प्रवचनसारः गाथा -10, 11
#1

श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित प्रवचनसार

गाथा -10



णत्थि विणा परिणाम अत्यो अत्थं विणेह परिणामो /
व्वगुणपज्जयत्थो अत्थो अस्थित्तणिवत्तो // 10 //


आगे वस्तुका स्वभावपरिणाम वस्तुसे अभिन्न (एकरूप) है, यह कहते हैं

[परिणाम विना अर्थः नास्ति] पर्यायके विना द्रव्य नहीं होता है। क्यों कि द्रव्य किसी समय भी परिणमन किये विना नहीं रहता, ऐसा नियम है / जो रहे, तो गधेके सींगके समान असंभव समझना चाहिये / जैसे गोरसके परिणाम दूध, दही, घी, तक्र (छांछ) इत्यादि अनेक हैं, इन निज परिणामोंके विना गोरस जुदा नहीं पाया जाता / जिस जगह ये परिणाम नहीं होते, उस जगह गोरसकी भी सत्ता ( मौजूदगी) नहीं होती। उसी तरह परिणामके विना द्रव्यको सत्ता (मौजूदगी) नहीं होती है। कोई ऐसा समझे कि, द्रव्यके विना परिणाम होता होगा, सो भी नहीं होता, [अर्थ विना परिणामो न] द्रव्यके विना परिणाम भी नहीं होता / क्योंकि परिणामका आधार द्रव्य है / जो द्रव्य ही न होवे, तो परिणाम किसके आश्रय रहे / यदि गोरस ही न होवे, तो दूध, दही, घी, तक्र इत्यादि पर्यायें कहाँसे होवें, इसी प्रकार द्रव्यके विना परिणाम अपनी मौजूदगीको नहीं पासकता है / तो कैसा पदार्थ अपने अस्तिपनेको पासकता है, [द्रव्यगुणपर्ययस्थः अर्थः] जो द्रव्य गुण पर्यायोंमें रहता  है, वह पदार्थ [ अस्तित्वनिर्वत्तः] अस्तिपने ( मौजूदगी ) से सिद्ध होता है।
भावार्थ-
जिस जगह द्रव्य गुण पर्यायोंकी एकता हो, वहांपर ही द्रव्यका अस्तित्व है / जो इन तीनोंमेंसे एक भी कम होवे, तो पदार्थ ही न कहलावे। जैसे सुवर्ण द्रव्य है, और उसमें पीतादिगुण हैं, तथा कुण्डलादि पर्याय हैं जो इनमेंसे एककी भी कमी होती है, तो सोनेका अभाव ही होजाता है, ठीक इसी प्रकार दूसरे पदार्थों में भी ऐसा ही स्वरूप समझना। इससे यह बात सिद्ध हुई कि, परिणाम द्रव्यका पर्याय है। इसके बिना द्रव्यका अभाव होजाता है। यहाँपर इतनी विशेषता और भी समझना कि, जहाँ जैसा द्रव्य होता है, वहाँपर वैसे ही गुण पर्याय होते हैं, इस न्यायसे शुद्ध आत्माके शुद्ध गुण पर्याय और अशुद्ध आत्माके अशुद्ध गुण पर्याय होते हैं / जहाँ यह आत्मा शुभ अशुभ परिणामरूप परिणमता है, वहाँ इन अपने परिणामोंसे व्याप्य व्यापकरूप होता हुआ उसी स्वरूप हो जाता है। जब शुद्धपरिणामोरूप परिणमन करता है, तब उन्हीं स्वरूप होजाता है / क्योंकि परिणाम द्रव्यका स्वभाव है // 10 //


गाथा -11
धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपयोगजुदो।
पावदि णिव्वाणसुहं सुहोवजुत्तो व सग्गसुहं // 11 //

आगे शुभपरिणाम और शुद्धपरिणाम ये दोनों चारित्र हैं, इनके फलको कहते हैं

[यदि आत्मा शुद्धसंप्रयोगयुतः तदा निर्वाणसुखं प्राप्नोति ] जब आत्मा शुद्ध उपयोग सहित होता है, तब मोक्षसुखको पाता है। [ वा शुभोपयुक्तः ] और जब शुभोपयोगरूप भावोंमें परिणमता है, तब [स्वर्गसुखं ] स्वर्गोंके सुख पाता है / कैसा हैं, यह आत्मा [धर्मपरिणतात्मा] धर्मसे परिणमा है, स्वरूप जिसका /
भावार्थ-
वीतराग सराग भावोंकर धर्म दो प्रकारका हैं / जब यह आत्मा वीतराग आत्मीक धर्मरूप परिणमता हुआ शुद्धोपयोगभावोंमें परिणमन करता है, तब कर्मोंसे इसकी शक्ति रोकी नहीं जासकती। अपने कार्य करनेको समर्थ हो जाता हैं। इस कारण अनन्त अखण्ड निजसुख जो मोक्षसुख उसको स्वभाव ही से पाता है, और जब यह आत्मा, दान, पूजा, व्रत, संयमादिरूप सरागभावोंकर परिणमता हुआ शुभोपयोग परिणतिको धारण करता है, तब इसकी शक्ति कर्मोंसे रोकी जाती है / इसलिये मोक्षरूपी कार्य करनेको असमर्थ हो जाता है। फिर उस शुभोपयोग परिणमनसे कर्मबन्धरूप स्वर्गौके सुखोंको ही पाता है / यद्यपि शुभोपयोग चारित्रका अंग है, तो भी अपने सुखसे उलटा परके आधीन संसारसंबन्धी इन्द्रियोंसे उत्पन्न होनेवाले सुखका कारण है / क्योंकि यह राग-कषायसे मिला हुआ है, और जो इन्द्रियजन्य सुख है, वह वास्तवमें दुःख ही है। जैसे कोई पुरुष गरम धी अपनी देहपर डालता है, तो उससे वह दाहके दुःखको पाता है। ऐसे घीके भी लगनेसे कुछ शांतपना नहीं होता / जिस तरह केवल आगके जलनेसे दुःख होता है, वैसा ही दुःख इस गरम घीसे भी होता है / इसलिये इन्द्रियजनित सुखको गरम घीके समान जानना चाहिये / अर्थात् यह शुभोपयोग भी संसारके फलको देता है, इस कारण अशुभोपयोगके समान त्यागने योग्य है, ओर शुद्धोपयोग, आत्मीकसुखको ‘कि जिसमें किसी तरहकी भी आकुलता नहीं है' देता है,। इसलिये उपादेय है // 11 //



मुनि श्री प्रणम्य सागर जी


Manish Jain Luhadia 
B.Arch (hons.), M.Plan
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#2

Gatha-10 

Substance (dravya) does not exist without the mode (paryāya).
As a rule, at no time substance (dravya) can exist without its modification (parināma). Only in imagination can the substance exist without its modification, like a kharavisāna – the ‘horns of a hare’. Different modes of cow-produce (gorasa) – like milk, curd, butter, cheese and buttermilk – exist due to the presence of cow-produce; in the same way, modes (paryāya) exist only due to the presence of the substance (dravya). In addition, without the existence of the substance (dravya), modifications (parināma) cannot exist. It is because the substance (dravya) is the source or foundation of modifications (parināma); if there were no substance (dravya), on what would its modifications (parināma) subsist? If there were no cow-produce (gorasa), on what would milk, curd, butter, cheese and buttermilk subsist? The existence of an object can only be established with the existence of all three
– the substance (dravya), the quality (guna), and the mode (paryāya).

