07-30-2022, 12:24 PM
श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित प्रवचनसार
गाथा -10
णत्थि विणा परिणाम अत्यो अत्थं विणेह परिणामो /
व्वगुणपज्जयत्थो अत्थो अस्थित्तणिवत्तो // 10 //
आगे वस्तुका स्वभावपरिणाम वस्तुसे अभिन्न (एकरूप) है, यह कहते हैं
[परिणाम विना अर्थः नास्ति] पर्यायके विना द्रव्य नहीं होता है। क्यों कि द्रव्य किसी समय भी परिणमन किये विना नहीं रहता, ऐसा नियम है / जो रहे, तो गधेके सींगके समान असंभव समझना चाहिये / जैसे गोरसके परिणाम दूध, दही, घी, तक्र (छांछ) इत्यादि अनेक हैं, इन निज परिणामोंके विना गोरस जुदा नहीं पाया जाता / जिस जगह ये परिणाम नहीं होते, उस जगह गोरसकी भी सत्ता ( मौजूदगी) नहीं होती। उसी तरह परिणामके विना द्रव्यको सत्ता (मौजूदगी) नहीं होती है। कोई ऐसा समझे कि, द्रव्यके विना परिणाम होता होगा, सो भी नहीं होता, [अर्थ विना परिणामो न] द्रव्यके विना परिणाम भी नहीं होता / क्योंकि परिणामका आधार द्रव्य है / जो द्रव्य ही न होवे, तो परिणाम किसके आश्रय रहे / यदि गोरस ही न होवे, तो दूध, दही, घी, तक्र इत्यादि पर्यायें कहाँसे होवें, इसी प्रकार द्रव्यके विना परिणाम अपनी मौजूदगीको नहीं पासकता है / तो कैसा पदार्थ अपने अस्तिपनेको पासकता है, [द्रव्यगुणपर्ययस्थः अर्थः] जो द्रव्य गुण पर्यायोंमें रहता है, वह पदार्थ [ अस्तित्वनिर्वत्तः] अस्तिपने ( मौजूदगी ) से सिद्ध होता है।
भावार्थ-
जिस जगह द्रव्य गुण पर्यायोंकी एकता हो, वहांपर ही द्रव्यका अस्तित्व है / जो इन तीनोंमेंसे एक भी कम होवे, तो पदार्थ ही न कहलावे। जैसे सुवर्ण द्रव्य है, और उसमें पीतादिगुण हैं, तथा कुण्डलादि पर्याय हैं जो इनमेंसे एककी भी कमी होती है, तो सोनेका अभाव ही होजाता है, ठीक इसी प्रकार दूसरे पदार्थों में भी ऐसा ही स्वरूप समझना। इससे यह बात सिद्ध हुई कि, परिणाम द्रव्यका पर्याय है। इसके बिना द्रव्यका अभाव होजाता है। यहाँपर इतनी विशेषता और भी समझना कि, जहाँ जैसा द्रव्य होता है, वहाँपर वैसे ही गुण पर्याय होते हैं, इस न्यायसे शुद्ध आत्माके शुद्ध गुण पर्याय और अशुद्ध आत्माके अशुद्ध गुण पर्याय होते हैं / जहाँ यह आत्मा शुभ अशुभ परिणामरूप परिणमता है, वहाँ इन अपने परिणामोंसे व्याप्य व्यापकरूप होता हुआ उसी स्वरूप हो जाता है। जब शुद्धपरिणामोरूप परिणमन करता है, तब उन्हीं स्वरूप होजाता है / क्योंकि परिणाम द्रव्यका स्वभाव है // 10 //
गाथा -11
धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपयोगजुदो।
पावदि णिव्वाणसुहं सुहोवजुत्तो व सग्गसुहं // 11 //
आगे शुभपरिणाम और शुद्धपरिणाम ये दोनों चारित्र हैं, इनके फलको कहते हैं
[यदि आत्मा शुद्धसंप्रयोगयुतः तदा निर्वाणसुखं प्राप्नोति ] जब आत्मा शुद्ध उपयोग सहित होता है, तब मोक्षसुखको पाता है। [ वा शुभोपयुक्तः ] और जब शुभोपयोगरूप भावोंमें परिणमता है, तब [स्वर्गसुखं ] स्वर्गोंके सुख पाता है / कैसा हैं, यह आत्मा [धर्मपरिणतात्मा] धर्मसे परिणमा है, स्वरूप जिसका /
भावार्थ-
वीतराग सराग भावोंकर धर्म दो प्रकारका हैं / जब यह आत्मा वीतराग आत्मीक धर्मरूप परिणमता हुआ शुद्धोपयोगभावोंमें परिणमन करता है, तब कर्मोंसे इसकी शक्ति रोकी नहीं जासकती। अपने कार्य करनेको समर्थ हो जाता हैं। इस कारण अनन्त अखण्ड निजसुख जो मोक्षसुख उसको स्वभाव ही से पाता है, और जब यह आत्मा, दान, पूजा, व्रत, संयमादिरूप सरागभावोंकर परिणमता हुआ शुभोपयोग परिणतिको धारण करता है, तब इसकी शक्ति कर्मोंसे रोकी जाती है / इसलिये मोक्षरूपी कार्य करनेको असमर्थ हो जाता है। फिर उस शुभोपयोग परिणमनसे कर्मबन्धरूप स्वर्गौके सुखोंको ही पाता है / यद्यपि शुभोपयोग चारित्रका अंग है, तो भी अपने सुखसे उलटा परके आधीन संसारसंबन्धी इन्द्रियोंसे उत्पन्न होनेवाले सुखका कारण है / क्योंकि यह राग-कषायसे मिला हुआ है, और जो इन्द्रियजन्य सुख है, वह वास्तवमें दुःख ही है। जैसे कोई पुरुष गरम धी अपनी देहपर डालता है, तो उससे वह दाहके दुःखको पाता है। ऐसे घीके भी लगनेसे कुछ शांतपना नहीं होता / जिस तरह केवल आगके जलनेसे दुःख होता है, वैसा ही दुःख इस गरम घीसे भी होता है / इसलिये इन्द्रियजनित सुखको गरम घीके समान जानना चाहिये / अर्थात् यह शुभोपयोग भी संसारके फलको देता है, इस कारण अशुभोपयोगके समान त्यागने योग्य है, ओर शुद्धोपयोग, आत्मीकसुखको ‘कि जिसमें किसी तरहकी भी आकुलता नहीं है' देता है,। इसलिये उपादेय है // 11 //
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित प्रवचनसार
गाथा -10
णत्थि विणा परिणाम अत्यो अत्थं विणेह परिणामो /
व्वगुणपज्जयत्थो अत्थो अस्थित्तणिवत्तो // 10 //
आगे वस्तुका स्वभावपरिणाम वस्तुसे अभिन्न (एकरूप) है, यह कहते हैं
[परिणाम विना अर्थः नास्ति] पर्यायके विना द्रव्य नहीं होता है। क्यों कि द्रव्य किसी समय भी परिणमन किये विना नहीं रहता, ऐसा नियम है / जो रहे, तो गधेके सींगके समान असंभव समझना चाहिये / जैसे गोरसके परिणाम दूध, दही, घी, तक्र (छांछ) इत्यादि अनेक हैं, इन निज परिणामोंके विना गोरस जुदा नहीं पाया जाता / जिस जगह ये परिणाम नहीं होते, उस जगह गोरसकी भी सत्ता ( मौजूदगी) नहीं होती। उसी तरह परिणामके विना द्रव्यको सत्ता (मौजूदगी) नहीं होती है। कोई ऐसा समझे कि, द्रव्यके विना परिणाम होता होगा, सो भी नहीं होता, [अर्थ विना परिणामो न] द्रव्यके विना परिणाम भी नहीं होता / क्योंकि परिणामका आधार द्रव्य है / जो द्रव्य ही न होवे, तो परिणाम किसके आश्रय रहे / यदि गोरस ही न होवे, तो दूध, दही, घी, तक्र इत्यादि पर्यायें कहाँसे होवें, इसी प्रकार द्रव्यके विना परिणाम अपनी मौजूदगीको नहीं पासकता है / तो कैसा पदार्थ अपने अस्तिपनेको पासकता है, [द्रव्यगुणपर्ययस्थः अर्थः] जो द्रव्य गुण पर्यायोंमें रहता है, वह पदार्थ [ अस्तित्वनिर्वत्तः] अस्तिपने ( मौजूदगी ) से सिद्ध होता है।
भावार्थ-
