आकाश द्रव्य, काल द्रव्य और आस्त्रव के लक्षण तथा भेद -
#1

आकाश द्रव्य, काल द्रव्य और आस्त्रव के लक्षण तथा भेद -

सकल द्रव्य को वास जास में, सो आकाश पिछानो; 
नियत वर्तना निशिदिन सो, व्यवहारकाल परिमानो। 
यों अजीव, अब आस्त्रव सुनिये, मन-वच-काय त्रियोगा; 
मिथ्या अविरत अरु कषाय, परमाद सहित उपयोगा।

जिस प्रकार किसी बरतन में पानी भरकर उसमें भस्म (राख) डाली जाये, तो वह उसमें समा जाती है; फिर उसमें शर्करा डाली जाये, तो वह भी समा जाती है; फिर उसमें सुइयाँ डाली जायें, तो वे भी समा जाती हैं; इसी प्रकार आकाश में भी अवगाहन-शक्ति होती है, इसलिये उसमें सर्व द्रव्य एक साथ रह सकते हैं और उसमें रहने वाले कोई भी द्रव्य दूसरे द्रव्य को रोकते नहीं हैं। इस तरह जिसमें छह द्रव्य निवास कर रहे हैं, उस स्थान को आकाश कहते हैं।
जिस प्रकार कुम्हार के चक्र को घूमने में धुरी (कीली) होती है, इसी तरह अपनी-अपनी पर्यायरूप से स्वयं परिणमित होते हुए जीवादिक द्रव्यों के परिणमन में जो निमित्त हो, उसे कालद्रव्य कहते हैं। इस तरह जो अपने आप बदलता है, तथा अपने आप बदलते हुए अन्य द्रव्यों को बदलने में निमित्त है, ऐसे कालद्रव्य को निश्चय काल कहते हैं। लोकाकाश के जितने प्रदेश हैं, उतने ही कालद्रव्य (कालाणु) होते हैं।
रात, दिन, घड़ी, घण्टा आदि को व्यवहारकाल कहते हैं। 
अब आस्त्रवतत्व का वर्णन कहते हैं। उसके मिथ्यात्व, अविरत, प्रमाद, कषाय और योग; ऐसे पाँच भेद होते हैं। आस्त्रव और बन्ध दोनेां में अंतर यह है कि जीव के मिथ्यात्व-मोह-राग-द्वेष रूप परिणाम वह भाव-आस्त्रव है और उन मलिन भावों में स्निग्धता या जुड़ाव वह भाव -बन्ध है. 
हे प्रभो, आपने मिथ्याभावों का सेवन कर-करके, संसार में भटककर, अनन्त जन्म धारण करके अनन्तकाल गँवा दिया है; इसलिये अब आपको बहुत सावधान होकर आत्मोद्धार करना चाहिये। 
आस्त्रव त्याग का उपदेश और बन्ध, संवर, निर्जरा का लक्षण -
ये ही आतम को दु:ख-कारण, तातैं इनको तजिये; 
जीवप्रदेश बंधै विधि सों सो, बंधन कबहुँ न सजिये। 
शम-दम तैं जो कर्म न आवैं, सो संवर आदरियें; 
तप-बल तैं विधि-झरन निरजरा, ताहि सदा आचरिये।
प्रत्येक जीव को समझना चाहिये कि यह मिथ्यात्वादि ही हमारी आत्मा को दु:ख का कारण हैं, और कोई भी पर-पदार्थ दु:ख का कारण नहीं हो सकता है; इसलिए अपने दोषरूप मिथ्याभावों का हमें त्याग करना चाहिये।
हमारी इन्द्रियों के साथ पुदगलों का बन्ध; रागादि के साथ जीव का बन्ध और अन्योन्य-अवगाह वह पुदगलजीवात्मक बन्ध कहा जाता है। लेकिन यह राग रुपी परिणाम ही मात्र एक ऐसा भावबन्ध होता है, जो द्रव्यबंध का कारण होने से वही निश्चय बन्ध है और छोड़ने योग्य है। 
मिथ्यात्व और क्रोधादिरूप भाव उन सबको सामान्यरूप से कषाय कहा जाता है; ऐसे कषाय के अभाव को शम कहते हैं और दम अर्थात जो ज्ञेय-ज्ञायक के संकर दोष को टालकर, इन्द्रियों को जीतकर, ज्ञानस्वभाव द्वारा अन्य द्रव्य से अपनी आत्मा को पृथक और परिपूर्ण जानता है, उसे निश्चय नय में स्थित योगीजन वास्तव में जितेन्द्रिय कहते है। 
