श्री जिन सहस्त्रनाम मन्त्रावली चतुर्थ अध्याय भाग १
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श्री जिन सहस्त्रनाम मन्त्रावली चतुर्थ अध्याय भाग १



३०१-ॐ ह्रीं अर्हं महाशोकध्वजाय नमः   -का बड़ा भारी  अशोकवृक्ष चिन्ह   होने से,


३०२-ॐ ह्रीं अर्हं अशोकाय  नमः   -शोक रहित  होने से,


३०३-ॐ ह्रीं अर्हं काय नमः   -सबको सुख दाता होने से,


३०४-ॐ ह्रीं अर्हं सृष्टे  नमः   -स्वर्ग एवं मोक्षमार्ग की सृष्टि कर्त्ता होने से,


३०५-ॐ ह्रीं अर्हं पद्मविष्टराय नमः   -कमलाकर   आसान पर विराजमान  होने से,


३०६-ॐ ह्रीं अर्हं पद्मेशाय नमः   -पद्मा अर्थात लक्ष्मी (मोक्ष) के स्वामी होने से,


३०७-ॐ ह्रीं अर्हं पद्मसम्भूतये नमः   - विहार के समय देवतागण द्वारा उनके चरणों के नीचे स्वर्ण कमलों  की रचना करने से,


३०८-ॐ ह्रीं अर्हं पद्मनाभाय नमः   -नाभी -कमलाकर  होने से,

३०९-ॐ ह्रीं अर्हं अनुत्तराय नमः   -से श्रेष्ठतमहोने से,

३१०-ॐ ह्रीं अर्हं पद्मयोनये नमः   - शरीर माता के पद्माकर गर्भाशय में उत्पन्न  होने से,

३११-ॐ ह्रीं अर्हं जगद्योनये नमः   -धर्म रूप जगत के उत्पत्ति में कारण  होने से,


३१२-ॐ ह्रीं अर्हं इत्याय  नमः   -को भव्य जीव तपश्चरण द्वारा प्राप्त करने से '


३१३-ॐ ह्रीं अर्हं स्तुत्याय  नमः   - इन्द्रों द्वारा स्तुति करने योग्य  होने से,


३१४-ॐ ह्रीं अर्हं स्तुतिश्वराय   नमः   -स्तुतियों के स्वामी होने से  

३१५-ॐ ह्रीं अर्हं स्तवनार्हाय नमः   स्तवन किये जाने  योग्य होने से ,

 ३१६-ॐ ह्रीं अर्हं ह्रृषीकेशाय  नमः  -इन्द्रियों को वश में कर  उनके स्वामी होने से,

३१७-ॐ ह्रीं अर्हं जितजेयाय  नमः   -समस्त मोहनीय आदि कर्म  शत्रुओं पर विजयी  होने से,


३१८-ॐ ह्रीं अर्हं कृतक्रियाय  नमः   -समस्त करने योग्य क्रियाएँ को  कर चुकने से,

३१९- ॐ ह्रीं अर्हं गणाधिपाय  नमः   - १२ सभाओंरूप गण के स्वामी होने से,

३२०-ॐ ह्रीं अर्हं गणज्येष्ठाय नमः    -समस्त गणों  के ज्येष्ठ होने से,


३२१-ॐ ह्रीं अर्हं गण्याय  नमः    -त्रिलोक में गणना करने  योग्य  होने से,

३२२-ॐ ह्रीं अर्हं पुण्याय  नमः   -पवित्र  होने से,

३२३-ॐ ह्रीं अर्हं गणाग्रण्यै नमः   -सभा में उपस्थित सभी प्राणियों को कल्याण मार्ग पर लगाने वालेहोने से,

३२४-ॐ ह्रीं अर्हं गुणाकारय नमः   -गुणो की खान होने से,

३२५-ॐ ह्रीं अर्हं गुणोम्भोधये नमः   -गुणों के समूह होने से ,

३२६-ॐ ह्रीं अर्हं गुणज्ञाय  नमः   -गुणों  के ज्ञाता होने से,

३२७-ॐ ह्रीं अर्हं गुणनायकाय  नमः    -गुणों के स्वामी होने से,

३२८-ॐ ह्रीं अर्हं गुणादरिणे  नमः   -गुणों का आदर करने से ,

३२९-ॐ ह्रीं अर्हं गुणोच्छेदिने  नमः  -विभावीक गुणों का क्षय   करने से,

३३०-ॐ ह्रीं अर्हं  निर्गुणाय  नमः   -वैभविक भावो से रहित  होने से,

३३१-ॐ ह्रीं अर्हं पुण्यगिरे  नमः    -पवित्र वाणी के धारक होने से ,

३३२-ॐ ह्रीं अर्हं  गुणाय  नमः   -गुणों से युक्त  होने से,

३३३ॐ ह्रीं अर्हं शरण्याय नमः   -जीवों के रक्षक होने से,

३३४-ॐ ह्रीं अर्हं पूतवाचे नमः    -वचन पवित्र होने से ,

३३५-ॐ ह्रीं अर्हं पूताय    नमः      -पवित्र  होने से,

३३६-ॐ ह्रीं अर्हं वरेण्याय नमः     -श्रेष्ट होने से,

३३७-ॐ ह्रीं अर्हं पुण्यनायकाय नमः   -पुण्य के अधिपति होने से,

३३८-ॐ ह्रीं अर्हं अगण्याय  नमः    - गणनारहित होने से ,

३३९-ॐ ह्रीं अर्हं पुण्यधीये  नमः    -पवित्र   बुद्धि  धारक  होने से,

३४०-ॐ ह्रीं अर्हं गुण्याय  नमः    -गुणों सहित  होने से,

३४१-ॐ ह्रीं अर्हं पुण्यकृते  नमः    - पुण्य करने वाले होने से,

३४२-ॐ ह्रीं अर्हं पुण्यशासनाय  नमः  - शाशन पवित्र,पुण्यरूप  होने से,

३४३-ॐ ह्रीं अर्हं धर्मारामाय नमः    -धर्म के उपवन स्वरुप होने से,

३४४- ॐ ह्रीं अर्हं गुणग्रामाय  नमः   - अनेक गुणों के समूह  होने से,

३४५-ॐ ह्रीं अर्हं पुण्यापुण्यनिरोधकाय    नमः    -शुद्धोपयोग में लीन  ,पाप और पुण्य  दोनों का निरोध करने से ,

३४६-ॐ ह्रीं अर्हं पापापेताय   नमः    -हिंसादि पापों रहित होने से,

३४७-ॐ ह्रीं अर्हं विपापात्मने   नमः   -आत्मा से समस्त पापो के विगत होने से 

३४८-ॐ ह्रीं अर्हं विपाप्मने  नमः   -समस्त पापों को नष्ट करने से ,

३४९ ॐ ह्रीं अर्हं वीतकल्मषाय  नमः   - के समस्त कल्मष अर्थात रागद्वेष रूपी भावकर्म रुपी मल नष्ट होने से,

३५०-ॐ ह्रीं अर्हं निर्द्वन्द्वाय  नमः   -परिग्रह रहित  होने से,,
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