07-29-2022, 12:08 PM
श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित प्रवचनसार
गाथा -1
एस सुरासुरमणुसिंदवंदिदं धोदघाइकम्ममलं /
पणमामि वड्ढमाणं तित्थं धम्मस्स कत्तारं // 1 //
श्रीकुंदकुंदाचार्य प्रथम ही ग्रन्थके आरंभमें मंगलाचरणके लिये नमस्कार करते हैं
[एष अहं वर्धमानं प्रणमामि ] यह जो मैं "अपने अनुभवके गोचर ज्ञानदर्शनस्वरूप" कुंदकुंदाचार्य हूँ, सो वर्धमान जो देवाधिदेव परमेश्वर परमपूज्य अंतिमतीर्थकर उनको नमस्कार करता हूँ। कैसे हैं ? श्रीवर्धमानतीर्थकर [सुरासुरमनुष्येन्द्रवन्दितं] विमानवासी देवोंके, पातालमें रहनेवाले देवोके और मनुष्योंके स्वामियोंकर नमस्कार किये गये हैं, इस कारण तीन लोककर पूज्य हैं / फिर कैसे हैं ? [धौतघातिकर्ममलं ] धोये हैं चार घातियाकर्मरूप मैल जिन्होंने इसलिये अनंतचतुष्टय [ अनंतज्ञान 1, अनंतदर्शन 2, अनंतवीर्य 3, अनंतसुख 4 ] सहित हैं / फिर कैसे हैं ? [तीर्थ] तारनेमें समर्थ हैं, अर्थात् भव्यजीवोंको संसार-समुद्रसे पार करनेवाले हैं। फिर कैसे हैं ? [धर्मस्य कर्तारं ] शुद्ध आत्मीक जो धर्म उसके कर्ता अर्थात् उपदेश देनेवाले हैं
गाथा -2
सेसे पुण तित्थयरे ससव्वसिद्धे विसुद्धसम्भावे /
समणे य णाणदंसणचरित्ततववीरियायारे // 2 //
[ पुनः अहं ] फिर मैं कुंदकुंदाचार्य [शेषान् तीर्थकरान् ससर्वसिद्धान् प्रणमामि ] शेष जो बचे, तेईस तीर्थकर समस्त अतीतकालके सिद्धों सहित हैं, उनको नमस्कार करता हूँ। कैसे हैं ? तीर्थकर और सिद्ध [विशुद्धसद्धा वान् ] निर्मल हैं, ज्ञानदर्शनरूप स्वभाव जिनके / जैसे अन्तिम अग्निकर तपाया हुआ सोना अत्यन्त शुद्ध होजाता है, उसी तरह निर्मल स्वभाव सहित हैं। [च श्रमणान् ] फिर आचार्य, उपाध्याय और साधुओंको नमस्कार करता हूँ। कैसे हैं ? [ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारान् ] ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, और वीर्य ये हैं आचरण जिनके, अर्थात् ज्ञानादिमें सदैव लीन रहते हैं, इस कारण उत्कृष्ट शुद्धोपयोगकी भूमिको प्राप्त हुए हैं / इस गाथामें पंचपरमेष्ठीको नमस्कार किया है
For more detail .... गाथा -1
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित प्रवचनसार
गाथा -1
एस सुरासुरमणुसिंदवंदिदं धोदघाइकम्ममलं /
पणमामि वड्ढमाणं तित्थं धम्मस्स कत्तारं // 1 //
श्रीकुंदकुंदाचार्य प्रथम ही ग्रन्थके आरंभमें मंगलाचरणके लिये नमस्कार करते हैं
[एष अहं वर्धमानं प्रणमामि ] यह जो मैं "अपने अनुभवके गोचर ज्ञानदर्शनस्वरूप" कुंदकुंदाचार्य हूँ, सो वर्धमान जो देवाधिदेव परमेश्वर परमपूज्य अंतिमतीर्थकर उनको नमस्कार करता हूँ। कैसे हैं ? श्रीवर्धमानतीर्थकर [सुरासुरमनुष्येन्द्रवन्दितं] विमानवासी देवोंके, पातालमें रहनेवाले देवोके और मनुष्योंके स्वामियोंकर नमस्कार किये गये हैं, इस कारण तीन लोककर पूज्य हैं / फिर कैसे हैं ? [धौतघातिकर्ममलं ] धोये हैं चार घातियाकर्मरूप मैल जिन्होंने इसलिये अनंतचतुष्टय [ अनंतज्ञान 1, अनंतदर्शन 2, अनंतवीर्य 3, अनंतसुख 4 ] सहित हैं / फिर कैसे हैं ? [तीर्थ] तारनेमें समर्थ हैं, अर्थात् भव्यजीवोंको संसार-समुद्रसे पार करनेवाले हैं। फिर कैसे हैं ? [धर्मस्य कर्तारं ] शुद्ध आत्मीक जो धर्म उसके कर्ता अर्थात् उपदेश देनेवाले हैं
गाथा -2
सेसे पुण तित्थयरे ससव्वसिद्धे विसुद्धसम्भावे /
समणे य णाणदंसणचरित्ततववीरियायारे // 2 //
[ पुनः अहं ] फिर मैं कुंदकुंदाचार्य [शेषान् तीर्थकरान् ससर्वसिद्धान् प्रणमामि ] शेष जो बचे, तेईस तीर्थकर समस्त अतीतकालके सिद्धों सहित हैं, उनको नमस्कार करता हूँ। कैसे हैं ? तीर्थकर और सिद्ध [विशुद्धसद्धा वान् ] निर्मल हैं, ज्ञानदर्शनरूप स्वभाव जिनके / जैसे अन्तिम अग्निकर तपाया हुआ सोना अत्यन्त शुद्ध होजाता है, उसी तरह निर्मल स्वभाव सहित हैं। [च श्रमणान् ] फिर आचार्य, उपाध्याय और साधुओंको नमस्कार करता हूँ। कैसे हैं ? [ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारान् ] ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, और वीर्य ये हैं आचरण जिनके, अर्थात् ज्ञानादिमें सदैव लीन रहते हैं, इस कारण उत्कृष्ट शुद्धोपयोगकी भूमिको प्राप्त हुए हैं / इस गाथामें पंचपरमेष्ठीको नमस्कार किया है
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मुनि श्री प्रणम्य सागर जी