मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचन
गाथा - 11
अन्वयार्थ- (दव्वस्स) द्रव्य का (अण्णो पज्जा ओ) अन्य पर्याय तो (पाडुब्भ वदि ) उत्प न्न होता है (य) और (अण्णो पज्जा ओ) कोई अन्य पर्याय (वयदि ) नष्ट होता है; (तं पि ) फिर भी (दव्वं ) द्रव्य (पणट्ठं ट्ठं णेव) न तो नष्ट होता है, (उप्पण्णं ण) और न उत्प न्न होता है।
प्रत्येक द्रव्य का स्वभाव है- वह पर्या यों को उत्प न्न और पर्या यों को ही नष्ट कर रहा है
इस गाथा में द्रव्य गुण और पर्यायो की जो चर्चा चल रही है, उसी में यह शंका उठाते हुए कि जिसका उत्पाद हो रहा है, उसी का विनाश हो रहा है और फिर भी वह ध्रौव्य बना रहता है। इस शंका का निराकरण करने के लिए इस गाथा का अवतरण हुआ है। कहते हैं ‘पाडुब्भ वदि ’ यानि उत्प न्न होता है। ‘अण्णो पज्जाओ’ अन्य जो पर्याय है, वह उत्पन्न होती है। ‘पज्जओ अण्णोवयदि ’ और अन्य पर्याय ही व्यय को प्राप्त होती है अर्थात् नाश को प्राप्त होती है। कि सकी? ‘दव्वस्य’ द्रव्य की ‘तं पि दव्वं णेव पणट्ठं ट्ठं ण उप्पण्णं ’ और वह द्रव्य जो है, न तो उत्पन्न होता है और न ही नष्ट होता है। यह द्रव्य, गुण और पर्यायो का जो स्व भाव नि रन्तर यहा ँ बताया जा रहा है, यह वस्तु तः अगर हमारे दिमाग में धारणा का विषय बन जाता है, बुद्धि में अवगाहित हो जाता है, तो हमें हमेशा कि सी भी संसार की पर्याय को देख कर जो मोह उत्प न्न होता है, राग-द्वेष उत्प न्न होता है, उस पर हम निय ंत्र ण पा सकते हैं। क्योंकि प्रत्ये क द्रव्य का यह स्व भाव है कि वह पर्याय ों को उत्प न्न कर रहा है और पर्याय ों को ही नष्ट कर रहा है। हम जब भी कि सी चीज को देखते हैं तो वह हमें पर्याय रूप में ही दिखाई देती है। उस पर्याय को यदि हम द्रव्य के साथ जोड़ देते हैं कि यह द्रव्य की पर्याय है, तो हमारे अन्दर उस पर्याय के प्रति जो मोह उत्प न्न होता है, वह मोह उत्प न्न नहीं हो पाता। क्योंकि जब भी कभी हम पर्याय को केवल पर्याय के रूप में देखते हैं तो उस पर्याय का भाव ही हमारे दिमाग में रहता है।
पर्याय सर्व स्व नहीं होती, द्रव्य सर्व स्व होता है
इसलिए हम उस पर्याय को ही अपना सर्वस्व समझ लेते हैं। जबकि सर्वस्व क्या होता है? उसका जो द्रव्य, जिसके कारण से पर्याय निकल रही है। सर्वस्व तो वही कहलाएगा, जो चीज के आधार से अन्य चीजें उत्पन्न हो रही है। जिसका आधार द्रव्य है, तो द्रव्य ही उसका सर्वस्व हुआ। पर्याय उसकी सर्वस्व नहीं हुई। सर्वस्व वही चीज होती है, जो सबके लिए देने वाली हो। जैसे- वृक्ष है, वृक्ष का जो वृक्ष पना है, वह सर्वस्व है उसका क्योंकि वृक्ष जब तक रहेगा, हमें फल मिलते रहेंगे, छाया मिलती रहेगी, उससे अनेक बीज मिलते रहेंगे। जो उसका वृक्ष पना है, यह ी उसका सर्वस्व है। अब उसमें से जो हमने फल प्राप्त किया , वह फल तो उसका सर्वस्व नहीं है। फल तो कुछ समय के लिए प्राप्त किया और वह फल वहाँ से उत्पन्न होकर नष्ट भी हो गया और हम देखते हैं कि उसी स्थान पर पुनः फिर से फल की प्राप्ति हो जाती है। अतः द्रव्य के अन्दर से जो पर्याय उत्प न्न होकर नष्ट हो जाती है, वह उस फल की तरह उत्प न्न भी होती रहती है और नष्ट भी होती रहती है। यदि उसका द्रव्य काय म रहेगा तो वह पर्याय को जन्म देता रहेगा। वृक्ष पना उसका काय म रहेगा तो उसमें फल की उत्पत्ति होती रहेगी। कुछ न कुछ उसकी पर्याय नि कलती ही रहेगी। अतः पर्याय सर्वस्व नहीं होती है, द्रव्य सर्वस्व होता है। सर्वस्व मतलब सब कुछ। सब धन के रूप में, सम्पति के रूप में जिसको हम समझें, वह क्या है? पर्याय या द्रव्य? द्रव्य होता है लेकि न हम हमेशा पर्याय को ही सर्वस्व समझते हैं। अपनी बुद्धि में सब कुछ पर्याय ही होती है और उस पर्याय के कारण से ही हम अपना आकलन करते हैं कि हम क्या हैं? द्रव्य से हम अपना कभी आकलन नहीं करते कि हम क्या हैं? वह ी चीज यहा ँ समझाने के लि ए है कि देखो पर्याय का तो उत्पा द हो रहा है, पर्याय का विनाश हो रहा है। आप द्रव्य को देखें तो द्रव्य का सर्वस्व पना कभी भी नष्ट नहीं होता और वह पर्याय अगर उत्प न्न हो कर नष्ट हुई है, तो यह भी उसका स्व भाव है। ये उसका धर्म ही है, उसका nature ही है कि उत्प न्न हो कर नष्ट होना। क्या समझ आ रहा है? कई बार आपको लगने लगे जाता होगा, महा राज! द्रव्य, पर्याय , द्रव्य, पर्याय कि तने दिनों से चल रहा है। हमें तो ऐसा लग रहा है कि कुछ भी नहीं चल रहा है। जब तक वह चीज धारणा में न बस जाए, जब तक हमें ऐसा न लगने लगे एक दूसरे को देख कर कि ये उसकी पर्याय है।
हमारी धारणा? हमें जो कुछ भी दिखाई दे रहा है, वह एक पर्याय है
हमारी धारणा में क्या आना चाहिए? इस प्रकरण को हमको इतना पढना, इतना सुनना चाहिए, इस प्रकरण को कि हमारी धारणा में यह आ जाए कि ये उसकी पर्याय है। उसकी माने कि सी की भी हो लेकिन हमें कोई भी चीज दिखाई दे तो पहले यह समझ में आ जाए कि यह उसकी पर्याय हैं। यह बात बाद की है कि वह आत्म द्रव्य की पर्याय है या अचेतन द्रव्य की पर्याय है, जड़ की है, चेतन की है। पहले तो यह समझ में आया कि हमें जो कुछ भी दिखाई दे रहा है, वह एक पर्याय है। जब आपके दिमाग में यह पर्याय के रूप में आने लगेगा तो आपको उसके पीछे जो द्रव्य छिपा हुआ है, वह आपके ध्यान में आने लगेगा कि ये द्रव्य का परिणमन है, द्रव्य ही उसका सर्वस्व है। हम द्रव्य को कभी सर्वस्व नहीं मानते, हम हमेशा पर्याय को ही सर्वस्व मानते हैं। इस प्रकरण को पढ़ ते रहने से, निरन्तर सुनते रहने से, इससे यह फलित होता है कि हमें दुनिया में जो कुछ भी दिखाई देगा, वह पर्याय का ही नाश है और पर्याय का ही उत्पाद है। ‘दव्वं णेव पणट्ठं ट्ठं ण उप्पण्णं दव्वं ’ द्रव्य न तो ‘पणट्ठं ट्ठं’ होता है माने नष्ट नहीं होता और न ही द्रव्य उत्पन्न होता है। जब हमें हर चीज द्रव्य की दृष्टि से शास्वत दिखने लगेंगी, हमारी धारणा में द्रव्य कभी भी नष्ट होने के भाव में नहीं रहेगा और पर्याय ही नष्ट होने के भाव में रहेगी तो हमारी जो कर्ता बुद्धि भीतर बैठी है, वह कर्ता बुद्धि भी विराम लेने लग जाती है। समझ आ रहा है? हर चीज एक दूसरे से connected है।
