09-18-2022, 09:39 AM
श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -74 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -78 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
जदि संति हि पुण्णाणि य परिणामसमुन्भवाणि विविहाणि /
जणयंति विसयतण्हं जीवाणं देवदंताणं / / 74 //
आगे शुभोपयोगजनित पुण्यको भी दुःखका कारण प्रगट दिखलाते हैं-[ यदि] जो [हि] निश्चयसे [विविधानि] नानाप्रकारके [पुण्यानि] पुण्य [परिणामसमुद्भवानि] शुभोपयोगरूप परिणामोंसे उत्पन्न [ सन्ति ] हैं। [तदा] तो वे [ देवतान्तानां] स्वर्गवासी देवोंतक [ जीवानां] सब संसारी जीवोंके [विषयतृष्णां] विषयोंकी अत्यंत अभिलाषाको [जनयन्ति ] उत्पन्न करते हैं। भावार्थ-यदि शुभोपयोगसे अनेक तरह के पुण्य उत्पन्न होते हैं, तो भले ही उत्पन्न होवो, कुछ विशेषता नहीं है, क्योंकि वे पुण्य देवताओंसे लेकर सब संसारी जीवोंको तृष्णा उपजाते हैं, और जहाँ तृष्णा हैं, वहाँ ही दुःख है, क्योंकि तृष्णाके विना इन्द्रियोंके रूपादि विषयोंमें प्रवृत्ति ही नहीं होती। जैसे जोंक (जलका जंतुविशेष ) तृष्णाके विना विकारयुक्त (खराब ) रुधिरका पान नहीं करती, इसी प्रकार संसारी जीवोंकी विषयोंमें प्रवृत्ति तृष्णाके विना नहीं होती / इस कारण पुण्य तृष्णाका घर है //
गाथा -75 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -79 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
ते पुण उदिण्णतण्हा दुहिदा तण्हाहिं विसयसोक्खाणि /
इच्छंति अणुभवंति य आमरणं दुक्खसंतत्ता // 75 //
आगे पुण्यको दुःखका बीज प्रगट करते हैं—[पुनः] उसके बाद [ उदीर्णतृष्णाः ] उठी है, तृष्णा जिनके तथा [तृष्णाभिः दुःखिता] अत्यंत अभिलाषासे पीड़ित और [दुःखसंतप्ताः ] दुःखोसे तप्तायमान [ ते ] वे देवों पर्यंत सब संसारी जीव [विषयसौख्यानि] इंद्रियोंके विषयोंसे उत्पन्न सुखोंको [आमरणं] मरण पर्यंत [इच्छन्ति ] चाहते हैं, [च] और [ अनुभवन्ति] भोगते हैं / भावार्थ-मृग-तृष्णासे जलकी अभिलाषाकी नाई संसारी जीव पुण्यजनित तृष्णाओंमें सुख चाहते हैं / उस तृष्णासे उत्पन्न हुए दुःख संतापको सह नहीं सकते हैं, इसलिये बारंबार विषयोंको मरण पर्यंत भोगते हैं / जैसे जोंक विकारवाले खूनको तृष्णावश क्रमसे तबतक पीती है, जबतक कि नाशको प्राप्त नहीं होती, इसी प्रकार पापी जीवोंकी तरह ये पुण्यवन्त भी तृष्णाबीजसे बढ़े हुए दुःखरूप अंकुरके वश क्रमसे विषयोंको चाहते हैं, बारम्बार भोगते हैं; और क्लेशयुक्त होते हैं, जबतक कि मर नहीं जाते। इसलिये पुण्य सुखाभासरूप दुःखके कारण हैं; सब प्रकारसे त्यागने योग्य हैं /
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार गाथा - 74,75
गाथा -74
अन्वयार्थ - (जदि हि) (पूर्वोत्त्क प्रकार से) यदि (परिणामसमुब्भ्वाणि) (शुभोपयोगरूप) परिणाम से उत्पन्न होने वाले (विविहाणि पुण्णाणि य) विविध पुण्य (संति) विद्यमान हैं, (देवदंताणं जीवाणं) तो वे देवों तक के जीवी को (विसयतण्हं) विषयतृष्णा (जणयंति) उत्पन्न करते हैं।
गाथा -75
अन्वयार्थ- (पुण) और (उदिण्णतण्हा ते) जिनकी तृष्णा उदित है ऐसे वे जीव (तण्हाहिं दुहिदा) तृष्णाओं के द्वारा दुःखी होते हुए (आमरणं) मरण पर्यंत (विसयसोक्खाणि इच्छंति) विषय सुखों को चाहते हैं (य) और (दुक्खसंतत्ता) दुःखों से संतप्त होते हुए (दुःख दाह को सहन न करते हुए) (अणुहवंति) उन्हें भोगते हैं।
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -74 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -78 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
जदि संति हि पुण्णाणि य परिणामसमुन्भवाणि विविहाणि /
जणयंति विसयतण्हं जीवाणं देवदंताणं / / 74 //
आगे शुभोपयोगजनित पुण्यको भी दुःखका कारण प्रगट दिखलाते हैं-[ यदि] जो [हि] निश्चयसे [विविधानि] नानाप्रकारके [पुण्यानि] पुण्य [परिणामसमुद्भवानि] शुभोपयोगरूप परिणामोंसे उत्पन्न [ सन्ति ] हैं। [तदा] तो वे [ देवतान्तानां] स्वर्गवासी देवोंतक [ जीवानां] सब संसारी जीवोंके [विषयतृष्णां] विषयोंकी अत्यंत अभिलाषाको [जनयन्ति ] उत्पन्न करते हैं। भावार्थ-यदि शुभोपयोगसे अनेक तरह के पुण्य उत्पन्न होते हैं, तो भले ही उत्पन्न होवो, कुछ विशेषता नहीं है, क्योंकि वे पुण्य देवताओंसे लेकर सब संसारी जीवोंको तृष्णा उपजाते हैं, और जहाँ तृष्णा हैं, वहाँ ही दुःख है, क्योंकि तृष्णाके विना इन्द्रियोंके रूपादि विषयोंमें प्रवृत्ति ही नहीं होती। जैसे जोंक (जलका जंतुविशेष ) तृष्णाके विना विकारयुक्त (खराब ) रुधिरका पान नहीं करती, इसी प्रकार संसारी जीवोंकी विषयोंमें प्रवृत्ति तृष्णाके विना नहीं होती / इस कारण पुण्य तृष्णाका घर है //
गाथा -75 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -79 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
ते पुण उदिण्णतण्हा दुहिदा तण्हाहिं विसयसोक्खाणि /
इच्छंति अणुभवंति य आमरणं दुक्खसंतत्ता // 75 //
आगे पुण्यको दुःखका बीज प्रगट करते हैं—[पुनः] उसके बाद [ उदीर्णतृष्णाः ] उठी है, तृष्णा जिनके तथा [तृष्णाभिः दुःखिता] अत्यंत अभिलाषासे पीड़ित और [दुःखसंतप्ताः ] दुःखोसे तप्तायमान [ ते ] वे देवों पर्यंत सब संसारी जीव [विषयसौख्यानि] इंद्रियोंके विषयोंसे उत्पन्न सुखोंको [आमरणं] मरण पर्यंत [इच्छन्ति ] चाहते हैं, [च] और [ अनुभवन्ति] भोगते हैं / भावार्थ-मृग-तृष्णासे जलकी अभिलाषाकी नाई संसारी जीव पुण्यजनित तृष्णाओंमें सुख चाहते हैं / उस तृष्णासे उत्पन्न हुए दुःख संतापको सह नहीं सकते हैं, इसलिये बारंबार विषयोंको मरण पर्यंत भोगते हैं / जैसे जोंक विकारवाले खूनको तृष्णावश क्रमसे तबतक पीती है, जबतक कि नाशको प्राप्त नहीं होती, इसी प्रकार पापी जीवोंकी तरह ये पुण्यवन्त भी तृष्णाबीजसे बढ़े हुए दुःखरूप अंकुरके वश क्रमसे विषयोंको चाहते हैं, बारम्बार भोगते हैं; और क्लेशयुक्त होते हैं, जबतक कि मर नहीं जाते। इसलिये पुण्य सुखाभासरूप दुःखके कारण हैं; सब प्रकारसे त्यागने योग्य हैं /
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार गाथा - 74,75
गाथा -74
अन्वयार्थ - (जदि हि) (पूर्वोत्त्क प्रकार से) यदि (परिणामसमुब्भ्वाणि) (शुभोपयोगरूप) परिणाम से उत्पन्न होने वाले (विविहाणि पुण्णाणि य) विविध पुण्य (संति) विद्यमान हैं, (देवदंताणं जीवाणं) तो वे देवों तक के जीवी को (विसयतण्हं) विषयतृष्णा (जणयंति) उत्पन्न करते हैं।
गाथा -75
अन्वयार्थ- (पुण) और (उदिण्णतण्हा ते) जिनकी तृष्णा उदित है ऐसे वे जीव (तण्हाहिं दुहिदा) तृष्णाओं के द्वारा दुःखी होते हुए (आमरणं) मरण पर्यंत (विसयसोक्खाणि इच्छंति) विषय सुखों को चाहते हैं (य) और (दुक्खसंतत्ता) दुःखों से संतप्त होते हुए (दुःख दाह को सहन न करते हुए) (अणुहवंति) उन्हें भोगते हैं।