प्रवचनसारः गाथा - 74, 75 शुभ और अशुभ की विशेषता
#1

श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार

गाथा -74 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -78 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )


जदि संति हि पुण्णाणि य परिणामसमुन्भवाणि विविहाणि /
जणयंति विसयतण्हं जीवाणं देवदंताणं / / 74 //

आगे शुभोपयोगजनित पुण्यको भी दुःखका कारण प्रगट दिखलाते हैं-[ यदि] जो [हि] निश्चयसे [विविधानि] नानाप्रकारके [पुण्यानि] पुण्य [परिणामसमुद्भवानि] शुभोपयोगरूप परिणामोंसे उत्पन्न [ सन्ति ] हैं। [तदा] तो वे [ देवतान्तानां] स्वर्गवासी देवोंतक [ जीवानां] सब संसारी जीवोंके [विषयतृष्णां] विषयोंकी अत्यंत अभिलाषाको [जनयन्ति ] उत्पन्न करते हैं। भावार्थ-यदि शुभोपयोगसे अनेक तरह के पुण्य उत्पन्न होते हैं, तो भले ही उत्पन्न होवो, कुछ विशेषता नहीं है, क्योंकि वे पुण्य देवताओंसे लेकर सब संसारी जीवोंको तृष्णा उपजाते हैं, और जहाँ तृष्णा हैं, वहाँ ही दुःख है, क्योंकि तृष्णाके विना इन्द्रियोंके रूपादि विषयोंमें प्रवृत्ति ही नहीं होती। जैसे जोंक (जलका जंतुविशेष ) तृष्णाके विना विकारयुक्त (खराब ) रुधिरका पान नहीं करती, इसी प्रकार संसारी जीवोंकी विषयोंमें प्रवृत्ति तृष्णाके विना नहीं होती / इस कारण पुण्य तृष्णाका घर है //


गाथा -75 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -79 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )



ते पुण उदिण्णतण्हा दुहिदा तण्हाहिं विसयसोक्खाणि /
इच्छंति अणुभवंति य आमरणं दुक्खसंतत्ता // 75 //

आगे पुण्यको दुःखका बीज प्रगट करते हैं—[पुनः] उसके बाद [ उदीर्णतृष्णाः ] उठी है, तृष्णा जिनके तथा [तृष्णाभिः दुःखिता] अत्यंत अभिलाषासे पीड़ित और [दुःखसंतप्ताः ] दुःखोसे तप्तायमान [ ते ] वे देवों पर्यंत सब संसारी जीव [विषयसौख्यानि] इंद्रियोंके विषयोंसे उत्पन्न सुखोंको [आमरणं] मरण पर्यंत [इच्छन्ति ] चाहते हैं, [च] और [ अनुभवन्ति] भोगते हैं / भावार्थ-मृग-तृष्णासे जलकी अभिलाषाकी नाई संसारी जीव पुण्यजनित तृष्णाओंमें सुख चाहते हैं / उस तृष्णासे उत्पन्न हुए दुःख संतापको सह नहीं सकते हैं, इसलिये बारंबार विषयोंको मरण पर्यंत भोगते हैं / जैसे जोंक विकारवाले खूनको तृष्णावश क्रमसे तबतक पीती है, जबतक कि नाशको प्राप्त नहीं होती, इसी प्रकार पापी जीवोंकी तरह ये पुण्यवन्त भी तृष्णाबीजसे बढ़े हुए दुःखरूप अंकुरके वश क्रमसे विषयोंको चाहते हैं, बारम्बार भोगते हैं; और क्लेशयुक्त होते हैं, जबतक कि मर नहीं जाते। इसलिये पुण्य सुखाभासरूप दुःखके कारण हैं; सब प्रकारसे त्यागने योग्य हैं /


मुनि श्री प्रणम्य सागर जी  प्रवचनसार गाथा - 74,75

गाथा -74

अन्वयार्थ - (जदि हि) (पूर्वोत्त्क प्रकार से) यदि (परिणामसमुब्भ्वाणि) (शुभोपयोगरूप) परिणाम से उत्पन्न होने वाले (विविहाणि पुण्णाणि य) विविध पुण्य (संति) विद्यमान हैं, (देवदंताणं जीवाणं) तो वे देवों तक के जीवी को (विसयतण्हं) विषयतृष्णा (जणयंति) उत्पन्न करते हैं।


गाथा -75
अन्वयार्थ- (पुण) और (उदिण्णतण्हा ते) जिनकी तृष्णा उदित है ऐसे वे जीव (तण्हाहिं दुहिदा) तृष्णाओं के द्वारा दुःखी होते हुए (आमरणं) मरण पर्यंत (विसयसोक्खाणि इच्छंति) विषय सुखों को चाहते हैं (य) और (दुक्खसंतत्ता) दुःखों से संतप्त होते हुए (दुःख दाह को सहन न करते हुए) (अणुहवंति) उन्हें भोगते हैं।



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#2

Gatha 74 
Certainly, the souls engaged in auspicious-cognition (śubhopayoga) earn various forms of merit (puõya); however,
such merit generates in the beings, up to the celestial beings, intense craving for the sensual-pleasures.

Explanatory Note: Without doubt, the auspicious-cognition (śubhopayoga) earns merit (puõya) and merit is the cause of
superior states of existence, full of craving for sensual-pleasures. Wherever there is craving, there is misery; to subdue craving one indulges in the sensual-pleasures. Without craving, the leech would not indulge in the drinking of the contaminated blood.
Similarly, without craving, the worldly beings would not indulge in the sensual-pleasures. Therefore, merit (puõya) is the birthplace of craving.


Gatha 75


Intense craving for the pleasures of the senses causes anguish; in order to alleviate suffering from craving and consequent
anguish, the worldly beings long for the pleasures of the senses, and indulge in these till they die.

Explanatory Note: The worldly beings chase happiness by indulging in the sensual-pleasures obtained by virtue of merit
(punya), as the deer chases a mirage for water. Finding themselves unable to bear anxiety due to craving for the sensual-pleasures, they indulge in such pleasures repeatedly, until death. As the leech, due to its craving for the blood, drinks repeatedly the contaminated blood till it dies, in the same way, like the vicious souls the virtuous souls too, subjugated by craving and consequent anxiety, indulge repeatedly in the sensual-pleasures. They remain restive till death. Therefore, the happiness obtained by virtue of merit (punya) is not the real happiness; it is the cause of suffering, and warrants rejection.
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#3

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -73,74
शक्रचक्रधरके पथेष्ट भोगों से भी तनुपोषण ही
होकर होता है दुनियामें जीवभावका शोषण ही
देवादिकका पुण्योदय भी परिणमनात्मक होता है ।
इसीलिये विषयाभिलाय पैदा करके सुख खोता है ॥ ३७


सारांश:-जोंक किसीके भी दूषित रक्तको पिया करती है और उससे वह पुष्ट हुई  ही प्रतीत होती है परन्तु परिणाम यह होता है कि यदि वह अल्प समय तक भी उसे पिये हुए रह जाय तो प्राणान्तकारक कष्ट उठाती है। ऐसे ही शक्र चक्रधरादिक विशिष्ट पुण्यशाली पुरुष भी अपने प्राप्त भोगों द्वारा शरीर और इन्द्रियों को संतुष्ट करते हैं और अपने आपको सुखी मानते हैं परन्तु फल उनको विपरीत ही मिलता है। अन्त में पश्चाताप ही उनके लिए शेष रह जाता है क्योंकि बड़े से बड़े पुण्य का भी अन्त अवश्य होता है। वह सदा बना रहनेवाला नहीं होता है, नाशमान होता है एवं उसमें बीच बीच में भी अनेक तरह के उतार चढ़ाव आते रहते हैं जिससे वह अपने साथ शोक सन्तापको लिये हुए तृष्णाभिवृद्धिका ही कारण हुआ करता है। इस पर ऐसा कहा जा सकता है कि परिणाम में भले ही दुःख हो परन्तु तत्काल तो विषय भोग में सुख होता है या नहीं?


गाथा -75,76

तृष्णाके वश दुःखी होकर ही तो विषयों को सेवे
संसारी जन जैसे आतुर होवे वह औषध लेवे ॥
पराधीन विच्छेदपूर्ण बाधायुत पापबीज भी है।
अतः विषम इन्द्रियसुख ऐसी चर्चा ऋषियोने को है ॥ ३८ ॥

सारांश :- आचार्य कहते हैं कि इन्द्रियजन्य सुख परपदार्थके संयोगसे होनेवाला है और पुण्यकर्मके उदयकी अपेक्षा रखता है अतः बाधा सहित भी है। परपदार्थ (समुचित विषय) अनुकूल हो और पुण्यका उदय भी हो परन्तु उचित व्यवस्थाका अभाव हो तो भी सांसारिक सुखमें बाधा उत्पन्न हो जाती है। जैसे एक स्वस्थ मनुष्य को स्त्रीप्रसंगको वासना है। स्त्री भी पासमें खड़ी है और वह भी प्रसंग करना चाहती है परन्तु वहीं पर गुरुजन या सखियाँ खड़ी हुई देख रही हों तो अभीप्सित कार्य नहीं हो सकता है, वहाँ बाधा उत्पन्न हो जाती है।
इसीप्रकार विषय सुख विच्छेदयुक्त भी होता है तथा विषय सुख को यदि तत्परता से भोगा जाय तो आगामी कालके लिये वह पापबंधका भी कारण होता है और विषम होता है। अपने कालमें भी निरन्तर एकरूपमें नहीं रहता है। जैसे एक मनुष्य भोजन कर रहा है। उसको दालका कुछ और ही स्वाद आता है और भातका कुछ और ही आता है तथा उनके साथमें खाये जानेवाले शाकपातका कुछ और ही स्वाद आता है। इन सब बातोंसे विषय सुख उत्तरोत्तर तृष्णाको बढ़ानेवाला होता है अतः विषमिश्रित मिन्न भक्षणको तरह हेय ही है।

विषमिश्रित मिष्टान्न खानेमें मीठा अवश्य लगता है परन्तु वह साथमें दाह भी उत्पन्न करता है। ऐसे ही विषय सेवनमें इस जीवको आनन्दका अनुभव होता है परन्तु साथ ही वह तृष्णाको बढ़ानेवाला भी होता है। अतः विषय सेवन तत्कालमें भी आचार्योंके कथनमें दुःखरूप ही होता है। दुःख तो दुःख है ही किन्तु विषयसुख भी दुःख ही है। जब ऐसा सिद्धांत सिद्ध हो गया तब पुण्य और पापमें भी क्या भेद रहा? ऐसा समझकर पापकी तरह पुण्यसे भी जब तक पार नहीं हो जाता है तबतक संसार बना ही रहता है।
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