स्वामित्व का भाव आना-->कर्ता पन का भाव आना-->भोक्ता पन का भाव आना
स्वामित्व अगर हमने पर्याय को माना तो हम पर्याय के ही कर्ता बनते हैं और पर्याय के ही भोक्ता बनते हैं। क्योंकि जिससे हमारा स्वामित्व जुड़ गया , हम उसी के कर्ता हो गए, उसी के भोक्ता हो गये। हमारा जब पर्याय से स्वामि त्व जुड़ा तो हम पर्याय के ही कर्ता हुए। हम क्या कहेंगे? यह बेटा मैंने बनाया है। बनाया है का मतलब ऐसा तो कोई नहीं बोलता लेकि न जैसे ही यह भाव आया कि यह बेटा मेरा है, तो इस बेटे को उत्पन्न करने वाला मैं हूँ। पहले स्वामित्व का भाव आता है। जहाँ स्वामित्व का भाव आया तो वहा ँ पर कर्ता पन का भाव आ जाएगा और जहाँ कर्ता पन का भाव आएगा, वहाँ भोक्ता पन का भाव भी आ जाएगा। स्वामित्व आया , यह मेरा बेटा है। क्यों है मेरा ? क्योंकि मैंने इसकी उत्पत्ति की है, मेरे से उत्प न्न हुआ सबसे है। मैं ही इसको अपने तरीके से इसका पालन करूँ रूँ गा और इसका भोक्ता भी मैं ही हूँ। अब भोक्ता से मतलब? जो कुछ भी उसके साथ होगा, उसका भोक्ता में हूँ। उसको सुख होगा तो मुझे भी सुख होगा। उसको दुःख होगा तो मुझे भी दुःख होगा। उसके सुख-दुःख का भोक्ता भी मैं बन गया । चीज कहाँ से शुरू हुई? स्वामि त्व से शुरू हुई। कर्ता पन पर बढ़ी और भोक्ता पन के साथ भीतर भोगी गई। हर द्रव्य का भोग हमेशा ऐसा नहीं है कि इन्द्रियो से जो भोगा जा रहा है, वही भोग होता है। जो मन का भोग चलता रहता है, वह सबसे बड़ा भोग होता है। इन्द्रियो से तो भोग थोड़े ड़े समय के लि ए होता है। पाँच इन्द्रियो का भोग, स्पर्श न इन्द्रिय , रसना इन्द्रिय आदि। थोड़े ड़े-थोड़े ड़े समय के लि ए आप कोई चीजें खाएँगे, स्पर्श करेंगे, सूंघेंगे, देखेंगे लेकि न मन के अन्दर जो भोक्तृ क्तृ त्व भाव जो हर द्रव्य के प्रति बना रहता है, वह मन का भोग हमेशा चलता रहता है। वह मन का भोग कि सके साथ है? जो उसको स्वा मी के रूप में, जिस वस्तु को मान लेता है, उसी के लि ए वह वस्तु उसके लि ए कर्ता बन जाती है और वह ी उसका वह भोक्ता बन जाता है। अनादिकाल से हर जीव हमेशा पर्याय को ही भोगता है। पर्याय को ही अपने स्वामि त्व में रखता है और पर्याय का ही कर्ता है। हमसे भी अगर कोई कहेगा कि आपका शरीर कि सने बनाया ? तो हो सकता है कि आप कि सी दूसरे का नाम न ले तो अपना भी नाम तो लेंगे ही। मेरा शरीर, मेरी आत्मा ने खुद बनाया । मेरी आत्मा ने मेरा शरीर बनाया तो मेरी आत्मा का, पहले तो स्वामि त्व आ गया उस शरीर पर। मेरी आत्मा ने अपने ही कर् मों के फल से यह शरीर बनाया । अब दूसरों की बात छोड़ो, अपने पर घटित करो। जब अपने पर भी देखोगे तो भी आपकी अन्तरात्मा यह ी कहेगी कि मेरी आत्मा ने मेरा शरीर बनाया । जब मेरा शरीर है तो मैं इसका कर्ता हूँ। मैं इसका कर्ता हूँ तो इसके सुख-दुःख का भोक्ता भी मैं ही हूँ। समझ आ रहा है? अब देखो! हमने हमेशा सुख-दुःख का भोक्ता बनने के लि ए, दूसरे को हमेशा कर्ता के रूप में स्वी कार किया । दूसरे द्रव्य को दूसरा द्रव्य न कह कर, उसकी पर्याय को मान कर। हम हमेशा पर्याय को ही स्वामि त्व के रूप में स्वी कार करते हैं। पर्याय को ही हम भोगते हैं, पर्याय को ही कर्ता मानते हैं। द्रव्य को कभी स्वामि त्व के रूप में नहीं मानते हैं। क्या समझ आ रहा है? कोई भी द्रव्य हमारे लि ए स्वा मी है, तो ऐसा भाव नहीं आएगा। उसकी उस पर्याय में ही हम उसके स्वामी रहेंगे।
मोह भंग करने का तरीका-->पर्याय को छोड़ कर द्रव्य के स्वामित्व को स्वीकार करो
मान लो पिता-पुत्र हैं तो पुत्र का स्वामी पिता हुआ। पिता के अन्दर उसकी यह पर्याय दिखाई देगी कि ये जब तक बेटा है, पुत्र के रूप में है तभी तक हम इसके स्वामी हैं। जब यह बड़ा हो जाएगा फिर हम इसके स्वामी नहीं रह पाएँगे। फिर यह अपनी बात नहीं मानने वाला है। फिर यह अपने लिए भोक्ता नहीं होगा। फिर अपना स्वामी नहीं होगा। पिता को भी यह पता है, जब तक यह बेटा है, छोटा है तभी तक यह अपने स्वामित्व में है, अपने अधि कार में है। जब यह अपने बराबर का हो जाता है, तो फिर इस पर अपना अधि कार नहीं चलाया जाता। फिर कहा जाता है ‘मित्रवत् आचरेत्’। क्या समझ आ रहा है? ऐसा कहा जाता है कि जब तक आपकी चप्पल बेटे के पैर में न आए तभी तक उसको बेटा समझना और जब बराबर का हो जाए या आपकी चप्पल उसके पैर में आने लग जाए तो उसे मित्र समझना। मतलब अधि कार चला गया । यही यहाँ पर बताया जा रहा है कि देखो हम हमेशा अधि कार भी देखते हैं तो उसकी पर्याय को ही बनाए रख कर देखते हैं। द्रव्य के ऊपर अधि कार जमाने की कोशि श करो तो आपका मोह भंग हो जाएगा। समझ आ रहा है? मोह भंग होने का तरीका क्या है? पर्याय की ओर स्वामि त्व छोड़ कर, द्रव्य की और स्वामि त्व बनाओ। यह द्रव्य का मैं भोक्ता बन सकता हूँ क्या ? इस द्रव्य का मैं स्वा मी बन सकता हूँ क्या ? इस द्रव्य का मैं कर्ता बन सकता हूँ क्या ? तो आपका मोह भंग हो जाएगा। जैसे आपका ही बेटा है। अगर आप उसको द्रव्य की दृष्टि से देखोगे मतलब उसके आत्म द्रव्य की ओर दृष्टि ले जा कर देखोगे। क्या मैंने इसकी आत्मा को बनाया ? क्या मैं इसकी आत्मा का स्वा मी हूँ? क्या मैं इसकी आत्मा के गुणों का स्वा मी हूँ? क्या मैं इसकी आत्मा के सुख-दुःख को भोग सकता हूँ? बस मोह भंग हो गया । मोह भंग होगा कि ससे? जब आप उसकी परि णति को देखोगे। उसके बाह री शरीर को देखोगे। मेरा बेटा कि तना मासूम है, कि तना अच्छा है, कि तना सुन्दर है, तो आपको मोह उत्प न्न होगा। कि सको देख करके? पर्याय को देख करके। द्रव्य में क्या सुन्दरता होती है? द्रव्य तो द्रव्य होता है और जैसा द्रव्य अपना है, वैसा ही उसका है, वैसा ही सबका है। आत्म द्रव्य तो सबका एक जैसा है। मोह भंग तभी होता है जब हम उसके स्वा मी को देखें कि इस पर्याय का स्वा मी कौन है? जब यह ज्ञा न हो जाता है कि इस पर्याय का स्वामी आत्मा है और जिसको यह ज्ञा न हो जाता है, वह दूसरे के प्रति अपने अन्दर अपना मोह छोड़ देता है। दूसरे को तो मोह बना रहेगा इसलि ए क्योंकि उसको ज्ञा न नहीं हुआ। लेकि न जिसको ज्ञा न हो जाएगा, वह अपना मोह छोड़ देगा।
