10-25-2022, 08:48 AM
श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार : ज्ञेयतत्त्वाधिकार
गाथा -4 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -106 (आचार्य प्रभाचंद्र की टीका अनुसार )
सम्भावो हि सहावो गुणेहिं सह पजएहिं चित्तेहिं /
दव्वस्स सव्वकालं उप्पादव्वयधुवत्तेहिं // 4 //
अब दो प्रकारके अस्तित्वमेंसे पहले स्वरूपास्तित्वको दिखलाते हैं-गुणैः ] अपने गुणों करके [चित्रैः सह पर्यायैः] नाना प्रकारकी अपनी पर्यायोंकरके और [ उत्पादव्ययधवत्वैः] उत्पाद, व्यय, तथा ध्रौव्यकरके [द्रव्यस्य ] गुणपर्यायस्वरूप द्रव्यका [ सर्वकालं ] तीनों कालमें [सद्भाव ] अस्तित्व है, वही [हि] निश्चय करके [ स्वभावः] मूलभूत स्वभाव है।
भावार्थ-निश्चय करके अस्तित्व ही द्रव्यका स्वभाव है, क्योंकि अस्तित्व किसी अन्य निमित्तसे उत्पन्न नहीं हुआ है। अनादि अनंत एकरूप प्रवृत्तिसे अविनाशी है। विभावभावरूप नहीं, किन्तु स्वाभाविकभाव है। और गुणगुणीके भेदसे यद्यपि द्रव्यसे अस्तित्वगुण पृथक् कहा जाता है, परंतु वह प्रदेशभेदके विना द्रव्यसे एकरूप है। एक द्रव्यसे दूसरे द्रव्यकी नाई पृथक् नहीं हैं, क्योंकि द्रव्यके अस्तित्वसे गुणपर्यायोंका अस्तित्व है, और गुणपर्यायोंके अस्तित्वसे द्रव्यका अस्तित्व है / यह कथन नीचे लिखे हुए सोनेके दृष्टांतसे समझाते हैं। जैसे-पीततादि गुण तथा कुंडलादिपर्याय जो कि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी अपेक्षा सोनेसे पृथक् नहीं हैं, उनका कर्ता, साधन, और आधार सोना है, क्योंकि सोनेके अस्तित्वसे ही उनका अस्तित्व है। जो सोना न होवे, तो पीततादि गुण तथा कुंडलादिपर्यायें भी न होवें / सोना स्वभाववंत है, और वे स्वभाव हैं / इसी प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावोंकी अपेक्षा द्रव्यसे अभिन्न जो उसके गुणपर्याय हैं, उनका कर्ता साधन, और आधार द्रव्य हैं, क्योंकि द्रव्यके अस्तित्वसे ही गुणपर्यायोंका अस्तित्व है। जो द्रव्य न होवे, तो गुणपर्याय भी न होवें / द्रव्य स्वभाववंत है, और गुणपर्याय स्वभाव हैं। और जैसे द्रव्य, क्षेत्र, काल भावोंसे, पीततादि गुण तथा कुंडलादि पर्यायोंसे अपृथक्भूत (जो जुदे नहीं) सोनेके कर्म पीततादि गुण तथा कुंडलादि पर्याय हैं, इसलिये पीततादि गुण और कुंडलादि पर्यायोंके अस्तित्वसे सोनेका अस्तित्व है / यदि पीततादिगुण तथा कुंडलादि पर्यायें न हों, तो सोना भी न होवे / इसी प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावोंसे गुणपर्यायोंसे अपृथग्भूत द्रव्यके कर्म गुणपर्याय हैं, इसलिये गुणपर्यायोंके अस्तित्वसे द्रव्यका अस्तित्व है। जो गुणपर्यायें न हों, तो द्रव्य भी न होवे / और जैसेद्रव्य, क्षेत्र, काल, भावोंसे सोनेसे अपृथग्भूत ऐसा जो कंकणका उत्पाद, कुंडलका व्यय तथा पीतत्वादिका धौव्य इन तीन भावोंका कर्ता, साधन, और आधार सोना है, इसलिये सोनेके अस्तित्बसे इनका अस्तित्व है, क्योंकि जो सोना न होवे, तो कंकणका उत्पाद, कुंडलका व्यय और पीतत्वादिका ध्रौव्य, तीन