09-21-2022, 02:06 PM
श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -76 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -80 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
सपरं बाधासहियं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं /
जं इंदियेहिं लद्धं तं सोक्खं दुक्खमेव तहा / / 76 //
आगे फिर भी पुण्यजनित इंद्रिय-सुखोंको बहुत प्रकारसे दुःखरूप कहते हैं इयत् ] जो [इन्द्रियैः] पाँच इंद्रियोंसे [ लब्धं ] प्राप्त हुआ [सौख्यं] सुख है, [तत् ] सो [तथा ] ऐसे सुखकी तरह [दुःखमेव ] दुःखरूप ही है, क्योंकि जो सुख [सपरं] परीधीन है, [बाधासहित] क्षुधा, तृषादि बाधा युक्त है, [विच्छिन्नं ] असाताके उदयसे विनाश होनेवाला है, [बन्धकारणं] कर्मबंधका कारण है, क्योंकि जहाँ इंद्रियसुख होता है, वहाँ अवश्य रागादिक दोषोंकी सेना होती है / उसीके अनुसार अवश्य कर्म-धूलि लगती है / और वह सुख [विषमं] विषम अर्थात् चंचलपनेसे हानि वृद्धिरूप है। भावार्थ-सांसारिक सुख और दुःख वास्तवमें दोनों एक ही हैं क्योंकि जिस प्रकार सुख पराधीन, बाधा सहित, विनाशीक, बंधकारक तथा विषम इन पाँच विशेषणोंसे युक्त है, उसी प्रकार दुःख भी पराधीन आदि विशेषणों सहित है, और इस सुखका कारण पुण्य भी पापकी तरह दुःखका कारण है / इसी कारण सुख दुःखकी नाईं पुण्य पापमें भी कोई भेद नहीं है,
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार गाथा - 76
गाथा -76
अन्वयार्थ- (जं) जो (इंदियेहिं लद्धं) इंद्रियों से प्राप्त होता है (तं सोक्खं) वह सुख (सपरं) परसम्बन्ध युक्त (बाधासहिदं) बाधासहित (विच्छिण्णं) विच्छिन्न (बंधकारणं) बंध का कारण (विसमं) और विषम है (तधा) इस प्रकार (दुक्खमेव) वह दुःख ही है।
इन्द्रियों के विषयों से मिलने वाला सुख यदि देखा जाए तो वह वास्तव में दुःख ही है |
इन्द्रियों से प्राप्त होने वाला सुख आखिर दुःख क्यों है? इसके लिए भी पाँच कारण बताए गए है |
पहला कारण है इन्द्रिय सुख 'सपर' होता है | सपर अर्थात पर की इच्छा से सहित होता है | यदि पर पदार्थ नहीं होगा तो उसे सुख प्राप्त नही होगा |
मुनि महाराज श्रावको की दृष्टि में पराधीन है लेकिन स्वयं की दृष्टि में स्वाधीन है क्योंकि उनकी स्वाधीनता जिनागम की आज्ञा से जुड़ी हुई है |
जो अपनी इच्छाओं के दास हैं वे पराधीन हैं और जो अपनी इच्छाओं के दास नहीं हैं वे स्वाधीन हैं।
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -76 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -80 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
सपरं बाधासहियं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं /
जं इंदियेहिं लद्धं तं सोक्खं दुक्खमेव तहा / / 76 //
आगे फिर भी पुण्यजनित इंद्रिय-सुखोंको बहुत प्रकारसे दुःखरूप कहते हैं इयत् ] जो [इन्द्रियैः] पाँच इंद्रियोंसे [ लब्धं ] प्राप्त हुआ [सौख्यं] सुख है, [तत् ] सो [तथा ] ऐसे सुखकी तरह [दुःखमेव ] दुःखरूप ही है, क्योंकि जो सुख [सपरं] परीधीन है, [बाधासहित] क्षुधा, तृषादि बाधा युक्त है, [विच्छिन्नं ] असाताके उदयसे विनाश होनेवाला है, [बन्धकारणं] कर्मबंधका कारण है, क्योंकि जहाँ इंद्रियसुख होता है, वहाँ अवश्य रागादिक दोषोंकी सेना होती है / उसीके अनुसार अवश्य कर्म-धूलि लगती है / और वह सुख [विषमं] विषम अर्थात् चंचलपनेसे हानि वृद्धिरूप है। भावार्थ-सांसारिक सुख और दुःख वास्तवमें दोनों एक ही हैं क्योंकि जिस प्रकार सुख पराधीन, बाधा सहित, विनाशीक, बंधकारक तथा विषम इन पाँच विशेषणोंसे युक्त है, उसी प्रकार दुःख भी पराधीन आदि विशेषणों सहित है, और इस सुखका कारण पुण्य भी पापकी तरह दुःखका कारण है / इसी कारण सुख दुःखकी नाईं पुण्य पापमें भी कोई भेद नहीं है,
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार गाथा - 76
गाथा -76
अन्वयार्थ- (जं) जो (इंदियेहिं लद्धं) इंद्रियों से प्राप्त होता है (तं सोक्खं) वह सुख (सपरं) परसम्बन्ध युक्त (बाधासहिदं) बाधासहित (विच्छिण्णं) विच्छिन्न (बंधकारणं) बंध का कारण (विसमं) और विषम है (तधा) इस प्रकार (दुक्खमेव) वह दुःख ही है।
इन्द्रियों के विषयों से मिलने वाला सुख यदि देखा जाए तो वह वास्तव में दुःख ही है |
इन्द्रियों से प्राप्त होने वाला सुख आखिर दुःख क्यों है? इसके लिए भी पाँच कारण बताए गए है |
पहला कारण है इन्द्रिय सुख 'सपर' होता है | सपर अर्थात पर की इच्छा से सहित होता है | यदि पर पदार्थ नहीं होगा तो उसे सुख प्राप्त नही होगा |
मुनि महाराज श्रावको की दृष्टि में पराधीन है लेकिन स्वयं की दृष्टि में स्वाधीन है क्योंकि उनकी स्वाधीनता जिनागम की आज्ञा से जुड़ी हुई है |
जो अपनी इच्छाओं के दास हैं वे पराधीन हैं और जो अपनी इच्छाओं के दास नहीं हैं वे स्वाधीन हैं।