आत्म शक्ति को प्रकट करने के लिए अपनी आत्मा के द्रव्यत्व को स्वीकारना होगा
जब कोई दीक्षार्थी दीक्षा लेता है, तो भले ही ऐसा न सोचता हो। यह उसकी अपनी गलती हो सकती है या उसकी भावनाओं की भी कमी हो सकती है। लेकिन आचार्य कहते हैं- जब भी दीक्षा लो तो दीक्षा लेते समय पर यह ी भाव ना करना जो आपको मैं बताने जा रहा हूँ। माँ के सामने जाओ तो क्या कहना है? हे! माँ! तू मुझे न उत्प न्न कर सकती है, न मेरे लि ए पालन कर सकती है, न मेरा कर्ता बन सकती है क्योंकि मेरा आत्मा न कि सी से उत्प न्न होता है, न कभी नष्ट होता है। उसका कोई भी कर्ता हो नहीं सकता। उसके पालन करने के लि ए उसके गुण उसके पास में है, वह उन्हीं से पालि त होता है, उन्हीं से लालि त होता है। ऐसे ही पि ता के सामने जा कर बोलना। क्या बोलना? हे! मेरे शरीर के जनक! तुम मेरी आत्मा को न उत्प न्न कर सकते हो, न तुम उसके स्वा मी बन सकते हो, न तुम उसके कर्ता बन सकते हो। मेरी आत्मा को कोई भी उत्प न्न नहीं कर सकता है, यह मुझे आज ज्ञा न हो गया है। इसलिय े आप मेरी आत्मा के पि ता नहीं हैं। शरीर के हो सकते हैं, आत्मा के पि ता नहीं हैं। दीक्षा लेना हो तो ऐसे ही बोलना पहले घर में जा कर। अपनी पत्नी से जा कर कहना। क्या कहोगे? हे! मेरी प्रा णप्रिय ! प्रा णप्या री! तुम मेरी आत्मा को कभी आनन्द नहीं दे सकती। तुम मेरे शरीर को आनन्द दे सकती हो लेकि न मेरी आत्मा का आनन्द तो मेरी आत्मा में है। उसका उत्पा द उसकी उत्पत्ति तुम्हा रे द्वा रा कभी नहीं हो सकती। इसलि ए मैं आज से यह कहता हूँ कि तुम मेरी आत्मा को आनन्द देने वा ली प्रा णप्या री नहीं हो। समझ आ रहा है? ऐसे ही प्रा णप्रिय कहना, यह कहोगे तब आपके अन्दर यह भाव आएगा कि आपको कुछ ज्ञा न हुआ है। इसलि ए दीक्षा लेने जा रहा हूँ। ऐसे ही नहीं मन हो गया कि दीक्षा ले ली और लेने के बाद यह ज्ञा न तो आ जाए कि चलो ले ली कोई बात नहीं लेकि न लेने के बाद आ जाए। यह भाव आए बि ना, हमारी धारणा में यह आ ही नहीं सकता कि हम अपनी आत्मा के कल्या ण के लि ए दीक्षा लि ए हैं। समझ आ रहा है? फिर बात वह ी हो जाती है। हमने कुछ छोड़ा, कुछ ग्रह ण कर लिया और हमारे अन्दर का जो भाव था , वह कहीं से टूटा, कहीं पर जुड़ गया । राग था , कहीं से टूट गया , कहीं जुड़ गया । द्वेष था कहीं से हटा, कहीं जुड़ गया । लेकि न द्रव्य पर भाव रहेगा, आत्मतत्व का भाव रहेगा तो आपके अन्दर यह ज्ञा न रहेगा कि द्रव्य को कोई भी बनाने वा ला नहीं है। द्रव्य को कोई भी नष्ट करने वा ला नहीं है। इसलि ए वास्तव में इस दुनिया में कोई मेरे आत्म द्रव्य का कर्ता नहीं हो सकता है। यह बात आपके अन्दर जब आयेगी तो हि म्मत अपने आप आ जाएगी। अभी ऐसा कहने की हि म्मत नहीं है। दूसरों से ही नहीं, अभी तो अपने मन से भी कहने की हि म्मत नहीं है। तुम देख लो, अपने मन से पूछ कर और जब यह कहोगे तब