प्रवचनसारः गाथा - 77, 78 - कथंचित् पाप और पुण्य में समानता
#1

श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार

गाथा -77 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -81 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )


ण हि मण्णदि जो एवं णत्थि विसेसो त्ति पुण्णपावाणं /
हिंडदि घोरमपारं संसारं मोहसंछण्णो // 77 //


आगे पुण्य पापमें कोई भेद नहीं है, ऐसा निश्चय करके इस कथनका संकोच करते हैं[पुण्यपापयो] पुण्य और पाप इन दोनोंमें [विशेषः] भेद [नास्ति] नहीं है, [इति ऐसा [एवं] इस प्रकार [ यः] जो पुरुष [न हि ] नहीं [मन्यते ] मानता है, [ 'स'] वह [ मोहसंछन्नः] मोहसे आच्छादित होता हुआ [घोरं] भयानक और [अपारं] जिसका पार नहीं [संसारं ] ऐसे संसारमें [हिण्डति] भ्रमण करता है। 

भावार्थ-जैसे नित्यसे शुभ और  अशुभमें भेद नहीं है, तथा सुख दुःखमें भेद नहीं है, इसी प्रकार यथार्थ दृष्टिसे पुण्य पापमें भी भेद नहीं है / दोनोंमें आत्म-धर्मका अभाव है / जो कोई पुरुष अहंकार बुद्धिसे पुण्य और पापमें भेद मानता है, तथा सोने लोहेकी बेड़ियोंके समान अहमिंद्र, इन्द्र, चक्रवर्ती आदि संपदाओंके कारण अच्छी तरहसे धर्मानुरागका अवलम्बन करता (सहायता लेता ) है, वह पुरुष सराग भावों द्वारा शुद्धोपयोग शक्तिसे रहित हुआ जबतक संसारमें है, तबतक शरीरादि संबंधी दुःखोंका भोगनेवाला होता है

गाथा -78 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -82 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )


एवं विदिदत्थो जो दव्वेलु ण रागमेदि दोसं वा।
उवओगविसुद्धो सो खवेदि देहुन्भवं दुक्खं // 78 //

आगे कहते हैं, कि जो पुरुष शुभ अशुभोपयोगमें एकता मानकर समस्त राग द्वेषोंको दूर करता है, वह संपूर्ण दुःोंके नाश होनेके निमित्त निश्चल चित्त होकर शुद्धोपयोगको अंगीकार करता है-[एवं ] इस प्रकार [विदितार्थः] पदार्थके स्वरूपको जाननेवाला [यः] जो पुरुष [द्रव्येषु] परद्रव्योंमें [रागं] प्रीति भाव [वा] अथवा [ द्वेषं ] द्वेष भावको [न] नहीं [एति ] प्राप्त होता है, [सः] वह [उपयोगविशुद्धः] उपयोगसे निर्मल अर्थात् शुद्धोपयोगी हुआ [ देहोद्भवं दुःखं ] शरीरसे उत्पन्न हुए दुःखको [क्षपयति ] नष्ट करता है। 

भावार्थ-जो पुरुष शुभ (पुण्यरूप) तथा अशुभ भावोंको एकरूप जानकर अपने स्वरूपमें स्थिर होके परद्रव्योंमें राग द्वेष भाव छोड़ देता है, वह पुरुष, शरीरसंबंधी दुःखोंका नाश करता है। जैसे-लोह-पिंडमें प्रवेश नहीं की हुई अग्नि घनकी चोट नहीं सहती है, उसी प्रकार शुद्धोपयोगी दुःखको नहीं सहता है। इसलिये आचार्य कहते हैं, कि मुझको एक शुद्धोपयोगकी ही शरण प्राप्त होओ, जिससे कि दुःखस्वरूप संसारका अभाव होवे

मुनि श्री प्रणम्य सागर जी  प्रवचनसार गाथा - 77,78

गाथा -77


अन्वयार्थ- (एवं) इस प्रकार (पुण्णपावाणं) पुण्य और पाप में (विसेसो णत्थि) अन्तर नही हैं (त्ति) इस प्रकार (जो) जो (ण हि मण्णदि) नहीं मानता (मोहसंछण्णो) वह मोहाच्छादित होता हुआ (घोरमपारं संसारं) घोर अपार संसार में (हिंडदि) परिभ्रमण करता है।

गाथा -78
अन्वयार्थ- (एवं) इस प्रकार (विदिदत्थो) वस्तु स्वरूप को जानकर (जो) जो (दव्वेसु) द्रव्यों को प्रति (रागं दोसं वा) राग या द्वेष को (ण एदि) प्राप्त नहीं होता (सो) वह (उवओगविसुद्धो) उपयोगविशुद्ध होता हुआ (देहुब्भवं दुक्खं) देहोत्पन्न दुःख का (खवेदि) क्षय करता है।


Manish Jain Luhadia 
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#2

Gatha 77 
The man, enveloped by delusion (moha), who does not believe that there is no difference between merit (punya) and demerit (pāpa), continues to wander in this dreadful and endless world (sansāra).

Explanatory Note: From the transcendental-point-of-view, (niścayanaya) there is no difference between the auspicious (śubha) and the inauspicious (aśubha) dispositions and between worldly happiness (sukha) and misery (duhkha). In the same way, there is no difference between merit (punya) and demerit (pāpa). Both merit and demerit are devoid of the conduct that is the nature (svabhāva) of the pure soul. The man who, out of vanity, prefers merit (punya) to demerit (pāpa) and follows conduct that endows him the glory of the lords of the devas and the men, suffers from worldly miseries as he ever remains engrossed in the disposition of attachment (rāga). He does not engage himself in pure-cognition (śuddhopayoga) and suffers misery appertaining to the body while wandering in the world (sansāra).

Gatha 78 
The man who knows this reality does not entertain dispositions of attachment (rāga) and aversion (dvesa) toward external
substances; his soul becomes pristine due to pure-cognition (śuddhopayoga) and annihilates miseries incidental to the body.

Explanatory Note: The man who leaves aside dispositions of merit (punya) and demerit (pāpa), considering the two as the same, and gets established in pure-cognition (śuddhopayoga) with no attachment (rāga) and aversion (dvesa) toward external substances, annihilates miseries incidental to the body. As the fire that does not enter the ironball escapes the blow of the sledgehammer, similarly, the soul established in pure-cognition (śuddhopayoga) escapes misery. The Ācārya, therefore, asks for refuge in pure-cognition (śuddhopayoga) to end perpetual wandering of the soul in the world (sansāra).
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#3

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -77,78


जो कि पाप दुःख पुण्पसे सुख ऐसे विचारयुत है।
तब तक मोह ममत्व सहित होनेसे संसारमें रहे ॥
वस्तुरूप अनुभावक तो परचीजों समतायुत हो ।
शुद्धोपयोगमय दहेज दुःखोंसे होकर दूर रहो ॥ ३९ ॥

सारांश:- चोरी व्यभिचार आदि पापकार्यों के करनेसे इस जीवको दुःख भोगना पड़ता है किन्तु यज्ञानुष्ठान दान आदि पुण्यकर्मों के करनेसे सुख मिलता है। इस प्रकार पाप और पुण्य में भेद स्वीकार करने वाला मानव यद्यपि पापकार्यों से बचकर रह सकता है किन्तु पुण्यकार्यो के प्रति रहनेवाले मोहसे मुक्त होने का उसके पास कोई मार्ग ही नहीं होता है। अतः वह संसार से कभी पार ही नहीं हो सकता है।
जो मनुष्य तत्त्वदृष्टि बन चुका है, जिसने यह समझ लिया है कि मेरी आत्मा वास्तव में सच्चिदानन्द स्वरूप और अमूर्तिक है, उसका इन बाह्य पदार्थोंसे कुछ भी हिताहित नहीं है। इसलिये इनको इष्ट और अनिष्ट मानकर व्यर्थकी उलझनमें वह नहीं फँसता है। वह पापकार्यों को बुरे मानकर उनसे द्वेष नहीं करता है और अपने आपके लिए निस्सार समझकर उन्हें स्वीकार भी नहीं करता है। उनसे सदा दूर ही रहता है। इसी तरह पुण्यकार्यों को भी अच्छे मानकर उनमें तल्लीन नहीं होता है अपितु उदास रहनेका प्रयास करता है। ऐसा जीव अपने उपयोग को निर्मल से निर्मल बनाता हुआ अन्त में किसी एक दिन जन्म मरणके दुःख से रहित हो जाता है।
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