जिस जगह द्रव्य गुण पर्यायोंकी एकता हो, वहांपर ही द्रव्यका अस्तित्व है / जो इन तीनोंमेंसे एक भी कम होवे, तो पदार्थ ही न कहलावे। जैसे सुवर्ण द्रव्य है, और उसमें पीतादिगुण हैं, तथा कुण्डलादि पर्याय हैं जो इनमेंसे एककी भी कमी होती है, तो सोनेका अभाव ही होजाता है, ठीक इसी प्रकार दूसरे पदार्थों में भी ऐसा ही स्वरूप समझना। इससे यह बात सिद्ध हुई कि, परिणाम द्रव्यका पर्याय है। इसके बिना द्रव्यका अभाव होजाता है। यहाँपर इतनी विशेषता और भी समझना कि, जहाँ जैसा द्रव्य होता है, वहाँपर वैसे ही गुण पर्याय होते हैं, इस न्यायसे शुद्ध आत्माके शुद्ध गुण पर्याय और अशुद्ध आत्माके अशुद्ध गुण पर्याय होते हैं / जहाँ यह आत्मा शुभ अशुभ परिणामरूप परिणमता है, वहाँ इन अपने परिणामोंसे व्याप्य व्यापकरूप होता हुआ उसी स्वरूप हो जाता है। जब शुद्धपरिणामोरूप परिणमन करता है, तब उन्हीं स्वरूप होजाता है / क्योंकि परिणाम द्रव्यका स्वभाव है // 10 //
गाथा -11
धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपयोगजुदो।
पावदि णिव्वाणसुहं सुहोवजुत्तो व सग्गसुहं // 11 //
आगे शुभपरिणाम और शुद्धपरिणाम ये दोनों चारित्र हैं, इनके फलको कहते हैं
[यदि आत्मा शुद्धसंप्रयोगयुतः तदा निर्वाणसुखं प्राप्नोति ] जब आत्मा शुद्ध उपयोग सहित होता है, तब मोक्षसुखको पाता है। [ वा शुभोपयुक्तः ] और जब शुभोपयोगरूप भावोंमें परिणमता है, तब [स्वर्गसुखं ] स्वर्गोंके सुख पाता है / कैसा हैं, यह आत्मा [धर्मपरिणतात्मा] धर्मसे परिणमा है, स्वरूप जिसका /
भावार्थ-
वीतराग सराग भावोंकर धर्म दो प्रकारका हैं / जब यह आत्मा वीतराग आत्मीक धर्मरूप परिणमता हुआ शुद्धोपयोगभावोंमें परिणमन करता है, तब कर्मोंसे इसकी शक्ति रोकी नहीं जासकती। अपने कार्य करनेको समर्थ हो जाता हैं। इस कारण अनन्त अखण्ड निजसुख जो मोक्षसुख उसको स्वभाव ही से पाता है, और जब यह आत्मा, दान, पूजा, व्रत, संयमादिरूप सरागभावोंकर परिणमता हुआ शुभोपयोग परिणतिको धारण करता है, तब इसकी शक्ति कर्मोंसे रोकी जाती है / इसलिये मोक्षरूपी कार्य करनेको असमर्थ हो जाता है। फिर उस शुभोपयोग परिणमनसे कर्मबन्धरूप स्वर्गौके सुखोंको ही पाता है / यद्यपि शुभोपयोग चारित्रका अंग है, तो भी अपने सुखसे उलटा परके आधीन संसारसंबन्धी इन्द्रियोंसे उत्पन्न होनेवाले सुखका कारण है / क्योंकि यह राग-कषायसे मिला हुआ है, और जो इन्द्रियजन्य सुख है, वह वास्तवमें दुःख ही है। जैसे कोई पुरुष गरम धी अपनी देहपर डालता है, तो उससे वह दाहके दुःखको पाता है। ऐसे घीके भी लगनेसे कुछ शांतपना नहीं होता / जिस तरह केवल आगके जलनेसे दुःख होता है, वैसा ही दुःख इस गरम घीसे भी होता है / इसलिये इन्द्रियजनित सुखको गरम घीके समान जानना चाहिये / अर्थात् यह शुभोपयोग भी संसारके फलको देता है, इस कारण अशुभोपयोगके समान त्यागने योग्य है, ओर शुद्धोपयोग, आत्मीकसुखको ‘कि जिसमें किसी तरहकी भी आकुलता नहीं है' देता है,। इसलिये उपादेय है // 11 //
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी