08-03-2022, 12:12 PM
श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -34 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -35 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
सुत्तं जिणोवदिटुं पोग्गलदव्वप्पगेहिं वयणेहिं /
तं जाणणा हि णाणं सुत्तस्स य जाणणा भणिया // 34 //
अन्वयार्थ- (पोग्गलदवप्पगेहिं वयणेहिं पुद्गल द्रव्यात्मक वचनों के द्वारा (जिणोवदिहूं)। जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा उपदिष्ट सुत्तं सूत्र हैं, (तं जाणणा हि) उसकी ज्ञप्ति णाणं) ज्ञान है, (य) और उसे सुत्तस्स जाणणा) सूत्र की ज्ञप्ति श्रुतज्ञान) भणिदा कहा गया है। पुद्गलद्रव्यात्मकैर्वचनैः। तज्जाणणा हि णाणं तस्स य सुत्तस्स य जाणणा प्रतिपत्तिः तेन वा श्रुतेन जाणण
आगे ज्ञानके श्रुतरूप उपाधिभेदको दूर करते हैं—[पुद्गलद्रव्यात्मकैः] पुद्गलद्रव्यस्वरूप [वचनैः] वचनोंसे [जिनोपदिष्टं] जो जिनभगवान् का उपदेश किया हुआ है, [सूत्रं] वह द्रव्यश्रुत है, [हि ] निश्चयकर [तद्ज्ञप्तिः] उस द्रव्यश्रुतका जानना वह [ज्ञानं] भावश्रुत ज्ञान है / [च सूत्रस्य] और द्रव्यश्रुतको भी [ज्ञप्तिः] ज्ञान [भणिता] 'व्यवहारसे' कहा है। भावार्थ-द्रव्यश्रुत पुद्गलमय है, क्योंकि वह वीतराग भगवानका अनेकान्तरूप वचन है / इस द्रव्यश्रुतको जो ज्ञान जानता है, उसे निश्चयसे ज्ञान कहते हैं / परन्तु जो द्रव्यश्रुतको ही ज्ञान कहते हैं, सो व्यवहारनयसे ज्ञानके उत्पन्न करनेमें कारणभूत होनेसे अन्नमें प्राणकी तरह कारणमें कार्यका व्यवहार कर कहते हैं, यथार्थमें द्रव्यश्रुतकी ज्ञानसंज्ञा नहीं है, क्योंकि वचन जड़ पुद्गलमयी है, तथा वह ज्ञानको उपाधिरूप है, और ज्ञान जानने मात्र है, उसके कोई उपाधिका काम ही नहीं है / लेकिन 'श्रुतज्ञान' ऐसा कहनेका कारण यह है, कि कर्मके संयोगसे द्रव्यश्रुतका निमित्त पाकर ज्ञान उत्पन्न होता है / यदि वस्तुके स्वभावका विचार किया जाय, तो ज्ञान ज्ञानसे ही उत्पन्न होता है, इसी लिये ज्ञानके कोई श्रुत वगैरः उपाधि नहीं है
गाथा -35 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -36 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
जो जाणदि सो णाणं ण हवदि णाणेण जाणगो आदा।
णाणं परिणमदि सयं अट्ठा णाणट्ठिया सच्चे // 35 //
अन्वयार्थ- (जो जाणदि) जो जानता है, (सो णाणं) सो ज्ञान है, जो ज्ञायक है वही ज्ञान है (णाणण) ज्ञान के द्वारा आदा) आत्मा (जाणगो हवदि) ज्ञायक है, (ण) ऐसा नहीं है, (सयं) स्वयं ही (णाणं परिणमदि) ज्ञानरूप परिणमित होता है, (सव्वे अट्ठा) और सर्व पदार्थ (णाणट्टिया) ज्ञान स्थित है।
आगे कितने ही एकान्तवादी ज्ञानसे आत्माको भिन्न मानते हैं, सो उनके पक्षको दूर करनेके लिये आत्मा कर्ता है, ज्ञान कारण है, ऐसा भिन्नपना दूर करके आत्मा और ज्ञानमें अभेद सिद्ध करते हैं-[यः] जो आत्मा [जानाति] जानता है, [सः] वह [ज्ञानं] ज्ञान है / [ज्ञानेन] ज्ञान गुणसे [ज्ञायकः] जाननेवाला [आत्मा] आत्मा अर्थात् चेतनद्रव्य [न भवति] नहीं होता / [ज्ञानं] ज्ञान [स्वयं] आप ही [परिणमते] परिणमन करता है, [सर्वे अर्थाः] और सब ज्ञेय पदार्थ [ज्ञानस्थिताः] ज्ञानमें स्थित हैं / भावार्थ-यद्यपि व्यवहारमें संज्ञा, संख्या, लक्षण, प्रयोजनादि भेदोंसे ज्ञान और आत्माको वस्तुके समझनेके लिये भिन्न कहते हैं, परन्तु निश्चयमें ज्ञान और आत्मामें भिन्नपना नहीं है, प्रदेशोंसे ज्ञान और आत्मा एक है / इसी कारण ज्ञानभावरूप परिणमता आत्मा ही ज्ञान है / जैसे अग्नि ज्वलनक्रिया करनेका कर्ता है, और उष्णगुण ज्वलन क्रियाका कारण है। अग्नि और उष्णपना व्यवहारसे भिन्न हैं, परन्तु यथार्थमें भिन्न नहीं है, जो अग्नि है, वही उष्णपना है, और इसलिये अग्निको उष्ण भी कहते हैं / इसी प्रकार यह आत्मा जाननेरूप क्रियाका कर्ता है, और ज्ञान जानन–क्रियाका साधन है, इसमें व्यवहारसे भिन्नपना (भेद) है, वस्तुतः आत्मा और ज्ञान एक ही है / और जैसे कोई पुरुष लोहेके दाँते (हँसिये) से घासका काटनेवाला कहलाता है, उस तरह आत्मा ज्ञानसे जाननेवाला नहीं कहा जाता, क्योंकि घासका काटनेवाला पुरुष और घास काटनेमें कारण लोहेका दाँता ये दोनों जैसे जुदा जुदा पदार्थ हैं, उसी प्रकार आत्मा और ज्ञानमें जुदापना नहीं है, क्योंकि आत्मा और ज्ञान, अग्नि और उष्णताकी तरह अभिन्न ही देखनेमें आते हैं, जुदे नहीं दीखते, और जो कोई अन्यवादी मिथ्यादृष्टि कहते हैं कि, आत्मासे ज्ञान भिन्न है, ज्ञानके संयोगसे आत्मा ज्ञायक है / सो उन्हें “आत्मा अचेतन है, ज्ञानके संयोगसे चेतन हो जाता है," ऐसा मानना पड़ेगा। जिससे धूलि, भस्म, घट, पटादि समस्त अचेतन पदार्थ चेतन हो जायेंगे, क्योंकि जब ये पदार्थ जाने जाते हैं, तब इन धूलि वगैरः पदार्थोंसे भी ज्ञानका संयोग होता है / इस कारण इस दोषके मेंटनेके लिये आत्मा और ज्ञान एक ही मानना चाहिये / और जैसे आरसीमें घटपटादि पदार्थ प्रतिबिम्बरूपसे रहते हैं, उसी प्रकार ज्ञानमें सब ज्ञेयपदार्थ आ रहते हैं। इससे यह सारांश निकला, कि आत्मा और ज्ञान अभिन्न हैं, अन्यवादियोंकी तरह भिन्न नहीं हैं //
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार गाथा - 34,35
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -34 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -35 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
सुत्तं जिणोवदिटुं पोग्गलदव्वप्पगेहिं वयणेहिं /
तं जाणणा हि णाणं सुत्तस्स य जाणणा भणिया // 34 //
अन्वयार्थ- (पोग्गलदवप्पगेहिं वयणेहिं पुद्गल द्रव्यात्मक वचनों के द्वारा (जिणोवदिहूं)। जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा उपदिष्ट सुत्तं सूत्र हैं, (तं जाणणा हि) उसकी ज्ञप्ति णाणं) ज्ञान है, (य) और उसे सुत्तस्स जाणणा) सूत्र की ज्ञप्ति श्रुतज्ञान) भणिदा कहा गया है। पुद्गलद्रव्यात्मकैर्वचनैः। तज्जाणणा हि णाणं तस्स य सुत्तस्स य जाणणा प्रतिपत्तिः तेन वा श्रुतेन जाणण
आगे ज्ञानके श्रुतरूप उपाधिभेदको दूर करते हैं—[पुद्गलद्रव्यात्मकैः] पुद्गलद्रव्यस्वरूप [वचनैः] वचनोंसे [जिनोपदिष्टं] जो जिनभगवान् का उपदेश किया हुआ है, [सूत्रं] वह द्रव्यश्रुत है, [हि ] निश्चयकर [तद्ज्ञप्तिः] उस द्रव्यश्रुतका जानना वह [ज्ञानं] भावश्रुत ज्ञान है / [च सूत्रस्य] और द्रव्यश्रुतको भी [ज्ञप्तिः] ज्ञान [भणिता] 'व्यवहारसे' कहा है। भावार्थ-द्रव्यश्रुत पुद्गलमय है, क्योंकि वह वीतराग भगवानका अनेकान्तरूप वचन है / इस द्रव्यश्रुतको जो ज्ञान जानता है, उसे निश्चयसे ज्ञान कहते हैं / परन्तु जो द्रव्यश्रुतको ही ज्ञान कहते हैं, सो व्यवहारनयसे ज्ञानके उत्पन्न करनेमें कारणभूत होनेसे अन्नमें प्राणकी तरह कारणमें कार्यका व्यवहार कर कहते हैं, यथार्थमें द्रव्यश्रुतकी ज्ञानसंज्ञा नहीं है, क्योंकि वचन जड़ पुद्गलमयी है, तथा वह ज्ञानको उपाधिरूप है, और ज्ञान जानने मात्र है, उसके कोई उपाधिका काम ही नहीं है / लेकिन 'श्रुतज्ञान' ऐसा कहनेका कारण यह है, कि कर्मके संयोगसे द्रव्यश्रुतका निमित्त पाकर ज्ञान उत्पन्न होता है / यदि वस्तुके स्वभावका विचार किया जाय, तो ज्ञान ज्ञानसे ही उत्पन्न होता है, इसी लिये ज्ञानके कोई श्रुत वगैरः उपाधि नहीं है
गाथा -35 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -36 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
जो जाणदि सो णाणं ण हवदि णाणेण जाणगो आदा।
णाणं परिणमदि सयं अट्ठा णाणट्ठिया सच्चे // 35 //
अन्वयार्थ- (जो जाणदि) जो जानता है, (सो णाणं) सो ज्ञान है, जो ज्ञायक है वही ज्ञान है (णाणण) ज्ञान के द्वारा आदा) आत्मा (जाणगो हवदि) ज्ञायक है, (ण) ऐसा नहीं है, (सयं) स्वयं ही (णाणं परिणमदि) ज्ञानरूप परिणमित होता है, (सव्वे अट्ठा) और सर्व पदार्थ (णाणट्टिया) ज्ञान स्थित है।
आगे कितने ही एकान्तवादी ज्ञानसे आत्माको भिन्न मानते हैं, सो उनके पक्षको दूर करनेके लिये आत्मा कर्ता है, ज्ञान कारण है, ऐसा भिन्नपना दूर करके आत्मा और ज्ञानमें अभेद सिद्ध करते हैं-[यः] जो आत्मा [जानाति] जानता है, [सः] वह [ज्ञानं] ज्ञान है / [ज्ञानेन] ज्ञान गुणसे [ज्ञायकः] जाननेवाला [आत्मा] आत्मा अर्थात् चेतनद्रव्य [न भवति] नहीं होता / [ज्ञानं] ज्ञान [स्वयं] आप ही [परिणमते] परिणमन करता है, [सर्वे अर्थाः] और सब ज्ञेय पदार्थ [ज्ञानस्थिताः] ज्ञानमें स्थित हैं / भावार्थ-यद्यपि व्यवहारमें संज्ञा, संख्या, लक्षण, प्रयोजनादि भेदोंसे ज्ञान और आत्माको वस्तुके समझनेके लिये भिन्न कहते हैं, परन्तु निश्चयमें ज्ञान और आत्मामें भिन्नपना नहीं है, प्रदेशोंसे ज्ञान और आत्मा एक है / इसी कारण ज्ञानभावरूप परिणमता आत्मा ही ज्ञान है / जैसे अग्नि ज्वलनक्रिया करनेका कर्ता है, और उष्णगुण ज्वलन क्रियाका कारण है। अग्नि और उष्णपना व्यवहारसे भिन्न हैं, परन्तु यथार्थमें भिन्न नहीं है, जो अग्नि है, वही उष्णपना है, और इसलिये अग्निको उष्ण भी कहते हैं / इसी प्रकार यह आत्मा जाननेरूप क्रियाका कर्ता है, और ज्ञान जानन–क्रियाका साधन है, इसमें व्यवहारसे भिन्नपना (भेद) है, वस्तुतः आत्मा और ज्ञान एक ही है / और जैसे कोई पुरुष लोहेके दाँते (हँसिये) से घासका काटनेवाला कहलाता है, उस तरह आत्मा ज्ञानसे जाननेवाला नहीं कहा जाता, क्योंकि घासका काटनेवाला पुरुष और घास काटनेमें कारण लोहेका दाँता ये दोनों जैसे जुदा जुदा पदार्थ हैं, उसी प्रकार आत्मा और ज्ञानमें जुदापना नहीं है, क्योंकि आत्मा और ज्ञान, अग्नि और उष्णताकी तरह अभिन्न ही देखनेमें आते हैं, जुदे नहीं दीखते, और जो कोई अन्यवादी मिथ्यादृष्टि कहते हैं कि, आत्मासे ज्ञान भिन्न है, ज्ञानके संयोगसे आत्मा ज्ञायक है / सो उन्हें “आत्मा अचेतन है, ज्ञानके संयोगसे चेतन हो जाता है," ऐसा मानना पड़ेगा। जिससे धूलि, भस्म, घट, पटादि समस्त अचेतन पदार्थ चेतन हो जायेंगे, क्योंकि जब ये पदार्थ जाने जाते हैं, तब इन धूलि वगैरः पदार्थोंसे भी ज्ञानका संयोग होता है / इस कारण इस दोषके मेंटनेके लिये आत्मा और ज्ञान एक ही मानना चाहिये / और जैसे आरसीमें घटपटादि पदार्थ प्रतिबिम्बरूपसे रहते हैं, उसी प्रकार ज्ञानमें सब ज्ञेयपदार्थ आ रहते हैं। इससे यह सारांश निकला, कि आत्मा और ज्ञान अभिन्न हैं, अन्यवादियोंकी तरह भिन्न नहीं हैं //
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार गाथा - 34,35