10-07-2022, 02:32 PM
श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -100 (आचार्य जयसेन / प्रभाचंद्र की टीका अनुसार )
जो तं दिट्ठा तुट्ठो अब्भुट्ठित्ता करेदि सक्कारं ।
वंदणणमस्सणादिहिं तत्तो सो धम्ममादियदि
अन्वयार्थ - ( जो ) जो भव्य पुरुष ( त ) उन श्रमण को ( दिवा ) देखकर ( तद्वो ) संतुष्ट होता हुआ ( अब्भुट्ठित्ता ) उठकर के ( वंदणणमस्सणादिहिँ ) वन्दना , नमस्कार आदि के द्वारा ( सक्कार ) सत्कार ( करेदि ) करता है । (तत्तो ) इन क्रियाओं से ( सो ) वह भव्य जीव ( धम्म ) धर्म को ( आदियदि ) धारण करता है ।
गाथा -101 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
तेण णरा व तिरिक्खा देवे वा माणुसिं गदिं पप्पा ।
विहविस्सरिएहिं सया संपुण्णमणोरहा होंति ॥
अन्वयार्थ - ( तेण ) उस धर्म से वह वर्तमान में ( णरा ) मनुष्य ( व ) अथवा ( तिरिक्खा ) | तिर्यञ्च ( देवे ) देवगति में ( वा ) अथवा ( माणुसिं गदिं ) मनुष्यगति को ( पप्पा ) प्राप्त करके । ( विहविस्सरिएहिं ) वैभव और ऐश्वर्य के साथ ( सया ) निरन्तर ( संपुण्णमणोरहा ) सम्पूर्ण मनोरथों । को ( होंति ) पाते हैं ।
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -100 (आचार्य जयसेन / प्रभाचंद्र की टीका अनुसार )
जो तं दिट्ठा तुट्ठो अब्भुट्ठित्ता करेदि सक्कारं ।
वंदणणमस्सणादिहिं तत्तो सो धम्ममादियदि
अन्वयार्थ - ( जो ) जो भव्य पुरुष ( त ) उन श्रमण को ( दिवा ) देखकर ( तद्वो ) संतुष्ट होता हुआ ( अब्भुट्ठित्ता ) उठकर के ( वंदणणमस्सणादिहिँ ) वन्दना , नमस्कार आदि के द्वारा ( सक्कार ) सत्कार ( करेदि ) करता है । (तत्तो ) इन क्रियाओं से ( सो ) वह भव्य जीव ( धम्म ) धर्म को ( आदियदि ) धारण करता है ।
गाथा -101 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
तेण णरा व तिरिक्खा देवे वा माणुसिं गदिं पप्पा ।
विहविस्सरिएहिं सया संपुण्णमणोरहा होंति ॥
अन्वयार्थ - ( तेण ) उस धर्म से वह वर्तमान में ( णरा ) मनुष्य ( व ) अथवा ( तिरिक्खा ) | तिर्यञ्च ( देवे ) देवगति में ( वा ) अथवा ( माणुसिं गदिं ) मनुष्यगति को ( पप्पा ) प्राप्त करके । ( विहविस्सरिएहिं ) वैभव और ऐश्वर्य के साथ ( सया ) निरन्तर ( संपुण्णमणोरहा ) सम्पूर्ण मनोरथों । को ( होंति ) पाते हैं ।
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार