09-29-2022, 03:49 PM
श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -90 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -97 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
तम्हा जिणमग्गादो गुणेहिं आदं परं च दव्वेसु /
अभिगच्छदु णिम्मोहं इच्छदि जदि अप्पणो अप्पा // 90 //
अब स्वपर विवेककी सबप्रकार सिद्धि जिनभगवान् प्रणीत आगमसे करनी चाहिये, ऐसा कहकर इस कथनका संक्षेप करते हैं-[तस्मात् ] इसलिये [ यदि ] जो [आत्मा] यह जीव [आत्मनः] आपको [निर्मोहं] मोह रहित वीतराग भावरूप [इच्छति] चाहता है, तो [जिनमार्गात्] वीतरागदेव कथित आगमसे [गुणैः] विशेष गुणोंके द्वारा [द्रव्येषु] छह द्रव्योंमेंसे [आत्मानं] आपको [च] और [परं] अन्य द्रव्योंको [अभिगच्छतु] जाने / भावार्थ-द्रव्योंके गुण दो प्रकारके हैं, एक सामान्य और दूसरे विशेष / इनमें से सामान्य गुणोंके द्वारा द्रव्योंका भेद नहीं हो सकता, इसलिये बुद्धिमान् पुरुषोंको चाहिये, कि विशेष गुणोंके द्वारा अनन्त द्रव्यकी संततिमें अपना और परका भेद करें / इस कारण अब उस स्व पर भेदका प्रकार कहते हैं-इस अनादिनिधन, किसीसे उत्पन्न नहीं हुए, अंतर बाहिर दैदीप्यमान, स्व परके जाननेवाले अपने चैतन्य गुणसे अन्य जीव द्रव्य तथा अजीव द्रव्य इनको जुदा करके मैं आप विषे तीनों काल अविनाशी अपने स्वरूपको जानता हूँ, और आकाश, धर्म, अधर्म, काल, पुद्गल, तथा अन्य जीव जो हैं, उनके भेद भिन्न भिन्न (जुदा जुदा) विशेष लक्षणोंसे अपने अपने में तीन काल अविनाशी ऐसे इनके स्वरूपको भी मैं जानता हूँ / इसलिये मैं आकाश नहीं हूँ, धर्म नहीं हूँ, अधर्म नहीं हूँ, काल नहीं हूँ, पुद्गल नहीं हूँ, और अन्य जीव भी नहीं हूँ। मैं जो हूँ, सो हूँ। जैसे एक सुरमें अनेक दीपक जलानेसे उन सबका प्रकाश उस घरमें एक जगह मिला हुआ रहता है, इसी प्रकार ये छह द्रव्य एक क्षेत्रमें रहते हैं, परंतु मेरा द्रव्य इन सबसे भिन्न है / जैसे सब दीपकोंका प्रकाश देखनेसे तो मिला हुआ सा दिखाई देता है, परंतु सूक्ष्म दृष्टिसे विचारपूर्वक देखा जावे, तो जो जिस दीपकका प्रकाश है, वह उसीका है / इसी प्रकार यह मेरा चैतन्य स्वरूप मुझको सबसे पृथक् दिखलाता है। इस प्रकार स्व पर विवेकवाले आत्माके फिर मोहरूपी अंकुरकी उत्पत्ति नहीं होती
गाथा -91 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -98 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
सत्तासंबद्धदे सविसेसे जो हि व सामण्णे /
सद्दहदि ण सो समणो तत्तो धम्मो ण संभवदि // 91 //
अब कहते हैं, कि वीतरागदेव कथित पदार्थोकी श्रद्धाके विना इस जीबको आत्म-धर्मका लाभ नहीं होता-[यः] जो जीव [हि ] निश्चयसे [श्रामण्ये ] यति अवस्थामें [सत्तासंबद्धान् ] सत्ता भावसे सामान्य अस्तिपने सहित और [सविशेषान् ] अपने अपने विशेष अस्तित्व सहित [एतान् ] इन छह द्रव्योंको [नैव श्रद्दधाति] नहीं श्रद्धान करता, [सः] वह जीव [श्रमणः ] मुनि [न] नहीं है, और [ततः] उस द्रव्यलिंगी ( बाह्य भेषधारी) मुनिसे [ धर्मः] शुद्धोपयोगरूप आत्मीक-धर्म [न संभवति ] नहीं हो सकता / भावार्थअस्तित्व दो प्रकारका है, एक सामान्य अस्तित्व, दूसरा विशेष अस्तित्व / जैसे वृक्ष जातिसे वृक्ष एक हैं, आम-निम्बादि भेदोंसे पृथक् पृथक् हैं, इसी प्रकार द्रव्य सामान्य अस्तित्वसे एक है, विशेष अस्तिबसे एक है, विशेष अस्तित्वसे अपने जुदा जुदा स्वरूप सहित है / इन सामान्य विशेष भाव संयुक्त द्रव्योंको जो जीव मुनि अवस्था धारण करके नहीं जानता है, और स्व पर भेद सहित श्रद्धान नहीं करता है, वह यति नहीं है / सम्यक्त्व भावके विना द्रव्यलिंग अवस्थाको धारण करके व्यर्थ ही खेदखिन्न होता है, क्योंकि इस अवस्थासे आत्मीक-धर्मकी संभावना नहीं है / जैसे धूलका धोनेवाला न्यारिया यदि सोनेकी कणिकाओंको पहचाननेवाला नहीं होवे, तो वह कितना भी कष्ट क्यों न उठावे, परंतु उसे सुवर्णकी प्राप्ति नहीं होती, इसी प्रकार संयमादि क्रियामें कितना ही खेद क्यों न करे, परंतु लक्षणोंसे स्व पर भेदके विना वीतराग आत्म-तत्वकी प्राप्तिरूप धर्म इस जीवके उत्पन्न नहीं होता //
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार
गाथा 90
अन्वयार्थ - ( तम्हा ) इसलिये ( स्वपर के विवेक से मोह का क्षय हो सकने योग्य होने से ) ( जदि ) यदि ( अप्पा ) आत्मा (अण्पणो ) अपनी ( णिम्मोहं ) निर्मोहता ( इच्छदि ) चाहता है , तो ( जिणमग्गादो ) जिनमार्ग से (गुणेहिं) गुणों के द्वारा (दव्वेसु ) द्रव्यों में ( आदं परं च ) स्व और पर को ( अहिगच्छदु ) जानी ( जिनागम के द्वारा विशेष गुणों से यह विवेक करो कि - अनन्त द्रव्यों में | से यह स्व और यह पर है । )
गाथा 91
अन्वयार्थ - (जो हि) जो (सामण्णे) श्रमणावस्था में (सत्तासंबद्धेदे सविसेसे) इन संयुक्त सविशेष पदार्थों की (णेव सद्दहदि) श्रद्धा नहीं करता (सो) वह (समणो ण) श्रमण नहीं है, (तत्तो धम्मो ण संभवदि) उससे धर्म का उद्भव नहीं होता (उस श्रमणाभास के धर्म नहीं होता।)
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -90 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -97 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
तम्हा जिणमग्गादो गुणेहिं आदं परं च दव्वेसु /
अभिगच्छदु णिम्मोहं इच्छदि जदि अप्पणो अप्पा // 90 //
अब स्वपर विवेककी सबप्रकार सिद्धि जिनभगवान् प्रणीत आगमसे करनी चाहिये, ऐसा कहकर इस कथनका संक्षेप करते हैं-[तस्मात् ] इसलिये [ यदि ] जो [आत्मा] यह जीव [आत्मनः] आपको [निर्मोहं] मोह रहित वीतराग भावरूप [इच्छति] चाहता है, तो [जिनमार्गात्] वीतरागदेव कथित आगमसे [गुणैः] विशेष गुणोंके द्वारा [द्रव्येषु] छह द्रव्योंमेंसे [आत्मानं] आपको [च] और [परं] अन्य द्रव्योंको [अभिगच्छतु] जाने / भावार्थ-द्रव्योंके गुण दो प्रकारके हैं, एक सामान्य और दूसरे विशेष / इनमें से सामान्य गुणोंके द्वारा द्रव्योंका भेद नहीं हो सकता, इसलिये बुद्धिमान् पुरुषोंको चाहिये, कि विशेष गुणोंके द्वारा अनन्त द्रव्यकी संततिमें अपना और परका भेद करें / इस कारण अब उस स्व पर भेदका प्रकार कहते हैं-इस अनादिनिधन, किसीसे उत्पन्न नहीं हुए, अंतर बाहिर दैदीप्यमान, स्व परके जाननेवाले अपने चैतन्य गुणसे अन्य जीव द्रव्य तथा अजीव द्रव्य इनको जुदा करके मैं आप विषे तीनों काल अविनाशी अपने स्वरूपको जानता हूँ, और आकाश, धर्म, अधर्म, काल, पुद्गल, तथा अन्य जीव जो हैं, उनके भेद भिन्न भिन्न (जुदा जुदा) विशेष लक्षणोंसे अपने अपने में तीन काल अविनाशी ऐसे इनके स्वरूपको भी मैं जानता हूँ / इसलिये मैं आकाश नहीं हूँ, धर्म नहीं हूँ, अधर्म नहीं हूँ, काल नहीं हूँ, पुद्गल नहीं हूँ, और अन्य जीव भी नहीं हूँ। मैं जो हूँ, सो हूँ। जैसे एक सुरमें अनेक दीपक जलानेसे उन सबका प्रकाश उस घरमें एक जगह मिला हुआ रहता है, इसी प्रकार ये छह द्रव्य एक क्षेत्रमें रहते हैं, परंतु मेरा द्रव्य इन सबसे भिन्न है / जैसे सब दीपकोंका प्रकाश देखनेसे तो मिला हुआ सा दिखाई देता है, परंतु सूक्ष्म दृष्टिसे विचारपूर्वक देखा जावे, तो जो जिस दीपकका प्रकाश है, वह उसीका है / इसी प्रकार यह मेरा चैतन्य स्वरूप मुझको सबसे पृथक् दिखलाता है। इस प्रकार स्व पर विवेकवाले आत्माके फिर मोहरूपी अंकुरकी उत्पत्ति नहीं होती
गाथा -91 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -98 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
सत्तासंबद्धदे सविसेसे जो हि व सामण्णे /
सद्दहदि ण सो समणो तत्तो धम्मो ण संभवदि // 91 //
अब कहते हैं, कि वीतरागदेव कथित पदार्थोकी श्रद्धाके विना इस जीबको आत्म-धर्मका लाभ नहीं होता-[यः] जो जीव [हि ] निश्चयसे [श्रामण्ये ] यति अवस्थामें [सत्तासंबद्धान् ] सत्ता भावसे सामान्य अस्तिपने सहित और [सविशेषान् ] अपने अपने विशेष अस्तित्व सहित [एतान् ] इन छह द्रव्योंको [नैव श्रद्दधाति] नहीं श्रद्धान करता, [सः] वह जीव [श्रमणः ] मुनि [न] नहीं है, और [ततः] उस द्रव्यलिंगी ( बाह्य भेषधारी) मुनिसे [ धर्मः] शुद्धोपयोगरूप आत्मीक-धर्म [न संभवति ] नहीं हो सकता / भावार्थअस्तित्व दो प्रकारका है, एक सामान्य अस्तित्व, दूसरा विशेष अस्तित्व / जैसे वृक्ष जातिसे वृक्ष एक हैं, आम-निम्बादि भेदोंसे पृथक् पृथक् हैं, इसी प्रकार द्रव्य सामान्य अस्तित्वसे एक है, विशेष अस्तिबसे एक है, विशेष अस्तित्वसे अपने जुदा जुदा स्वरूप सहित है / इन सामान्य विशेष भाव संयुक्त द्रव्योंको जो जीव मुनि अवस्था धारण करके नहीं जानता है, और स्व पर भेद सहित श्रद्धान नहीं करता है, वह यति नहीं है / सम्यक्त्व भावके विना द्रव्यलिंग अवस्थाको धारण करके व्यर्थ ही खेदखिन्न होता है, क्योंकि इस अवस्थासे आत्मीक-धर्मकी संभावना नहीं है / जैसे धूलका धोनेवाला न्यारिया यदि सोनेकी कणिकाओंको पहचाननेवाला नहीं होवे, तो वह कितना भी कष्ट क्यों न उठावे, परंतु उसे सुवर्णकी प्राप्ति नहीं होती, इसी प्रकार संयमादि क्रियामें कितना ही खेद क्यों न करे, परंतु लक्षणोंसे स्व पर भेदके विना वीतराग आत्म-तत्वकी प्राप्तिरूप धर्म इस जीवके उत्पन्न नहीं होता //
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार
गाथा 90
अन्वयार्थ - ( तम्हा ) इसलिये ( स्वपर के विवेक से मोह का क्षय हो सकने योग्य होने से ) ( जदि ) यदि ( अप्पा ) आत्मा (अण्पणो ) अपनी ( णिम्मोहं ) निर्मोहता ( इच्छदि ) चाहता है , तो ( जिणमग्गादो ) जिनमार्ग से (गुणेहिं) गुणों के द्वारा (दव्वेसु ) द्रव्यों में ( आदं परं च ) स्व और पर को ( अहिगच्छदु ) जानी ( जिनागम के द्वारा विशेष गुणों से यह विवेक करो कि - अनन्त द्रव्यों में | से यह स्व और यह पर है । )
गाथा 91
अन्वयार्थ - (जो हि) जो (सामण्णे) श्रमणावस्था में (सत्तासंबद्धेदे सविसेसे) इन संयुक्त सविशेष पदार्थों की (णेव सद्दहदि) श्रद्धा नहीं करता (सो) वह (समणो ण) श्रमण नहीं है, (तत्तो धम्मो ण संभवदि) उससे धर्म का उद्भव नहीं होता (उस श्रमणाभास के धर्म नहीं होता।)