03-16-2016, 10:25 AM
तत्वार्थ सूत्र(मोक्ष शास्त्र जी ) अध्याय ६- आस्रव (आचर्यश्री उमास्वामी जी रचित)
तत्वार्थ सूत्र(मोक्ष शास्त्र जी )
(आचर्यश्री उमास्वामी जी रचित)
अध्याय ६- आस्रव
आचार्य उमास्वामी जी की जय
पंचपरमेष्ठी की जय !
विश्व धर्म "जैन धर्म" की जय !
'मोक्षमार्गस्य नेतराम ,भेतारं कर्मभूभृतां !
ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां,वन्दे तद्गुणलब्द्धये' !!
सभी धर्मानुरागी बंधुओं/बहिनो से विनम्र निवेदन है कि,इस अध्याय में"आस्रव",तीसरे तत्व के २७ सूत्रों का मनोयोग से दत्तचित्त होकर स्वाध्याय करे;उनका चिंतवन/मनन कर,अपने जीवन में अंगीकार करे,जिससे आप कर्मों केआस्रव/बंधके कारणों को हृदयांगम कर, उससे बचने की दिशा में पुरुषार्थ कर,न्यूनतम कर्मों का आस्रव/बंध कर अपने सांसारिक और आध्यात्मिक जीवन का उत्थान कर सके!
आस्रव-जो शरीर,वचन अथवा मन की क्रिया से आत्म प्रदेशों में परिस्पंदन होता है उसे योग कहते है!योगो की प्रवृत्ति से आत्मप्रदेशों में कर्मों का आस्रव होता है,कर्मों के आत्मप्रदेशों में आगमन को आस्रव कहते है!शुभ और अशुभ योग से क्रमश; दोनों प्रकार शुभ और अशुभ कर्मों का आस्रव होता है,जिस योग की प्रधानता होती है उसके अधिक और दुसरे के कम कर्म बंधते है!हमारे आत्मप्रदेशों में ही कर्मवर्गणाये,पुद्गल वर्गणाओं रूप में रहती है,जैसे ही हम मन,वचन,अथवा काय से कोई क्रिया करते है वे कर्माणपुद्गल वर्गणाए,आत्मप्रदेशों में परिस्पन्द करने से कर्म रूप बंध जाती है!यह समस्त क्रिया बंध और आस्रव है,कर्मों का आस्रव-बंध एक ही समय युगपत् होता है!
इस अध्याय में उमास्वामी आचार्यश्री २७ सूत्रों के माध्यम से तीसरे 'आस्रव' तत्व के कारणों, उस के भेद,जीवाधिकरण,अजीवाधिकरण और अष्ट कर्मों के आस्रवों के कारणों पर उपदेश देते हुए प्रथम सूत्र में योग को परिभाषित करते है-
आस्रव क्यों होता है-
कायवाड.मन:कर्मयोग: !!१!!
संधिविच्छेद:-काय+वाड.+मन:+कर्म+योग:
शब्दार्थ:-काय-शरीर,वाड.-वचन,मन:-मन की,कर्म-क्रिया,योग:-योग है!
अर्थ-काय-शरीर ,वचन और मन की क्रिया योग है
भावार्थ-शरीर,वचन अथवा मन की क्रिया से आत्मप्रदेशों में परिस्पंदन(हलन-चलन,/संकोच-विस्तार) को योग कहते है!योग के निमित्त,सामान्य से ३ और विशेष से १५ है!
आत्मप्रदेशों में परिस्पंदन काया,वचन और मन की,क्रिया से क्रमश: काययोग, वचनयोग और मनोयोग कहलाता है!
काययोग-वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोपशम से होने पर औदारिकादि;सात प्रकार की कायवर्गणाओं में से किसी एक वर्गणा की सहायता से जो आत्मप्रदेशों में परिस्पंदन होता है,उसे काययोग कहते है !
काययोग के भेद:-सात-१-औदारिक,२-औदारिकमिश्र,३-वैक्रियिक,४-वैक्रियिकमिश्र,५-आहारक,६-आहरकमिश्र तथा ७-कार्मण काययोग!
स्पर्शन,रसना,घ्राण,चक्षु और श्रोत पंचेन्द्रियां भी काय में ही गर्भित है !
