03-14-2018, 10:39 AM
आश्रव तत्व
नव तत्व में एक प्रकार का तत्व है आश्रव तत्व। और आश्रव को रोके बिना, संवर और निर्जरा संभव नही है। आश्रव "हेय" है छोड़ने योग्य है।
तो आइए कुछ जानते है कि आश्रव क्या है।
आश्रव :- कर्म के आने का रास्ता, अर्थात कर्म बंध के हेतुओं को आश्रव करते है
संसार के सभी प्राणी कर्मों से युक्त है, प्राणियों के जीवन में प्रतिक्षण कर्मों का आवागमन चलता रहता है। जिन कर्मों का आगमन होता है, वे जीव से संबद्ध हो जाते हैं और देर सवेर अपना फल देकर चले जाते है। फिर नए कर्म आते हैं, बंधते है एवं इसी तरह अपना फल भुगताकर चले जाते हैं। अल्पज्ञ जीव इस बात को नहीं जानता कि कर्म कब आया, कैसे आया और कब अपना फल देकर चला गया।
संसार के प्राणी, विशेष रूप से मानव भी प्रायः नहीं जानते और ना ही जानने का प्रयत्न करते हैं कि हम इस लोक में एवं इस रूप में क्या और किस कारण से आए हैं। कहां से आए हैं और हमें कहां जाना है, जो जिज्ञासु है वे भी सिद्धांत को मात्र इस रूप में जानते हैं कि जीव जैसा शुभाशुभ कर्म करता है, वैसा शुभाशुभ फल भोगता है। उनकी जिज्ञासा होती है, कर्म का आगमन क्यों और कैसे होता है। उस आश्रव का स्वरूप क्या है? वह कितने प्रकार का है? कर्म कैसे बिना बुलाए आते है और कैसे आत्मा से चिपक जाते हैं? क्या कर्म को आते हुए रोका भी जा सकता है? इन जिज्ञासाओं का समाधान इस प्रकार है - शुभ और अशुभ कर्मों के आगमन को जो जैन कर्म विज्ञान की भाषा में आश्रव कहते हैं, जिस क्रिया या प्रवृति से जीव में कर्मों का आगमन होता है वह आश्रव है। आश्रव कर्मों का प्रवेश द्वार है
"प्रतिशत्ति येत कर्म्माण्यात्मनीत्यास्त्रवः कर्म बंध हेतु रितिभाव" (स्थानांग टिका) अर्थात जिस के द्वारा कर्म आत्मा में प्रवेश करते हैं, वह आश्रव है। अर्थात कर्मबंध के हेतु आश्रव है। जैसे जल में रही हुई नौका में छिद्र द्वारा जल प्रवेश होता है। इसी प्रकार पाँच इन्द्रिय और विषय कषायादि छिद्रों से कर्मरूपी पानी का प्रवेश होना आश्रव हैं।
"तत्वार्थ सूत्र" में आश्रव की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि "कायवांगमन क्रम योग - स आश्रव" मन वचन और काया की क्रिया को योग कहते हैं । मन वचन काया के शुभ और अशुभ योग के द्वारा जो कर्म बंधथे हैं, उनमें कषायों के कारण भिन्नता आ जाती है। अर्थात योगो की समानता होने पर भी कषाय युक्त जीव को जो बंध होता है वह विशेष अनुभाग वाला और विशेष स्थिति वाला होता है। कर्मश्रवो में प्रायः साधन समान होने पर भी कर्मबंध में अंतर हो जाता है।अतः कर्मश्रवो का आधार मुख्यतया अध्यवसाय (भाव) है। बाह्य क्रियाएँ और इनके साधन एक सीमा तक कर्मबंध के निमित्त होते हैं। मुख्य रुप से कर्मबंध अध्यवसायो पर निर्भर करता है। बाह्य क्रिया समान होने पर भी अध्यवसायो में बहुत अंतर हो सकता है। उदाहारण के लिये चाकू या छुरी का प्रयोग एक हिंसक व्यक्ति घातक बुद्धि से करता है। और वही चाकू और छुरी का प्रयोग एक डॉक्टर शल्य चिकित्सा के लिए करता हैं। इन दोनों व्यक्ति ने शस्त्र का प्रयोग तो किया परंतु दोनों के अध्यवसायो में बड़ा अंतर है। इसमे एक का अध्यवसाय हिंसक होने से संकलाष्ट है, अशुभ है, जब कि दूसरे के अध्यवसाय शांति, आरोग्यदायक होने से शुभ है। इसलिए एक व्यक्ति अशुभ कर्मो का और दूसरा व्यक्ति शुभ कर्मों का बंधन करता है।
आश्रव के मूल भेद ५ है।
१).मिथ्यात्व, २).अव्रत, ३).कषाय, ४).प्रमाद, ५).योग।
एक दूसरी विवक्षा के अनुसार आश्रव के २० भेद बताए है।
१से५:- १).मिथ्यात्व, २).अव्रत, ३).कषाय, ४).प्रमाद, ५).योग।
६ से १० :- प्राणातिपात, मुर्षावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह
११ से १५:- पाँच इन्द्रियो की अशुभ प्रवृति।
१६ से १८:- मन, वचन, काया, रूप योग की अशुभ प्रवृति।
१९:- भण्डोपकरण वस्तु को अयतना से लेना या रखना।
२०:- कुसाश्रव - कुसंगति करना।
स्थानाग टीका में आश्रव के ४२ भेद बताए है।
"इंदिय-कषाय-अव्वय किरिया पण चउर पंच पणुवीस।
जोगा तित्रेव भवे आसवभेयाउ बायाला"।।
५इन्द्रिय:- स्पर्शेन्द्रीय, रसेन्द्रीय, घरेनेद्रिय, चक्षुइन्द्रीय, श्रोतेन्द्रीय
४कषाय:- क्रोध, मान, माया, लोभ
५आवृत:- प्राणातिपात, मुर्षावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह
३योग:- मनोयोग, काययोग, वचनयोग
२५ कायिक क्रियाए:- कायाकि की क्रियाए आदि।
कुल ४२ भेद।
इन इन्द्रियो द्वारा जो कोई भी प्रवृति हो, वे यदि प्रशास्त (सुभ) भावपूर्वक हो तो शुभाश्रव, और अप्रशास्त भावपूर्वक हो तो अशुभाश्रव होता है।
नव तत्व में एक प्रकार का तत्व है आश्रव तत्व। और आश्रव को रोके बिना, संवर और निर्जरा संभव नही है। आश्रव "हेय" है छोड़ने योग्य है।
तो आइए कुछ जानते है कि आश्रव क्या है।
आश्रव :- कर्म के आने का रास्ता, अर्थात कर्म बंध के हेतुओं को आश्रव करते है
संसार के सभी प्राणी कर्मों से युक्त है, प्राणियों के जीवन में प्रतिक्षण कर्मों का आवागमन चलता रहता है। जिन कर्मों का आगमन होता है, वे जीव से संबद्ध हो जाते हैं और देर सवेर अपना फल देकर चले जाते है। फिर नए कर्म आते हैं, बंधते है एवं इसी तरह अपना फल भुगताकर चले जाते हैं। अल्पज्ञ जीव इस बात को नहीं जानता कि कर्म कब आया, कैसे आया और कब अपना फल देकर चला गया।
संसार के प्राणी, विशेष रूप से मानव भी प्रायः नहीं जानते और ना ही जानने का प्रयत्न करते हैं कि हम इस लोक में एवं इस रूप में क्या और किस कारण से आए हैं। कहां से आए हैं और हमें कहां जाना है, जो जिज्ञासु है वे भी सिद्धांत को मात्र इस रूप में जानते हैं कि जीव जैसा शुभाशुभ कर्म करता है, वैसा शुभाशुभ फल भोगता है। उनकी जिज्ञासा होती है, कर्म का आगमन क्यों और कैसे होता है। उस आश्रव का स्वरूप क्या है? वह कितने प्रकार का है? कर्म कैसे बिना बुलाए आते है और कैसे आत्मा से चिपक जाते हैं? क्या कर्म को आते हुए रोका भी जा सकता है? इन जिज्ञासाओं का समाधान इस प्रकार है - शुभ और अशुभ कर्मों के आगमन को जो जैन कर्म विज्ञान की भाषा में आश्रव कहते हैं, जिस क्रिया या प्रवृति से जीव में कर्मों का आगमन होता है वह आश्रव है। आश्रव कर्मों का प्रवेश द्वार है
"प्रतिशत्ति येत कर्म्माण्यात्मनीत्यास्त्रवः कर्म बंध हेतु रितिभाव" (स्थानांग टिका) अर्थात जिस के द्वारा कर्म आत्मा में प्रवेश करते हैं, वह आश्रव है। अर्थात कर्मबंध के हेतु आश्रव है। जैसे जल में रही हुई नौका में छिद्र द्वारा जल प्रवेश होता है। इसी प्रकार पाँच इन्द्रिय और विषय कषायादि छिद्रों से कर्मरूपी पानी का प्रवेश होना आश्रव हैं।
"तत्वार्थ सूत्र" में आश्रव की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि "कायवांगमन क्रम योग - स आश्रव" मन वचन और काया की क्रिया को योग कहते हैं । मन वचन काया के शुभ और अशुभ योग के द्वारा जो कर्म बंधथे हैं, उनमें कषायों के कारण भिन्नता आ जाती है। अर्थात योगो की समानता होने पर भी कषाय युक्त जीव को जो बंध होता है वह विशेष अनुभाग वाला और विशेष स्थिति वाला होता है। कर्मश्रवो में प्रायः साधन समान होने पर भी कर्मबंध में अंतर हो जाता है।अतः कर्मश्रवो का आधार मुख्यतया अध्यवसाय (भाव) है। बाह्य क्रियाएँ और इनके साधन एक सीमा तक कर्मबंध के निमित्त होते हैं। मुख्य रुप से कर्मबंध अध्यवसायो पर निर्भर करता है। बाह्य क्रिया समान होने पर भी अध्यवसायो में बहुत अंतर हो सकता है। उदाहारण के लिये चाकू या छुरी का प्रयोग एक हिंसक व्यक्ति घातक बुद्धि से करता है। और वही चाकू और छुरी का प्रयोग एक डॉक्टर शल्य चिकित्सा के लिए करता हैं। इन दोनों व्यक्ति ने शस्त्र का प्रयोग तो किया परंतु दोनों के अध्यवसायो में बड़ा अंतर है। इसमे एक का अध्यवसाय हिंसक होने से संकलाष्ट है, अशुभ है, जब कि दूसरे के अध्यवसाय शांति, आरोग्यदायक होने से शुभ है। इसलिए एक व्यक्ति अशुभ कर्मो का और दूसरा व्यक्ति शुभ कर्मों का बंधन करता है।
आश्रव के मूल भेद ५ है।
१).मिथ्यात्व, २).अव्रत, ३).कषाय, ४).प्रमाद, ५).योग।
एक दूसरी विवक्षा के अनुसार आश्रव के २० भेद बताए है।
१से५:- १).मिथ्यात्व, २).अव्रत, ३).कषाय, ४).प्रमाद, ५).योग।
६ से १० :- प्राणातिपात, मुर्षावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह
११ से १५:- पाँच इन्द्रियो की अशुभ प्रवृति।
१६ से १८:- मन, वचन, काया, रूप योग की अशुभ प्रवृति।
१९:- भण्डोपकरण वस्तु को अयतना से लेना या रखना।
२०:- कुसाश्रव - कुसंगति करना।
स्थानाग टीका में आश्रव के ४२ भेद बताए है।
"इंदिय-कषाय-अव्वय किरिया पण चउर पंच पणुवीस।
जोगा तित्रेव भवे आसवभेयाउ बायाला"।।
५इन्द्रिय:- स्पर्शेन्द्रीय, रसेन्द्रीय, घरेनेद्रिय, चक्षुइन्द्रीय, श्रोतेन्द्रीय
४कषाय:- क्रोध, मान, माया, लोभ
५आवृत:- प्राणातिपात, मुर्षावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह
३योग:- मनोयोग, काययोग, वचनयोग
२५ कायिक क्रियाए:- कायाकि की क्रियाए आदि।
कुल ४२ भेद।
इन इन्द्रियो द्वारा जो कोई भी प्रवृति हो, वे यदि प्रशास्त (सुभ) भावपूर्वक हो तो शुभाश्रव, और अप्रशास्त भावपूर्वक हो तो अशुभाश्रव होता है।