भाव भी न होवें। इसी प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावों करके द्रव्यसे अपृथग्भूत ऐसे जो उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य इन तीन भावोंका कर्ता, साधन तथा आधार द्रव्य है, इसलिये द्रव्यके अस्तित्वसे उत्पादादिका अस्तित्व है / जो द्रव्य न होवे तो उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य ये तीन भाव न होवें। और जैसे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावोंकर कंकणादि पर्यायका उत्पाद, कुंडलादिका व्यय, पीतत्वादिका ध्रौव्य, इन तीन भावोंसे अपृथग्भूत जो सोना है, उसके कर्ता, साधन और आधार कंकणादि उत्पाद, कुंडलादि व्यय, पीतत्वादि ध्रौव्य, ये तीन भाव हैं, इसलिये इन तीन भावोंके अस्तित्वसे सोनेका अस्तित्व है / यदि ये तीन भाव न होवें, तो सोना भी न होवे / इसी प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावों करके उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यसे अपृधाभूत द्रव्यके कर्ता, साधन और आधार उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, ये तीन भाव हैं, क्योंकि इन तीनोंके अस्तित्वसे द्रव्यका अस्तित्व है / यदि ये तीन भाव न होवें, तो द्रव्य भी न होवे / इससे यह बात सिद्ध हुई, कि द्रव्य, गुण और पर्यायोंका अस्तित्व एक है। और जो द्रव्य है, सो अपने गुण पर्यायस्वरूपको लिये हुए है, अन्य द्रव्यसे कभी नहीं मिलता / इसीको स्वरूपास्तित्व कहते हैं
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार : ज्ञेयतत्त्वाधिकार
गाथा -4 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -106 (आचार्य प्रभाचंद्र की टीका अनुसार )
सम्भावो हि सहावो गुणेहिं सह पजएहिं चित्तेहिं /
दव्वस्स सव्वकालं उप्पादव्वयधुवत्तेहिं // 4 //
अब दो प्रकारके अस्तित्वमेंसे पहले स्वरूपास्तित्वको दिखलाते हैं-गुणैः ] अपने गुणों करके [चित्रैः सह पर्यायैः] नाना प्रकारकी अपनी पर्यायोंकरके और [ उत्पादव्ययधवत्वैः] उत्पाद, व्यय, तथा ध्रौव्यकरके [द्रव्यस्य ] गुणपर्यायस्वरूप द्रव्यका [ सर्वकालं ] तीनों कालमें [सद्भाव ] अस्तित्व है, वही [हि] निश्चय करके [ स्वभावः] मूलभूत स्वभाव है।
भावार्थ-निश्चय करके अस्तित्व ही द्रव्यका स्वभाव है, क्योंकि अस्तित्व किसी अन्य निमित्तसे उत्पन्न नहीं हुआ है। अनादि अनंत एकरूप प्रवृत्तिसे अविनाशी है। विभावभावरूप नहीं, किन्तु स्वाभाविकभाव है। और गुणगुणीके भेदसे यद्यपि द्रव्यसे अस्तित्वगुण पृथक् कहा जाता है, परंतु वह प्रदेशभेदके विना द्रव्यसे एकरूप है। एक द्रव्यसे दूसरे द्रव्यकी नाई पृथक् नहीं हैं, क्योंकि द्रव्यके अस्तित्वसे गुणपर्यायोंका अस्तित्व है, और गुणपर्यायोंके अस्तित्वसे द्रव्यका अस्तित्व है / यह कथन नीचे लिखे हुए सोनेके दृष्टांतसे समझाते हैं। जैसे-पीततादि गुण तथा कुंडलादिपर्याय जो कि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी अपेक्षा सोनेसे पृथक् नहीं हैं, उनका कर्ता, साधन, और आधार सोना है, क्योंकि