10-08-2022, 03:18 PM
श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार : ज्ञेयतत्त्वाधिकार
गाथा -2 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -104 (आचार्य प्रभाचंद्र की टीका अनुसार )
जे पज्जयेसु णिरदा जीवा परसमयिग त्ति णिहिट्ठा।
आदसहावम्मि ठिदा ते सगसमया मुणेदव्वा // 2 //
अब इस व्याख्यानका संयोग पाकर स्वसमय तथा परसमयका स्वरूप प्रगट करते हैं-[ये जीवाः] जो अज्ञानी संसारी जीव [पर्यायेषु ] मनुष्यादि पर्यायोंमें [निरताः] लवलीन हैं, वे [परसमयिकाः] परसमयमें रागयुक्त हैं, [इति] ऐसा [निर्दिष्टाः ] भगवंतदेवने दिखाया हैं / और जो सम्यग्दृष्टि जीव [ आत्मस्वभावे ] अपने ज्ञानदर्शन स्वभावमें [स्थिताः ] मौजूद हैं, [ते] वे [स्वकसमयाः] स्वसमयमें रत [ज्ञातव्याः] जानने योग्य हैं /
भावार्थ-जो जीव सब अविद्याओंका एक मूलकारण जीव पुद्गल स्वरूप असमान जातिवाले द्रव्यपर्यायको प्राप्त हुए हैं, और आत्म-स्वभावकी भावनामें नपुंसकके समान अशक्ति (निर्बलपने ) को धारण करते हैं, वे निश्चय करके निरर्गल एकान्तदृष्टि ही हैं / 'मैं मनुष्य हूँ, यह मेरा शरीर है' इस प्रकार नाना अहंकार ममकारभावोंसे विपरीत ज्ञानी हुए अविचलित चेतना-विलासरूप आत्म-व्यवहारसे च्युत होकर समस्त निंद्य क्रिया-समूहके अंगीकार करनेसे पुत्र स्त्री मित्रादि मनुष्यव्यवहारको आश्रय करके रागी द्वेषी होते हैं, और परद्रव्यकर्मोंसे मिलते हैं, इस कारण परसमयरत होते हैं / और जो जीव अपने द्रव्यगुणपर्यायोंकी अभिन्नतासे स्थिर हैं, समस्त विद्याओंके मूलभूत भगवंत आत्माके स्वभावको प्राप्त हुए हैं, आत्मस्वभावकी भावनासे पर्यायरत नहीं हैं, और आत्म-स्वभावमें ही स्थिरता बढ़ाते हैं, वे जीव स्वाभाविक अनेकान्तदृष्टिसे एकांत दृष्टिरूप परिग्रहको दूर करनेवाले हैं। मनुष्यादि गतियोंमें शरीरसंबंधी अहंकार ममकारभावोंसे रहित हैं / जैसे अनेक गृहोंमें संचार करनेवाला रत्नदीपक एक है, उसी प्रकार एकरूप आत्माको प्राप्त हुए हैं / अचलित चैतन्य-विलासरूप आत्मव्यवहारको अंगीकार करते हैं / असमीचीन क्रियाओंके मूलकारण मनुष्य-व्यवहारके आश्रित नहीं होते। राग द्वेषके अभावसे परम उदासीन हैं, और समस्त परद्रव्योंकी संगति दूर करके केवल स्वद्रव्यमें प्राप्त हुए हैं, इसी कारण स्वसमय हैं। स्वसमय आत्मस्वभाव है। आत्मस्वभावमें जो लीन रहते हैं वे धन्य हैं //
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार : ज्ञेयतत्त्वाधिकार
गाथा -2 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -104 (आचार्य प्रभाचंद्र की टीका अनुसार )
जे पज्जयेसु णिरदा जीवा परसमयिग त्ति णिहिट्ठा।
आदसहावम्मि ठिदा ते सगसमया मुणेदव्वा // 2 //
अब इस व्याख्यानका संयोग पाकर स्वसमय तथा परसमयका स्वरूप प्रगट करते हैं-[ये जीवाः] जो अज्ञानी संसारी जीव [पर्यायेषु ] मनुष्यादि पर्यायोंमें [निरताः] लवलीन हैं, वे [परसमयिकाः] परसमयमें रागयुक्त हैं, [इति] ऐसा [निर्दिष्टाः ] भगवंतदेवने दिखाया हैं / और जो सम्यग्दृष्टि जीव [ आत्मस्वभावे ] अपने ज्ञानदर्शन स्वभावमें [स्थिताः ] मौजूद हैं, [ते] वे [स्वकसमयाः] स्वसमयमें रत [ज्ञातव्याः] जानने योग्य हैं /
भावार्थ-जो जीव सब अविद्याओंका एक मूलकारण जीव पुद्गल स्वरूप असमान जातिवाले द्रव्यपर्यायको प्राप्त हुए हैं, और आत्म-स्वभावकी भावनामें नपुंसकके समान अशक्ति (निर्बलपने ) को धारण करते हैं, वे निश्चय करके निरर्गल एकान्तदृष्टि ही हैं / 'मैं मनुष्य हूँ, यह मेरा शरीर है' इस प्रकार नाना अहंकार ममकारभावोंसे विपरीत ज्ञानी हुए अविचलित चेतना-विलासरूप आत्म-व्यवहारसे च्युत होकर समस्त निंद्य क्रिया-समूहके अंगीकार करनेसे पुत्र स्त्री मित्रादि मनुष्यव्यवहारको आश्रय करके रागी द्वेषी होते हैं, और परद्रव्यकर्मोंसे मिलते हैं, इस कारण परसमयरत होते हैं / और जो जीव अपने द्रव्यगुणपर्यायोंकी अभिन्नतासे स्थिर हैं, समस्त विद्याओंके मूलभूत भगवंत आत्माके स्वभावको प्राप्त हुए हैं, आत्मस्वभावकी भावनासे पर्यायरत नहीं हैं, और आत्म-स्वभावमें ही स्थिरता बढ़ाते हैं, वे जीव स्वाभाविक अनेकान्तदृष्टिसे एकांत दृष्टिरूप परिग्रहको दूर करनेवाले हैं। मनुष्यादि गतियोंमें शरीरसंबंधी अहंकार ममकारभावोंसे रहित हैं / जैसे अनेक गृहोंमें संचार करनेवाला रत्नदीपक एक है, उसी प्रकार एकरूप आत्माको प्राप्त हुए हैं / अचलित चैतन्य-विलासरूप आत्मव्यवहारको अंगीकार करते हैं / असमीचीन क्रियाओंके मूलकारण मनुष्य-व्यवहारके आश्रित नहीं होते। राग द्वेषके अभावसे परम उदासीन हैं, और समस्त परद्रव्योंकी संगति दूर करके केवल स्वद्रव्यमें प्राप्त हुए हैं, इसी कारण स्वसमय हैं। स्वसमय आत्मस्वभाव है। आत्मस्वभावमें जो लीन रहते हैं वे धन्य हैं //
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार