08-01-2022, 10:42 AM
श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -16
तह सो लद्धसहावो सव्वण्हू सव्वलोगपदिमहिदो।
भूदो सयमेवादा हवदि सयंभु ति णिद्दिट्टो // 16 //
अन्वयार्थ- (तध) इस प्रकार (सो आदा) वह आत्मा (लद्धसहाओ) स्वभाव को प्राप्त । (सवण्ह) सर्वज्ञ (सव्वलोगपदिमहिदो) और सर्व लोक के अधिपतियों से पूजित (सयमेव भूदो)। स्वयमेव हुआ होने से (सयंभु हवदि) स्वयंभू है, (त्ति णित्रिदो) ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है।
आगे शुद्धोपयोगका फल जो केवलज्ञानमय शुद्धात्मका लाभ वह जिस समय इस आत्माको होता है, तब कर्ता-कर्मादि छह कारकरूप आप ही होता हुआ स्वाधीन होता है, और किसी दूसरे कारकको नहीं चाहता है, यह कहते हैं-
[स आत्मा स्वयंभूः भवति इति निर्दिष्टः ] जैसे शुद्धोपयोगके प्रभावसे केवलज्ञानादि गुणोंको प्राप्त हुआ था, उसी प्रकार वही आत्मा 'स्वयंभू' नामवाला भी होता है, ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा हैं / तात्पर्य यह है, कि जो आत्मा केवलज्ञानादि स्वाभाविक गुणोंको प्राप्त हुआ हो, उसीका नाम स्वयंभू है। क्योंकि व्याकरणकी व्युत्पत्तिसे भी जो ‘स्वयं' अर्थात् आप ही से अर्थात् दूसरे द्रव्यकी सहायता विना ही ‘भवति' अर्थात् अपने स्वरूप होवे, इस कारण इसका नाम स्वयंभू कहा गया है, यह आत्मा अपने स्वरूपकी प्राप्तिके समय दूसरे कारककी इच्छा नहीं करता है / आप ही छह कारकरूप होकर अपनी सिद्धि करता है, क्योंकि आत्मामें अनंत शक्ति है, कैसा है वह [लब्धस्वभावः] प्राप्त किया है, घातिया कर्मोंके नाशसे अनंतज्ञानादि शक्तिरूप अपना स्वभाव जिसने / फिर कैसा है ? [सर्वज्ञः] तीन कालमें रहनेवाले सब पदार्थोंको जाननेवाला है। फिर कैसा है ? स्वयंभू आत्मा / [ सर्वलोकपतिमहितः] तीनों भुवनोंके स्वामी इन्द्र धरणेन्द्र चक्रवर्ती इनकर पूजित है / फिर कैसा है ? स्वयमेव भूतः] अपने आप ही परकी सहायताके विना अपने शुद्धोपयोगके बलसे अनादि अविद्यासे उत्पन्न हुए अनेक प्रकारके बन्धों को तोड़कर निश्चयसे इस पदवीको प्राप्त हुआ है, अर्थात् सकल सुर, असुर, मनुष्योंके स्वामियोंसे पूज्य सर्वज्ञ वीतराग तीन लोकका स्वामी शुद्ध अपने स्वयंभूपदको प्राप्त हुआ है।
अब षट्कारक दिखाते हैं-
कर्ता 1 कर्म 2 करण 3 संप्रदान 4 अपादान 5 अधिकरण 6 ये छह कारकोंके नाम हैं, और ये सब दो दो तरहके हैं, एक व्यवहार दूसरा निश्चय / उनमें जिस जगह परके निमित्तसे कार्यकी सिद्धि कीजाय, वहाँ व्यवहार षट्कारक होना है, और जिस जगह अपनेमें ही अपनेको उपादान कारण कर अपने कार्यकी सिद्धि कीजावे, वहाँ निश्चय षट्कारक हैं / व्यवहार छह कारक उपचार असद्भूतनयकर सिद्धि किये जाते हैं, इस कारण असत्य हैं, निश्चय छह कारक, अपनेमें ही जोड़े जाते हैं, इसलिये सत्य हैं / क्योंकि वास्तवमें कोई द्रव्य किसी द्रव्यका कर्ता व हर्ता नहीं है, इसलिये व्यवहारकारक असत्य है, अपनेको आप ही करता है, इस कारण निश्चयकारक सत्य है। जो स्वाधीन होकर करे, वह कर्ता, जो कार्य किया जावे, वह कर्म, जिसकर किया जावे, वह करण, जो कर्मकर दिया जावे वह संप्रदान, जो एक अवस्थाको छोड़ दूसरी अवस्थारूप होवे, वह अपादान, जिसके आधार कर्म होवे, वह अधिकरण कहा जाता है। अब दोनों कारकोंका दृष्टांत दिखलाते हैं। उनमें प्रथम व्यवहारकर इस तरह है-जैसे कुंभकार (कुम्हार) कर्ता है, घड़ारूप कार्यको करता है, इससे घट कर्म है, दंड चक्र चीवर (छोरा) आदिकर यह घट कर्म सिद्ध होता है, इसलिये दंड आदिक करण कारक हैं, जल वगैरःके भरनेके लिये घट दिया जाता है, इसलिये संप्रदानकारक है, मिट्टीकी पिंडरूपादि अवस्थाको छोड़ घट अवस्थाको प्राप्त होना अपादानकारक है, भूमिके आधार से घटकर्म किया जाता है, बनाया जाता है, इसलिये भूमि अधिकरणकारक समझना, इस प्रकार ये व्यवहार कारक हैं। क्योंकि इनमें कर्ता दूसरा है, कर्म अन्य है, करण अन्य ही द्रव्य है, दूसरे ही को देना दूसरेसे करना / आधार जुदा ही है / निश्चय छह कारक अपने आप ही में होते हैं, जैसे-मृत्तिकाद्रव्य (मट्टी) करता है, अपने घट परिणाम कर्मको करता है, इसलिये आप ही कर्म है, आप ही अपने घट परिणामको सिद्ध करता है, इसलिये स्वयं ही करण है, अपने घट परिणामको करके अपनेको ही सौंप देता है, इस कारण आप ही संप्रदान है / अपनी मृत्पिड अवस्थाको छोड़ अपनी घट अवस्थाको करता है, इसलिये आप ही अपादान है / अपनेमें ही अपने घटपरिणामको करता है, इसलिये आप ही अधिकरण है / इस तरह ये निश्चय षट्कारक हैं, क्योंकि किसी भी दूसरे द्रव्यकी सहायता नहीं है, इस कारण अपने आपमें ही ये निश्चयकारक साधे जाते हैं। इसी प्रकार यह आत्मा संसार अवस्थामें जब शुद्धोपयोगभावरूप परिणमन करता है, उस समय किसी दूसरेकी सहायता (मदद) न लेकर अपनी ही अनंत शुद्धचैतन्यशक्तिकर आप ही छह कारकरूप होके केवलज्ञानको पाता है, इसी अवस्थामें 'स्वयंभू' कहा जाता है। शुद्ध अनंतशक्ति तथा ज्ञायकस्वभाव होनेसे अपने आधीन होता हुआ यह आत्मा अपने शुद्ध ज्ञायकस्वभावको करता है, इसलिये आप ही कर्ता है, और जिस शुद्धज्ञायकस्वभावको करता है, वह आत्माका कर्म है, सो वह कर्म आप ही है, क्योंकि शुद्ध-अनंतशक्ति, ज्ञायक स्वभावकर अपने आपको ही प्राप्त होती है, वहाँ यह आत्मा ही 'कर्म' है, यह आत्मा अपने शुद्ध आत्मीक परिणामकर स्वरूपको साधन करता है, वहाँ पर अपने अनंतज्ञानकर 'करणकारक' होता है, यह आत्मा अपने शुद्ध परिणामोंको करता हुआ अपनेको ही देता है, उस अवस्थामें शुद्ध अनंतशक्ति ज्ञायकस्वभाव कर्मकर आपको ही स्वीकार करता हुआ 'संप्रदानकारक होता है, यह आत्मा जब शुद्ध स्वरूपको पाप्त होता है, उस समय इस आत्माके सांसारीक अशुद्ध-क्षायोपशमिक मति आदि ज्ञानका नाश होता है, उसी अवस्थामें अपने स्वाभाविक ज्ञानस्वभावकर स्थिरपनेको धारण करता है, तब ‘अपादानकारक' होता है / यह आत्मा जब अपने शुद्धअनंतशक्ति ज्ञायकस्वभावका आधार है, उस दशामें 'अधिकरणकारक'को स्वीकार करता है / इस प्रकार यह आत्मा आप ही षट्कारकरूप होकर अपने शुद्धस्वरूपको उत्पन्न (प्रगट) करता है, तभी स्वयंभू पदवीको पाता है / अथवा अनादिकालसे बहुत मजबूत बँधे हुए धातियाकर्मीको (ज्ञानावरण 1 दर्शनावरण 2 मोहनीय 3 अन्तराय 4) नाश करके आप ही प्रगट हुआ है, दूसरेकी सहायता कुछ भी नहीं ली, इस कारण स्वयंभू कहा जाता है, यहाँ पर कोई प्रश्न करे, कि परकी सहायतासे स्वरूपकी प्राप्ति क्यों नहीं होती ? उसका समाधान—कि जो यह आत्मा पराधीन होवे, तो आकुलता सहित होजाय, और जिस जगह आकुलता है, वहाँ स्वरूपकी प्राप्ति नहीं, इस कारण परकी सहायता विना ही आत्मा निराकुल होता है, इसी दशा में अपनी सहायतासे आपको पाता है। इसलिये निश्चय करके आप ही षट्कारक है / जो अपनी अनंतशक्तिरूप संपदासे परिपूर्ण है, तो वह दूसरेकी इच्छा क्यों रक्खे ? अर्थात् कभी नहीं // 16 //
गाथा -17
भंगविहीणो य भवो संभवपरिवज्जिदो विणासो हि।
विजदि तस्सेव पुणो ठिदिसंभवणाससमवायो // 17 //
अन्वयार्थ-(भंगविहूणो य भवो) उस (शद्धात्म स्वभाव को प्राप्त आत्मा के) विनाश रहित उत्पाद है, और (संभवपरिवज्जिदो विणासो हि) उत्पाद रहित विनाश है, (तस्सेव पुणो) उसके ही फिर (ठिदि-संभवणाससमवाओ विज्जदि) ध्रौव्य, उत्पाद और विनाश का समभाव (एकत्रित समूह) विद्यमान है।
आगे इस स्वयंभू प्रभूके शुद्धस्वभावको नित्य दिखलाते हैं, और किसीप्रकारसे उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य अवस्था भी दिखलाते हैं-[तस्य आत्मनः भंगविहीन: भवः विद्यते ] जो आत्मा शुद्धोपयोगके प्रसादसे स्वरूपको प्राप्त हुआ है, उस आत्माके नाशरहित उत्पाद है। अर्थात् जो इस आत्माके शुद्धस्वभावकी उत्पत्ति हुई, फिर उसका नाश कभी नहीं होता [च संभवपरिवजितः विनाशः] और विनाश है, वह उत्पत्तिकर रहित है, अर्थात् अनादिकालकी अविद्या (अज्ञान) से पैदा हुआ जो विभाव (अशुद्ध) परिणाम उसका एकबार नाश हुआ, फिर वह नहीं उत्पन्न होता है, इससे तात्पर्य यह निकला, कि जो इस भगवान् (ज्ञानवान् ) आत्माके उत्पाद है, वह विनाश रहित हैं, और विनाश उत्पत्ति रहित है, तथा अपने सिद्धिस्वरूपकर ध्रुव (नित्य) है, अर्थात् जो यह आत्मा पहले अशुद्ध हालतमें था, वही आत्मा अब शुद्धदशामें मौजूद है, इस कारण ध्रुव है। [तस्यैव पुनः स्थितिसंभवनाशसमवायः] फिर उसी आत्मा के ध्रौव्य उत्पत्ति नाश इन तीनोंका मिलाप एक ही समयमें मौजूद है, क्योंकि यह भगवान् एक ही वक्त तीनों स्वरूप परिणमता है, अर्थात् जिस समय शुद्ध पर्यायकी उत्पत्ति है, उसी वक्त अशुद्ध प्रर्यायका नाश है, और उसी कालमें द्रव्यपनेसे ध्रुव है, दूसरे समयकी जरूरत ही नहीं है, यह कहनेसे यह अभिप्राय हुआ, कि द्रव्यार्थिकनयसे आत्मा नित्य होनेपर भी पर्यायार्थिकनयसे उत्पत्ति, विनाश, ध्रौव्य, इन तीनों सहित ही है |
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी
गाथा संख्या 16- सर्वज्ञता एवं षट्कार्य की व्यवस्था
मुनि श्री इस गाथा संख्या 16 के माध्यम से समझा रहे हैं कि सर्वज्ञ वह होता है जिसने अपने स्वभाव को प्राप्त कर लिया है ।
वह सर्व लोक के अधिपति बन जाते हैं।
इस गाथा में भगवान की षट्कार्य की क्रिया मुनि श्री निश्चय नय और व्यवहार नय से समझा रहे हैं ।
पूज्य श्री कहते हैं कि मोक्षमार्ग के लिए जब तक निश्चय नहि प्राप्त होता तब तक व्यवहार ही उपादेय है-
१. व्यवहार मोक्षमार्ग
२. निश्चय मोक्षमार्ग
३. केवलज्ञान लेकिन वास्तव में निश्चय ही मोक्षमार्ग है ।
गाथा संख्या 17- शुद्ध द्रव्य का स्वरूप मुनि श्री इस गाथा के माध्यम से बताते हैं कि ऐसा आत्मा जो स्वयंभू बन गया है, वह विनाश से विहीन होता है। उनकी वह पर्याय, वह अनंत सुख और ज्ञान कभी नष्ट नहि होती। अब वे उस शुद्ध आत्मा में ही शुद्ध रूप से परिणमन कर रहे हैं।
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -16
तह सो लद्धसहावो सव्वण्हू सव्वलोगपदिमहिदो।
भूदो सयमेवादा हवदि सयंभु ति णिद्दिट्टो // 16 //
अन्वयार्थ- (तध) इस प्रकार (सो आदा) वह आत्मा (लद्धसहाओ) स्वभाव को प्राप्त । (सवण्ह) सर्वज्ञ (सव्वलोगपदिमहिदो) और सर्व लोक के अधिपतियों से पूजित (सयमेव भूदो)। स्वयमेव हुआ होने से (सयंभु हवदि) स्वयंभू है, (त्ति णित्रिदो) ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है।
आगे शुद्धोपयोगका फल जो केवलज्ञानमय शुद्धात्मका लाभ वह जिस समय इस आत्माको होता है, तब कर्ता-कर्मादि छह कारकरूप आप ही होता हुआ स्वाधीन होता है, और किसी दूसरे कारकको नहीं चाहता है, यह कहते हैं-
[स आत्मा स्वयंभूः भवति इति निर्दिष्टः ] जैसे शुद्धोपयोगके प्रभावसे केवलज्ञानादि गुणोंको प्राप्त हुआ था, उसी प्रकार वही आत्मा 'स्वयंभू' नामवाला भी होता है, ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा हैं / तात्पर्य यह है, कि जो आत्मा केवलज्ञानादि स्वाभाविक गुणोंको प्राप्त हुआ हो, उसीका नाम स्वयंभू है। क्योंकि व्याकरणकी व्युत्पत्तिसे भी जो ‘स्वयं' अर्थात् आप ही से अर्थात् दूसरे द्रव्यकी सहायता विना ही ‘भवति' अर्थात् अपने स्वरूप होवे, इस कारण इसका नाम स्वयंभू कहा गया है, यह आत्मा अपने स्वरूपकी प्राप्तिके समय दूसरे कारककी इच्छा नहीं करता है / आप ही छह कारकरूप होकर अपनी सिद्धि करता है, क्योंकि आत्मामें अनंत शक्ति है, कैसा है वह [लब्धस्वभावः] प्राप्त किया है, घातिया कर्मोंके नाशसे अनंतज्ञानादि शक्तिरूप अपना स्वभाव जिसने / फिर कैसा है ? [सर्वज्ञः] तीन कालमें रहनेवाले सब पदार्थोंको जाननेवाला है। फिर कैसा है ? स्वयंभू आत्मा / [ सर्वलोकपतिमहितः] तीनों भुवनोंके स्वामी इन्द्र धरणेन्द्र चक्रवर्ती इनकर पूजित है / फिर कैसा है ? स्वयमेव भूतः] अपने आप ही परकी सहायताके विना अपने शुद्धोपयोगके बलसे अनादि अविद्यासे उत्पन्न हुए अनेक प्रकारके बन्धों को तोड़कर निश्चयसे इस पदवीको प्राप्त हुआ है, अर्थात् सकल सुर, असुर, मनुष्योंके स्वामियोंसे पूज्य सर्वज्ञ वीतराग तीन लोकका स्वामी शुद्ध अपने स्वयंभूपदको प्राप्त हुआ है।
अब षट्कारक दिखाते हैं-
कर्ता 1 कर्म 2 करण 3 संप्रदान 4 अपादान 5 अधिकरण 6 ये छह कारकोंके नाम हैं, और ये सब दो दो तरहके हैं, एक व्यवहार दूसरा निश्चय / उनमें जिस जगह परके निमित्तसे कार्यकी सिद्धि कीजाय, वहाँ व्यवहार षट्कारक होना है, और जिस जगह अपनेमें ही अपनेको उपादान कारण कर अपने कार्यकी सिद्धि कीजावे, वहाँ निश्चय षट्कारक हैं / व्यवहार छह कारक उपचार असद्भूतनयकर सिद्धि किये जाते हैं, इस कारण असत्य हैं, निश्चय छह कारक, अपनेमें ही जोड़े जाते हैं, इसलिये सत्य हैं / क्योंकि वास्तवमें कोई द्रव्य किसी द्रव्यका कर्ता व हर्ता नहीं है, इसलिये व्यवहारकारक असत्य है, अपनेको आप ही करता है, इस कारण निश्चयकारक सत्य है। जो स्वाधीन होकर करे, वह कर्ता, जो कार्य किया जावे, वह कर्म, जिसकर किया जावे, वह करण, जो कर्मकर दिया जावे वह संप्रदान, जो एक अवस्थाको छोड़ दूसरी अवस्थारूप होवे, वह अपादान, जिसके आधार कर्म होवे, वह अधिकरण कहा जाता है। अब दोनों कारकोंका दृष्टांत दिखलाते हैं। उनमें प्रथम व्यवहारकर इस तरह है-जैसे कुंभकार (कुम्हार) कर्ता है, घड़ारूप कार्यको करता है, इससे घट कर्म है, दंड चक्र चीवर (छोरा) आदिकर यह घट कर्म सिद्ध होता है, इसलिये दंड आदिक करण कारक हैं, जल वगैरःके भरनेके लिये घट दिया जाता है, इसलिये संप्रदानकारक है, मिट्टीकी पिंडरूपादि अवस्थाको छोड़ घट अवस्थाको प्राप्त होना अपादानकारक है, भूमिके आधार से घटकर्म किया जाता है, बनाया जाता है, इसलिये भूमि अधिकरणकारक समझना, इस प्रकार ये व्यवहार कारक हैं। क्योंकि इनमें कर्ता दूसरा है, कर्म अन्य है, करण अन्य ही द्रव्य है, दूसरे ही को देना दूसरेसे करना / आधार जुदा ही है / निश्चय छह कारक अपने आप ही में होते हैं, जैसे-मृत्तिकाद्रव्य (मट्टी) करता है, अपने घट परिणाम कर्मको करता है, इसलिये आप ही कर्म है, आप ही अपने घट परिणामको सिद्ध करता है, इसलिये स्वयं ही करण है, अपने घट परिणामको करके अपनेको ही सौंप देता है, इस कारण आप ही संप्रदान है / अपनी मृत्पिड अवस्थाको छोड़ अपनी घट अवस्थाको करता है, इसलिये आप ही अपादान है / अपनेमें ही अपने घटपरिणामको करता है, इसलिये आप ही अधिकरण है / इस तरह ये निश्चय षट्कारक हैं, क्योंकि किसी भी दूसरे द्रव्यकी सहायता नहीं है, इस कारण अपने आपमें ही ये निश्चयकारक साधे जाते हैं। इसी प्रकार यह आत्मा संसार अवस्थामें जब शुद्धोपयोगभावरूप परिणमन करता है, उस समय किसी दूसरेकी सहायता (मदद) न लेकर अपनी ही अनंत शुद्धचैतन्यशक्तिकर आप ही छह कारकरूप होके केवलज्ञानको पाता है, इसी अवस्थामें 'स्वयंभू' कहा जाता है। शुद्ध अनंतशक्ति तथा ज्ञायकस्वभाव होनेसे अपने आधीन होता हुआ यह आत्मा अपने शुद्ध ज्ञायकस्वभावको करता है, इसलिये आप ही कर्ता है, और जिस शुद्धज्ञायकस्वभावको करता है, वह आत्माका कर्म है, सो वह कर्म आप ही है, क्योंकि शुद्ध-अनंतशक्ति, ज्ञायक स्वभावकर अपने आपको ही प्राप्त होती है, वहाँ यह आत्मा ही 'कर्म' है, यह आत्मा अपने शुद्ध आत्मीक परिणामकर स्वरूपको साधन करता है, वहाँ पर अपने अनंतज्ञानकर 'करणकारक' होता है, यह आत्मा अपने शुद्ध परिणामोंको करता हुआ अपनेको ही देता है, उस अवस्थामें शुद्ध अनंतशक्ति ज्ञायकस्वभाव कर्मकर आपको ही स्वीकार करता हुआ 'संप्रदानकारक होता है, यह आत्मा जब शुद्ध स्वरूपको पाप्त होता है, उस समय इस आत्माके सांसारीक अशुद्ध-क्षायोपशमिक मति आदि ज्ञानका नाश होता है, उसी अवस्थामें अपने स्वाभाविक ज्ञानस्वभावकर स्थिरपनेको धारण करता है, तब ‘अपादानकारक' होता है / यह आत्मा जब अपने शुद्धअनंतशक्ति ज्ञायकस्वभावका आधार है, उस दशामें 'अधिकरणकारक'को स्वीकार करता है / इस प्रकार यह आत्मा आप ही षट्कारकरूप होकर अपने शुद्धस्वरूपको उत्पन्न (प्रगट) करता है, तभी स्वयंभू पदवीको पाता है / अथवा अनादिकालसे बहुत मजबूत बँधे हुए धातियाकर्मीको (ज्ञानावरण 1 दर्शनावरण 2 मोहनीय 3 अन्तराय 4) नाश करके आप ही प्रगट हुआ है, दूसरेकी सहायता कुछ भी नहीं ली, इस कारण स्वयंभू कहा जाता है, यहाँ पर कोई प्रश्न करे, कि परकी सहायतासे स्वरूपकी प्राप्ति क्यों नहीं होती ? उसका समाधान—कि जो यह आत्मा पराधीन होवे, तो आकुलता सहित होजाय, और जिस जगह आकुलता है, वहाँ स्वरूपकी प्राप्ति नहीं, इस कारण परकी सहायता विना ही आत्मा निराकुल होता है, इसी दशा में अपनी सहायतासे आपको पाता है। इसलिये निश्चय करके आप ही षट्कारक है / जो अपनी अनंतशक्तिरूप संपदासे परिपूर्ण है, तो वह दूसरेकी इच्छा क्यों रक्खे ? अर्थात् कभी नहीं // 16 //
गाथा -17
भंगविहीणो य भवो संभवपरिवज्जिदो विणासो हि।
विजदि तस्सेव पुणो ठिदिसंभवणाससमवायो // 17 //
अन्वयार्थ-(भंगविहूणो य भवो) उस (शद्धात्म स्वभाव को प्राप्त आत्मा के) विनाश रहित उत्पाद है, और (संभवपरिवज्जिदो विणासो हि) उत्पाद रहित विनाश है, (तस्सेव पुणो) उसके ही फिर (ठिदि-संभवणाससमवाओ विज्जदि) ध्रौव्य, उत्पाद और विनाश का समभाव (एकत्रित समूह) विद्यमान है।
आगे इस स्वयंभू प्रभूके शुद्धस्वभावको नित्य दिखलाते हैं, और किसीप्रकारसे उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य अवस्था भी दिखलाते हैं-[तस्य आत्मनः भंगविहीन: भवः विद्यते ] जो आत्मा शुद्धोपयोगके प्रसादसे स्वरूपको प्राप्त हुआ है, उस आत्माके नाशरहित उत्पाद है। अर्थात् जो इस आत्माके शुद्धस्वभावकी उत्पत्ति हुई, फिर उसका नाश कभी नहीं होता [च संभवपरिवजितः विनाशः] और विनाश है, वह उत्पत्तिकर रहित है, अर्थात् अनादिकालकी अविद्या (अज्ञान) से पैदा हुआ जो विभाव (अशुद्ध) परिणाम उसका एकबार नाश हुआ, फिर वह नहीं उत्पन्न होता है, इससे तात्पर्य यह निकला, कि जो इस भगवान् (ज्ञानवान् ) आत्माके उत्पाद है, वह विनाश रहित हैं, और विनाश उत्पत्ति रहित है, तथा अपने सिद्धिस्वरूपकर ध्रुव (नित्य) है, अर्थात् जो यह आत्मा पहले अशुद्ध हालतमें था, वही आत्मा अब शुद्धदशामें मौजूद है, इस कारण ध्रुव है। [तस्यैव पुनः स्थितिसंभवनाशसमवायः] फिर उसी आत्मा के ध्रौव्य उत्पत्ति नाश इन तीनोंका मिलाप एक ही समयमें मौजूद है, क्योंकि यह भगवान् एक ही वक्त तीनों स्वरूप परिणमता है, अर्थात् जिस समय शुद्ध पर्यायकी उत्पत्ति है, उसी वक्त अशुद्ध प्रर्यायका नाश है, और उसी कालमें द्रव्यपनेसे ध्रुव है, दूसरे समयकी जरूरत ही नहीं है, यह कहनेसे यह अभिप्राय हुआ, कि द्रव्यार्थिकनयसे आत्मा नित्य होनेपर भी पर्यायार्थिकनयसे उत्पत्ति, विनाश, ध्रौव्य, इन तीनों सहित ही है |
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी
गाथा संख्या 16- सर्वज्ञता एवं षट्कार्य की व्यवस्था
मुनि श्री इस गाथा संख्या 16 के माध्यम से समझा रहे हैं कि सर्वज्ञ वह होता है जिसने अपने स्वभाव को प्राप्त कर लिया है ।
वह सर्व लोक के अधिपति बन जाते हैं।
इस गाथा में भगवान की षट्कार्य की क्रिया मुनि श्री निश्चय नय और व्यवहार नय से समझा रहे हैं ।
पूज्य श्री कहते हैं कि मोक्षमार्ग के लिए जब तक निश्चय नहि प्राप्त होता तब तक व्यवहार ही उपादेय है-
१. व्यवहार मोक्षमार्ग
२. निश्चय मोक्षमार्ग
३. केवलज्ञान लेकिन वास्तव में निश्चय ही मोक्षमार्ग है ।
गाथा संख्या 17- शुद्ध द्रव्य का स्वरूप मुनि श्री इस गाथा के माध्यम से बताते हैं कि ऐसा आत्मा जो स्वयंभू बन गया है, वह विनाश से विहीन होता है। उनकी वह पर्याय, वह अनंत सुख और ज्ञान कभी नष्ट नहि होती। अब वे उस शुद्ध आत्मा में ही शुद्ध रूप से परिणमन कर रहे हैं।