08-03-2022, 07:24 AM
श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -23 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -24 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
आदा णाणपमाणं गाणं णेयप्पमाणमुद्दिष्टं /
णेयं लोयालोयं तम्हा णाणं तु सव्वगयं // 23 //
अन्वयार्थ- (आदा) आत्मा (णाणपमाणं) ज्ञान प्रमाण है, (णाणं) ज्ञान (णेयप्पमाणं) ज्ञेय प्रमाण (उद्दिट्ठं) कहा गया है, (णेयं लोयालोयं) ज्ञेय लोकालोक है, (तम्हा) इसलिए (णाणं तु) ज्ञान (सव्वगयं) सर्वगत-सर्वव्यापक है।
आगे आत्माको ज्ञानप्रमाण कहते हैं, और ज्ञानको सर्वव्यापक दिखलाते हैं-[आत्मा] जीवद्रव्य [ज्ञानप्रमाणं] ज्ञानके बराबर है, क्योंकि द्रव्य अपने अपने गुणपर्यायोंके समान होता है, इसी न्यायसे जीव भी अपने ज्ञानगुणके बराबर हुआ। आत्मा ज्ञानसे न तो अधिक न कम परिणमन करता है, जैसे सोना अपनी कड़े कुंडल आदि पर्यायोंसे तथा पीलेवर्ण आदिक गुणोंसे कम अधिक नहीं परिणमता, उसी प्रकार आत्मा भी समझना / [ज्ञानं ज्ञेयप्रमाणं] और ज्ञान ज्ञेयके ( पदार्थोके ) प्रमाण है, ऐसा [उद्दिष्टं ] जिनेन्द्रदेवने कहा है, जैसे-ईंधनमें स्थित आग ईंधनके बराबर है, उसी तरह सब पदार्थोंको जानता हुआ ज्ञान ज्ञेयके प्रमाण है, [ज्ञेयं लोकालोकं ज्ञेय है, वह लोक तथा अलोक है, जो भूत भविष्यत् वर्तमानकालकी अनंत पर्यायों सहित छह द्रव्य हैं, उसको लोक और इस लोकसे बाहर अकेला आकाश उसको अलोक जानना, इन्हीं दोनोंको ज्ञेय कहते हैं। [तस्मात् ] इसलिये [ज्ञानं तु] केवलज्ञान तो [ सर्वगतं] सब पदार्थोंमें प्रवेश करनेवाला सर्वव्यापक है, अर्थात् सबको जानता है, इससे ज्ञान ज्ञेयके बराबर है |
गाथा -24, 25 (आचार्य अमृतचंद की टीका)
गाथा -25, 26 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार)
णाणप्पमाणमादा ण हवदि जस्सेह तस्स सो आदा /
हीणो वा अहिओ वा णाणादो हवदि धुवमेव // 24 //
हीणो जदि सो आदा तण्णाणमचेदणं ण जाणादि /
अहिओ वा णाणादो णाणेण विणा कहं णादि // 25 // जुगलं /
अन्वयार्थ- (इह) इस जगत में (जस्स) जिसके मत में (आदा) आत्मा (णाणपमाणं) ज्ञान प्रमाण (ण हवदि) नहीं है, (तस्स) उसके मत में (सो आदा) वह आत्मा (धुवमेव) अवश्य (णाणादो हीणो वा) ज्ञान से हीन (अधिगो वा हवदि) अथवा अधिक होना चाहिए।
(जदि) यदि (सो आत्मा) वह आत्मा (हीणो) ज्ञान से हीन हो (तत्) तो वह (णाणं) ज्ञान (अचेदण) अचेतन होने से (ण जाणादि) नहीं जानेगा,(णाणादो अधिगो) और यदि ज्ञान से अधिक हो तो (णाणेण विणा) ज्ञान के बिना (कधं णादि) कैसे जानेगा?
आगे जो मूढदृष्टि आत्माको ज्ञानके प्रमाण नहीं मानकर अधिक तथा हीन मानते हैं, उनके पक्षको युक्तिसे दूषित करते हैं- [इह ] इस लोकमें [यस्य] जिस मूढ़बुद्धिके 'मतमें [आत्मा] आत्मद्रव्य [ज्ञानप्रमाणं] ज्ञानके बराबर. [न भवति] नहीं होता है, अर्थात् जो विपरीत बुद्धिवाले आत्माको ज्ञानके बराबर नहीं मानते; [तस्य] उस कुमतीके मतमें [स आत्मा] वह जीवद्रव्य [ज्ञानात्] अपने ज्ञानगुणसे [हीनो वा अधिको वा] हीन (कम) अथवा अधिक (बड़ा) [ध्रुवमेव] निश्चयसे [भवति] होता है, अर्थात् उन्हें या तो आत्माको ज्ञानसे कम मानना पड़ेगा, या अधिक मानना पड़ेगा / [यदि ] जो [स आत्मा] वह जीवद्रव्य [हीनः] ज्ञानसे न्यून होगा [तदा] तो [तद् ज्ञानं] वह ज्ञान [अचेतनं] अचेतन होनेसे [न जानाति] कुछ भी नहीं जान सकेगा [वा] अथवा ज्ञानात् ] ज्ञानसे [अधिकः] अधिक होगा, तो [ज्ञानेन विना] ज्ञानके विना [कथं जानाति] कैसे जानेगा ? / भावार्थ-जो आत्माको ज्ञानसे हीन माने, तो ज्ञानगुण स्पर्श रस गंध वर्णकी तरह अचेतन हो जावेगा, और अचेतन (जड़ ) होनेसे कुछ भी नहीं जान सकेगा, जैसे अग्निसे उष्णगुण अधिक माना जावे, तो अधिक उष्णगुण अग्निके विना शीतल होनेसे जला नहीं सकता, और जो ज्ञानसे आत्मा अधिक होगा, अर्थात् आत्मासे ज्ञान हीन होगा, तो घट वस्त्रादि पदार्थों की तरह आत्मा ज्ञान विना अचेतन हुआ कुछ भी नहीं जान सकेगा, जैसे अग्नि उष्णगुणसे जितनी अधिक होगी, उतनी ही शीतल होनेके कारण ईंधनको नहीं जला सकती / इस कारण यह सिद्ध हुआ, कि आत्मा ज्ञानके ही प्रमाण है, कमती बढ़ती नहीं है
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी
पूज्य मुनि श्री इस गाथा संख्या २3 की वाचना से आप जानेंगे कि
* आत्मा को कैसे नापें ?
* आत्मा और ज्ञान का क्या सम्बंध है ?
* मुनि श्री कहते हैं कि जहाँ जहाँ ज्ञान है, वही आत्मा है।
* चेतना का अनुभव ज्ञान के बिना नहि हो सकता।
* आत्मा और ज्ञान का तादात्मय सम्बंध है।
* व्यवहार से आत्मा देह प्रमाण है और निश्चय से ज्ञान प्रमाण।
* ज्ञान ज्ञेय प्रमाण हाई। ज्ञान की इतनी शक्ती होती है कि वह सभी ज्ञेयों को जान सकता है।
* ज्ञान सरवगत होता है, ज्ञानी नहि।
प्रवचनसार गाथा न. 024-025
गाथा संख्या 024-025 के माध्यम से पूज्य आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ज्ञान प्रमाण आत्मा को साबित कर रहे हैं। जो लोग ऐसा नहि मानते कि आत्मा ज्ञान प्रमाण है, उनके लिए यह तथ्य सहित साबित किया जा रहा है।
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -23 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -24 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
आदा णाणपमाणं गाणं णेयप्पमाणमुद्दिष्टं /
णेयं लोयालोयं तम्हा णाणं तु सव्वगयं // 23 //
अन्वयार्थ- (आदा) आत्मा (णाणपमाणं) ज्ञान प्रमाण है, (णाणं) ज्ञान (णेयप्पमाणं) ज्ञेय प्रमाण (उद्दिट्ठं) कहा गया है, (णेयं लोयालोयं) ज्ञेय लोकालोक है, (तम्हा) इसलिए (णाणं तु) ज्ञान (सव्वगयं) सर्वगत-सर्वव्यापक है।
आगे आत्माको ज्ञानप्रमाण कहते हैं, और ज्ञानको सर्वव्यापक दिखलाते हैं-[आत्मा] जीवद्रव्य [ज्ञानप्रमाणं] ज्ञानके बराबर है, क्योंकि द्रव्य अपने अपने गुणपर्यायोंके समान होता है, इसी न्यायसे जीव भी अपने ज्ञानगुणके बराबर हुआ। आत्मा ज्ञानसे न तो अधिक न कम परिणमन करता है, जैसे सोना अपनी कड़े कुंडल आदि पर्यायोंसे तथा पीलेवर्ण आदिक गुणोंसे कम अधिक नहीं परिणमता, उसी प्रकार आत्मा भी समझना / [ज्ञानं ज्ञेयप्रमाणं] और ज्ञान ज्ञेयके ( पदार्थोके ) प्रमाण है, ऐसा [उद्दिष्टं ] जिनेन्द्रदेवने कहा है, जैसे-ईंधनमें स्थित आग ईंधनके बराबर है, उसी तरह सब पदार्थोंको जानता हुआ ज्ञान ज्ञेयके प्रमाण है, [ज्ञेयं लोकालोकं ज्ञेय है, वह लोक तथा अलोक है, जो भूत भविष्यत् वर्तमानकालकी अनंत पर्यायों सहित छह द्रव्य हैं, उसको लोक और इस लोकसे बाहर अकेला आकाश उसको अलोक जानना, इन्हीं दोनोंको ज्ञेय कहते हैं। [तस्मात् ] इसलिये [ज्ञानं तु] केवलज्ञान तो [ सर्वगतं] सब पदार्थोंमें प्रवेश करनेवाला सर्वव्यापक है, अर्थात् सबको जानता है, इससे ज्ञान ज्ञेयके बराबर है |
गाथा -24, 25 (आचार्य अमृतचंद की टीका)
गाथा -25, 26 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार)
णाणप्पमाणमादा ण हवदि जस्सेह तस्स सो आदा /
हीणो वा अहिओ वा णाणादो हवदि धुवमेव // 24 //
हीणो जदि सो आदा तण्णाणमचेदणं ण जाणादि /
अहिओ वा णाणादो णाणेण विणा कहं णादि // 25 // जुगलं /
अन्वयार्थ- (इह) इस जगत में (जस्स) जिसके मत में (आदा) आत्मा (णाणपमाणं) ज्ञान प्रमाण (ण हवदि) नहीं है, (तस्स) उसके मत में (सो आदा) वह आत्मा (धुवमेव) अवश्य (णाणादो हीणो वा) ज्ञान से हीन (अधिगो वा हवदि) अथवा अधिक होना चाहिए।
(जदि) यदि (सो आत्मा) वह आत्मा (हीणो) ज्ञान से हीन हो (तत्) तो वह (णाणं) ज्ञान (अचेदण) अचेतन होने से (ण जाणादि) नहीं जानेगा,(णाणादो अधिगो) और यदि ज्ञान से अधिक हो तो (णाणेण विणा) ज्ञान के बिना (कधं णादि) कैसे जानेगा?
आगे जो मूढदृष्टि आत्माको ज्ञानके प्रमाण नहीं मानकर अधिक तथा हीन मानते हैं, उनके पक्षको युक्तिसे दूषित करते हैं- [इह ] इस लोकमें [यस्य] जिस मूढ़बुद्धिके 'मतमें [आत्मा] आत्मद्रव्य [ज्ञानप्रमाणं] ज्ञानके बराबर. [न भवति] नहीं होता है, अर्थात् जो विपरीत बुद्धिवाले आत्माको ज्ञानके बराबर नहीं मानते; [तस्य] उस कुमतीके मतमें [स आत्मा] वह जीवद्रव्य [ज्ञानात्] अपने ज्ञानगुणसे [हीनो वा अधिको वा] हीन (कम) अथवा अधिक (बड़ा) [ध्रुवमेव] निश्चयसे [भवति] होता है, अर्थात् उन्हें या तो आत्माको ज्ञानसे कम मानना पड़ेगा, या अधिक मानना पड़ेगा / [यदि ] जो [स आत्मा] वह जीवद्रव्य [हीनः] ज्ञानसे न्यून होगा [तदा] तो [तद् ज्ञानं] वह ज्ञान [अचेतनं] अचेतन होनेसे [न जानाति] कुछ भी नहीं जान सकेगा [वा] अथवा ज्ञानात् ] ज्ञानसे [अधिकः] अधिक होगा, तो [ज्ञानेन विना] ज्ञानके विना [कथं जानाति] कैसे जानेगा ? / भावार्थ-जो आत्माको ज्ञानसे हीन माने, तो ज्ञानगुण स्पर्श रस गंध वर्णकी तरह अचेतन हो जावेगा, और अचेतन (जड़ ) होनेसे कुछ भी नहीं जान सकेगा, जैसे अग्निसे उष्णगुण अधिक माना जावे, तो अधिक उष्णगुण अग्निके विना शीतल होनेसे जला नहीं सकता, और जो ज्ञानसे आत्मा अधिक होगा, अर्थात् आत्मासे ज्ञान हीन होगा, तो घट वस्त्रादि पदार्थों की तरह आत्मा ज्ञान विना अचेतन हुआ कुछ भी नहीं जान सकेगा, जैसे अग्नि उष्णगुणसे जितनी अधिक होगी, उतनी ही शीतल होनेके कारण ईंधनको नहीं जला सकती / इस कारण यह सिद्ध हुआ, कि आत्मा ज्ञानके ही प्रमाण है, कमती बढ़ती नहीं है
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी
पूज्य मुनि श्री इस गाथा संख्या २3 की वाचना से आप जानेंगे कि
* आत्मा को कैसे नापें ?
* आत्मा और ज्ञान का क्या सम्बंध है ?
* मुनि श्री कहते हैं कि जहाँ जहाँ ज्ञान है, वही आत्मा है।
* चेतना का अनुभव ज्ञान के बिना नहि हो सकता।
* आत्मा और ज्ञान का तादात्मय सम्बंध है।
* व्यवहार से आत्मा देह प्रमाण है और निश्चय से ज्ञान प्रमाण।
* ज्ञान ज्ञेय प्रमाण हाई। ज्ञान की इतनी शक्ती होती है कि वह सभी ज्ञेयों को जान सकता है।
* ज्ञान सरवगत होता है, ज्ञानी नहि।
प्रवचनसार गाथा न. 024-025
गाथा संख्या 024-025 के माध्यम से पूज्य आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ज्ञान प्रमाण आत्मा को साबित कर रहे हैं। जो लोग ऐसा नहि मानते कि आत्मा ज्ञान प्रमाण है, उनके लिए यह तथ्य सहित साबित किया जा रहा है।