प्रवचनसारः गाथा -83,84 - जिनेद्रोक्त अर्थों के श्रद्धांन
#1

श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार

गाथा -83 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -90 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )


दव्वादिएसु मूढो भावो जीवस्स हवदि मोहो त्ति।
खुभदि तेणुच्छण्णो पप्पा रागं व दोसं वा // 83 //

आगे शुद्धात्माके लाभका घातक मोहके स्वभावको और भूमिकाको कहते हैं-जीवस्य आत्माका [द्रव्यादिकेषु द्रव्य, गुण, पर्यायमें जो [ मूढः भावः] विपरीत अज्ञानभाव है, सो [मोहः इति] मोह ऐसा नाम [ भवति ] होता है, अर्थात् जिस भावसे यह जीव धतूरा खानेवाले पुरुषके समान द्रव्य, गुण, पर्यायोंको यथार्थ नहीं जानता है, और न श्रद्धान करता है, उस भावको 'मोह' कहते हैं। [तेन] उस दर्शनमोह करके [अवच्छन्नः] आच्छादित जो यह जीव है, सो [रागं वा द्वेषं वा] रागभाव अथवा द्वेषभावको [प्राप्य] पाकर [क्षुभ्यति ] क्षोभ पाता है / अर्थात् इस दर्शनमोहके उदयसे परद्रव्योंको अपना द्रव्य मानता है, परगुणको आत्मगुण मानता है, और परपर्यायको आत्म पर्याय जानके अंगीकार करता है। भावार्थ-यह जीव अनादि अविद्यासे उत्पन्न हुआ जो परमें आत्म-संस्कार है, उससे सदाकाल परद्रव्यको अंगीकार करता है, इंद्रियोंके वश होकर इष्ट अनिष्ट पदार्थोंमें राग द्वेष भावोंसे द्वैतभावको प्राप्त होता है / यद्यपि संसारके सर्व विषय एक सरीखे हैं, तो भी राग द्वेषरूप भावोंसे उसे भले बुरे लगते हैं। जैसे किसी नदीका बँधा हुआ हुआ पुल पानीके अत्यंत प्रवाहसे भंग होकर दो खंडोंमें बँट जाता है, उसी प्रकार यह आत्मा मोहके तीत्र उदयसे राग द्वेष भावरूप परिणमन करके द्वैतभावको धारण करता हुआ अत्यंत आकुल रहता है / इस कारण एक मोहके राग, द्वेष, और मोह ये तीन भेद जानना चाहिये /


गाथा -84 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -91 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )


मोहेण व रागेण व दोसेण व परिणदस्स जीवस्स।
जायदि विविहो बंधो तम्हा ते संखवइव्वा // 84 //


आगे कहते हैं, कि यह मोह अनिष्ट कार्य करनेका कारण है, इसलिये पूर्वोक्त तीन प्रकार मोहका क्षय करना योग्य है- [मोहेन ] मोहभावसे [वा रागेण ] अथवा रागभावसे [ वा] अथवा [द्वेषेण ] दुष्ट भावसे [ परिणतस्य जीवस्य] परिणमते हुए जीवके [विविधः बन्धः] अनेक प्रकार कर्मबंध [जायते] उत्पन्न होता है, तस्मात् ] इसलिये [ते] वे राग, द्वेष, और मोहभाव [संक्षपयितव्याः ] मूल सत्तासे क्षय करने योग्य हैं / भावार्थ-जीवके राग, द्वेष, मोह, इन तीन भावोंसे ज्ञानावरणादि अनेक कर्मबन्ध होते हैं, इसलिये इन तीनों भावोंका नाश करना चाहिये / जैसे जंगलका मदोन्मत्त हस्ती (हाथी) मोहसे अज्ञानी होकर सिखलाई हुई कुट्टिनी हस्तिनीको अत्यंत प्रेमभावके वश होकर आलिंगन करता है, तथा द्वेष भावसे अन्य हस्तियोंको उस हस्तिनीके पास आते देख लड़नेको सामने दौड़ता है, और तृणादिकसे आच्छादित (टैंके हुए) गड्ढे में पड़कर पकड़नेवाले पुरुषोंसे नाना प्रकारसे बाँधा जाता है / इसीतरह इस जीवके भी मोह, राग, द्वेष भावोंसे अनेक प्रकार कर्मबंध होता है। इसलिये मोक्षकी इच्छा करनेवालेको अनिष्ट कार्यके कारणरूप मोहादि तीनों भाव मूलसत्तासे ही सर्व प्रकार क्षय करना चाहिये

मुनि श्री प्रणम्य सागर जी  प्रवचनसार गाथा 83,84 

गाथा 83
अन्वयार्थ- (जीवस्स) जीव के (दव्वादिएसु मूढो भावो) द्रव्यादि (द्रव्य-गुण-पर्याय) सम्बन्धी मूढ़ भाव (मोहो त्ति) वह मोह है (तेणोच्छण्णो) उससे आच्छादित वर्तता हुआ जीव (रागं च दोसं वा पप्पा) राग अथवा द्वेष को प्राप्त करके (खुब्भदि) क्षुब्ध होता है।

गाथा 84
अन्वयार्थ- (मोहेण वा) मोह रूप (रागेण वा) राग रूप (दोसेण वा) अथवा द्वेषरूप (परिणदस्स जीवस्स) परिणमित जीव के (विविहो बंधो) विविध बंध (जायदि) होता है, (तम्हा) इसलिये (तेसिं) वे [मोह, राग, द्वेष] (खुवइदव्वा) सम्पूर्णतया क्षय करने योग्य हैं।


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#2

Gatha 83
The contrary and ignorant view of the soul about substances – with respect to their substance (dravya), qualities (guõa), and modes (paryāya) – is ‘delusion’ (moha). Enveloped by delusionof- perception (darśanamoha), the soul entertains dispositions of attachment (rāga) and aversion (dvesa), and suffers from anxiety (ksobha).

Explanatory Note: Due to delusion (moha), the soul, as if inebriated, does not come to know or able to perceive the true nature of substances. It considers the substance (dravya), qualities (guna), and modes (paryāya) of external objects as its own. Under the influence of the senses, it entertains dispositions of attachment (rāga) and aversion (dvesa) and thereby perceives external objects as either agreeable or disagreeable. Although all objects have their own, independent nature, dispositions of attachment (rāga) and aversion (dvesa) in the soul split these into agreeable and disagreeable objects. As the bridge on the river, due to strong overflow of the water, splits into two parts, in the same way, the soul, due to delusion (moha) and consequent dispositions of attachment (rāga) and aversion (dvesa), splits external objects into two parts,  agreeable and disagreeable. As a result, the soul suffers from anxiety (ksobha). Delusion (moha), thus, has three
constituents – attachment (rāga), aversion (dvesa), and delusionof- perception (darśanamoha).


Gatha 84
The dispositions of delusion (moha) or attachment (rāga) or aversion (dvesa) in the soul give rise to bondage of various kinds of karmas; therefore, the soul must root out all such dispositions.

Explanatory Note: Due to its dispositions of attachment (rāga), aversion (dvesa), and delusion (moha), the soul undergoes the bondage of various kinds of karmas, like knowledge-obscuring (jñānāvaranīya), and, therefore, these three dispositions need annihilation. Not knowing the trap of the hunter, the male elephant, deceived by delusion (moha) and overwhelmed by
attachment (rāga), moves near the female elephant while chasing away, out of aversion (dvesa), other male elephants; it ultimately falls into the camouflaged ditch. In the same way, the karmas form bonds with the soul when it is under the spell of delusion (moha), attachment (rāga), and aversion (dvesa). The soul aiming for liberation must root out these three causes of its downfall – delusion (moha), attachment (rāga), and aversion (dvesa).
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#3

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -83,84 

मोही जीव आपको परमय माना करता है इससे ।
हो विक्षुब्ध राग रोप किया करता मूढ अहो परसे ॥
मोह राग या रोषभावमय होकर नाना कर्म करे।
जीव जो कि इनसे दूर रहे वह मुक्तिरमा त्वरित वरे


इस पर प्रश्न होता है कि इस दृश्यमान सम्पूर्ण अनर्थ का मूल कारण एक मोहभाव है, तो इसके पहिचानने का क्या उपाय है? इसका उत्तर आगे देते हैं
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