08-03-2022, 10:13 AM
श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -32 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -33 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
गेण्हदि णेव ण मुंचदि ण परं परिणमदि केवली भगवं /
पेच्छदि समंतदो सो जाणदि सव्वं णिरवसेसं // 32 //
अन्वयार्थ- (केवली भगवं) केवली भगवान् (परं) पर को (णेव गेहदि) ग्रहण नहीं जाणदि) देखते-जानते हैं। सव्वं निरवशेष रूप से सबको (सम्पूर्ण आत्मा को, सर्व ज्ञेयों को) (समंतदो) सर्व ओर से पेच्छदि करते, (ण मुंचदि) छोड़ते नहीं, (ण परिणमदि) पररूप परिणमित नहीं होते, (सो)वे (णिरवसेसं
आगे आत्मा और पदार्थोका उपचारसे यद्यपि आपसमें ज्ञेयज्ञायक संबंध है, तो भी निश्चयनयसे परमपदार्थके ग्रहण तया त्यागरूप परिणामके अभावसे सब पदार्थोंको देखने जाननेपर भी अत्यंत पृथक्पना है, ऐसा दिखाते हैं-[केवली भगवान् ] केवलज्ञानी सर्वज्ञदेव [परं] ज्ञेयभूत परपदार्थोंको [नैव] निश्चयसे न तो [गृणाति] ग्रहण करते हैं, [न मुञ्चति] न छोड़ते हैं, और [न परिणमति] न परिणमन करते हैं, [सः] वे केवली भगवान् [सर्व] सब [निरवशेषं] कुछ भी बाकी नहीं, ऐसे ज्ञेय पदार्थीको [समन्ततः] सर्वांग ही [पश्यति] देखते हैं, और [जानाति] जानते हैं / भावार्थ-जब यह आत्मा केवलज्ञानस्वरूप परिणभन करता है, तब इसके निष्कंप ज्ञानरूपी ज्योति प्रगट होती है, जो कि उज्जवल रत्नके अडोल प्रकाशके समान स्थिर रहती है। वह केवलज्ञानी पर ज्ञेय प्रदार्थोको न ग्रहण करता है, न छोड़ता है, और न उनके रूप परिणमन करता है। अपने स्वरूपमें आप अपनेको ही वेदता है (अनुभव करता है), परद्रव्योंसे स्वभावसे ही उदासीन है। जैसे दर्पणकी इच्छाके विना ही दर्पगमें धट पट वगैरः पदार्थ प्रतिबिम्बित होते हैं, उसी प्रकार जाननेकी इच्छा विना ही केवलज्ञानीके ज्ञानमें त्रिकालवर्ती समस्त पधार्थ पतिबिम्बित होते हैं। इस कारण व्यवहारसे ज्ञाता द्रष्टा है। इससे यह सिद्ध हुआ, कि यह ज्ञाता आत्मा परद्रव्योंसे अत्यन्त (बिलकुल) जुदा ही है, व्यवहारसे ज्ञेय ज्ञायक संबंध है
गाथा -33 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -34 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
जो हि सुदेण विजाणदि अप्पाणं जाणगं सहावेण /
तं सुयकेवलिमिसिणो भणंति लोयप्पदीवयरा // 33 //
अन्वयार्थ-( जो हि जो वास्तव में सुदेण) श्रुतज्ञान के द्वारा सहावेण जाणगं स्वभाव से ज्ञायक अप्पाणं आत्मा को (विजाणदि) जानता है तं) उसे लोगप्पदीवयरा लोक के प्रकाशक (इसिणो) ऋषीश्वरगण सुदकेवलिं भांति श्रुतकेवली कहते हैं।
आगे केवलज्ञानसे ही आत्मा जाना जाता है, अन्य ज्ञानसे क्या नहीं जाना जाता ? इसके उत्तरमें केवलज्ञानी और श्रुतकेवली इन दोनोंको बराबर दिखाते हैं-
