08-01-2022, 09:07 AM
श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित प्रवचनसार
गाथा -14
सुविदिदपयत्थसुत्तो संजमतवसंजुदो विगदरागो।
समणो समसुहदुक्खो भणिदो सुद्धोवओगो त्ति॥१४॥
आगे शुद्धोपयोग सहित जीवका स्वरूप कहते हैं--
[एतादृशः श्रमणः शुद्धोपयोगः इति भणितः] ऐसा परम मुनि शुद्धोपयोग भावस्वरूप परिणमता है। इस प्रकार वीतरागदेवने कहा है। कैसा है, वह श्रमण अर्थात् मुनि / [सुविदितपदार्थसूत्रः] अच्छी रीतिसे जान लिये हैं, जीवादि नव पदार्थ तथा इन पदार्थोका कहनेवाला सिद्धांत जिसने, अर्थात् जिसने अपना और परका भेद भले प्रकार जान लिया है, श्रद्धान किया है, तथा निजस्वरूपमें ही आचरण किया है, ऐसा मुनीश्वर ही शुद्धोपयोगवाला है। फिर कैसा है ? [संयमतपःसंयुतः] पाँच इन्द्रिय तथा मनकी अभिलाषा और छह कायके जीवोंकी हिंसा इनसे आत्माको रोककर अपने स्वरूपका आचरण रूप जो संयम, और बाह्य तथा अंतरंग बारह प्रकार के तपके बलकर स्वरूपकी स्थिरताके प्रकाशसे ज्ञानका तपन (दैदीप्यमान होना) स्वरूप तप, इन दोनों कर सहित है / फिर कैसा है ? [विगतरागः] दूर हुआ हैं, परद्रव्यसे रमण करना रूप परिणाम जिसका / फिर कैसा है ? [समसुखदुःखः] समान हैं, सुख और दुःख जिसके अर्थात् उत्कृष्टज्ञान की कलाकी सहायताकर इष्ट वा अनिष्टरूप इन्द्रियोंके विषयोंमें हर्ष तथा खेद नहीं करता है, ऐसा जो श्रमण है, वही शुद्धोपयोगी कहा जाता है |
गाथा -15
उवओगविसुद्धो जो विगदावरणंतरायमोहरओ।
भूदो सयमेवादा जादि परं णेयभूदाणं // 15 //
आगे शुद्धोपयोगके लाभके बाद ही शुद्ध आत्मस्व भाक्की प्राप्ति होती हैं, ऐसा कहते हैं-
[यः उपयोगशुद्धः आत्मा ज्ञेयभूतानां पारं याति] जो आत्मा शुद्धोपयोगसे निर्मल हो गया है, वही आत्मा सब पदार्थोके अंतको पाता है, अर्थात् जो शुद्धोपयोगी जीव है, वही तीनकालवर्ती समस्त पदार्थोके जाननेवाले केवलज्ञानको प्राप्त होता है, कैसा होता हुआ कि [विगतावरणान्तरायमोहरजाः स्वयमेव भूतः सन् ] दूर हुई ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय, तथा मोहनीयकर्मरूप धूलि (मल) जिससे ऐसा आप ही होता हुआ / भावार्थजो शुद्धोपयोगी जीव है, वह गुणस्थान गुणस्थान प्रति शुद्ध होता हुआ बारहवें गुणस्थान के अन्तमें संपूर्ण चार घातिया कर्मोंका नाशकर केवलज्ञानको पाता है, और आत्माका स्वभाव ज्ञान है, ज्ञान ज्ञेयके प्रमाण है, ज्ञेय तीनों कालोंमें रहेनेवाले सब पदार्थ हैं, इसलिये शुद्धोपयोग के प्रसादसे ही यह आत्मा सब ज्ञेयोंको जाननेवाले केवलज्ञानको प्राप्त होता है |
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित प्रवचनसार
गाथा -14
सुविदिदपयत्थसुत्तो संजमतवसंजुदो विगदरागो।
समणो समसुहदुक्खो भणिदो सुद्धोवओगो त्ति॥१४॥
आगे शुद्धोपयोग सहित जीवका स्वरूप कहते हैं--
[एतादृशः श्रमणः शुद्धोपयोगः इति भणितः] ऐसा परम मुनि शुद्धोपयोग भावस्वरूप परिणमता है। इस प्रकार वीतरागदेवने कहा है। कैसा है, वह श्रमण अर्थात् मुनि / [सुविदितपदार्थसूत्रः] अच्छी रीतिसे जान लिये हैं, जीवादि नव पदार्थ तथा इन पदार्थोका कहनेवाला सिद्धांत जिसने, अर्थात् जिसने अपना और परका भेद भले प्रकार जान लिया है, श्रद्धान किया है, तथा निजस्वरूपमें ही आचरण किया है, ऐसा मुनीश्वर ही शुद्धोपयोगवाला है। फिर कैसा है ? [संयमतपःसंयुतः] पाँच इन्द्रिय तथा मनकी अभिलाषा और छह कायके जीवोंकी हिंसा इनसे आत्माको रोककर अपने स्वरूपका आचरण रूप जो संयम, और बाह्य तथा अंतरंग बारह प्रकार के तपके बलकर स्वरूपकी स्थिरताके प्रकाशसे ज्ञानका तपन (दैदीप्यमान होना) स्वरूप तप, इन दोनों कर सहित है / फिर कैसा है ? [विगतरागः] दूर हुआ हैं, परद्रव्यसे रमण करना रूप परिणाम जिसका / फिर कैसा है ? [समसुखदुःखः] समान हैं, सुख और दुःख जिसके अर्थात् उत्कृष्टज्ञान की कलाकी सहायताकर इष्ट वा अनिष्टरूप इन्द्रियोंके विषयोंमें हर्ष तथा खेद नहीं करता है, ऐसा जो श्रमण है, वही शुद्धोपयोगी कहा जाता है |
गाथा -15
उवओगविसुद्धो जो विगदावरणंतरायमोहरओ।
भूदो सयमेवादा जादि परं णेयभूदाणं // 15 //
आगे शुद्धोपयोगके लाभके बाद ही शुद्ध आत्मस्व भाक्की प्राप्ति होती हैं, ऐसा कहते हैं-
[यः उपयोगशुद्धः आत्मा ज्ञेयभूतानां पारं याति] जो आत्मा शुद्धोपयोगसे निर्मल हो गया है, वही आत्मा सब पदार्थोके अंतको पाता है, अर्थात् जो शुद्धोपयोगी जीव है, वही तीनकालवर्ती समस्त पदार्थोके जाननेवाले केवलज्ञानको प्राप्त होता है, कैसा होता हुआ कि [विगतावरणान्तरायमोहरजाः स्वयमेव भूतः सन् ] दूर हुई ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय, तथा मोहनीयकर्मरूप धूलि (मल) जिससे ऐसा आप ही होता हुआ / भावार्थजो शुद्धोपयोगी जीव है, वह गुणस्थान गुणस्थान प्रति शुद्ध होता हुआ बारहवें गुणस्थान के अन्तमें संपूर्ण चार घातिया कर्मोंका नाशकर केवलज्ञानको पाता है, और आत्माका स्वभाव ज्ञान है, ज्ञान ज्ञेयके प्रमाण है, ज्ञेय तीनों कालोंमें रहेनेवाले सब पदार्थ हैं, इसलिये शुद्धोपयोग के प्रसादसे ही यह आत्मा सब ज्ञेयोंको जाननेवाले केवलज्ञानको प्राप्त होता है |
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी