09-23-2022, 04:13 PM
श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -82 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -88 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
सव्वे वि य अरहंता तेण विधाणेण खविदकम्मंसा /
किच्चा तधोवदेसं णिवादा ते णमो तेसिं // 82 //
आगे कहते हैं, कि भगवंतदेवने ही आप अनुभव कर यही एक मोक्ष-मार्ग दिखाया है, ऐसी बुद्धिकी स्थापना करते हैं- तेन विधानेन ] तिस पूर्वकथित विधानसे [क्षपितकर्माशा] जिन्होंने कर्मोंके अंश विनाश किये हैं, ऐसे [ ते सर्व अहन्त अपि ] वे सब भगवन्त तीर्थंकरदेव भी [ तथा उसी प्रकार [उपदेशं कृत्वा] उपदेश करके [निवृत्ताः ] मोक्षको प्राप्त हुए / [ तेभ्यः ] उन अरहंत देवोंको [ नमः] मेरा नमस्कार होवे / भावार्थ-भगवान् तीर्थकरदेवने पहले अरहंतका स्वरूप, द्रव्य, गुण, पर्यायसे जाना, पीछे उसी प्रकार अपने स्वरूपका अनुभव करके समस्त कर्मोंका नाश किया, और उसी प्रकार भव्यजीवोंको उपदेश दिया, कि यही मोक्ष-मार्ग है, अन्य नहीं है / तथा आज पंचमकाल ( कलियुग ) में भी वही उपदेश चला आता है / इसलिये अब बहुत कहाँतक कहें, श्रीभगवन्त वीतरागदेव बड़े ही उपकारी हैं, उनको तीनों काल नमस्कार होवे //
गाथा -89 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
दंसणसुद्धा पुरिसा णाणपहाणा समग्गचरियत्था।
पूजासक्काररिहा दाणस्स य हि ते णमो तेसिं ॥८९॥
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार गाथा
गाथा - 82
अन्वयार्थ- (सव्वे वि य) सभी (अरहंता) अर्हन्त भगवान् (तेण विधाणेण) उसी विधि से (खविदकम्मंसा) कर्मोंशों का क्षय करके (तधा) तथा उसी प्रकार से (उवदेसं किच्चा) उपदेश करके (णिव्वादा ते) मोक्ष को प्राप्त हुए हैं, (णमो तेसिं) उन्हें नमस्कार हो।
गाथा -
अन्वयार्थ- (दंसणसुद्धा) जो सम्यग्दर्शन से विशुद्ध हैं (णाणपहाणा) ज्ञान में प्रधान हैं (समग्गचरियत्था) समग्र आचरण में स्थित हैं (ते पुरिसा) वे पुरुष (पूजासक्कार) पूजा तथा सत्कार के (दाणस्स य) और दान के (हि) निश्चय से (रिहा) योग्य होते हैं (तेसिं) उनके लिये (णमो) मेरा नमस्कार हो।
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -82 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -88 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
सव्वे वि य अरहंता तेण विधाणेण खविदकम्मंसा /
किच्चा तधोवदेसं णिवादा ते णमो तेसिं // 82 //
आगे कहते हैं, कि भगवंतदेवने ही आप अनुभव कर यही एक मोक्ष-मार्ग दिखाया है, ऐसी बुद्धिकी स्थापना करते हैं- तेन विधानेन ] तिस पूर्वकथित विधानसे [क्षपितकर्माशा] जिन्होंने कर्मोंके अंश विनाश किये हैं, ऐसे [ ते सर्व अहन्त अपि ] वे सब भगवन्त तीर्थंकरदेव भी [ तथा उसी प्रकार [उपदेशं कृत्वा] उपदेश करके [निवृत्ताः ] मोक्षको प्राप्त हुए / [ तेभ्यः ] उन अरहंत देवोंको [ नमः] मेरा नमस्कार होवे / भावार्थ-भगवान् तीर्थकरदेवने पहले अरहंतका स्वरूप, द्रव्य, गुण, पर्यायसे जाना, पीछे उसी प्रकार अपने स्वरूपका अनुभव करके समस्त कर्मोंका नाश किया, और उसी प्रकार भव्यजीवोंको उपदेश दिया, कि यही मोक्ष-मार्ग है, अन्य नहीं है / तथा आज पंचमकाल ( कलियुग ) में भी वही उपदेश चला आता है / इसलिये अब बहुत कहाँतक कहें, श्रीभगवन्त वीतरागदेव बड़े ही उपकारी हैं, उनको तीनों काल नमस्कार होवे //
गाथा -89 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
दंसणसुद्धा पुरिसा णाणपहाणा समग्गचरियत्था।
पूजासक्काररिहा दाणस्स य हि ते णमो तेसिं ॥८९॥
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार गाथा
गाथा - 82
अन्वयार्थ- (सव्वे वि य) सभी (अरहंता) अर्हन्त भगवान् (तेण विधाणेण) उसी विधि से (खविदकम्मंसा) कर्मोंशों का क्षय करके (तधा) तथा उसी प्रकार से (उवदेसं किच्चा) उपदेश करके (णिव्वादा ते) मोक्ष को प्राप्त हुए हैं, (णमो तेसिं) उन्हें नमस्कार हो।
गाथा -
अन्वयार्थ- (दंसणसुद्धा) जो सम्यग्दर्शन से विशुद्ध हैं (णाणपहाणा) ज्ञान में प्रधान हैं (समग्गचरियत्था) समग्र आचरण में स्थित हैं (ते पुरिसा) वे पुरुष (पूजासक्कार) पूजा तथा सत्कार के (दाणस्स य) और दान के (हि) निश्चय से (रिहा) योग्य होते हैं (तेसिं) उनके लिये (णमो) मेरा नमस्कार हो।