09-29-2022, 03:26 PM
श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -89 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -96 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
णाणप्पगमप्पाणं परं च दव्वत्तणाहिसंबद्धं /
जाणदि जदि णिच्छयदो जो सो मोहक्खयं कुणदि // 89 //
अब स्वपरभेदके विज्ञानकी सिद्धिसे ही मोहका नाश होता है, इसलिये स्व तथा परके भेदकी सिद्धिके लिये प्रयत्न करते हैं-[यः] जो जीव [ यदि] यदि [निश्चयतः] निश्चयसे [ ज्ञानात्मकं] ज्ञानस्वरूप [आत्मानं] परमात्माको [द्रव्यत्वेन ] अपने द्रव्य स्वरूपसे [अभिसंबद्धं ] संयुक्त [जानाति ] जानता है, [च] और [परं] पर अर्थात् पुद्गलादि अचेतनको जड़ स्वरूप कर आत्मासे भिन्न अपने अचेतन द्रव्य स्वरूप संयुक्त जानता है, [सः] वह जीव [मोहक्षयं] मोहका क्षय [करोति] करता है /
भावार्थ-जो जीव अपने चैतन्य स्वभावकर आपको परस्वभावसे भिन्न जानते हैं, और परको जड़ स्वभावसे पर (अन्य ) जानते हैं, वे जीव स्वपरविवेकी हैं, और वे ही भेदविज्ञानी मोहका क्षय करते हैं / इसलिये मैं स्वपर विवेकके निमित्त प्रयत्न (उद्योग) करता हूँ
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार गाथा 89
अन्वयार्थ - (जो ) जो (णिच्छ्यदो) निश्चय से (णाणप्पगमप्पाणं) ज्ञानात्मक ऐसे अपने को (च) और ( परं) पर को (दव्वत्तणाहिसंबद्धं) निज निज द्रव्यत्व से संबद्ध (जदि जाणदि) जानता है, (सो) वह (मोहक्खयं कुणदि) मोह का क्षय करता है।
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -89 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -96 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
णाणप्पगमप्पाणं परं च दव्वत्तणाहिसंबद्धं /
जाणदि जदि णिच्छयदो जो सो मोहक्खयं कुणदि // 89 //
अब स्वपरभेदके विज्ञानकी सिद्धिसे ही मोहका नाश होता है, इसलिये स्व तथा परके भेदकी सिद्धिके लिये प्रयत्न करते हैं-[यः] जो जीव [ यदि] यदि [निश्चयतः] निश्चयसे [ ज्ञानात्मकं] ज्ञानस्वरूप [आत्मानं] परमात्माको [द्रव्यत्वेन ] अपने द्रव्य स्वरूपसे [अभिसंबद्धं ] संयुक्त [जानाति ] जानता है, [च] और [परं] पर अर्थात् पुद्गलादि अचेतनको जड़ स्वरूप कर आत्मासे भिन्न अपने अचेतन द्रव्य स्वरूप संयुक्त जानता है, [सः] वह जीव [मोहक्षयं] मोहका क्षय [करोति] करता है /
भावार्थ-जो जीव अपने चैतन्य स्वभावकर आपको परस्वभावसे भिन्न जानते हैं, और परको जड़ स्वभावसे पर (अन्य ) जानते हैं, वे जीव स्वपरविवेकी हैं, और वे ही भेदविज्ञानी मोहका क्षय करते हैं / इसलिये मैं स्वपर विवेकके निमित्त प्रयत्न (उद्योग) करता हूँ
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार गाथा 89
अन्वयार्थ - (जो ) जो (णिच्छ्यदो) निश्चय से (णाणप्पगमप्पाणं) ज्ञानात्मक ऐसे अपने को (च) और ( परं) पर को (दव्वत्तणाहिसंबद्धं) निज निज द्रव्यत्व से संबद्ध (जदि जाणदि) जानता है, (सो) वह (मोहक्खयं कुणदि) मोह का क्षय करता है।