोर मिथ्यात्वके वशमें रहनेसे जो आत्मा की शुद्धताको किसी भी तरह स्वीकार ही न करता हो, कोई भी आत्मा स्त्री पुत्र धन धान्यादि बाह्य निमित्तोंके कारण प्रस्फुटित होनेवाले मोह रागद्वेषादि विकारी भावोंको बिलकुल भी न होने देकर केवल ज्ञानघन एवं शरीर रहित होगया हो या हो सकता हो, इस बातको माननेके लिए भी तैयार न हो किन्तु श्वासादियुक्त जो यह चलता फिरता शरीर है इसीका नाम आत्मा या जीव है और जबतक यह है तबतक अपनी आवश्यकताओंको प्रयत्नपूर्वक यथासाध्य पूरी करना ही इसका एक कार्य है। ऐसी धारणा रखने वाला जीव परसमय कहा जाता है।

जो अपनी आत्माको जड शरीरसे भिन्न, नित्य, ज्ञानमय तथा शरीरको उसका निवासस्थान समझ चुका हो और शरीरके साथ ममत्व होनेके कारण उत्पन्न होनेवाली अनेक प्रकार की आवश्यकताओंको निस्सार जानकर उन पर भी पूर्ण विजय पा चुका हो, यथार्थ वीतराग दशा पर पहुंच गया हो वह हम लोगोंसे पूज्य स्वसमय होता है।

शेष चतुर्थादि गुणस्थानवर्ती सराग सम्यग्दृष्टि व्यक्ति विश्वासमें तो स्वसमय बन चुका है परन्तु व्यवहारमें परसमय को छोड़कर स्वसमय बन चुका हो, ऐसी बात नहीं है। व्यवहारमें यथासंभव अपने पिताको पिता, माताको माता और भाईको भाई आदि मानता है। द्रव्यलिंगी मुनिकी दशा इससे विपरीत होती है। यह अपने व्यवहारमें तो किसीको भी नहीं अपनाता हैं परन्तु श्रद्धानमें उसका लगाव संसारकी बातोंके प्रति बना ही रहता है। इसप्रकार स्वसमय तथा परसमयको बताकर आगे द्रव्यका लक्षण कहते हैं
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