वचनयोग-वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोपशम होने से जीव में वाग्लाबधि प्रकट होती है और वह बोलने के लिए ततपर होता है,तब वचनमर्गणा के निमित्त से जो आत्मप्रदेशों में परिस्पंदन होता है उसे वचन योग कहते है !
वचनयोग के भेद:-चार;
१-सत्यवचनयोग- वचनों में सत्यत्व हो,२-असत्यवचनयोग-वचनों में असत्यत्व हो,३-उभयवचनयोग-वचनों में सत्यत्व और असत्यत्व दोनों हो ,तथा४- अनुभयवचनयोग-वचनों में सत्यत्व और असत्यत्व दोनों ही नही हो और
मनोयोग वीर्यान्तरायकर्म और नो इन्द्रयावरणकर्म के क्षयोपशम से मनोलब्धि के होने पर तथा मनो वर्गणा के आलंबन के निमित्त से,जीव के चिंतन के लिए ततपर,आत्म प्रदेशों में परिस्पंदन होता है,वह मनोयोग कहलाता है
मनोयोग के भेद:-चार;
१-सत्यमनोयोग-मन में सत्यत्व ,२-असत्यमनोयोग -होमन में असत्यत्व हो,३-उभयमनोयोग-मन में सत्यत्व और असत्यत्व दोनों हो ,४-अनुभयमनोयोग-मन में सत्यत्व और असत्यत्व दोनों ही नही हो इस प्रकार तीनो;,काय,वचन और मन,योगो के कुल १५ उत्तर भेद है!
विशेष
१-वर्तमान में हमारे चारों मनोयोग,चारों वचनयोग और औदारिक काययोग,कुल ९ में से,एक समय में एक ही योग हो सकता है!हमें भ्रान्ति हो सकती है कि जब हम चलते है,उसी समय बोलते भी है, उसी समय चिंतवन भी करते है,किन्तु वास्तव में ऐसा होना असंभव है!जब मनोयोग,वचनयोग अथवा काययोग का कोई भी एक भेद हो रहा हो तब योग का अन्य कोई भेद नहीं हो सकता!आत्मा का उपयोग जिस ऒर होता है,वही योग होता है अन्य नहीं! जब हम सोचते है,उस समय मनोयोग ही होता है चाहे हम संस्कार वश उसी समय शरीर से भाग भी रहे हो,किन्तु आत्मा का उपयोग उस ऒर नहीं हो रहा होता है, अत: उस समय काययोग नहीं होता है!जब हम टी.वी पर कोई कार्यक्रम देखते है,उस समय हमें चक्षुइंद्री से देखने और कर्ण इंद्री से सुनने की अनुभूति एक साथ होती है किन्तु वास्तव में ऐसा होता नहीं है क्योकि एक समय में हम आत्मा का उपयोग एक ही ऒर लगा सकते है!इस का प्रमाण है कि हम टी.वी.पर प्रवचन सुनते समय उसको निर्विघ्न काय (हाथ)से साथ-साथ लिख नहीं पाते है!
२-केवली भगवन के दो वचन योग:-१-सत्यवचनयोग-वचन सत्य होने के कारण,२-अनुभय वचन योग:-भाषा अनुभय होने के कारण तथा दो मनो योग:-१ सत्यमनोयोग-सत्य वचन बोलने से पहले जो मन का उपयोग सत्य बोलने के लिए हुआ,उस कारण और,२-अनुभय मनोयोग-अनुभय वचन होने के कारण!उनके तीन काययोग होते है!सामान्य से जब वे समवशरण में विराजमान रहते है अथवा विहार करते है तब उनका औदारिक काययोग होता है!उनका दंड-समुदघात में औदारिककाययोग,कपाट समुद घात में औदारिकमिश्र काययोग और प्रतर व लोकपूर्ण समुद्घात में कार्माण काय योग होता है।
विशेष-वीर्यान्तराय और ज्ञानावरण के क्षय होने पर सयोगकेवली के तीन;वर्गणाओं; काय, वचन और मन की अपेक्षा जो आत्म प्रदेश में परिस्पंदन होता है वह कर्म क्षय निमित्तक योग है !जो की १३ वे गुणस्थान तक ही रहता है आयोग केवली के तीनों वर्गणाओं का आगमन रुक जाता है!जिससे वहां योग का अभाव हो जाता है !
३- योग के आठ अंग -
१-यम :-अहिंसा,सत्य ,अस्तेय ,ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह रूप मन वचन काय का संयम यम है !
२-नियम:-शौच ,संतोष,तपस्या। स्वाध्याय,व् ईश्वर प्रणिधान ये नियम है !
३-आसान:-पद्मासन ,वीरासन ,आसान है
४-प्राणायाम -श्वासोच्छ्वास का गति निरोधप्राणायाम है !
५-प्रत्याहार-इन्द्रियों को अंतर्मुखी करना प्रत्याहार है !
६-धारणा -विकल्पपूर्वक किसी एक काल्पनिक ध्येय में चित्त को नष्ट करना धारणा है
७-ध्यान-ध्यान,ध्याता व् ध्येय को एकाग्र प्रवाह ध्यान है !
८-समाधि-ध्यान,ध्याता व ध्येय रहित निवृत्त चित्त समाधि है !
चित्त (मन )की पांच अवस्थाये-
१-क्षिप्तचित्त-चित्त का संसारी विषयो में भटकना !
२-मूढ़चित्त-चित्त का निंद्रा आदि में रहना !
३-विक्षिप्तचित्त-सफलता-असफलता के झूले में झूलना !
४-एकाग्रचित्त-एक ही विषय में केंद्रित रहना !
५-निरुद्धचित्त-समस्त प्रवृत्तियों का रुक जाना !,
४-५ वी अवस्थाये योग के लिए उपयोगी है !
चित्त (मन) के रूप -
१-प्रख्या-अणिमा आदि ऋद्धियों की अनुरक्ति/प्रेमी प्रख्या है
२-प्रवृत्ति-विवेक बुद्धि के जागृत होने पर चित्त धर्ममेय समाधि में स्थित हो जाता है तब पुरुष का बिम्ब चित्त पर पड़ता है और चेतनवत् कार्य करने लगता है!यही चित्त की प्रवृत्ति है !
९-३-१६
तत्वार्थ सूत्र(मोक्ष शास्त्र जी )
(आचर्यश्री उमास्वामी जी रचित)
अध्याय ६- आस्रव
आचार्य उमास्वामी जी की जय
पंचपरमेष्ठी की जय !
विश्व धर्म "जैन धर्म" की जय !
'मोक्षमार्गस्य नेतराम ,भेतारं कर्मभूभृतां !
ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां,वन्दे तद्गुणलब्द्धये' !!
सभी धर्मानुरागी बंधुओं/बहिनो से विनम्र निवेदन है कि,इस अध्याय में"आस्रव",तीसरे तत्व के २७ सूत्रों का मनोयोग से दत्तचित्त होकर स्वाध्याय करे;उनका चिंतवन/मनन कर,अपने जीवन में अंगीकार करे,जिससे आप कर्मों केआस्रव/बंधके कारणों को हृदयांगम कर, उससे बचने की दिशा में पुरुषार्थ कर,न्यूनतम कर्मों का आस्रव/बंध कर अपने सांसारिक और आध्यात्मिक जीवन का उत्थान कर सके!
आस्रव-जो शरीर,वचन अथवा मन की क्रिया से आत्म प्रदेशों में परिस्पंदन होता है उसे योग कहते है!योगो की प्रवृत्ति से आत्मप्रदेशों में कर्मों का आस्रव होता है,कर्मों के आत्मप्रदेशों में आगमन को आस्रव कहते है!शुभ और अशुभ योग से क्रमश; दोनों प्रकार शुभ और अशुभ कर्मों का आस्रव होता है,जिस योग की प्रधानता होती है उसके अधिक और दुसरे के कम कर्म बंधते है!हमारे आत्मप्रदेशों में ही कर्मवर्गणाये,पुद्गल वर्गणाओं रूप में रहती है,जैसे ही हम मन,वचन,अथवा काय से कोई क्रिया करते है वे कर्माणपुद्गल वर्गणाए,आत्मप्रदेशों में परिस्पन्द करने से कर्म रूप बंध जाती है!यह समस्त क्रिया बंध और आस्रव है,कर्मों का आस्रव-बंध एक ही समय युगपत् होता है!
इस अध्याय में उमास्वामी आचार्यश्री २७ सूत्रों के माध्यम से तीसरे 'आस्रव' तत्व के कारणों, उस के भेद,जीवाधिकरण,अजीवाधिकरण और अष्ट कर्मों के आस्रवों के कारणों पर उपदेश देते हुए प्रथम सूत्र में योग को परिभाषित करते है-
आस्रव क्यों होता है-
कायवाड.मन:कर्मयोग: !!१!!
संधिविच्छेद:-काय+वाड.+मन:+कर्म+योग:
शब्दार्थ:-काय-शरीर,वाड.-वचन,मन:-मन की,कर्म-क्रिया,योग:-योग है!
अर्थ-काय-शरीर ,वचन और मन की क्रिया योग है
भावार्थ-शरीर,वचन अथवा मन की क्रिया से आत्मप्रदेशों में परिस्पंदन(हलन-चलन,/संकोच-विस्तार) को योग कहते है!योग के निमित्त,सामान्य से ३ और विशेष से १५ है!
आत्मप्रदेशों में परिस्पंदन काया,वचन और मन की,क्रिया से क्रमश: काययोग, वचनयोग और मनोयोग कहलाता है!
काययोग-वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोपशम से होने पर औदारिकादि;सात प्रकार की कायवर्गणाओं में से किसी एक वर्गणा की सहायता से जो आत्मप्रदेशों में परिस्पंदन होता है,उसे काययोग कहते है !
काययोग के भेद:-सात-१-औदारिक,२-औदारिकमिश्र,३-वैक्रियिक,४-वैक्रियिकमिश्र,५-आहारक,६-आहरकमिश्र तथा ७-कार्मण काययोग!
स्पर्शन,रसना,घ्राण,चक्षु और श्रोत पंचेन्द्रियां भी काय में ही गर्भित है !
वचनयोग-वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोपशम होने से जीव में वाग्लाबधि प्रकट होती है और वह बोलने के लिए ततपर होता है,तब वचनमर्गणा के निमित्त से जो आत्मप्रदेशों में परिस्पंदन होता है उसे वचन योग कहते है !
वचनयोग के भेद:-चार;
१-सत्यवचनयोग- वचनों में सत्यत्व हो,२-असत्यवचनयोग-वचनों में असत्यत्व हो,३-उभयवचनयोग-वचनों में सत्यत्व और असत्यत्व दोनों हो ,तथा४- अनुभयवचनयोग-वचनों में सत्यत्व और असत्यत्व दोनों ही नही हो और
मनोयोग वीर्यान्तरायकर्म और नो इन्द्रयावरणकर्म के क्षयोपशम से मनोलब्धि के होने पर तथा मनो वर्गणा के आलंबन के निमित्त से,जीव के चिंतन के लिए ततपर,आत्म प्रदेशों में परिस्पंदन होता है,वह मनोयोग कहलाता है
मनोयोग के भेद:-चार;
१-सत्यमनोयोग-मन में सत्यत्व ,२-असत्यमनोयोग -होमन में असत्यत्व हो,३-उभयमनोयोग-मन में सत्यत्व और असत्यत्व दोनों हो ,४-अनुभयमनोयोग-मन में सत्यत्व और असत्यत्व दोनों ही नही हो इस प्रकार तीनो;,काय,वचन और मन,योगो के कुल १५ उत्तर भेद है!
विशेष
१-वर्तमान में हमारे चारों मनोयोग,चारों वचनयोग और औदारिक काययोग,कुल ९ में से,एक समय में एक ही योग हो सकता है!हमें भ्रान्ति हो सकती है कि जब हम चलते है,उसी समय बोलते भी है, उसी समय चिंतवन भी करते है,किन्तु वास्तव में ऐसा होना असंभव है!जब मनोयोग,वचनयोग अथवा काययोग का कोई भी एक भेद हो रहा हो तब योग का अन्य कोई भेद नहीं हो सकता!आत्मा का उपयोग जिस ऒर होता है,वही योग होता है अन्य नहीं! जब हम सोचते है,उस समय मनोयोग ही होता है चाहे हम संस्कार वश उसी समय शरीर से भाग भी रहे हो,किन्तु आत्मा का उपयोग उस ऒर नहीं हो रहा होता है, अत: उस समय काययोग नहीं होता है!जब हम टी.वी पर कोई कार्यक्रम देखते है,उस समय हमें चक्षुइंद्री से देखने और कर्ण इंद्री से सुनने की अनुभूति एक साथ होती है किन्तु वास्तव में ऐसा होता नहीं है क्योकि एक समय में हम आत्मा का उपयोग एक ही ऒर लगा सकते है!इस का प्रमाण है कि हम टी.वी.पर प्रवचन सुनते समय उसको निर्विघ्न काय (हाथ)से साथ-साथ लिख नहीं पाते है!
२-केवली भगवन के दो वचन योग:-१-सत्यवचनयोग-वचन सत्य होने के कारण,२-अनुभय वचन योग:-भाषा अनुभय होने के कारण तथा दो मनो योग:-१ सत्यमनोयोग-सत्य वचन बोलने से पहले जो मन का उपयोग सत्य बोलने के लिए हुआ,उस कारण और,२-अनुभय मनोयोग-अनुभय वचन होने के कारण!उनके तीन काययोग होते है!सामान्य से जब वे समवशरण में विराजमान रहते है अथवा विहार करते है तब उनका औदारिक काययोग होता है!उनका दंड-समुदघात में औदारिककाययोग,कपाट समुद घात में औदारिकमिश्र काययोग और प्रतर व लोकपूर्ण समुद्घात में कार्माण काय योग होता है।
विशेष-वीर्यान्तराय और ज्ञानावरण के क्षय होने पर सयोगकेवली के तीन;वर्गणाओं; काय, वचन और मन की अपेक्षा जो आत्म प्रदेश में परिस्पंदन होता है वह कर्म क्षय निमित्तक योग है !जो की १३ वे गुणस्थान तक ही रहता है आयोग केवली के तीनों वर्गणाओं का आगमन रुक जाता है!जिससे वहां योग का अभाव हो जाता है !
३- योग के आठ अंग -
१-यम :-अहिंसा,सत्य ,अस्तेय ,ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह रूप मन वचन काय का संयम यम है !
२-नियम:-शौच ,संतोष,तपस्या। स्वाध्याय,व् ईश्वर प्रणिधान ये नियम है !
३-आसान:-पद्मासन ,वीरासन ,आसान है
४-प्राणायाम -श्वासोच्छ्वास का गति निरोधप्राणायाम है !
५-प्रत्याहार-इन्द्रियों को अंतर्मुखी करना प्रत्याहार है !
६-धारणा -विकल्पपूर्वक किसी एक काल्पनिक ध्येय में चित्त को नष्ट करना धारणा है
७-ध्यान-ध्यान,ध्याता व् ध्येय को एकाग्र प्रवाह ध्यान है !
८-समाधि-ध्यान,ध्याता व ध्येय रहित निवृत्त चित्त समाधि है !
चित्त (मन )की पांच अवस्थाये-
१-क्षिप्तचित्त-चित्त का संसारी विषयो में भटकना !
२-मूढ़चित्त-चित्त का निंद्रा आदि में रहना !
३-विक्षिप्तचित्त-सफलता-असफलता के झूले में झूलना !
४-एकाग्रचित्त-एक ही विषय में केंद्रित रहना !
५-निरुद्धचित्त-समस्त प्रवृत्तियों का रुक जाना !,
४-५ वी अवस्थाये योग के लिए उपयोगी है !
चित्त (मन) के रूप -
१-प्रख्या-अणिमा आदि ऋद्धियों की अनुरक्ति/प्रेमी प्रख्या है
२-प्रवृत्ति-विवेक बुद्धि के जागृत होने पर चित्त धर्ममेय समाधि में स्थित हो जाता है तब पुरुष का बिम्ब चित्त पर पड़ता है और चेतनवत् कार्य करने लगता है!यही चित्त की प्रवृत्ति है !
९-३-१६