सोनेके अस्तित्वसे ही उनका अस्तित्व है। जो सोना न होवे, तो पीततादि गुण तथा कुंडलादिपर्यायें भी न होवें / सोना स्वभाववंत है, और वे स्वभाव हैं / इसी प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावोंकी अपेक्षा द्रव्यसे अभिन्न जो उसके गुणपर्याय हैं, उनका कर्ता साधन, और आधार द्रव्य हैं, क्योंकि द्रव्यके अस्तित्वसे ही गुणपर्यायोंका अस्तित्व है। जो द्रव्य न होवे, तो गुणपर्याय भी न होवें / द्रव्य स्वभाववंत है, और गुणपर्याय स्वभाव हैं। और जैसे द्रव्य, क्षेत्र, काल भावोंसे, पीततादि गुण तथा कुंडलादि पर्यायोंसे अपृथक्भूत (जो जुदे नहीं) सोनेके कर्म पीततादि गुण तथा कुंडलादि पर्याय हैं, इसलिये पीततादि गुण और कुंडलादि पर्यायोंके अस्तित्वसे सोनेका अस्तित्व है / यदि पीततादिगुण तथा कुंडलादि पर्यायें न हों, तो सोना भी न होवे / इसी प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावोंसे गुणपर्यायोंसे अपृथग्भूत द्रव्यके कर्म गुणपर्याय हैं, इसलिये गुणपर्यायोंके अस्तित्वसे द्रव्यका अस्तित्व है। जो गुणपर्यायें न हों, तो द्रव्य भी न होवे / और जैसेद्रव्य, क्षेत्र, काल, भावोंसे सोनेसे अपृथग्भूत ऐसा जो कंकणका उत्पाद, कुंडलका व्यय तथा पीतत्वादिका धौव्य इन तीन भावोंका कर्ता, साधन, और आधार सोना है, इसलिये सोनेके अस्तित्बसे इनका अस्तित्व है, क्योंकि जो सोना न होवे, तो कंकणका उत्पाद, कुंडलका व्यय और पीतत्वादिका ध्रौव्य, तीन भाव भी न होवें। इसी प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावों करके द्रव्यसे अपृथग्भूत ऐसे जो उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य इन तीन भावोंका कर्ता, साधन तथा आधार द्रव्य है, इसलिये द्रव्यके अस्तित्वसे उत्पादादिका अस्तित्व है / जो द्रव्य न होवे तो उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य ये तीन भाव न होवें। और जैसे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावोंकर कंकणादि पर्यायका उत्पाद, कुंडलादिका व्यय, पीतत्वादिका ध्रौव्य, इन तीन भावोंसे अपृथग्भूत जो सोना है, उसके कर्ता, साधन और आधार कंकणादि उत्पाद, कुंडलादि व्यय, पीतत्वादि ध्रौव्य, ये तीन भाव हैं, इसलिये इन तीन भावोंके अस्तित्वसे सोनेका अस्तित्व है / यदि ये तीन भाव न होवें, तो सोना भी न होवे / इसी प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावों करके उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यसे अपृधाभूत द्रव्यके कर्ता, साधन और आधार उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, ये तीन भाव हैं, क्योंकि इन तीनोंके अस्तित्वसे द्रव्यका अस्तित्व है / यदि ये तीन भाव न होवें, तो द्रव्य भी न होवे / इससे यह बात सिद्ध हुई, कि द्रव्य, गुण और पर्यायोंका अस्तित्व एक है। और जो द्रव्य है, सो अपने गुण पर्यायस्वरूपको लिये हुए है, अन्य द्रव्यसे कभी नहीं मिलता / इसीको स्वरूपास्तित्व कहते हैं
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार