09-21-2022, 03:34 PM
श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -77 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -81 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
ण हि मण्णदि जो एवं णत्थि विसेसो त्ति पुण्णपावाणं /
हिंडदि घोरमपारं संसारं मोहसंछण्णो // 77 //
आगे पुण्य पापमें कोई भेद नहीं है, ऐसा निश्चय करके इस कथनका संकोच करते हैं[पुण्यपापयो] पुण्य और पाप इन दोनोंमें [विशेषः] भेद [नास्ति] नहीं है, [इति ऐसा [एवं] इस प्रकार [ यः] जो पुरुष [न हि ] नहीं [मन्यते ] मानता है, [ 'स'] वह [ मोहसंछन्नः] मोहसे आच्छादित होता हुआ [घोरं] भयानक और [अपारं] जिसका पार नहीं [संसारं ] ऐसे संसारमें [हिण्डति] भ्रमण करता है।
भावार्थ-जैसे नित्यसे शुभ और अशुभमें भेद नहीं है, तथा सुख दुःखमें भेद नहीं है, इसी प्रकार यथार्थ दृष्टिसे पुण्य पापमें भी भेद नहीं है / दोनोंमें आत्म-धर्मका अभाव है / जो कोई पुरुष अहंकार बुद्धिसे पुण्य और पापमें भेद मानता है, तथा सोने लोहेकी बेड़ियोंके समान अहमिंद्र, इन्द्र, चक्रवर्ती आदि संपदाओंके कारण अच्छी तरहसे धर्मानुरागका अवलम्बन करता (सहायता लेता ) है, वह पुरुष सराग भावों द्वारा शुद्धोपयोग शक्तिसे रहित हुआ जबतक संसारमें है, तबतक शरीरादि संबंधी दुःखोंका भोगनेवाला होता है
गाथा -78 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -82 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
एवं विदिदत्थो जो दव्वेलु ण रागमेदि दोसं वा।
उवओगविसुद्धो सो खवेदि देहुन्भवं दुक्खं // 78 //
आगे कहते हैं, कि जो पुरुष शुभ अशुभोपयोगमें एकता मानकर समस्त राग द्वेषोंको दूर करता है, वह संपूर्ण दुःोंके नाश होनेके निमित्त निश्चल चित्त होकर शुद्धोपयोगको अंगीकार करता है-[एवं ] इस प्रकार [विदितार्थः] पदार्थके स्वरूपको जाननेवाला [यः] जो पुरुष [द्रव्येषु] परद्रव्योंमें [रागं] प्रीति भाव [वा] अथवा [ द्वेषं ] द्वेष भावको [न] नहीं [एति ] प्राप्त होता है, [सः] वह [उपयोगविशुद्धः] उपयोगसे निर्मल अर्थात् शुद्धोपयोगी हुआ [ देहोद्भवं दुःखं ] शरीरसे उत्पन्न हुए दुःखको [क्षपयति ] नष्ट करता है।
भावार्थ-जो पुरुष शुभ (पुण्यरूप) तथा अशुभ भावोंको एकरूप जानकर अपने स्वरूपमें स्थिर होके परद्रव्योंमें राग द्वेष भाव छोड़ देता है, वह पुरुष, शरीरसंबंधी दुःखोंका नाश करता है। जैसे-लोह-पिंडमें प्रवेश नहीं की हुई अग्नि घनकी चोट नहीं सहती है, उसी प्रकार शुद्धोपयोगी दुःखको नहीं सहता है। इसलिये आचार्य कहते हैं, कि मुझको एक शुद्धोपयोगकी ही शरण प्राप्त होओ, जिससे कि दुःखस्वरूप संसारका अभाव होवे
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार गाथा - 77,78
गाथा -77
अन्वयार्थ- (एवं) इस प्रकार (पुण्णपावाणं) पुण्य और पाप में (विसेसो णत्थि) अन्तर नही हैं (त्ति) इस प्रकार (जो) जो (ण हि मण्णदि) नहीं मानता (मोहसंछण्णो) वह मोहाच्छादित होता हुआ (घोरमपारं संसारं) घोर अपार संसार में (हिंडदि) परिभ्रमण करता है।
गाथा -78
अन्वयार्थ- (एवं) इस प्रकार (विदिदत्थो) वस्तु स्वरूप को जानकर (जो) जो (दव्वेसु) द्रव्यों को प्रति (रागं दोसं वा) राग या द्वेष को (ण एदि) प्राप्त नहीं होता (सो) वह (उवओगविसुद्धो) उपयोगविशुद्ध होता हुआ (देहुब्भवं दुक्खं) देहोत्पन्न दुःख का (खवेदि) क्षय करता है।
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -77 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -81 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
ण हि मण्णदि जो एवं णत्थि विसेसो त्ति पुण्णपावाणं /
हिंडदि घोरमपारं संसारं मोहसंछण्णो // 77 //
आगे पुण्य पापमें कोई भेद नहीं है, ऐसा निश्चय करके इस कथनका संकोच करते हैं[पुण्यपापयो] पुण्य और पाप इन दोनोंमें [विशेषः] भेद [नास्ति] नहीं है, [इति ऐसा [एवं] इस प्रकार [ यः] जो पुरुष [न हि ] नहीं [मन्यते ] मानता है, [ 'स'] वह [ मोहसंछन्नः] मोहसे आच्छादित होता हुआ [घोरं] भयानक और [अपारं] जिसका पार नहीं [संसारं ] ऐसे संसारमें [हिण्डति] भ्रमण करता है।
भावार्थ-जैसे नित्यसे शुभ और अशुभमें भेद नहीं है, तथा सुख दुःखमें भेद नहीं है, इसी प्रकार यथार्थ दृष्टिसे पुण्य पापमें भी भेद नहीं है / दोनोंमें आत्म-धर्मका अभाव है / जो कोई पुरुष अहंकार बुद्धिसे पुण्य और पापमें भेद मानता है, तथा सोने लोहेकी बेड़ियोंके समान अहमिंद्र, इन्द्र, चक्रवर्ती आदि संपदाओंके कारण अच्छी तरहसे धर्मानुरागका अवलम्बन करता (सहायता लेता ) है, वह पुरुष सराग भावों द्वारा शुद्धोपयोग शक्तिसे रहित हुआ जबतक संसारमें है, तबतक शरीरादि संबंधी दुःखोंका भोगनेवाला होता है
गाथा -78 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -82 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
एवं विदिदत्थो जो दव्वेलु ण रागमेदि दोसं वा।
उवओगविसुद्धो सो खवेदि देहुन्भवं दुक्खं // 78 //
आगे कहते हैं, कि जो पुरुष शुभ अशुभोपयोगमें एकता मानकर समस्त राग द्वेषोंको दूर करता है, वह संपूर्ण दुःोंके नाश होनेके निमित्त निश्चल चित्त होकर शुद्धोपयोगको अंगीकार करता है-[एवं ] इस प्रकार [विदितार्थः] पदार्थके स्वरूपको जाननेवाला [यः] जो पुरुष [द्रव्येषु] परद्रव्योंमें [रागं] प्रीति भाव [वा] अथवा [ द्वेषं ] द्वेष भावको [न] नहीं [एति ] प्राप्त होता है, [सः] वह [उपयोगविशुद्धः] उपयोगसे निर्मल अर्थात् शुद्धोपयोगी हुआ [ देहोद्भवं दुःखं ] शरीरसे उत्पन्न हुए दुःखको [क्षपयति ] नष्ट करता है।
भावार्थ-जो पुरुष शुभ (पुण्यरूप) तथा अशुभ भावोंको एकरूप जानकर अपने स्वरूपमें स्थिर होके परद्रव्योंमें राग द्वेष भाव छोड़ देता है, वह पुरुष, शरीरसंबंधी दुःखोंका नाश करता है। जैसे-लोह-पिंडमें प्रवेश नहीं की हुई अग्नि घनकी चोट नहीं सहती है, उसी प्रकार शुद्धोपयोगी दुःखको नहीं सहता है। इसलिये आचार्य कहते हैं, कि मुझको एक शुद्धोपयोगकी ही शरण प्राप्त होओ, जिससे कि दुःखस्वरूप संसारका अभाव होवे
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार गाथा - 77,78
गाथा -77
अन्वयार्थ- (एवं) इस प्रकार (पुण्णपावाणं) पुण्य और पाप में (विसेसो णत्थि) अन्तर नही हैं (त्ति) इस प्रकार (जो) जो (ण हि मण्णदि) नहीं मानता (मोहसंछण्णो) वह मोहाच्छादित होता हुआ (घोरमपारं संसारं) घोर अपार संसार में (हिंडदि) परिभ्रमण करता है।
गाथा -78
अन्वयार्थ- (एवं) इस प्रकार (विदिदत्थो) वस्तु स्वरूप को जानकर (जो) जो (दव्वेसु) द्रव्यों को प्रति (रागं दोसं वा) राग या द्वेष को (ण एदि) प्राप्त नहीं होता (सो) वह (उवओगविसुद्धो) उपयोगविशुद्ध होता हुआ (देहुब्भवं दुक्खं) देहोत्पन्न दुःख का (खवेदि) क्षय करता है।