10-08-2022, 02:39 PM
श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार : ज्ञेयतत्त्वाधिकार
गाथा -102 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
तम्हा तस्स णमाइं किच्चा णिचं पि तम्मणो होज्ज /
वोच्छामि संगहादो परमहविणिच्छयाधिगमं // *1 //
गाथा -1 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -103 (आचार्य प्रभाचंद्र की टीका अनुसार )
अत्थो खलु दव्यमओ दव्वाणि गुणप्पगाणि भणिदाणि /
तेहिं पुणो पज्जाया पन्जयमूढा हि परसमया // 1 //
आगे ज्ञेयतत्त्वका कथन करते हुए उसमें भी पहले पदार्थोंको द्रव्य, गुण, पर्याय, स्वरूप कहते हैं-[खल] निश्चयसे [अर्थः [ ज्ञेयपदार्थ [ द्रव्यमयः] सामान्य स्वरूप वस्तुमय है [तु] तथा [द्रव्याणि] समस्त द्रव्य [गुणात्मकानि] अनन्तगुण स्वरूप [ भणितानि ] कहे हैं / [पुनः और [तैः] उन द्रव्य गुणोंके परिणमन करनेसे [पर्यायाः ] पर्याय हैं, अर्थात् द्रव्यपर्याय और गुणपर्याय ये दो भेद सहित पर्याय हैं, और [पर्ययमूढा] अशुद्ध पर्यायोंमें मूढ़ अर्थात् आत्मबुद्धिसे पर्यायको ही द्रव्य माननेवाले अज्ञानी [हि] निश्चयकर [परसमयाः] मिथ्यादृष्टि हैं /
भावार्थ-जितने ज्ञेयपदार्थ हैं, वे समस्त गुण पर्याय सहित हैं, इसलिये द्रव्य एक आधारभूत अनन्तगुणस्वरूप है / गुणका नाम विस्तार है, और पर्यायका नाम आयत है। विस्तार चौड़ाईको कहते हैं, और आयत लम्बाईको कहते हैं / गुण चौड़ाईरूप अविनाशी सदा सहभूत ( साथ रहनेवाले ) हैं. और पर्याय लम्बाईरूप हैं जिससे कि अतीत अनागत वर्तमान कालमें क्रमवर्ती हैं। पर्यायके दो भेद हैं-एक द्रव्यपर्याय और दूसरे गुणपर्याय / इनमेंसे अशुद्ध द्रव्यपर्यायका लक्षण कहते हैं कालके क्रमसे नाना प्रकारसे परिणमन होनेसे एक अनेकता लिये शुक्लादि गुणोंका गुणस्वरूप स्वभावपर्याय है, उसी प्रकार सभी द्रव्योंमें सूक्ष्म अपने अपने अगुरुलघुगुणोंसे समय समय षट्गुणी हानि वृद्धिसे नाना स्वभावगुणपर्याय हैं। और जैसे वस्त्रमें अन्य द्रव्यके संयोगसे वर्णादि गुणोंकी कृष्ण पीततादि भेदोंसे पूर्व उत्तर अवस्थामें हीन अधिकरूप विभावगुणपर्याय होते हैं, उसी प्रकार पुद्गलमें वर्णादि गुणोंकी तथा आत्मामें ज्ञानादि गुणोंकी परसंयोगसे पूर्व उत्तर (पहली-आगेकी) अवस्थामें हीन अधिक विभावगुणपर्याय हैं / इस प्रकार संपूर्ण द्रव्योंके गुणपर्यायोंको भगवानकी वाणी ही दिखलानेमें समर्थ है, अन्यमती नहीं दिखा सकते / क्योंकि वे सब एक नयका ही अवलंबन लेते हैं, और एक नयसे सब द्रव्य, गुण, पर्यायके स्वरूप नहीं कहे जा सकते / ऐसे अनेक जीव अशुद्ध पर्याय मात्रका अवलंबन करते हुए मिथ्या मोहको प्राप्त होकर परसमयी होते हैं
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार : ज्ञेयतत्त्वाधिकार
गाथा -102 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )
तम्हा तस्स णमाइं किच्चा णिचं पि तम्मणो होज्ज /
वोच्छामि संगहादो परमहविणिच्छयाधिगमं // *1 //
गाथा -1 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -103 (आचार्य प्रभाचंद्र की टीका अनुसार )
अत्थो खलु दव्यमओ दव्वाणि गुणप्पगाणि भणिदाणि /
तेहिं पुणो पज्जाया पन्जयमूढा हि परसमया // 1 //
आगे ज्ञेयतत्त्वका कथन करते हुए उसमें भी पहले पदार्थोंको द्रव्य, गुण, पर्याय, स्वरूप कहते हैं-[खल] निश्चयसे [अर्थः [ ज्ञेयपदार्थ [ द्रव्यमयः] सामान्य स्वरूप वस्तुमय है [तु] तथा [द्रव्याणि] समस्त द्रव्य [गुणात्मकानि] अनन्तगुण स्वरूप [ भणितानि ] कहे हैं / [पुनः और [तैः] उन द्रव्य गुणोंके परिणमन करनेसे [पर्यायाः ] पर्याय हैं, अर्थात् द्रव्यपर्याय और गुणपर्याय ये दो भेद सहित पर्याय हैं, और [पर्ययमूढा] अशुद्ध पर्यायोंमें मूढ़ अर्थात् आत्मबुद्धिसे पर्यायको ही द्रव्य माननेवाले अज्ञानी [हि] निश्चयकर [परसमयाः] मिथ्यादृष्टि हैं /
भावार्थ-जितने ज्ञेयपदार्थ हैं, वे समस्त गुण पर्याय सहित हैं, इसलिये द्रव्य एक आधारभूत अनन्तगुणस्वरूप है / गुणका नाम विस्तार है, और पर्यायका नाम आयत है। विस्तार चौड़ाईको कहते हैं, और आयत लम्बाईको कहते हैं / गुण चौड़ाईरूप अविनाशी सदा सहभूत ( साथ रहनेवाले ) हैं. और पर्याय लम्बाईरूप हैं जिससे कि अतीत अनागत वर्तमान कालमें क्रमवर्ती हैं। पर्यायके दो भेद हैं-एक द्रव्यपर्याय और दूसरे गुणपर्याय / इनमेंसे अशुद्ध द्रव्यपर्यायका लक्षण कहते हैं कालके क्रमसे नाना प्रकारसे परिणमन होनेसे एक अनेकता लिये शुक्लादि गुणोंका गुणस्वरूप स्वभावपर्याय है, उसी प्रकार सभी द्रव्योंमें सूक्ष्म अपने अपने अगुरुलघुगुणोंसे समय समय षट्गुणी हानि वृद्धिसे नाना स्वभावगुणपर्याय हैं। और जैसे वस्त्रमें अन्य द्रव्यके संयोगसे वर्णादि गुणोंकी कृष्ण पीततादि भेदोंसे पूर्व उत्तर अवस्थामें हीन अधिकरूप विभावगुणपर्याय होते हैं, उसी प्रकार पुद्गलमें वर्णादि गुणोंकी तथा आत्मामें ज्ञानादि गुणोंकी परसंयोगसे पूर्व उत्तर (पहली-आगेकी) अवस्थामें हीन अधिक विभावगुणपर्याय हैं / इस प्रकार संपूर्ण द्रव्योंके गुणपर्यायोंको भगवानकी वाणी ही दिखलानेमें समर्थ है, अन्यमती नहीं दिखा सकते / क्योंकि वे सब एक नयका ही अवलंबन लेते हैं, और एक नयसे सब द्रव्य, गुण, पर्यायके स्वरूप नहीं कहे जा सकते / ऐसे अनेक जीव अशुद्ध पर्याय मात्रका अवलंबन करते हुए मिथ्या मोहको प्राप्त होकर परसमयी होते हैं
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार