प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा -4, द्रव्य का स्वभाव
#1

श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार : ज्ञेयतत्त्वाधिकार


गाथा -4 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -106 (आचार्य प्रभाचंद्र  की टीका अनुसार )


सम्भावो हि सहावो गुणेहिं सह पजएहिं चित्तेहिं /
दव्वस्स सव्वकालं उप्पादव्वयधुवत्तेहिं // 4 //


अब दो प्रकारके अस्तित्वमेंसे पहले स्वरूपास्तित्वको दिखलाते हैं-गुणैः ] अपने गुणों करके [चित्रैः सह पर्यायैः] नाना प्रकारकी अपनी पर्यायोंकरके और [ उत्पादव्ययधवत्वैः] उत्पाद, व्यय, तथा ध्रौव्यकरके [द्रव्यस्य ] गुणपर्यायस्वरूप द्रव्यका [ सर्वकालं ] तीनों कालमें [सद्भाव ] अस्तित्व है, वही [हि] निश्चय करके [ स्वभावः] मूलभूत स्वभाव है। 

भावार्थ-निश्चय करके अस्तित्व ही द्रव्यका स्वभाव है, क्योंकि अस्तित्व किसी अन्य निमित्तसे उत्पन्न नहीं हुआ है। अनादि अनंत एकरूप प्रवृत्तिसे अविनाशी है। विभावभावरूप नहीं, किन्तु स्वाभाविकभाव है। और गुणगुणीके भेदसे यद्यपि द्रव्यसे अस्तित्वगुण पृथक् कहा जाता है, परंतु वह प्रदेशभेदके विना द्रव्यसे एकरूप है। एक द्रव्यसे दूसरे द्रव्यकी नाई पृथक् नहीं हैं, क्योंकि द्रव्यके अस्तित्वसे गुणपर्यायोंका अस्तित्व है, और गुणपर्यायोंके अस्तित्वसे द्रव्यका अस्तित्व है / यह कथन नीचे लिखे हुए सोनेके दृष्टांतसे समझाते हैं। जैसे-पीततादि गुण तथा कुंडलादिपर्याय जो कि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी अपेक्षा सोनेसे पृथक् नहीं हैं, उनका कर्ता, साधन, और आधार सोना है, क्योंकि सोनेके अस्तित्वसे ही उनका अस्तित्व है। जो सोना न होवे, तो पीततादि गुण तथा कुंडलादिपर्यायें भी न होवें / सोना स्वभाववंत है, और वे स्वभाव हैं / इसी प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावोंकी अपेक्षा द्रव्यसे अभिन्न जो उसके गुणपर्याय हैं, उनका कर्ता साधन, और आधार द्रव्य हैं, क्योंकि द्रव्यके अस्तित्वसे ही गुणपर्यायोंका अस्तित्व है। जो द्रव्य न होवे, तो गुणपर्याय भी न होवें / द्रव्य स्वभाववंत है, और गुणपर्याय स्वभाव हैं। और जैसे द्रव्य, क्षेत्र, काल भावोंसे, पीततादि गुण तथा कुंडलादि पर्यायोंसे अपृथक्भूत (जो जुदे नहीं) सोनेके कर्म पीततादि गुण तथा कुंडलादि पर्याय हैं, इसलिये पीततादि गुण और कुंडलादि पर्यायोंके अस्तित्वसे सोनेका अस्तित्व है / यदि पीततादिगुण तथा कुंडलादि पर्यायें न हों, तो सोना भी न होवे / इसी प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावोंसे गुणपर्यायोंसे अपृथग्भूत द्रव्यके कर्म गुणपर्याय हैं, इसलिये गुणपर्यायोंके अस्तित्वसे द्रव्यका अस्तित्व है। जो गुणपर्यायें न हों, तो द्रव्य भी न होवे / और जैसेद्रव्य, क्षेत्र, काल, भावोंसे सोनेसे अपृथग्भूत ऐसा जो कंकणका उत्पाद, कुंडलका व्यय तथा पीतत्वादिका धौव्य इन तीन भावोंका कर्ता, साधन, और आधार सोना है, इसलिये सोनेके अस्तित्बसे इनका अस्तित्व है, क्योंकि जो सोना न होवे, तो कंकणका उत्पाद, कुंडलका व्यय और पीतत्वादिका ध्रौव्य, तीन भाव भी न होवें। इसी प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावों करके द्रव्यसे अपृथग्भूत ऐसे जो उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य इन तीन भावोंका कर्ता, साधन तथा आधार द्रव्य है, इसलिये द्रव्यके अस्तित्वसे उत्पादादिका अस्तित्व है / जो द्रव्य न होवे तो उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य ये तीन भाव न होवें। और जैसे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावोंकर कंकणादि पर्यायका उत्पाद, कुंडलादिका व्यय, पीतत्वादिका ध्रौव्य, इन तीन भावोंसे अपृथग्भूत जो सोना है, उसके कर्ता, साधन और आधार कंकणादि उत्पाद, कुंडलादि व्यय, पीतत्वादि ध्रौव्य, ये तीन भाव हैं, इसलिये इन तीन भावोंके अस्तित्वसे सोनेका अस्तित्व है / यदि ये तीन भाव न होवें, तो सोना भी न होवे / इसी प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावों करके उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यसे अपृधाभूत द्रव्यके कर्ता, साधन और आधार उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, ये तीन भाव हैं, क्योंकि इन तीनोंके अस्तित्वसे द्रव्यका अस्तित्व है / यदि ये तीन भाव न होवें, तो द्रव्य भी न होवे / इससे यह बात सिद्ध हुई, कि द्रव्य, गुण और पर्यायोंका अस्तित्व एक है। और जो द्रव्य है, सो अपने गुण पर्यायस्वरूपको लिये हुए है, अन्य द्रव्यसे कभी नहीं मिलता / इसीको स्वरूपास्तित्व कहते हैं

मुनि श्री प्रणम्य सागर जी  प्रवचनसार

Manish Jain Luhadia 
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#2

Existence in the three times with its qualities (guna), with its different modes (paryāya), and with origination (utpāda), destruction (vyaya), and permanence (dhrauvya), is certainly ‘existence in own nature’ – svarūpāstitva – of the substance
(dravya).
Explanatory Note: 
Existence is the nature of the substance; its existence is not dependent on any external reason. Due to this nature of existence, the substance is beginningless, eternal and indestructible. Qualities (guna) or the modes (paryāya) are portrayed as different from the substance (dravya) in order to highlight the difference between the possessor and the possessed.
Actually, there exists no difference in these as qualities (guna), the  modes (paryāya) as well as the substance (dravya) inhabit the same space-points (pradeśa). The qualities (guna) and the modes (paryāya) exist due to the substance (dravya), and the substance (dravya) exists due to the qualities (guna) and the modes (paryāya). For example, the quality (guõa) of yellowness and the mode (paryāya) of earring are no different – in regard to substance (dravya), place (ksetra), time (kāla), and being (bhāva) – from the substance (dravya), i.e., gold. These, the quality (guõa) of yellowness and the mode (paryāya) of earring, have gold – the substance (dravya) – as their doer (kartā), the bestower (sādhana) and the substratum (ādhāra). Without gold – the substance (dravya) – there is no existence of the quality (guõa) of yellowness and the mode (paryāya) of earring. As a corollary, without the quality (guna) of yellowness and the mode (paryāya) of earring, there is no existence of gold – the substance (dravya). In the same way, origination (utpāda) of the bracelet, destruction (vyaya) of the earring and permanence (dhrauvya) of yellowness etc. exist in gold, the substance (dravaya). Gold, the substance (dravya),  is the doer (kartā), the bestower (sādhana) and the substratum (ādhāra) of all three: origination (utpāda) of the bracelet, destruction (vyaya) of the earring and permanence (dhrauvya) of yellowness etc. 

There is no existence of origination (utpāda), destruction (vyaya) and permanence (dhrauvya) without the existence of the substance (dravya). As a corollary, without the existence of origination (utpāda), destruction (vyaya) and permanence (dhrauvya), there is no existence of the substance (dravya). To summarize, the substance (dravya), the qualities (guõa) and the modes (paryāya) have the same existence; all three comprise the nature of the substance (dravya). Each substance (dravya) has its own qualities (guna) and own modes (paryāya); it never mingles with other substances. This explains the meaning of ‘existence in own nature’ – svarūpāstitva – of the substance (dravya).
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#3

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -3.4

जनि नाश स्थिति युक्त अनन्यभावसे जो संबद्ध रहे ।।
द्रव्य वही गुण और पर्यायोंसे परिपूर्ण विचार सहे ॥

अपने नाना गुण पर्यायोंमें होकर जो नियत रहे ।

समुत्पत्ति हानि स्थितिसे यह वस्तुका सदा स्वभाव है ॥ २ ॥



सारांश: – पहिचानने के उपायका नाम लक्षण है। इसके द्वारा पहिचानने योग्यका नाम लक्ष्य है। यहाँ द्रव्य तो लक्ष्य है और उत्पाद, व्यय, धौव्य या गुण पर्याय उसका लक्षण है। द्रव्यका अर्थ द्रवित होने वाला, अपने आपके रूपमें बहता रहनेवाला होता है। यह होना अथवा रहना भी दो तरहसे होता है। एक तो अपनेपनको लिये हुए रहना है जिसे स्वरूपास्तित्व कहते हैं। दूसरा, औरोंका भी साथी कहलाना, इसे सामान्यास्तित्व कहते हैं।



सामान्यास्तित्वको दृष्टिमें रखकर द्रव्यका लक्षण उत्पाद व्यय धौव्ययुक्तता कहा जाता है और स्वरूपास्तित्वकी अपेक्षा गुणपर्ययवत्ता द्रव्यका लक्षण कहा जाता है। प्रत्येक द्रव्यके गुण और पर्यायें उसो द्रव्यमें रहते हैं और उत्पाद व्यय तथा धौव्य हर द्रव्यमें पाये जाते हैं। नवीनता आजानेका नाम उत्पाद है और प्राचीनता न रहनेका नाम व्यय है किन्तु ऐसा होते हुए भी तत्पन बने रहनेका नाम धौव्य है। जैसे एक वस्त्र मलिन था, उसे साबुन से धोया। गया जिससे वह स्वच्छ होगया फिर भी वस्त्र वही है।

द्रव्यमें सदा बनी रहने वाली शक्तिको गुण कहते हैं। उसके परिवर्तनको (यथासंभव बदलनेको) पर्याय कहते हैं। गुण दो प्रकार के होते हैं, १. सामान्य गुण २. विशेष गुण सामान्य गुण उन्हें कहते हैं जो सब ही द्रव्योंमें समानरूपमें पाये जावें, जैसे अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व और प्रदेशत्व। विशेष गुण उन्हें कहते हैं जो दूसरे द्रव्योंमें न पाये जायें जैसे खेलना गुण जीवमें ही पाया जाता है, पुद्गल आदिमें नहीं अतः यह जीवद्रव्यका विशेष गुण है, मूर्तिमत्त्व पुद्गलमें ही पाया जाता है औरोंमें नहीं, अतः यह पुद्गल का ही विशेष गुण हैं, इत्यादि ।



पर्याय भी दो तरह की होती है। एक व्यंजन पर्याय और दूसरी अर्थ पर्याय । प्रधानतया प्रदेशत्वगुणके परिणमनका नाम व्यंजन पर्याय है और अन्य सब गुणोंके परिणमनका नाम अर्थपर्याय है। ऐसा जैन सिद्धान्त प्रवेशिकामें लिखा है। गुणकी प्रधानतासे वस्तु का ध्रुवत्व माना गया है। पर्यायकी प्रधानतासे उत्पाद और व्यय माने गये हैं। द्रव्यका यह लक्षण आचार्य महाराजने आत्मभूत कहा है। दण्डीके लक्षण दण्ड की तरह भिन्न न होकर अग्निके लक्षण उष्णपनेकी तरह द्रव्यसे अभिन्न है।


द्रव्य स्वयं ही अपने पूर्वपर्यायके रूपमें नष्ट और तदुत्तर पर्यायके रूपमें उत्पन्न होता हुआ अपने गुणोंमें रूपमें ध्रुव रहता है। ये तीनों बातें द्रव्यमें सदा एक साथ होती हैं, अतः ये स्वभाव और द्रव्य इनके द्वारा स्वभाववान है। अपने अपने गुण पर्यायों के द्वारा प्रत्येक द्रव्य भिन्न होकर भी सत्ता सामान्य द्वारा सब आपसमें एकता रखते हैं
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