08-27-2022, 07:23 AM
श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -62 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -64 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
णो सद्दहंति सोक्खं सुहेसु परमंति विगदघादीणं।
सुणिदूण ते अभव्वा भव्वा वा तं पडिच्छंति॥ 62॥
अब केवलीके ही पारमार्थिक अतीन्द्रियसुख है, ऐसा निश्चय करते हैं-[विगतघातिनां] जिनके घातियाकर्मीका क्षय हो गया है, ऐसे केवली भगवानके [सुखेषु परम सौख्यं] अन्य सब सुखोंमें उत्कृष्ट अतींद्रिय सुख है, [इति श्रुत्वा] ऐसा सुनकर [ये] जो कोई पुरुष [न हि श्रद्दधति] विश्वास नहीं करते, [ते] वे पुरुष [अभव्याः ] सम्यक्त्वरूप परिणतिसे रहित अभव्य हैं। [वा] और जो पुरुष [ तत् ] केवलीके उस अतींद्रिय सुखको [प्रतिच्छन्ति ] मानते हैं, ['ते' भव्या] वे भव्य हैं, अर्थात् सम्यक्त्व परिणामकर सहित हैं।
भावार्थ-सम्यग्दृष्टि जीव संसारके सुप्पोको सुखाभास समझते हैं, और इंद्रियसुखोंको रूढ़िसे सुख मानते हैं / परंतु यथार्थमें केवलीके सुखको ही सुख मानते हैं, क्योंकि उनके घातियाकर्मोंके नाश होनेसे अनाकुलता प्रगट होती है, और आकुलता रहित सुख ही पारमार्थिक (निश्चयसे ) सुख है / जो अज्ञानी आत्मीक सुखके आस्वाद लेनेवाले नहीं हैं, वे मृग-तृष्णाकी तरह अजलमें जलबुद्धि करके इंद्रियाधीन सुखको सुख मानते हैं
गाथा -63 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -65 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
मणुयासुरामरिंदा अहिदुदा इंदियेहिं सहजेहिं /
असहंता तं दुक्खं रमति विसएसु रम्मेसु // 63 //
अब परोक्षज्ञानियोंके इंद्रियाधीन सुख है, परमार्थसुख नहीं है, ऐसा कहते हैं-[सहजैः] स्वाभाविक व्याधिरूप [इन्द्रियैः ] इंद्रियोंसे [अभिद्रुताः] पीड़ित [मनुजासुरानरेन्द्राः] मनुष्य, असुर, ( पातालवासीदेव ) और देवोंके ( स्वर्गवासीदेवोंके ) इन्द्र अर्थात् स्वामी [ तत् दुःखं] उस इन्द्रियजनित दुःखको [असहमानाः ] सहन करनेमें असमर्थ होते हुए [रम्येषु विषयेषु] रमणीक इंद्रिय जनित सुखोंमें [ रमन्ति] क्रीड़ा करते हैं।
भावार्थ-संसारी जीवोंके प्रत्यक्षज्ञानके अभावसे परोक्षज्ञान है। जो कि इंद्रियोंके आधीन है, और तप्त लोहेके गोलेके समान महा-मोहरूप कालाग्निसे ग्रसित तीन तृष्णा सहित है। जैसे व्याधिसे पीड़ित होकर रोगी औषध सेवन करता है, उसी प्रकार इंद्रियरूप व्याधिसे दुःखी होकर यह जीव इन्द्रियोंके स्पर्श रसादि विषयरूप औषधका सेवन करता है / इससे सिद्ध हुआ, कि परोक्षज्ञानी अत्यंत दुःखी है, उनके आत्मीक निश्चयसुख नहीं है //
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार गाथा - 62,63
* जो जीव अतींद्रिय ज्ञान और सुख का प्रकरण सुनते सुनते यदि ऐसे ज्ञान पर श्रद्धा करने लगे हैं और ऐसे सुख की इच्छा करने लगे हैं तो वे आसन्न भव्य हैं( निकट भव्य)।
