09-25-2022, 08:06 AM
श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -85 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -92 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
अट्ठे अजधागहणं करुणाभावो य मणुवतिरिएसु।
विसएसु य प्पसंगो मोहस्सेदाणि लिंगाणि / / 85 //
आगे कहते हैं, कि ऊपर कहे तीनों भाव इन लक्षणोंसे उत्पन्न होते देखकर नाश करना चाहिये[अर्थ ] पदार्थोंमें [अयथाग्रहणं ] जैसेका तैसा ग्रहण नहीं करना, अर्थात् अन्यका अन्य जानना [च] तथा [तियङ्मनुजेषु] तिर्यंच और मनुष्योंमें [करुणाभावः] ममतासे दयारूप भाव [च] और [विषयेषु ] संसारके इष्ट अनिष्ट पदार्थोंमें [प्रसङ्गः] लगना [एतानि] इतने [मोहस्य] मोहके [लिङ्गानि ] चिह्न हैं //
भावार्थ-मोहके तीन भेद हैं-दर्शनमोह, राग, और द्वेष / पदार्थोंको औरका और जानना, तथा मनुष्य तिर्यंचोंमें ममत्वबुद्धिसे दया होना, ये तो दर्शन मोहके चिह्न हैं / इष्ट विषयोंमें प्रीति, यह रागका चिह्न है, और अनिष्ट (अप्रिय) पदार्थोंमें क्रूर दृष्टि यह द्वेषका लक्षण है / इन तीन चिह्नों ( लक्षणों ) से मोहको उत्पन्न होते हुए देखकर उसका नाश अवश्य ही करना चाहिये
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार गाथा
अन्वयार्थ- (अट्ठे अज धागहणं) पदार्थ का अयथाग्रहण (य) और (तिरियमणुएस, करुणाभावो) तिर्यञ्च-मनुष्यों के प्रति करुणा का अभाव (विसु पसंगो च) तथा विषयों की संगति (इष्ट विषयों में प्रीति और अनिष्ट विषयों में प्रीति) (एदाणि) यह सब (मोहस्स लिंगाणि) मोह के चिन्ह लक्षण हैं।
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -85 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -92 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
अट्ठे अजधागहणं करुणाभावो य मणुवतिरिएसु।
विसएसु य प्पसंगो मोहस्सेदाणि लिंगाणि / / 85 //
आगे कहते हैं, कि ऊपर कहे तीनों भाव इन लक्षणोंसे उत्पन्न होते देखकर नाश करना चाहिये[अर्थ ] पदार्थोंमें [अयथाग्रहणं ] जैसेका तैसा ग्रहण नहीं करना, अर्थात् अन्यका अन्य जानना [च] तथा [तियङ्मनुजेषु] तिर्यंच और मनुष्योंमें [करुणाभावः] ममतासे दयारूप भाव [च] और [विषयेषु ] संसारके इष्ट अनिष्ट पदार्थोंमें [प्रसङ्गः] लगना [एतानि] इतने [मोहस्य] मोहके [लिङ्गानि ] चिह्न हैं //
भावार्थ-मोहके तीन भेद हैं-दर्शनमोह, राग, और द्वेष / पदार्थोंको औरका और जानना, तथा मनुष्य तिर्यंचोंमें ममत्वबुद्धिसे दया होना, ये तो दर्शन मोहके चिह्न हैं / इष्ट विषयोंमें प्रीति, यह रागका चिह्न है, और अनिष्ट (अप्रिय) पदार्थोंमें क्रूर दृष्टि यह द्वेषका लक्षण है / इन तीन चिह्नों ( लक्षणों ) से मोहको उत्पन्न होते हुए देखकर उसका नाश अवश्य ही करना चाहिये
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार गाथा
अन्वयार्थ- (अट्ठे अज धागहणं) पदार्थ का अयथाग्रहण (य) और (तिरियमणुएस, करुणाभावो) तिर्यञ्च-मनुष्यों के प्रति करुणा का अभाव (विसु पसंगो च) तथा विषयों की संगति (इष्ट विषयों में प्रीति और अनिष्ट विषयों में प्रीति) (एदाणि) यह सब (मोहस्स लिंगाणि) मोह के चिन्ह लक्षण हैं।