Explanatory Note: 
Only when there is simultaneous existence of the substance (dravya), the quality (guna), and the mode (paryāya), there is existence of the object. Without presence of any
of these three, the existence of the object cannot be established.
For example, gold is a substance (dravya), yellowness is its quality (guna), and earring is its mode (paryāya). Without any of these three, the existence of gold cannot be established. The modification (parināma) of the object is the mode (paryāya) of the substance (dravya). Without the mode (paryāya), there is no existence of the substance (dravya). The quality (guna), and the mode (paryāya) are determined by the nature of the substance (dravya). Accordingly, the pure soul has pure quality and pure mode. When the soul has either auspicious (śubha) or inauspicious (aśubha) modifications (parināma), it becomes one with these modifications. When the soul has pure (śuddha) modification (parināma), it becomes one with such modification. Modifications (parināma) are the nature of the substance (dravya).

Gatha-11

The soul that is established in own nature (svabhāva or dharma), when engaged in pure-cognition (śuddhopayoga), it attains the bliss of liberation (moksa). When engaged in
auspicious-cognition (śubhopayoga), it attains happiness appertaining to the celestial beings.
Explanatory Note: 
The soul has two kinds of conduct or dharma – conduct-without-attachment (vītarāga cāritra) and conduct with- attachment (sarāga cāritra). The soul that manifests in pure cognition (śuddhopayoga) exhibits conduct-without-attachment (vītarāga cāritra). When the soul is in the state of pure-cognition (śuddhopayoga), karmas cannot subdue its power. It becomes capable of attaining its own pure state, the state of infinite and indestructible happiness, i.e., liberation. When the soul is in the state of auspicious-cognition (śubhopayoga) it exhibits conductwith attachment (sarāga cāritra). Auspicious-cognition
(śubhopayoga) manifests in dispositions like charity, adoration of the Supreme Beings, observance of vows, and self-restraint. When the soul is engaged in auspicious-cognition (śubhopayoga), influx of the karmas of auspicious nature takes place; as a result, natural
powers of the soul get subdued and it cannot attain the state of liberation (moksa). The bondage of auspicious karmas results in attainment of happiness appertaining to the celestial beings. Auspicious-cognition (śubhopayoga) is a limb of conduct (cāritra or dharma) but as it is tinged with attachment (rāga) and passions 
(kasāya), it leads to the attainment of happiness that is sense dependent.
The happiness derived out of the senses is, in reality, suffering. Hot clarified-butter (ghee) put on the body must cause a burning sensation like that from fire. Hot clarified-butter (ghee) is not in its natural, cool state. Being the cause of bondage of karmas,
auspicious-cognition (śubhopayoga), like inauspicious-cognition (aśubhopayoga), renders the soul wander in worldly existence (sansāra) and is not worthy to uphold. The happiness derived out of pure-cognition (śuddhopayoga) is real soul-happiness, rid of all
anxiety, and, therefore, worthy to uphold.

Consciousness (cetanā) manifests in form of cognition (upayoga). Through the faculty of cognition (upayoga), the soul (jīva) engages in knowledge (jñāna) or perception (darśana) of the knowable (substance or jñeya). Cognition (upayoga) is the differentia of the soul. It is inseparable from the soul as it occupies the same space-points as the soul; the difference is only empirical (vyavahāra), to facilitate expression of the attribute of the soul.
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#3

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -9,10
यहाँ शुभाशुभशुद्धरूपसे तीन तरह परिणमन करे
है परिणमन स्वभाव चेतन जो कि तदा तत्राम धरे ॥
वस्तु बिना परिणाम और परिणाम विना न वस्तु कोई
क्योंकि द्रव्य गुण पर्ययवाली वस्तु वही जो हो सोई ॥ ५ ॥

गाथा -11,12
शुद्धोपयोग युत होता है पाता है निर्वाण वही
जब होता है शुभोपयोगी तो पाता है स्वर्ग सही ॥
अशुभोदयसे तो कुमत्यं तिर्यञ्च नारकी हो करके ।
चोर दुःख पाता अनन्त संसारितया यह मर करके ॥

गाथा -7,8,9,10

सारांश:- ज्ञानके द्वारा जाननेमें आवे उसे वस्तु या अर्थ कहते हैं, वह द्रव्य गुण और पर्यायात्मक सत्ताको स्वीकार किये हुए सद्रूप होता है। जो अपने आपको स्वीकार करते हुए भी औरसे और रूपमें होता रहे उसे द्रव्य कहते हैं। उस द्रव्यको स्थित रखनेवाली शक्तिको गुण और उसके परिवर्तनको पर्याय कहते हैं। ये तीनों बातें जहाँ पर हों वह वस्तु ज्ञानका विषय हुआ करती है। अब यहाँ पर एक बात विचारणीय है, वह यह है कि
गुण और पर्याय ये दोनों बातें जिसमें हों वह द्रव्य होता है। उसी को वस्तु कहते हैं और वहीं ज्ञानका विषय होता है, ऐसा हरएक विद्वान् मानता है परन्तु श्री कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं कि द्रव्य, गुण और पर्याय ये तीनों बातें जिसमें हों वह वस्तु ज्ञानका विषय होती है। मानलो हमारे सम्मुख एक चीज आई जो हमारे अनुभवमें इसप्रकार आती हैं कि
यह एक खट्टे रसवाला आम है। इसमें आम तो विकारी द्रव्य है। जिसका रस गुण है और खट्टापन उस रस गुणकी पर्याय है। सो वहाँ पर वह उस आमका रसगुण खट्टेपन मात्र ही नहीं, किन्तु उससे अधिक दायरेवाला है। वहाँ खट्टापन मिटकर मोठापन आनेवाला है। इसीप्रकार आम भी रसगुण मात्र ही न होकर वह उससे भिन्न कहलानेवाले रूप, स्पर्श, गन्धादि अनेक गुणोंका पुञ्ज है। जिससे रसगुण कथञ्चित् भिन्न है, जो कि रसना इन्द्रियके द्वारा पहिचाना जाता है एवं द्रव्य, गुण पर्याय ये तोनों हमारी दृष्टिमें भिन्न भिन्न होकर भी ऐसे भिन्न नहीं है कि उनको हम देशापेक्षया भी भिन्न कर सकें जिस प्रदेश अर्थात् वस्तुमें खट्टेपनको लिए हुए हमें रसका अनुभव होता है, वहीं पर उसके साथ साथ इतर स्पर्शादि गुणोंके पुञ्जात्मक आमका भी अनुभव हो रहा है। वस्तु परिणमनशील होती है। जो अपने परिणमन के साथमें तादात्म्य, अभिन्न भावको लिए हुए हुआ करती है। वस्तुमें हरसमय कोई न कोई परिणमन अवश्य होता ही है। वस्तुको छोड़कर परिणमन नहीं होता है। इसीप्रकार परिणमनके बिना वस्तु भी स्थित नहीं रह सकती है।

आत्मा भी वस्तु है अतः परिणमनशील है। जिसका परिणमन शुभ, अशुभ और शुद्धके भेदसे तीन तरहका होता है और जब जैसा परिणमन होता है उस समय वह आत्मा ही स्वयं वैसा बन जाता है। शुभ परिणमनके समय शुभ तथा अशुभके समय अशुभ और शुद्धके समय यह आत्मा हो शुद्ध हो जाता है।


गाथा -11,12
सारांश:- यहाँ पर पाठक देख रहे हैं कि शुद्ध और शुभके साथमें तो उपयोग शब्द है किन्तु अशुभके साथ उपयोग शब्द न होकर उदय शब्द दिया गया है। ऐसा क्यों? इसका मतलब यह है कि शुद्ध या शुभ उपयोगकी अवस्थामें आत्मा अपने आत्मत्व को स्वीकार किये हुए रहता है किन्तु अशुभ की दशा में आत्मभाव आत्मत्वसे दूर हटकर उत्पथको अपनाये हुए रहा करता है। शुद्ध या शुभोपयोगी जीव धर्मात्मा होता है और अशुभोपयोगी जीव अधर्मी, पापी, पाखण्डी होता है। इसीलिये वह नरकादिक दुःखोंका भाजन होता है।

शङ्काः- आपने शुभोपयोगी जीवको धर्मात्मा बताया सोग तो समझमें नहीं आया क्योंकि धर्म तो शुद्धोपयोगका नाम है, जिससे मुक्तिकी प्राप्ति है है एवं वह जिसके हो उसे धर्मात्मा कहना ठीक है जैसा कि यहाँ पर नं० ११ की गाथामें - 'यदि आत्मा शुद्धसम्प्रयोगयुतस्तदा तदा धर्मेण परिणतो भवति यतो निर्वाणसुखं प्राप्नोति' लिखा हुआ है तथा और भी जैन ग्रंथोंमें हमने तो यही सुना है कि जो जीवको मुक्ति प्राप्त करा देता है, वहीं धर्म है जैसा कि श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें कहा है-
'देशयामि समीचीनं धर्म कर्मनिवर्हणम्। संसार दुःखतः सत्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे ॥ २ ॥ ' 
इस श्लोकसे भी स्पष्ट हो रहा है। शुभोपयोग तो अशुभोपयोगकी तरहसे हो संसारका कारण है। यह बात दूसरी है कि- अशुभोपयोगसे नरक निगोदमें जाता है और शुभोपयोगसे स्वर्गमें जाता है।

उत्तरः- यह तो तुम्हारा कहना ठीक है कि जीवको मुक्ति प्राप्त करानेवाला धर्म है किन्तु संसारमें ही घुमानेवाला अधर्म होता है। फिर भी जैनाचार्योंने उस धर्मको सम्यक्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूपसे तीन भागोंमें विभक्त कर बताया है जैसा कि इसी ग्रंथकी छठी गाथामें भी आया है। उसमें भी प्रधानता सम्यक्चारित्रकी है क्योंकि सफलता चारित्रके हो आधीन है। सरल शब्दों में, समता भावका नाम चारित्र है जो कि मोह और क्षोभसे या अहंकार और ममकारसे रहित आत्माका परिणाम होता है। जैसा कि यहीं सातवीं गाथामें बताया जा चुका है। वह चारित्र दो प्रकारको होता है। एक तो मोह और क्षोभसे सर्वथा रहित होता है अतः संसाराभावरूप अपने कार्यको करनेमें पूर्ण समर्थ होता है उसे शुद्धोपयोग या वीतराग चारित्र कहते हैं।
दूसरा वह होता हैं- जहाँ मोहका तो अभाव होता है परन्तु क्षोभ (राग द्वेष) का सर्वथा अभाव न होकर आंशिक सद्भाव बना रहता है जिससे वह अपनी शक्तिका विकास न कर सकने के कारण तत्काल अपने कार्यको सम्पन्न नहीं कर सकता है। ऐसे चारित्रको हो सरामचारित्र या शुभोपयोग कहते हैं। इस शुभोपयोग वाला जीव लौकान्तिक या अनुत्तरिक देव तथा बलभद तीर्थंकरादि पद पाता हुआ अपनी आत्मामें समाश्वासन प्राप्त करता है। जो कि शुभोपयोग एक अशक्त धर्मात्माके लिए शक्ति सम्पादनका हेतु होनेसे ठीक ही है।

शङ्काः तो फिर टीकाकार अमृतचंद्राचार्यने उसे (शुभोपयोग) हेय क्यों लिखा?

उत्तर:- उन्होंने शुद्धोपयोगको दृष्टिमें रखते हुए शुभयोगको हेय बताया है, सो ठीक ही है। शुद्ध अपेक्षा तो शुभोपयोग हलका ही है जैसे मानलो, दो मनुष्य एक स्थान पर जानेके लिये रवाना हुए। इनमेंसे जो दृढाध्यवसायी है वह बेरोकटोक सीधा शीघ्रता से चला जारहा है। दूसरा भी उसी सड़क पर धीरे धीरे बीचमें विश्राम लेते हुए चल रहा है। ये दोनों ही एक ही पथके पथिक हैं परन्तु चलने में उत्तमता पहिले मनुष्यकी है। इसीप्रकार शुद्धोपयोगी और शुभोपयोगी इन दोनोंका सम्यक्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप मार्ग एक ही है। दोनों ही मुक्तिको लक्ष्यमें लेकर चलते हैं अतः दोनों ही धर्मानुयायी हैं। भेद इतना ही है कि वह (शुद्धोपयोगी) खेद रहित है और यह ( शुभोपयोगी) खिन्नताको लिए हुए है। जैसा कि टीकाकार श्री अमृतचन्द्र लिखते हैं

यदायमात्मा धर्मपरिणतस्वभावः शुद्धोपयोगपरिणतिमुद्वहति तदा निःप्रत्यनीकशक्तितया स्वकार्यकरणसमर्थचारित्रः साक्षान्मोक्षमवाप्नोति । यदा तु धर्मपरिणतस्वभावोऽपि शुभोपयोगपरिणत्या संगच्छते तदा संप्रत्यनीकशक्तितया स्वकार्यकरणासमर्थः कथंचिद्विरुद्धकार्यकारिचारित्रः शिखितप्तघृतोपसिक्तपुरुषो दाहदुःखमिव स्वर्गसुखबन्धमवाप्नोति ।

आचार्य महाराज कहते हैं कि मानलो दो मनुष्य हैं जिनके रूक्ष हवा लगनेसे शरीरमें दर्द होगया है । दोनों ठीक होना चाहते हैं। इनमें एक व्यायामशील है जो दण्ड बैठकादि करके पसीना निकल जानेसे अनायास ही स्वस्थ हो जाता है। दूसरा अपने शरीरके दर्दको मिटानेके लिए अग्नि पर ऊष्ण किये हुए तेल या घृतकी मालिश करता है जिससे उसका दर्द तो धीरे २ कम होजाता है परन्तु इसके जो गरम गरम तेल लगाया जारहा है उसको कुछ पीड़ा भी होरही है। इसीप्रकार शुद्धोपयोगी और शुभोपयोगी ये दोनों ही मोक्षमार्गी हैं। दोनों ही धर्मात्मा हैं परन्तु इनमेंसे शुद्धोपयोगी जीव तो अपनी पूर्ण शक्तिसे धर्ममें लगा हुआ रहता है अतः साक्षात् मोक्षको प्राप्त कर लेता है, और शुभोपयोगी जीव भी धर्मरूप अवश्य परिणत होरहा है फिर भी वह अपनी शक्ति दबी हुई होनेसे अपना अभीष्ट कार्य पूरा न कर सकनेके कारण सुधाररूप चेष्टाके साथ साथ कुछ बिगाड़रूप चेष्टाको भी लिये हुए होता है अतः स्वर्गसुख प्राप्त करता है। मतलब यह है कि शुभोपयोगी जीव अपूर्ण धर्मात्मा होता है।

अशुभोपयोगी जीव तो सर्वथा ही धर्मशून्य अधर्मी पापी होता है जिससे वह कुयोनियों में परिभ्रमण करता रहता है। जैसा कि श्री अमृतचंद्रजी बारहवीं गाथाके अर्थमें लिख रहे हैं "यदायमात्मा मनागपि धर्मपरिणतिमना सादयन्नशुभोपयोगपरिणतिमालम्बते तदां कुमनुष्यतिर्यङ नारकभवभ्रमणरूप-दु:खसहस्रबन्धमनुभवति'। यह सब लिखनेका तात्पर्य यह है कि अशुभोपयोग अत्यन्त हेय है। इससे शुभोपयोग अच्छा है क्योंकि इसके हो जाने पर धर्म की अभिरुचि अवश्य होती है परन्तु उस धर्मकी पूर्णता शुद्धोपयोगके बिना नहीं हो सकती है। वास्तविक अतीन्द्रिय स्वाभाविक आत्मीय सुखकी प्राप्ति शुद्धोपयोग वालेको ही होती है,
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