09-25-2022, 03:16 PM
श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -87 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -94 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
दव्वाणि गुणा तेसिं पज्जाया अट्ठसण्णया भणिया।
तेसु गुणपज्जयाणं अप्पा दव्व त्ति उवदेसो // 87 //
अब कहते हैं, कि जिनभगवानके कहे हुए शब्द-ब्रह्ममें सब पदार्थोके कथनकी यथार्थ स्थिति है-[द्रव्याणि ] गुण पर्यायॊके आधाररूप सब द्रव्य [तेषां] उन द्रव्योंके [गुणाः] सहभावी गुण और [पर्यायाः] क्रमवर्ती पर्याय [अर्थसंज्ञया ] 'अर्थ' ऐसे नामसे [भणिताः] कहे हैं। [तेषु] उन गुण पर्यायोंमें [ गुणपर्यायाणां ] गुण पर्यायोंका [आत्मा] सर्वस्व [द्रव्यं] द्रव्य है। [इति] ऐसा [उपदेशः] भगवानका उपदेश है /
भावार्थ-द्रव्य, गुण, पर्याय, इन तीनोंका 'अर्थ' ऐसा नाम है / क्योंकि समय समय अपने गुण पर्यायोंके प्रति प्राप्त होते हैं, अथवा गुण पर्यायों करके अपने स्वरूपको प्राप्त होते हैं, इसलिये द्रव्योंका नाम 'अर्थ' है / 'अर्थ' शब्दका अर्थ गमन अथवा प्राप्त होता है, क्योंकि आधारभूत द्रव्यको प्राप्त होता है, अथवा द्रव्य करके प्राप्त किया जाता है, इसलिये गुणोंका नाम 'अर्थ' है, और क्रमसे परिणमन करके द्रव्यको प्राप्त होते हैं, अथवा द्रव्य करके अपने स्वरूपको प्राप्त होते हैं, इसलिये पर्यायोंका नाम 'अर्थ' है। जैसे-सोना अपने पीत आदि गुणोंको और कुंडलादि पर्यायों( अवस्थाओं )को प्राप्त होता है, अथवा गुणपर्यायोंसे सुवर्णपनेको प्राप्त होता है, इसलिये सोनेको अर्थ कहते हैं, और जैसे आधारभूत सोनेको पीतत्वादि गुण प्राप्त होते हैं, अथवा सोनेसे प्राप्त होते हैं, इस कारण पीतत्वादि गुणोंको अर्थ कहते हैं, और जैसे क्रम परिणामसे कुंडलादि पर्याय सोनेको प्राप्त होते हैं, अथवा सोनेसे प्राप्त होते हैं, इसलिये कुंडलादि पर्यायोंको अर्थ कहते हैं / इस प्रकार द्रव्य, गुण, पर्यायोंका नाम अर्थ है / तथा जैसे सुवर्ण, पीतत्वादिगुण और कुंडलादि पर्यायोंमें पीतत्वादि गुण और कुंडलादि पर्यायोंका सोनेसे जुदापना नहीं है, इसलिये सुवर्ण अपने गुणपर्यायोंका सर्वस्व है, आधार है / उसी प्रकार द्रव्य, गुण, पर्यायोंमें गुणपर्यायोंको द्रव्यसे पृथक्पना नहीं है, इसलिये द्रव्य अपने गुणपर्यायोंका सर्वस्व है, आधार है, अर्थात् द्रव्यका गुणपर्यायोंसे अभेद है
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार गाथा 87
अन्वयार्थ- (दव्वाणि) द्रव्य (गुणा) गुण (तेसिं पज्जाया) और उनकी पर्यायें (अट्ठसण्णया) अर्थ नाम से (भणिया) कही गई हैं। (तेसु) उनमें (गुणपज्जयाणं अप्पा दव्व) गुण पर्याय का आत्मा द्रव्य है (गुण और पर्यायों का स्वरूप सत्व द्रव्य ही है, वे भिन्न वस्तु नहीं है)। (त्ति उवदेसो) इस प्रकार (जिनेन्द्र का) उपदेश है
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -87 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -94 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
दव्वाणि गुणा तेसिं पज्जाया अट्ठसण्णया भणिया।
तेसु गुणपज्जयाणं अप्पा दव्व त्ति उवदेसो // 87 //
अब कहते हैं, कि जिनभगवानके कहे हुए शब्द-ब्रह्ममें सब पदार्थोके कथनकी यथार्थ स्थिति है-[द्रव्याणि ] गुण पर्यायॊके आधाररूप सब द्रव्य [तेषां] उन द्रव्योंके [गुणाः] सहभावी गुण और [पर्यायाः] क्रमवर्ती पर्याय [अर्थसंज्ञया ] 'अर्थ' ऐसे नामसे [भणिताः] कहे हैं। [तेषु] उन गुण पर्यायोंमें [ गुणपर्यायाणां ] गुण पर्यायोंका [आत्मा] सर्वस्व [द्रव्यं] द्रव्य है। [इति] ऐसा [उपदेशः] भगवानका उपदेश है /
भावार्थ-द्रव्य, गुण, पर्याय, इन तीनोंका 'अर्थ' ऐसा नाम है / क्योंकि समय समय अपने गुण पर्यायोंके प्रति प्राप्त होते हैं, अथवा गुण पर्यायों करके अपने स्वरूपको प्राप्त होते हैं, इसलिये द्रव्योंका नाम 'अर्थ' है / 'अर्थ' शब्दका अर्थ गमन अथवा प्राप्त होता है, क्योंकि आधारभूत द्रव्यको प्राप्त होता है, अथवा द्रव्य करके प्राप्त किया जाता है, इसलिये गुणोंका नाम 'अर्थ' है, और क्रमसे परिणमन करके द्रव्यको प्राप्त होते हैं, अथवा द्रव्य करके अपने स्वरूपको प्राप्त होते हैं, इसलिये पर्यायोंका नाम 'अर्थ' है। जैसे-सोना अपने पीत आदि गुणोंको और कुंडलादि पर्यायों( अवस्थाओं )को प्राप्त होता है, अथवा गुणपर्यायोंसे सुवर्णपनेको प्राप्त होता है, इसलिये सोनेको अर्थ कहते हैं, और जैसे आधारभूत सोनेको पीतत्वादि गुण प्राप्त होते हैं, अथवा सोनेसे प्राप्त होते हैं, इस कारण पीतत्वादि गुणोंको अर्थ कहते हैं, और जैसे क्रम परिणामसे कुंडलादि पर्याय सोनेको प्राप्त होते हैं, अथवा सोनेसे प्राप्त होते हैं, इसलिये कुंडलादि पर्यायोंको अर्थ कहते हैं / इस प्रकार द्रव्य, गुण, पर्यायोंका नाम अर्थ है / तथा जैसे सुवर्ण, पीतत्वादिगुण और कुंडलादि पर्यायोंमें पीतत्वादि गुण और कुंडलादि पर्यायोंका सोनेसे जुदापना नहीं है, इसलिये सुवर्ण अपने गुणपर्यायोंका सर्वस्व है, आधार है / उसी प्रकार द्रव्य, गुण, पर्यायोंमें गुणपर्यायोंको द्रव्यसे पृथक्पना नहीं है, इसलिये द्रव्य अपने गुणपर्यायोंका सर्वस्व है, आधार है, अर्थात् द्रव्यका गुणपर्यायोंसे अभेद है
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार गाथा 87
अन्वयार्थ- (दव्वाणि) द्रव्य (गुणा) गुण (तेसिं पज्जाया) और उनकी पर्यायें (अट्ठसण्णया) अर्थ नाम से (भणिया) कही गई हैं। (तेसु) उनमें (गुणपज्जयाणं अप्पा दव्व) गुण पर्याय का आत्मा द्रव्य है (गुण और पर्यायों का स्वरूप सत्व द्रव्य ही है, वे भिन्न वस्तु नहीं है)। (त्ति उवदेसो) इस प्रकार (जिनेन्द्र का) उपदेश है