[यः] जो पुरुष [हि] निश्चयसे [श्रुतेन] भावश्रुतज्ञानसे [स्वभावेन ज्ञायकं अपने ही सहज स्वभावसे सबको जाननेवाले [आत्मानं] आत्माको अर्थात् अपने निजस्वरूपको [विजानाति] विशेषतासे जानता है [तं] उस भावश्रुतज्ञानीको [लोकप्रदीपकराः] समस्तलोकके उद्योत करनेवाले [ऋषयः] श्रीवीतरागदेव [श्रुतकेवलिनं ] श्रुतकेवली [भणन्ति ] कहते हैं। भावार्थ-जिस प्रकार केवलज्ञानी एक ही कालमें अनन्त चैतन्यशक्तियुक्त केवलज्ञानसे अनादि अनंत, कारण रहित, असाधारण, स्वसंवेदन ज्ञानकी महिमाकर सहित, केवल आत्माको अपनेमें आप वेदता है, उसी प्रकार यह सम्यग्दृष्टि भी कितनी एक क्रमवर्ती चैतन्यशक्तियों सहित श्रुतज्ञानसे केवल आत्माको आपमें आपसे वेदता है, इस कारण इसे श्रुतकेवली कहते हैं / वस्तुके स्वरूप जाननेकी अपेक्षा केवलज्ञानी और श्रुतकेवली दोनों समान हैं / भेद केबल इतना ही है, कि केवलज्ञानी संपूर्ण अनंत ज्ञानशक्तियोंसे वेदता है, श्रुतकेवली कितनीएक शक्तियोंसे वेदता है / ऐसा जानकर जो सभ्यग्दृष्टि हैं, वे अपने स्वरूपको स्वसंवेदन ज्ञानसे वेदते हैं, तथा आपमें निश्चल होकर स्थिर होते हैं, और जैसे कोइ पुरुष दिनमें सूर्यके प्रकाशसे देखता है, उसी प्रकार केवलज्ञानी अपने केवलज्ञानसे आपको देखते हैं / तथा जैसे कोई पुरुष रात्रिको दीपकके प्रकाशसे देखता है, उसी प्रकार संसारपर्यायरूध रात्रिमें ये सम्यगदृष्ठि विवेकी भावश्रुतज्ञानरूप दीपकसे अपनेको देखते हैं / इस तरह केवली और श्रुतकेवली समान हैं
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार गाथा - 32, 33
यहाँ सर्वगत ज्ञानमय भगवान (केवली) के ग्रहण और त्यागरूप परिणमन का अभाव दर्शाया है एवं श्रुत केवली की विशेषता बताई गई है।
32 केवल्य ज्ञान प्राप्त होने पर भगवान न तो कुछ ग्रहण करते है न छोड़ते हैं ,और न पर रूप में परिणमित होते हैं,,परिणमन मतलब किसी राग को देखकर राग भाव लाना या दुख देखकर दुखी होना,, वे तो सिर्फ सर्व ओर से सकल विश्व को जानते देखते हैं,केवल्य ज्ञान से पहले ही सब कुछ जो छोड़ने योग्य हैं छूट जाता हैं
33 इस गाथा में बताया हैं कि द्वादशांग जिनवाणी के पूर्ण ज्ञाता श्रुत केवली कहलाते है ,,अब श्रुतकेवली को अपने ज्ञान स्वभाव से आत्मा के ज्ञायक स्वभाव की अनुभूति करनी चाहिए ,,,आत्मा और शरीर को भिन्न मानते हुए अपने अंदर भावना भानी चाहिए अपने स्व संवेदन से अपने ज्ञान में स्थित होंगे तभी भाव श्रुत केवली होंगे,,अगर शब्दो के मात्र ज्ञान में लगे रहे तो द्रव्य केवली ही रहेंगे ,,सार यह हैं यथाशक्ति सब अपने ज्ञान से अपनी आत्मा के ज्ञायक स्वरूप की अनुभूति करें।
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -32 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -33 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
गेण्हदि णेव ण मुंचदि ण परं परिणमदि केवली भगवं /
पेच्छदि समंतदो सो जाणदि सव्वं णिरवसेसं // 32 //
अन्वयार्थ- (केवली भगवं) केवली भगवान् (परं) पर को (णेव गेहदि) ग्रहण नहीं जाणदि) देखते-जानते हैं। सव्वं निरवशेष रूप से सबको (सम्पूर्ण आत्मा को, सर्व ज्ञेयों को) (समंतदो) सर्व ओर से पेच्छदि करते, (ण मुंचदि) छोड़ते नहीं, (ण परिणमदि) पररूप परिणमित नहीं होते, (सो)वे (णिरवसेसं
आगे आत्मा और पदार्थोका उपचारसे यद्यपि आपसमें ज्ञेयज्ञायक संबंध है, तो भी निश्चयनयसे परमपदार्थके ग्रहण तया त्यागरूप परिणामके अभावसे सब पदार्थोंको देखने जाननेपर भी अत्यंत पृथक्पना है, ऐसा दिखाते हैं-[केवली भगवान् ] केवलज्ञानी सर्वज्ञदेव [परं] ज्ञेयभूत परपदार्थोंको [नैव] निश्चयसे न तो [गृणाति] ग्रहण करते हैं, [न मुञ्चति] न छोड़ते हैं, और [न परिणमति] न परिणमन करते हैं, [सः] वे केवली भगवान् [सर्व] सब [निरवशेषं] कुछ भी बाकी नहीं, ऐसे ज्ञेय पदार्थीको [समन्ततः] सर्वांग ही [पश्यति] देखते हैं, और [जानाति] जानते हैं / भावार्थ-जब यह आत्मा केवलज्ञानस्वरूप परिणभन करता है, तब इसके निष्कंप ज्ञानरूपी ज्योति प्रगट होती है, जो कि उज्जवल रत्नके अडोल प्रकाशके समान स्थिर रहती है। वह केवलज्ञानी पर ज्ञेय प्रदार्थोको न ग्रहण करता है, न छोड़ता है, और न उनके रूप परिणमन करता है। अपने स्वरूपमें आप अपनेको ही वेदता है (अनुभव करता है), परद्रव्योंसे स्वभावसे ही उदासीन है। जैसे दर्पणकी इच्छाके विना ही दर्पगमें धट पट वगैरः पदार्थ प्रतिबिम्बित होते हैं, उसी प्रकार जाननेकी इच्छा विना ही केवलज्ञानीके ज्ञानमें त्रिकालवर्ती समस्त पधार्थ पतिबिम्बित होते हैं। इस कारण व्यवहारसे ज्ञाता द्रष्टा है। इससे यह सिद्ध हुआ, कि यह ज्ञाता आत्मा परद्रव्योंसे अत्यन्त (बिलकुल) जुदा ही है, व्यवहारसे ज्ञेय ज्ञायक संबंध है
गाथा -33 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -34 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
जो हि सुदेण विजाणदि अप्पाणं जाणगं सहावेण /
तं सुयकेवलिमिसिणो भणंति लोयप्पदीवयरा // 33 //
अन्वयार्थ-( जो हि जो वास्तव में सुदेण) श्रुतज्ञान के द्वारा सहावेण जाणगं स्वभाव से ज्ञायक अप्पाणं आत्मा को (विजाणदि) जानता है तं) उसे लोगप्पदीवयरा लोक के प्रकाशक (इसिणो) ऋषीश्वरगण सुदकेवलिं भांति श्रुतकेवली कहते हैं।
आगे केवलज्ञानसे ही आत्मा जाना जाता है, अन्य ज्ञानसे क्या नहीं जाना जाता ? इसके उत्तरमें केवलज्ञानी और श्रुतकेवली इन दोनोंको बराबर दिखाते हैं-
[यः] जो पुरुष [हि] निश्चयसे [श्रुतेन] भावश्रुतज्ञानसे [स्वभावेन ज्ञायकं अपने ही सहज स्वभावसे सबको जाननेवाले [आत्मानं] आत्माको अर्थात् अपने निजस्वरूपको [विजानाति] विशेषतासे जानता है [तं] उस भावश्रुतज्ञानीको [लोकप्रदीपकराः] समस्तलोकके उद्योत करनेवाले [ऋषयः] श्रीवीतरागदेव [श्रुतकेवलिनं ] श्रुतकेवली [भणन्ति ] कहते हैं। भावार्थ-जिस प्रकार केवलज्ञानी एक ही कालमें अनन्त चैतन्यशक्तियुक्त केवलज्ञानसे अनादि अनंत, कारण रहित, असाधारण, स्वसंवेदन ज्ञानकी महिमाकर सहित, केवल आत्माको अपनेमें आप वेदता है, उसी प्रकार यह सम्यग्दृष्टि भी कितनी एक क्रमवर्ती चैतन्यशक्तियों सहित श्रुतज्ञानसे केवल आत्माको आपमें आपसे वेदता है, इस कारण इसे श्रुतकेवली कहते हैं / वस्तुके स्वरूप जाननेकी अपेक्षा केवलज्ञानी और श्रुतकेवली दोनों समान हैं / भेद केबल इतना ही है, कि केवलज्ञानी संपूर्ण अनंत ज्ञानशक्तियोंसे वेदता है, श्रुतकेवली कितनीएक शक्तियोंसे वेदता है / ऐसा जानकर जो सभ्यग्दृष्टि हैं, वे अपने स्वरूपको स्वसंवेदन ज्ञानसे वेदते हैं, तथा आपमें निश्चल होकर स्थिर होते हैं, और जैसे कोइ पुरुष दिनमें सूर्यके प्रकाशसे देखता है, उसी प्रकार केवलज्ञानी अपने केवलज्ञानसे आपको देखते हैं / तथा जैसे कोई पुरुष रात्रिको दीपकके प्रकाशसे देखता है, उसी प्रकार संसारपर्यायरूध रात्रिमें ये सम्यगदृष्ठि विवेकी भावश्रुतज्ञानरूप दीपकसे अपनेको देखते हैं / इस तरह केवली और श्रुतकेवली समान हैं
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार गाथा - 32, 33
यहाँ सर्वगत ज्ञानमय भगवान (केवली) के ग्रहण और त्यागरूप परिणमन का अभाव दर्शाया है एवं श्रुत केवली की विशेषता बताई गई है।
32 केवल्य ज्ञान प्राप्त होने पर भगवान न तो कुछ ग्रहण करते है न छोड़ते हैं ,और न पर रूप में परिणमित होते हैं,,परिणमन मतलब किसी राग को देखकर राग भाव लाना या दुख देखकर दुखी होना,, वे तो सिर्फ सर्व ओर से सकल विश्व को जानते देखते हैं,केवल्य ज्ञान से पहले ही सब कुछ जो छोड़ने योग्य हैं छूट जाता हैं
33 इस गाथा में बताया हैं कि द्वादशांग जिनवाणी के पूर्ण ज्ञाता श्रुत केवली कहलाते है ,,अब श्रुतकेवली को अपने ज्ञान स्वभाव से आत्मा के ज्ञायक स्वभाव की अनुभूति करनी चाहिए ,,,आत्मा और शरीर को भिन्न मानते हुए अपने अंदर भावना भानी चाहिए अपने स्व संवेदन से अपने ज्ञान में स्थित होंगे तभी भाव श्रुत केवली होंगे,,अगर शब्दो के मात्र ज्ञान में लगे रहे तो द्रव्य केवली ही रहेंगे ,,सार यह हैं यथाशक्ति सब अपने ज्ञान से अपनी आत्मा के ज्ञायक स्वरूप की अनुभूति करें।