06-04-2018, 09:45 AM
जिन सहस्रनाम अर्थसहित पंचम अध्याय भाग १
श्रीवृक्षलक्षण श्लक्ष्णो लक्षण्य: शुभलक्षण:। निरक्ष: पुण्डरीकाक्ष: पुष्कल: पुष्करेक्षण:॥१॥
४०१. आपके अष्टप्राअतिहार्योंमेसे एक अशोक अर्थात श्रीवृक्ष है, इसलिये आप को "श्रीवृक्षलक्षण" कहते है ।
४०२. आपका शरीर अत्यंत मृदू होनेसे,लक्ष्मी के द्वारा आलिंगित होनेसे अथवा सुक्ष्म होनेसे "श्लक्ष्ण" हो ।
४०३. लक्षणसहीत होनेसे "लक्षण्य" हो।
४०४. १००८ शुभलक्षण होनेसे"शुभलक्षण" हो।
४०५. इंद्रीयरहीत होनेसे "निरक्ष" हो।
४०६. कमलनयन होनेसे "पुण्डरीकाक्ष" हो।
४०७. सम्पुर्ण होनेसे "पुष्कल" हो।
४०८. कमलदल के समान दीर्घ नेत्र होनेसे "पुष्करेक्षण" हो।
सिध्दिद: सिध्दसंकल्प: सिध्दात्मा सिध्दसाधन:। बुध्दबोध्यो महाबोधि र्वर्धमानो महर्द्धिक:॥२॥
४०९. मोक्षरुप सिध्दिदायक होनेसे "सिध्दिद" हो।
४१०. जो भि जनोंके संकल्प ईच्छा है, उन्हेसफल करनेवाले होनेसे "सिध्दसंकल्प" हो।
४११. पूर्ण स्वानंद रुप् आत्मलीन होनेसे "सिध्दात्मा" हो।
४१२. मोक्षमार्ग रुप साधन होनेसे "सिध्दसाधन" हो।
४१३. बुध्दिमान अथवा विशेष ज्ञानीयोंद्वारा जाननेयोग्य होनेसे "बुध्यबोध्य" हो।
४१४. केवलज्ञानी होनेसे "महाबोधी" हो।
४१५. आपके सर्वत्र पुज्य होनेसे तथा आपकि पुजनीयता सतत वृध्दीमान होनेसे "वर्ध्दमान" हो।
४१६. आपकि विभुती विशेष होनेसे, ऋध्दियाँ अपने आप आपको अवगत होनेसे "महर्ध्दिक" कहे जाते हो ।
वेदांगो वेदविद् वेद्यो जातरूपो विदांवर:। वेदवेद्य: स्वसंवेद्यो विवेदो वदतांवर:॥३॥
४१७. चार अनुयोगरुपी वेद के कारण आप"वेदांग" है।
४१८. आप आत्मा का यथार्थ स्वरुप् जानते है, इसलिये "वेदविद्" है।
४१९. आप आगम अर्थात अनुयोगोंद्वारा जानने के योग्य होनेसे "वेद्य" है।
४२०. जन्म लेते समय जो दिगंबर अवस्था तथा विकार रहित अवस्था होती है, वैसे होनेसे "जातरुप" है।
४२१. आप सब विद्वानोमे श्रेष्ठ है अर्थात"विदांवर" है ।
४२२. केवलज्ञान के द्वारा भि आपको जाना जा सकता है, अर्थात आप "वेदवेद्य" हो ।
४२३. आत्मानुभव से भि आपको जाना जा सकता है, इसलिये " स्वसंवेद्य" हो।
४२४. जो अनागम है उसे भि आप जानते हो इसलिए"विवेद" हो।
४२५. वक्ताओंमे, उपदेशकर्ताओंमे आप सर्वश्रेष्ठ है इसलिये आप"वदतांवर" है।
अनादि निधनोऽ व्यक्तो व्यक्तवाग़ व्यक्तशासन:। युगादिकृद् युगाधारो युगादि र्जगदादिज:॥४॥
४२६. आपके जन्म तथा अन्तरहित होनेसे "अनादिनिधन" हो।
४२७. आपका वर्णन किसी के लिये संभव नही इसलिये "अव्यक्त" हो।
४२८. आपका उपदेश सब प्राणियोंको समझने वाला है इसलिये " व्यक्तवाक्" हो।
४२९. आपने कथित किया हुआ शासन हि एक मात्र सम्यक शासन होनेसे अथवा आपके व्यक्तव्य का कोई विरोध नही, सब संसार मे वह प्रसिध्द है इसलिये भि "व्यक्तशासन" हो।
४३०. कर्म युग के आरंभकर्ता होनेसे "युगादिकृत" हो।
४३१. युग के पालक, अथवा त्राता होनेसे "युगाधार" हो।
४३२. आप युग के प्रारंभसे है, अर्थात"युगादि" है।
४३३. आप कर्मभुमि के आरंभ मे उत्पन्न हुए इसलिये आपको "जगदादिज" भि कहा जाता है।
अतीन्द्रोऽ तिन्द्रियो धीन्द्रो महेन्द्रोऽ तिन्द्रियार्थ दृक्। अनिन्द्रियो अहमिन्द्रार्च्यो महेन्द्र महितो महान्॥५॥
४३४. आप इन्द्र नरेन्द्रोके भि विशेष होनेसे "अतीन्द्र" हो ।
४३५. आपका यथार्थ स्वरुप अर्थात विशुध्दात्मा इन्द्रियोंको गोचर ना होनेसे "अतिन्द्रिय" हो।
४३६. बुध्दिके नाथ होनेसे अथवा आप शुक्लध्यान के द्वारा परमात्मस्वरुप प्राप्त करनेवाले होनेसे "धीन्द्र" हो ।
४३७. इन्द्रोंमे महान होनेसे अथवा पूजाके अधिपति होनेसे "महेन्द्र" हो।
४३८. जो पदार्थ इन्द्रिय और मन के अगोचर है, उन्हे भि आप जानते हो इसलिये " अतिन्द्रियार्थदृक्" हो।
४३९. इन्द्रियरहित होनेसे "अनिन्द्रिय" हो।
४४०. अहमिन्द्रोद्वारा पुजनिय, पुजित और पूज्य होनेसे "अहमिन्द्रार्च्य" हो।
४४१. इन्द्रभि आपकि महिमा गाते है, आप उनके भि पुज्य है, इसलिये "महेन्द्रमहित" हो।
४४२. समस्त जिवोंके बडे और पूज्य होनेसे आप" महान्" कहे जाते है।
उद्भव: कारणं कर्ता पारगो भक्तारक:। अगाह्यो गहनं गुह्यं परार्घ्य: परमेश्वर:॥६॥
४४३. यह आपका अंतीम भव होनेसे आप"उद्भव" है।
४४४. मोक्ष के, मोक्षमार्गके आप"कारण" है ।
४४५. शुध्द भाव आपसे हि उपजते है इसलिये "कर्ता" है।
४४६. संसारसमुद्र के पारगामी होनेसे "पारग" हो।
४४७. समस्त जीवोंको पार लगानेवाले होनेसे "भवतारक" हो।
४४८. इन्द्रियोंद्वारा ग्रहण नही किये जा सकते इसलिये "अग्राह्य" हो।
४४९. आप स्वरुप अत्यंत गुढ है, "गहन" है ।
४५०. आप रहस्यमय होनेसे अर्थात गुप्तरुप होनेसे अर्थात आपका यथार्थ स्वरुप जो आत्मा है, वह अगोचर होनेसे "गुह्य" हो।
श्रीवृक्षलक्षण श्लक्ष्णो लक्षण्य: शुभलक्षण:। निरक्ष: पुण्डरीकाक्ष: पुष्कल: पुष्करेक्षण:॥१॥
४०१. आपके अष्टप्राअतिहार्योंमेसे एक अशोक अर्थात श्रीवृक्ष है, इसलिये आप को "श्रीवृक्षलक्षण" कहते है ।
४०२. आपका शरीर अत्यंत मृदू होनेसे,लक्ष्मी के द्वारा आलिंगित होनेसे अथवा सुक्ष्म होनेसे "श्लक्ष्ण" हो ।
४०३. लक्षणसहीत होनेसे "लक्षण्य" हो।
४०४. १००८ शुभलक्षण होनेसे"शुभलक्षण" हो।
४०५. इंद्रीयरहीत होनेसे "निरक्ष" हो।
४०६. कमलनयन होनेसे "पुण्डरीकाक्ष" हो।
४०७. सम्पुर्ण होनेसे "पुष्कल" हो।
४०८. कमलदल के समान दीर्घ नेत्र होनेसे "पुष्करेक्षण" हो।
सिध्दिद: सिध्दसंकल्प: सिध्दात्मा सिध्दसाधन:। बुध्दबोध्यो महाबोधि र्वर्धमानो महर्द्धिक:॥२॥
४०९. मोक्षरुप सिध्दिदायक होनेसे "सिध्दिद" हो।
४१०. जो भि जनोंके संकल्प ईच्छा है, उन्हेसफल करनेवाले होनेसे "सिध्दसंकल्प" हो।
४११. पूर्ण स्वानंद रुप् आत्मलीन होनेसे "सिध्दात्मा" हो।
४१२. मोक्षमार्ग रुप साधन होनेसे "सिध्दसाधन" हो।
४१३. बुध्दिमान अथवा विशेष ज्ञानीयोंद्वारा जाननेयोग्य होनेसे "बुध्यबोध्य" हो।
४१४. केवलज्ञानी होनेसे "महाबोधी" हो।
४१५. आपके सर्वत्र पुज्य होनेसे तथा आपकि पुजनीयता सतत वृध्दीमान होनेसे "वर्ध्दमान" हो।
४१६. आपकि विभुती विशेष होनेसे, ऋध्दियाँ अपने आप आपको अवगत होनेसे "महर्ध्दिक" कहे जाते हो ।
वेदांगो वेदविद् वेद्यो जातरूपो विदांवर:। वेदवेद्य: स्वसंवेद्यो विवेदो वदतांवर:॥३॥
४१७. चार अनुयोगरुपी वेद के कारण आप"वेदांग" है।
४१८. आप आत्मा का यथार्थ स्वरुप् जानते है, इसलिये "वेदविद्" है।
४१९. आप आगम अर्थात अनुयोगोंद्वारा जानने के योग्य होनेसे "वेद्य" है।
४२०. जन्म लेते समय जो दिगंबर अवस्था तथा विकार रहित अवस्था होती है, वैसे होनेसे "जातरुप" है।
४२१. आप सब विद्वानोमे श्रेष्ठ है अर्थात"विदांवर" है ।
४२२. केवलज्ञान के द्वारा भि आपको जाना जा सकता है, अर्थात आप "वेदवेद्य" हो ।
४२३. आत्मानुभव से भि आपको जाना जा सकता है, इसलिये " स्वसंवेद्य" हो।
४२४. जो अनागम है उसे भि आप जानते हो इसलिए"विवेद" हो।
४२५. वक्ताओंमे, उपदेशकर्ताओंमे आप सर्वश्रेष्ठ है इसलिये आप"वदतांवर" है।
अनादि निधनोऽ व्यक्तो व्यक्तवाग़ व्यक्तशासन:। युगादिकृद् युगाधारो युगादि र्जगदादिज:॥४॥
४२६. आपके जन्म तथा अन्तरहित होनेसे "अनादिनिधन" हो।
४२७. आपका वर्णन किसी के लिये संभव नही इसलिये "अव्यक्त" हो।
४२८. आपका उपदेश सब प्राणियोंको समझने वाला है इसलिये " व्यक्तवाक्" हो।
४२९. आपने कथित किया हुआ शासन हि एक मात्र सम्यक शासन होनेसे अथवा आपके व्यक्तव्य का कोई विरोध नही, सब संसार मे वह प्रसिध्द है इसलिये भि "व्यक्तशासन" हो।
४३०. कर्म युग के आरंभकर्ता होनेसे "युगादिकृत" हो।
४३१. युग के पालक, अथवा त्राता होनेसे "युगाधार" हो।
४३२. आप युग के प्रारंभसे है, अर्थात"युगादि" है।
४३३. आप कर्मभुमि के आरंभ मे उत्पन्न हुए इसलिये आपको "जगदादिज" भि कहा जाता है।
अतीन्द्रोऽ तिन्द्रियो धीन्द्रो महेन्द्रोऽ तिन्द्रियार्थ दृक्। अनिन्द्रियो अहमिन्द्रार्च्यो महेन्द्र महितो महान्॥५॥
४३४. आप इन्द्र नरेन्द्रोके भि विशेष होनेसे "अतीन्द्र" हो ।
४३५. आपका यथार्थ स्वरुप अर्थात विशुध्दात्मा इन्द्रियोंको गोचर ना होनेसे "अतिन्द्रिय" हो।
४३६. बुध्दिके नाथ होनेसे अथवा आप शुक्लध्यान के द्वारा परमात्मस्वरुप प्राप्त करनेवाले होनेसे "धीन्द्र" हो ।
४३७. इन्द्रोंमे महान होनेसे अथवा पूजाके अधिपति होनेसे "महेन्द्र" हो।
४३८. जो पदार्थ इन्द्रिय और मन के अगोचर है, उन्हे भि आप जानते हो इसलिये " अतिन्द्रियार्थदृक्" हो।
४३९. इन्द्रियरहित होनेसे "अनिन्द्रिय" हो।
४४०. अहमिन्द्रोद्वारा पुजनिय, पुजित और पूज्य होनेसे "अहमिन्द्रार्च्य" हो।
४४१. इन्द्रभि आपकि महिमा गाते है, आप उनके भि पुज्य है, इसलिये "महेन्द्रमहित" हो।
४४२. समस्त जिवोंके बडे और पूज्य होनेसे आप" महान्" कहे जाते है।
उद्भव: कारणं कर्ता पारगो भक्तारक:। अगाह्यो गहनं गुह्यं परार्घ्य: परमेश्वर:॥६॥
४४३. यह आपका अंतीम भव होनेसे आप"उद्भव" है।
४४४. मोक्ष के, मोक्षमार्गके आप"कारण" है ।
४४५. शुध्द भाव आपसे हि उपजते है इसलिये "कर्ता" है।
४४६. संसारसमुद्र के पारगामी होनेसे "पारग" हो।
४४७. समस्त जीवोंको पार लगानेवाले होनेसे "भवतारक" हो।
४४८. इन्द्रियोंद्वारा ग्रहण नही किये जा सकते इसलिये "अग्राह्य" हो।
४४९. आप स्वरुप अत्यंत गुढ है, "गहन" है ।
४५०. आप रहस्यमय होनेसे अर्थात गुप्तरुप होनेसे अर्थात आपका यथार्थ स्वरुप जो आत्मा है, वह अगोचर होनेसे "गुह्य" हो।