प्रवचनसारः गाथा -72, 73 पुण्य का फल
#1

श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार

गाथा -72 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -76 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )


णरणारयतिरियसुरा भजति जदि देहसंभवं दुक्खं /
किह सो सुहो व असुहो उवओगो हवदि जीवाणं // 72 / /


आगे इंद्रिय-सुखका साधक पुण्यका हेतु शुभोपयोग और दुःखका साधन पापका कारण अशुभोपयोग इन दोनोंमें समानपना दिखाते हैं-[यदि] जो [ नरनारकतिर्यक्सुराः] मनुष्य, नारकी, तिथंच (पशु) तथा देव, ये चारों गतिके जीव [देहसंभवं दुःखं ] शरीरसे उत्पन्न हुई पीडाको [भजन्ति] भोगते हैं, [तदा] तो [जीवानां ] जीवोंके [स उपयोगः। वह चैतन्यरूप परिणाम [शुभः] अच्छा [वा] अथवा [अशुभः] बुरा [कथं भवति] कैसे हो सकता है। 

भावार्थ-शुभोपयोगका फल देवताओंकी संपदा है, और अशुभोपयोगका नारकादिकी आपदा है, परंतु इन दोनों में आत्मीक-सुख नहीं है, इसलिये इन दोनों स्थानोंमें दुःख ही है। सारांश यह है, कि जो परमार्थदृष्टि से विचारा जावे, तो शुभोपयोग और अशुभोपयोग दोनोंमें कुछ भेद नहीं है / कार्यकी समानता होनेसे कारणकी भी समानता है /


गाथा -73 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -77 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )


कुलिसाउहचक्कधरा सुहोवओगप्पगेहिं भोगेहिं /
देहादीणं विद्धिं करेंति सुहिदा इवाभिरदा // 73 / /


आगे शुभोपयोगसे उत्पन्न हुए फलवान् पुण्यको विशेषपनेसे दुषणके लिये दिखलाकर निषेध करते हैं-[सुखिताः इव] सुखियोंके समान [अभिरताः] लवलीन हुए [कुलिशायुधचक्रधराः ] वज्रायुधधारी इन्द्र तथा चक्रवर्ती आदिक [शुभोपयोगात्मकैः] शुभ उपयोगसे उत्पन्न हुए [ भोगेः] भोगोंसे [ देहादीनां] शरीर इंद्रियादिकोंकी [वृद्धिं ] बढ़ती [कुर्वन्ति ] करते हैं / 

भावार्थ-यद्यपि शुभोपयोगसे इंद्र, चक्रवर्ती आदि विशेष फल मिलते हैं, परंतु वे इंद्रादिक मनोवांछित भोगोंसे शरीरादिका पोषण ही करते हैं, सुखी नहीं हैं, सुखीसे देखनेमें आते हैं। जैसे जोंक विकारवाले लोहूको बड़ी प्रीतिसे पीती हैं, और उसीमें सुख मानती हैं, परंतु यथार्थमें वह पीना दुःखका कारण है। इसी प्रकार वे इंद्र वगैरह भी तृष्णासे सुख मान रहे हैं| 


मुनि श्री प्रणम्य सागर जी  प्रवचनसार गाथा - 72,73

गाथा -72

अन्वयार्थ - (णरणारयतिरियसुरा) मनुष्य, नारकी, तिर्यंच और देव (सभी) (जदि) यदि (देहसंभवं) देहोत्पन्न (दुक्खं) दुःख को (भजंति) अनुभव करते हैं तो (जीवाणं) जीवों का (सो जुवओगो) वह (शुद्धोपयोग से विलक्षण अशुद्ध) उपयोग (सुहो व असूहो) शुभ और अशुभ दो प्रकार का (किध हवदि) कैसे है? (अर्थात् नहीं है)।

पुण्य का फल मिथ्या दृष्टि व सम्यक दृष्टि जीव दोनों को ही मिलता है  लेकिन दोनों के फल में अंतर हैं औऱ वह अंतर उसके परिणामो ओर उपयोग का है।
अशुभोपयोगी को जो पुण्य का फल मिलता है  वह फल भोगने के बाद कुनर ही बनता है,,उसका अंत बुरा ही होता है लेकिन सम्यक दृष्टि जीव तीर्थंकर पदवी गणधर पदवी को पाता है।,
इंद्रिय आदि के लिए उपयोग शुभ और अशुभ होता हैं पर आत्मा के लिए इंद्रिय सुख की कोई उपयोगिता नही है ,सब दुख ही है।



गाथा -73
अन्वयार्थ- (कुलिसायुहचक्कहरा) वज्रधर और चक्रधर (इन्द्र और चक्रवर्ती) (सहोवओगप्पगेहिं भोगेहिं) शुभीषयीमूलक (पुण्य के फल रूप) भी के द्वारा (देहदीणं) देहादिकी (वड्ढी करेंति) पुष्टि करते हैं और (अभिरदा) (इस प्रकार) भोगो से रत वर्तते हुए (सुहिदा इव) सुखी जैसे भासित होते हैं। (इसलिए पुण्य विधमान अवश्य है।)

- चक्रवर्ती और इन्द्र भोगों के कारण देह की वृद्धि करते है, इसलिए ये सुखी जैसे लगते है ,क्योकि सुखी जीव किसी दूसरे में रमण नही करता है अर्थात पररमण नहीं करता। वह सुखी जैसा लगता है ,वास्तविकता से वह दुखी है।


Manish Jain Luhadia 
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#2

Gatha 72 

When the souls in all worldly states of existence – human (nara), infernal (nāraka), plant and animal (tiryańca), and celestial (deva) – suffer from misery incidental to their bodies, how can their impure-cognition (aśuddhopayoga) be classified into the auspicious (śubha) or the inauspicious (aśubha) dispositions?


Explanatory Note: The outcome of the auspicious (śubha) dispositions is the riches of the celestial beings (deva) and of the inauspicious (aśubha) dispositions is the misfortune of the infernal (nāraka) beings. In both states, true happiness  appertaining to the soul is absent; in reality, there is misery in both states. From the spiritual perspective, therefore, there is no difference between the auspicious (śubha) and the inauspicious (aśubha) dispositions. Effects being identical, the causes too are identical.

Gatha 73
The lords of the devas (Indra), the lords of the men (cakravartī), and the like, appear to be happy while indulging in the sensual pleasures attained as a result of their auspicious-cognition (śubhopayoga). They only feed their body etc. through such indulgence.


Explanatory Note: Auspicious-cognition (śubhopayoga) provides the soul extraordinary states such as the lords of the
devas (Indra) and the lords of the men (cakravartī), having access to the best of the sensual-pleasures. While indulging in such pleasures they only satisfy their bodily cravings. They appear to be happy but, in reality, are not so. Although a cause of misery, the leech drinks contaminated blood with great involvement and feels happy about it. Similarly, the lords of the devas (Indra), and the like, appear to be happy while enjoying the sensual-pleasures.

Taken from : Ācārya Kundakunda’s Pravacanasāra – Essence of the Doctrine by Vijay K. Jain
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#3

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश
गाथा -71,72

औरों की क्या बात शक्रको भी न सहज सुख होता है ।
शारीरिक वेदना वह विषयोंमें लेता गोता है ॥
नारककी तरह पशु मनुज सुरको भी दुःख तनुज है ।
तो फिर शुभ अशुभोपयोग में ज्ञानी कैसा भेदक है ॥ ३६ ॥

सारांश: - लौकिक दृष्टिसे नारकियोंको दुख और देवोंको सुख होता है। देवोंमें भी प्रधानता इन्द्रोंकी है जो निश्चितरूपसे शुभोपयोगी होते हैं। जब हम इनके विषयमें भी विचार करते 1 हैं तो बात कुछ और ही पाते हैं। भूख प्यास आदिकी वेदना जैसी नारकियोंके होती है वैसी ही इन्द्रोंके भी होती है। अन्तर केवल इतना ही है कि नारकियोंके पास उसे मिटानेका

कोई बाह्य साधन नहीं होता है और इन्द्रोंके पास होता है।


यह बात तो ऐसी ही हुई कि जैसे दो मनुष्योंको शीतज्वरका वेग आया। इनमेंसे एकको तो रजाई और कम्बल मिल गये, उन्हें ओढ़कर वह सो गया परन्तु दूसरेके पास कुछ भी न होनेसे वह बिना ओढे ही अपने स्थान पर पड़ा रहा। ऊपरसे देखनेमें तो उन दोनोंमें अन्तर दीख रहा है। एक ओढ़े हुए हैं और दूसरेके पास ओढनेको कुछ भी नहीं है परन्तु भीतरसे दोनोंको जाड़ा (सर्दी) सता रहा है। दोनों ही भीतरी ठण्डकसे काँप रहे हैं। दोनों ही शीतज्वरके रोगी हैं। रोगके वेगसे पीड़ित हैं।

इसीप्रकार देव और नारकी दोनों ही दुखी होते हैं। बाह्य में एकके पास भोग सामग्री है और दूसरेके पास नहीं है फिर भी उनके दुःखमें कोई मौलिक अन्तर नहीं होता है। नीरोगपन की तरह जो मनुष्य अपने अंतरंगमें सहज स्वभाव के मूल्यको  आँक रहा है उसके लिए दोनों एक समान हैं। दोनों ही अपनेपनसे दूर होकर विकारग्रस्त हो रहे हैं। वस्तुतः दोनों ही दुःखी हैं। नारकी जीवको जिस शरीरमें रहकर दुःख का अनुभव करना पड़ता है वह उस शरीरका शोषण करना चाहता है और इन्द्र उसीका पोषण करना चाहता है। विवेकशील महात्माकी दृष्टिमें नारकीय जीवन तो उपवासकी तरह और स्वर्गीय जीवन भोजन की तरह प्रतीत होता है,


गाथा -73,74
शक्रचक्रधरके पथेष्ट भोगों से भी तनुपोषण ही
होकर होता है दुनियामें जीवभावका शोषण ही
देवादिकका पुण्योदय भी परिणमनात्मक होता है ।
इसीलिये विषयाभिलाय पैदा करके सुख खोता है ॥ ३७


सारांश:-जोंक किसीके भी दूषित रक्तको पिया करती है और उससे वह पुष्ट हुई  ही प्रतीत होती है परन्तु परिणाम यह होता है कि यदि वह अल्प समय तक भी उसे पिये हुए रह जाय तो प्राणान्तकारक कष्ट उठाती है। ऐसे ही शक्र चक्रधरादिक विशिष्ट पुण्यशाली पुरुष भी अपने प्राप्त भोगों द्वारा शरीर और इन्द्रियों को संतुष्ट करते हैं और अपने आपको सुखी मानते हैं परन्तु फल उनको विपरीत ही मिलता है। अन्त में पश्चाताप ही उनके लिए शेष रह जाता है क्योंकि बड़े से बड़े पुण्य का भी अन्त अवश्य होता है। वह सदा बना रहनेवाला नहीं होता है, नाशमान होता है एवं उसमें बीच बीच में भी अनेक तरह के उतार चढ़ाव आते रहते हैं जिससे वह अपने साथ शोक सन्तापको लिये हुए तृष्णाभिवृद्धिका ही कारण हुआ करता है। इस पर ऐसा कहा जा सकता है कि परिणाम में भले ही दुःख हो परन्तु तत्काल तो विषय भोग में सुख होता है या नहीं?
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