* भव्य/ अभव्य स्वभाव से होता है।
* जिसका कोई कारण (cause) न हो, तो वह उसका स्वभाव कहलाता है। ( natural)
* अतींद्रिय सुख (supreme bliss)- without disturbance, dependency, destruction
* If our mind is indulged/inclined towards supreme bliss then you are bhavy
* यदि उस supreme bliss की इच्छा अभी होने लगे तो समझना हम निकट भव्य हैं।
गाथा 063 के माध्यम से मुनि श्री बताते हैं कि सुर,असुर,मनुष्य विषयों में रमण करते हैं क्योंकि उनसे इंद्रियो के दुःख सहे नहीं जाते। जो जितना रमणीय विषयों मेन रमण करेगा वह उतना ही दुखी है।
गाथा - 62
अन्वयार्थ - (विगदघादीणं) जिनके घातिकर्म नष्ट हो गये हैं, उनका (सोक्खं) सुख (सुहेसु परमं) सर्व सुखों में उत्कृष्ट है, (इति) इस प्रकार (सुणिदूण) सुनकर (णो सदृहंति) जो श्रद्धा नहीं करते (ते अभव्वा) वे अभव्य हैं, (भव्वा वा) और भव्य (तं) उसे (पडिच्छंति) स्वीकार करते हैं, उसकी श्रद्धा करते हैं।
गाथा - 63
अन्वयार्थ - (मणुया सुरासुरिंदा) मनुष्येन्द्र चक्रवर्ती, असुरेन्द्र और सुरेन्द्र (सहजेहिं इंदियेहिं) स्वाभाविक (परोक्षज्ञान वालों को जो स्वाभाविक है, ऐसी) इन्द्रियों से (अहिद्दुदा ) पीड़ित वर्तते हुए (तद् दुक्खं) उस दुःख को (असहंता) सहन न कर सकने से (रम्मेसु विसयेसु) रम्य विषयों में (रमंति) रमण करते हैं।
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -62 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -64 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
णो सद्दहंति सोक्खं सुहेसु परमंति विगदघादीणं।
सुणिदूण ते अभव्वा भव्वा वा तं पडिच्छंति॥ 62॥
अब केवलीके ही पारमार्थिक अतीन्द्रियसुख है, ऐसा निश्चय करते हैं-[विगतघातिनां] जिनके घातियाकर्मीका क्षय हो गया है, ऐसे केवली भगवानके [सुखेषु परम सौख्यं] अन्य सब सुखोंमें उत्कृष्ट अतींद्रिय सुख है, [इति श्रुत्वा] ऐसा सुनकर [ये] जो कोई पुरुष [न हि श्रद्दधति] विश्वास नहीं करते, [ते] वे पुरुष [अभव्याः ] सम्यक्त्वरूप परिणतिसे रहित अभव्य हैं। [वा] और जो पुरुष [ तत् ] केवलीके उस अतींद्रिय सुखको [प्रतिच्छन्ति ] मानते हैं, ['ते' भव्या] वे भव्य हैं, अर्थात् सम्यक्त्व परिणामकर सहित हैं।
भावार्थ-सम्यग्दृष्टि जीव संसारके सुप्पोको सुखाभास समझते हैं, और इंद्रियसुखोंको रूढ़िसे सुख मानते हैं / परंतु यथार्थमें केवलीके सुखको ही सुख मानते हैं, क्योंकि उनके घातियाकर्मोंके नाश होनेसे अनाकुलता प्रगट होती है, और आकुलता रहित सुख ही पारमार्थिक (निश्चयसे ) सुख है / जो अज्ञानी आत्मीक सुखके आस्वाद लेनेवाले नहीं हैं, वे मृग-तृष्णाकी तरह अजलमें जलबुद्धि करके इंद्रियाधीन सुखको सुख मानते हैं
गाथा -63 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -65 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
मणुयासुरामरिंदा अहिदुदा इंदियेहिं सहजेहिं /
असहंता तं दुक्खं रमति विसएसु रम्मेसु // 63 //
अब परोक्षज्ञानियोंके इंद्रियाधीन सुख है, परमार्थसुख नहीं है, ऐसा कहते हैं-[सहजैः] स्वाभाविक व्याधिरूप [इन्द्रियैः ] इंद्रियोंसे [अभिद्रुताः] पीड़ित [मनुजासुरानरेन्द्राः] मनुष्य, असुर, ( पातालवासीदेव ) और देवोंके ( स्वर्गवासीदेवोंके ) इन्द्र अर्थात् स्वामी [ तत् दुःखं] उस इन्द्रियजनित दुःखको [असहमानाः ] सहन करनेमें असमर्थ होते हुए [रम्येषु विषयेषु] रमणीक इंद्रिय जनित सुखोंमें [ रमन्ति] क्रीड़ा करते हैं।
भावार्थ-संसारी जीवोंके प्रत्यक्षज्ञानके अभावसे परोक्षज्ञान है। जो कि इंद्रियोंके आधीन है, और तप्त लोहेके गोलेके समान महा-मोहरूप कालाग्निसे ग्रसित तीन तृष्णा सहित है। जैसे व्याधिसे पीड़ित होकर रोगी औषध सेवन करता है, उसी प्रकार इंद्रियरूप व्याधिसे दुःखी होकर यह जीव इन्द्रियोंके स्पर्श रसादि विषयरूप औषधका सेवन करता है / इससे सिद्ध हुआ, कि परोक्षज्ञानी अत्यंत दुःखी है, उनके आत्मीक निश्चयसुख नहीं है //
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार गाथा - 62,63
* जो जीव अतींद्रिय ज्ञान और सुख का प्रकरण सुनते सुनते यदि ऐसे ज्ञान पर श्रद्धा करने लगे हैं और ऐसे सुख की इच्छा करने लगे हैं तो वे आसन्न भव्य हैं( निकट भव्य)।
* भव्य/ अभव्य स्वभाव से होता है।
* जिसका कोई कारण (cause) न हो, तो वह उसका स्वभाव कहलाता है। ( natural)
* अतींद्रिय सुख (supreme bliss)- without disturbance, dependency, destruction
* If our mind is indulged/inclined towards supreme bliss then you are bhavy
* यदि उस supreme bliss की इच्छा अभी होने लगे तो समझना हम निकट भव्य हैं।
गाथा 063 के माध्यम से मुनि श्री बताते हैं कि सुर,असुर,मनुष्य विषयों में रमण करते हैं क्योंकि उनसे इंद्रियो के दुःख सहे नहीं जाते। जो जितना रमणीय विषयों मेन रमण करेगा वह उतना ही दुखी है।
गाथा - 62
अन्वयार्थ - (विगदघादीणं) जिनके घातिकर्म नष्ट हो गये हैं, उनका (सोक्खं) सुख (सुहेसु परमं) सर्व सुखों में उत्कृष्ट है, (इति) इस प्रकार (सुणिदूण) सुनकर (णो सदृहंति) जो श्रद्धा नहीं करते (ते अभव्वा) वे अभव्य हैं, (भव्वा वा) और भव्य (तं) उसे (पडिच्छंति) स्वीकार करते हैं, उसकी श्रद्धा करते हैं।
गाथा - 63
अन्वयार्थ - (मणुया सुरासुरिंदा) मनुष्येन्द्र चक्रवर्ती, असुरेन्द्र और सुरेन्द्र (सहजेहिं इंदियेहिं) स्वाभाविक (परोक्षज्ञान वालों को जो स्वाभाविक है, ऐसी) इन्द्रियों से (अहिद्दुदा ) पीड़ित वर्तते हुए (तद् दुक्खं) उस दुःख को (असहंता) सहन न कर सकने से (रम्मेसु विसयेसु) रम्य विषयों में (रमंति) रमण करते हैं।