स्वभाव-परभाव के भेदभाव द्वारा द्रव्येन्द्रिय, भावेन्द्रिय तथा उनके विषयों से आत्मा का स्वरूप भिन्न है, ऐसा जानना उसे इन्द्रिय-दमन कहते हैं। परन्तु आहारादि तथा पाँच इन्द्रियों के विषयरूप बाह्य वस्तुओं के त्यागरूप जो मन्दकषाय है, उससे वास्तव में इन्द्रिय-दमन नहीं होता है, क्योंकि वहां तो शुभ राग है, पुण्य है, इसलिये वह बन्ध का कारण होता है, ऐसा समझना चाहिये।
शुद्धात्माश्रित सम्यकदर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप शुद्ध भाव ही संवर है। प्रथम निश्चय सम्यकदर्शन होने पर स्वद्रव्य के आलम्बनानुसार संवर-निर्जरा प्रारम्भ होती है। क्रमशः जितने अंश में राग का अभाव होता है, उतने अंश में संवर-निर्जरारूप धर्म होता हैं। 
स्वोन्मुखता के बल से शुभाशुभ इच्छा का निरोध सो तप है। उस तप से निर्जरा हेाती है।
पुण्य-पापरूप अशुद्ध भाव (आस्त्रव) को आत्मा के शुद्धभाव द्वारा रोकना सो भाव-संवर है और तदनुसार नवीन कर्मों का आना स्वयं-स्वत: रूक जाये सो द्रव्य-संवर है।
अखण्डानन्द निज शुद्धात्मा के लक्ष से अंशत: शुद्धि की वृद्धि और अशुद्धि की अंशतः हानि करना, सो भावनिर्जरा होती है; और उस समय खिरने योग्य कर्मों का अंशत: छूट जाना सो द्रव्य-निर्जरा कहलाता है। 
जीव-अजीव को उनके स्वरूप सहित जानकर स्व तथा पर को यथावत मानना; आस्त्रव को जानकर उसे हेयरूप और बन्ध को जानकार उसे अहितरूप मानना, संवर को पहिचान कर उसे उपादेयरूप तथा निर्जरा को पहिचानकर उसे हित का कारण मानना चाहिये.
आस्त्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष को हम निम्न उदाहरणों से समझ सकते हैं -
(1) आस्त्रव :-जिसप्रकार किसी नौका में छिद्र हो जाने से उसमें पानी आने लगता है, उसी प्रकार मिेथ्यात्वादि आस्त्रव के द्वारा आत्मा में कर्मो का प्रवेश होने लगता है।
(2) बंध:- जिस प्रकार छिद्र द्वारा पानी नौका में भर जाता है, उसीप्रकार कर्म परमाणु आत्मा के प्रदेशों में पहुँचते हैं या एक क्षेत्र में रहते हैं।
(3) संवर:- जिसप्रकार छिद्र बन्द करने से नौका में पानी का आना रूक जाता है, उसी प्रकार शुद्धभावरूप गुप्ती आदि के द्वारा आत्मा में कर्मो का आना रूक जाता है।
(4) निर्जरा:- जिस प्रकार नौका में आये हुए पानी में से किसी बरतन में भरकर थोड़ा-थोड़ा पानी बाहर फेंक दिया जाता है, उसी प्रकार निर्जरा द्वारा थोड़े से कर्म आत्मा से अलग हो जाते हैं।
(5) मोक्ष:- जिसप्रकार नौका में आया हुआ सारा पानी निकाल देने से नौका एकदम पानी रहित हो जाती है, उसी प्रकार आत्मा में से समस्त कर्म पृथक हो जाने से आत्मा की परिपूर्ण शुद्धदशा (मोक्षदशा) प्रगट हो जाती है अर्थात आत्मा मुक्त हो जाता है।
Reply


Forum Jump:


Users browsing this thread: 1 Guest(s)