02-03-2015, 10:25 AM
क्रोध कषाय -
जीव संसार चक्र में अनादि काल से मुख्यत:चार कषायों क्रोध,मान,माया एवं लोभ के कारण भ्रमण करता आ रहा है!वैसे तो चारों कषाय ही हानिकारक है, साथ साथ ये एक दुसरे में परिवर्तित भी बहुत जल्दी होती है,इनमे से किसी एक को हम तोड़ने में सफल हो जाए तो बाकी स्वत: ही समाप्त हो जाएगी जिससे हमारे मनुष्य जन्म लेने का प्रमुख उद्देश्य पूर्ण होकर हमारी संसार चक्र भंग होकर मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होगा...!
[ltr]साधारणतया मान्यता है कि किसी भी स्वभावत: क्रोधी व्यक्ति को अपने क्रोध को नियंत्रित करना असंभव है, इसलिए इस कषाय से मुक्ति प्राप्त नही हो सकती,उसका त्यागा नही जा सकता!मान्यता है कि अमुक व्यक्ति तो स्वभावत: क्रोधी ही है,वह क्रोध का त्याग नहीं कर सकता! ऐसा मान्यता रखने वालों से मेरा प्रश्न है कि क्या वह व्यक्ति जिस तीव्रता से क्रोध अपने आश्रित बच्चो,पत्नी,पति,अभिभावकों,सेवकों,अपने से कमजोर व्यक्ति- यों पर करता है वह उसी तीव्रता से,अपने स्वामियों,व्यापारी-अपने उन ग्राहकों पर जिनसे उसे कोई लाभ होने वाला है,पर भी कर करता है? इसका उत्तर समझदारों का नही में ही होगा क्योकि हम अपने क्रोध को अपने सां- सारिक लाभ हानि के अनुसार नियंत्रित कर लेते है?जब हम सांसारिक लाभ के लिए इस कषाय को नियंत्रित कर सकते है तो आध्यात्मिक लाभ अर्थात संसार चक्र से मुक्ति के लिए क्यों नहीं कर सकते ,अर्थात कर सकते है किन्तु इच्छा शक्ति के अभाव में नही करते [/ltr]
[ltr]
इसके अतिरिक्त जब जीव के क्रोध करने की शारीरिक शक्ति कम हो जाती है तब भी वह क्रोध नही करने के लिए बाध्य होता है!बाध्यता मे ही क्यों इस कषाय का त्याग ?क्यों नही साधारण जीवन में स्वेच्छा से त्याग।
क्रोध हमें अक्सर,किसी के द्वारा अपनी बातों को नही मानने पर आता है(मान कषाय वश) ,यदि हम उनकी ही बात को महत्व देकर मान ले क्योकि प्रत्येक जीव का स्वतत्र अस्तित्व है और आपकी तरह वह भी अपने विचारों में स्वतंत्रता चाहता है,चाहे वह आप पर आर्थिक रूप से आश्रित पुत्र ,सेवक,पत्नि,पति,पिता-माता या अन्य कोई ही क्यों नही हो,तो इस भावना को रखने से भी क्रोध नही आएगा अथवा आप उसको नियंत्रित कर लेंगे !जितना शीघ्रता शीघ्र,परिस्थितयों और वातावरण से सामजस्य बना लिया जाए उतनी जल्दी हम क्रोध कषाय से मुक्त हो सकेगे!
एक बार क्रोध कषाय से मुक्त होने पर हमारा संसार चक्र भंग होना सुनिश्चित है क्योकि चार कषायों का चक्र आपने सफलता पूर्वक तोड़ दिया !
मान कषाय -
अपने मान कषाय के संरक्षण एवं पूर्ती के लिए जीवात्मा में उसके अभाव में, साधारणतया क्रोध की उत्पत्ति होती है जो कि जीव के स्व और पर के कल्याण में बाधक है!जैसे; यदि कोई आपके प्रभुत्व को चुनौती देता है तो आप तुरंत क्रोधित हो जाते है!उसको प्रमाणित करने के लिए शक्ति अनुसार यत्र तत्र उपाय करते है,जब तक संतुष्टिपूर्वक समाधान नही मिलता,तब तक क्रोध कम नही होता है!जब वह कम नही होता तब अनंतानुबंधी क्रोध कषाय(किसी व्यक्ति के प्रति छ;माह से अधिक क्रोध कषाय रहना) में परिवर्तित होकर आपके साथ भवों भवों तक यात्रा करती है,जो आपको सम्यक्त्व नही होने देती!हमारे प्रथमानुयोग के ग्रन्थ अनेको उद्धाहरण से भरे हुए है उनमे प्रमुख दृष्टांत;तीर्थंकर पार्श्वनाथ और कमठ के जीव में ,पार्श्वनाथ भगवान की मुक्ति तक, उस भव से १० भवों पूर्व बंधा बैर चलता रहा![/ltr]
[ltr]स्व और पर के कल्याण हेतु,मान कषायकी उत्पत्ति को नियंत्रित /रोकने के लिए प्रत्येक जीव को हर सम्भव पुरुषार्थ करना अनिवार्य है!वर्तमान में अधिकतर धार्मिक अनुष्ठानों मे धन एकत्र करने के लिए बोलीयों का तथा उसे अधिकतम मूल्य पर छुड़वाने का प्रचलन हो गया है जो की मान कषाय का कारण है,इसलिए हमें इसे हतोत्साहित कर बंद करना चाहिए,जिससे बोली लेने वाले को मान कषाय की उत्पत्ति होने की सम्भावना ही नही रहे तथा जो बोली नही ले पाते,उनमें हीनता की भावना प्रवेश नही करे!जब तक व्यवस्था परिवर्तन नही हो, तब तक हमें बोलियों में भाग नही लेने के लिए दृढ संकल्प लेना चाहिए!अपने कर्मों के आस्रव-बंध और उनके फल दान भोगने वाले हम ही है अन्य कोई नही!
अब प्रश्न उठता है कि क्या धन एकत्र करने का मात्र एक ही उपाय बोली द्वारा ही है!यदि इसे बंद कर दे तो धन कैसे एकत्र करें!उसके अनेक समाधान है,उनमे से एक है-जैन धर्म परिग्रहों एवं सम्पदा के त्याग प्रधान धर्म है,न की प्रभुता प्रदर्शन का धर्म,यह हमे को अपनी चर्या से भी हमें प्रमाणित करना चाहिए,इसलिए अपने अनुष्ठानों में जितनी भव्यता का प्रदर्शन एवं धन का दुरूपयोग होने लगा है उसे रोकना चाहिए ;जैसे पंच कल्याणको में भोजन,रहने आदि की व्यवस्था करना,लम्बे लम्बे जलूस जिनमे बैंड आदि पर बेशुमार खर्च होता है!जैन समाज साधारणतया अत्यंत संपन्न समाज है जो इन कल्याणकों में बहार से आते है वे अपना खाने व रहने का इंतज़ाम स्वयं कर सकते है!अनुष्ठानों के आवश्यक कार्यों के लिए धन एकत्रित करने की आवश्यकता होती है,उसका पूर्वानुमान लगा कर,बराबर मूल्य के कूपन समाज में देने चाहिए,तथा लॉटरी से विभिन्न पंचकल्याणकों के कलाकारों को चुनना चाहिए,इस विधि से आर्थिक दृष्टि से कमजोर लोगो को धार्मिक अनुष्ठानों में भाग लेने का बराबर मौका मिलेगा !इस व्यवस्था में एक नुक्सान है की मैनेजिंग कमेटी के सदस्यों की मान कषाय को बहुत धक्का लगेगा!जो की धार्मिक दृष्टिकोण से ठीक है किन्तु सांसारिक दृष्टि से लोगो को संभवत ठीक नही लगे!यह विधि कुछ स्थानों पर व्यवहार में करी जा रही है
[b] हमें जिन साधनो से मान कषाय की उत्पति ,धन संपत्ति,यश ,सांसारिक वैभव-प्रभुत्व आदि से होती है,उनका भोगोपभोग हम सिर्फ अपने पुण्यार्जन मानकर करे न यह समझकर की,यह हमारे साथ सदा रहने वाले है! जैसे हम संसार में दिगंबर आये वैसे ही इस भव से यही छोड़कर दिगंबरत्व के साथ ही जाने वाले है![/b][/ltr]
[ltr]माया कषाय[/ltr]
[ltr] माया कषाय से अभिप्राय,माया नामक चारित्र मोहनीयकर्म के उदय में,आत्मा में कुटिल (छल, कपट) भाव उत्पन्न होने से;मन,वचन और काय तीनों की क्रियाओं में,असमानता होने से,अर्थात मन में कुछ सोचना,वचन से कुछ बोलना तथा काय से कुछ और ही करना है,मायाचारी,तिर्यंचायु(स्थावर/पशु) के आस्रव का प्रमुख कारण है!आयु बंध के ८ अपकर्ष कालों में कुटिलतापूर्वक परिणाम होने से तिर्यंचायु का आस्रव/बंध होता है! इन भावों से क्षणिक सांसारिक लाभ तो मिलते है किन्तु अपना आध्यात्मिक उत्थान नही होता!उद्धाहरण के लिए निम्न प्रवृत्ति एवं भाव भी मायाचारी है-
१-व्यापार में छल कपट द्वारा अधिक लाभ अर्जित करने के उद्देश्य से वस्तुओं के क्रय और विक्रय के तराजू, बाँट,तराजू,लम्बाई नापने के लिए मीटर आदि अलग-अलग रखना!
२-शुद्ध वस्तुओं;घी आदि में अशुद्ध वस्तुओं,तेल,चर्बी को मिला कर विक्रय करना,
३-नकली ब्रांड को असली ब्रांड कहकर विक्रय करना,
४-अन्यों के दोषों के निरिक्षण में निरंतर लगे रहना,
५-आगम द्वारा प्रणीत धर्मोपदेशों में,अपने मत की पुष्टी हेतु,अर्थ का अनर्थ कर,उसकी पुष्टि करना !
६- किसी व्यक्ति से वचन से उसके कार्य करने का वायदा करना किन्तु मन से तथा शरीर से उसे नही करना
अत:स्वयं के आत्मिक उत्थान के लिए उक्त प्रवृत्तियों को सर्वथा त्यागना चाहिए!क्या हम ऐसा नही कर सकते?क्यों नही कर सकते,यदि हम मोक्ष सुख की अभिलाषा रखते है तो उसकी प्राप्ति के लिए हमारी सामर्थ्य के अंदरअत्यंत सरल उपाय है
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जीव संसार चक्र में अनादि काल से मुख्यत:चार कषायों क्रोध,मान,माया एवं लोभ के कारण भ्रमण करता आ रहा है!वैसे तो चारों कषाय ही हानिकारक है, साथ साथ ये एक दुसरे में परिवर्तित भी बहुत जल्दी होती है,इनमे से किसी एक को हम तोड़ने में सफल हो जाए तो बाकी स्वत: ही समाप्त हो जाएगी जिससे हमारे मनुष्य जन्म लेने का प्रमुख उद्देश्य पूर्ण होकर हमारी संसार चक्र भंग होकर मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होगा...!
[ltr]साधारणतया मान्यता है कि किसी भी स्वभावत: क्रोधी व्यक्ति को अपने क्रोध को नियंत्रित करना असंभव है, इसलिए इस कषाय से मुक्ति प्राप्त नही हो सकती,उसका त्यागा नही जा सकता!मान्यता है कि अमुक व्यक्ति तो स्वभावत: क्रोधी ही है,वह क्रोध का त्याग नहीं कर सकता! ऐसा मान्यता रखने वालों से मेरा प्रश्न है कि क्या वह व्यक्ति जिस तीव्रता से क्रोध अपने आश्रित बच्चो,पत्नी,पति,अभिभावकों,सेवकों,अपने से कमजोर व्यक्ति- यों पर करता है वह उसी तीव्रता से,अपने स्वामियों,व्यापारी-अपने उन ग्राहकों पर जिनसे उसे कोई लाभ होने वाला है,पर भी कर करता है? इसका उत्तर समझदारों का नही में ही होगा क्योकि हम अपने क्रोध को अपने सां- सारिक लाभ हानि के अनुसार नियंत्रित कर लेते है?जब हम सांसारिक लाभ के लिए इस कषाय को नियंत्रित कर सकते है तो आध्यात्मिक लाभ अर्थात संसार चक्र से मुक्ति के लिए क्यों नहीं कर सकते ,अर्थात कर सकते है किन्तु इच्छा शक्ति के अभाव में नही करते [/ltr]
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इसके अतिरिक्त जब जीव के क्रोध करने की शारीरिक शक्ति कम हो जाती है तब भी वह क्रोध नही करने के लिए बाध्य होता है!बाध्यता मे ही क्यों इस कषाय का त्याग ?क्यों नही साधारण जीवन में स्वेच्छा से त्याग।
क्रोध हमें अक्सर,किसी के द्वारा अपनी बातों को नही मानने पर आता है(मान कषाय वश) ,यदि हम उनकी ही बात को महत्व देकर मान ले क्योकि प्रत्येक जीव का स्वतत्र अस्तित्व है और आपकी तरह वह भी अपने विचारों में स्वतंत्रता चाहता है,चाहे वह आप पर आर्थिक रूप से आश्रित पुत्र ,सेवक,पत्नि,पति,पिता-माता या अन्य कोई ही क्यों नही हो,तो इस भावना को रखने से भी क्रोध नही आएगा अथवा आप उसको नियंत्रित कर लेंगे !जितना शीघ्रता शीघ्र,परिस्थितयों और वातावरण से सामजस्य बना लिया जाए उतनी जल्दी हम क्रोध कषाय से मुक्त हो सकेगे!
एक बार क्रोध कषाय से मुक्त होने पर हमारा संसार चक्र भंग होना सुनिश्चित है क्योकि चार कषायों का चक्र आपने सफलता पूर्वक तोड़ दिया !
मान कषाय -
अपने मान कषाय के संरक्षण एवं पूर्ती के लिए जीवात्मा में उसके अभाव में, साधारणतया क्रोध की उत्पत्ति होती है जो कि जीव के स्व और पर के कल्याण में बाधक है!जैसे; यदि कोई आपके प्रभुत्व को चुनौती देता है तो आप तुरंत क्रोधित हो जाते है!उसको प्रमाणित करने के लिए शक्ति अनुसार यत्र तत्र उपाय करते है,जब तक संतुष्टिपूर्वक समाधान नही मिलता,तब तक क्रोध कम नही होता है!जब वह कम नही होता तब अनंतानुबंधी क्रोध कषाय(किसी व्यक्ति के प्रति छ;माह से अधिक क्रोध कषाय रहना) में परिवर्तित होकर आपके साथ भवों भवों तक यात्रा करती है,जो आपको सम्यक्त्व नही होने देती!हमारे प्रथमानुयोग के ग्रन्थ अनेको उद्धाहरण से भरे हुए है उनमे प्रमुख दृष्टांत;तीर्थंकर पार्श्वनाथ और कमठ के जीव में ,पार्श्वनाथ भगवान की मुक्ति तक, उस भव से १० भवों पूर्व बंधा बैर चलता रहा![/ltr]
[ltr]स्व और पर के कल्याण हेतु,मान कषायकी उत्पत्ति को नियंत्रित /रोकने के लिए प्रत्येक जीव को हर सम्भव पुरुषार्थ करना अनिवार्य है!वर्तमान में अधिकतर धार्मिक अनुष्ठानों मे धन एकत्र करने के लिए बोलीयों का तथा उसे अधिकतम मूल्य पर छुड़वाने का प्रचलन हो गया है जो की मान कषाय का कारण है,इसलिए हमें इसे हतोत्साहित कर बंद करना चाहिए,जिससे बोली लेने वाले को मान कषाय की उत्पत्ति होने की सम्भावना ही नही रहे तथा जो बोली नही ले पाते,उनमें हीनता की भावना प्रवेश नही करे!जब तक व्यवस्था परिवर्तन नही हो, तब तक हमें बोलियों में भाग नही लेने के लिए दृढ संकल्प लेना चाहिए!अपने कर्मों के आस्रव-बंध और उनके फल दान भोगने वाले हम ही है अन्य कोई नही!
अब प्रश्न उठता है कि क्या धन एकत्र करने का मात्र एक ही उपाय बोली द्वारा ही है!यदि इसे बंद कर दे तो धन कैसे एकत्र करें!उसके अनेक समाधान है,उनमे से एक है-जैन धर्म परिग्रहों एवं सम्पदा के त्याग प्रधान धर्म है,न की प्रभुता प्रदर्शन का धर्म,यह हमे को अपनी चर्या से भी हमें प्रमाणित करना चाहिए,इसलिए अपने अनुष्ठानों में जितनी भव्यता का प्रदर्शन एवं धन का दुरूपयोग होने लगा है उसे रोकना चाहिए ;जैसे पंच कल्याणको में भोजन,रहने आदि की व्यवस्था करना,लम्बे लम्बे जलूस जिनमे बैंड आदि पर बेशुमार खर्च होता है!जैन समाज साधारणतया अत्यंत संपन्न समाज है जो इन कल्याणकों में बहार से आते है वे अपना खाने व रहने का इंतज़ाम स्वयं कर सकते है!अनुष्ठानों के आवश्यक कार्यों के लिए धन एकत्रित करने की आवश्यकता होती है,उसका पूर्वानुमान लगा कर,बराबर मूल्य के कूपन समाज में देने चाहिए,तथा लॉटरी से विभिन्न पंचकल्याणकों के कलाकारों को चुनना चाहिए,इस विधि से आर्थिक दृष्टि से कमजोर लोगो को धार्मिक अनुष्ठानों में भाग लेने का बराबर मौका मिलेगा !इस व्यवस्था में एक नुक्सान है की मैनेजिंग कमेटी के सदस्यों की मान कषाय को बहुत धक्का लगेगा!जो की धार्मिक दृष्टिकोण से ठीक है किन्तु सांसारिक दृष्टि से लोगो को संभवत ठीक नही लगे!यह विधि कुछ स्थानों पर व्यवहार में करी जा रही है
[b] हमें जिन साधनो से मान कषाय की उत्पति ,धन संपत्ति,यश ,सांसारिक वैभव-प्रभुत्व आदि से होती है,उनका भोगोपभोग हम सिर्फ अपने पुण्यार्जन मानकर करे न यह समझकर की,यह हमारे साथ सदा रहने वाले है! जैसे हम संसार में दिगंबर आये वैसे ही इस भव से यही छोड़कर दिगंबरत्व के साथ ही जाने वाले है![/b][/ltr]
[ltr]माया कषाय[/ltr]
[ltr] माया कषाय से अभिप्राय,माया नामक चारित्र मोहनीयकर्म के उदय में,आत्मा में कुटिल (छल, कपट) भाव उत्पन्न होने से;मन,वचन और काय तीनों की क्रियाओं में,असमानता होने से,अर्थात मन में कुछ सोचना,वचन से कुछ बोलना तथा काय से कुछ और ही करना है,मायाचारी,तिर्यंचायु(स्थावर/पशु) के आस्रव का प्रमुख कारण है!आयु बंध के ८ अपकर्ष कालों में कुटिलतापूर्वक परिणाम होने से तिर्यंचायु का आस्रव/बंध होता है! इन भावों से क्षणिक सांसारिक लाभ तो मिलते है किन्तु अपना आध्यात्मिक उत्थान नही होता!उद्धाहरण के लिए निम्न प्रवृत्ति एवं भाव भी मायाचारी है-
१-व्यापार में छल कपट द्वारा अधिक लाभ अर्जित करने के उद्देश्य से वस्तुओं के क्रय और विक्रय के तराजू, बाँट,तराजू,लम्बाई नापने के लिए मीटर आदि अलग-अलग रखना!
२-शुद्ध वस्तुओं;घी आदि में अशुद्ध वस्तुओं,तेल,चर्बी को मिला कर विक्रय करना,
३-नकली ब्रांड को असली ब्रांड कहकर विक्रय करना,
४-अन्यों के दोषों के निरिक्षण में निरंतर लगे रहना,
५-आगम द्वारा प्रणीत धर्मोपदेशों में,अपने मत की पुष्टी हेतु,अर्थ का अनर्थ कर,उसकी पुष्टि करना !
६- किसी व्यक्ति से वचन से उसके कार्य करने का वायदा करना किन्तु मन से तथा शरीर से उसे नही करना
अत:स्वयं के आत्मिक उत्थान के लिए उक्त प्रवृत्तियों को सर्वथा त्यागना चाहिए!क्या हम ऐसा नही कर सकते?क्यों नही कर सकते,यदि हम मोक्ष सुख की अभिलाषा रखते है तो उसकी प्राप्ति के लिए हमारी सामर्थ्य के अंदरअत्यंत सरल उपाय है
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