आपके अन्दर हि म्मत आएगी। इसको बोलते हैं- आत्म शक्ति । आत्मा की ओर ध्या न ही नहीं है, तो आत्मा में शक्ति प्रकट कहा ँ से होगी? आत्मशक्ति को प्रकट करने के लि ए अपनी आत्मा के द्रव्यत्व को स्वी कार तो करो पहले कि मेरे आत्म द्रव्य का कोई कर्ता नहीं हैं। मेरे आत्म द्रव्य का कोई भोक्ता नहीं हैं। मेरे आत्म द्रव्य का इस विश्व में कोई स्वा मी नहीं है। यहा ँ तक कि तीर्थं कर भी हैं तो वह भी हमारे आत्मा के स्वा मी नहीं हैं। क्या समझ आ रहा है? जब तीर्थं कर भी हमारी आत्म द्रव्य के स्वा मी नहीं हैं तो अन्य सामान्य कोई मेरा स्वा मी कैसे हो सकता है? तब आपके अन्दर अपनी प्रभुता प्रकट होगी। तब आप अपने आपको प्रभु के रूप में देखोगे कि मेरी आत्मा ही प्रभु है। मेरी आत्मा ही भगवा न आत्मा है। तब आपको महसूस होगा क्योंकि यह द्रव्य-गुण-पर्याय का वर्ण न केवल पढ़ ने के लि ए नहीं है। यह जो द्रव्य-गुण-पर्याय हमें दिखाई दे रही हैं, इस पर हमेशा practical करने के लि ए हैं। इसको तब तक देखो, तब तक practical करो, हर चीज को देख कर कि हमें द्रव्य दिखाई नहीं देता। लेकि न जो भी दिखाई दे रहा है, वो उसकी पर्याय है, कि सी द्रव्य की पर्याय है।
जगत के जीव असन्तुष्ट क्यों हैं?
पर्याय से ही हमको राग होता है। द्रव्य से कभी राग होता ही नहीं क्योंकि द्रव्य राग करने की चीज ही नहीं है। जहा ँ समानता आ गई, वहा ँ राग कैसे होगा? राग तो वहा ँ होता है, जहा ँ हमारे अन्दर कुछ कमी हो और आप में कुछ ज्यादा हो। हमारे पास कुछ नहीं हो, आपके पास कुछ हो। हम आपसे कुछ लेना चाह े या हम आपको कुछ देना चाह े तो ये राग-मोह उत्प न्न होगा। जहा ँ सब बराबर है, अपने आप में सन्तुष्टि है कि जैसा मैं आत्मा , वैसा सब आत्मा । कोई भी आत्मा दूसरी आत्मा को क्या दे सकता है। उसके अन्दर कभी न राग उत्प न्न होगा, न मोह उत्प न्न होगा। मोह और राग, ये सब क्यों उत्प न्न होते हैं? जब हम भीतर से अपने आपको अधूरा, अपूर्ण , असन्तु ष्ट महसूस करते हैं। अधूरा, अपूर्ण और असन्तुष्टि तभी महसूस होती है, जब हमारी दृष्टि पर्याय पर रहती है। आत्म तत्त्व की ओर दृष्टि रखोगे तो आपको पूर्ण ता दिखेगी क्योंकि आत्मा में ही पूर्ण ता है और कि सी चीज में पूर्ण ता नहीं है। आप में अधूरापन दिखाई दे रहा है, कि सी को देखकर आपको मोह उत्पन्न हो गया । क्यों हो गया ? क्योंकि आपकी आत्म दृष्टि नहीं थी। आपके अन्दर अपनी पर्याय को ले कर एक अधूरापन चल रहा था । आपने जब कि सी दूसरे की पर्याय देखी तो आपको लगा कि यह हमारे लिए बड़ा अच्छा है। यह क्या हो गया ? यह हमारी उस पर्याय की दृष्टि के कारण से हमारे अन्दर एक अपूर्ण ता का भाव पड़ा था , उसको हमने ग्रह ण करने के लिए सोच लिया । क्यों सोच लिया ? क्योंकि हमें दिख रहा है, पर्याय के रूप में जो सामने आ रहा है, वह कभी पूर्ण होता ही नहीं है। हमारी अपूर्ण ता का भाव सामने की अपूर्णता को ही पकड़ता है। क्योंकि वह सामने वा ला भी पूर्ण नहीं है। उसकी भी हम पर्याय पकड़ रहे हैं। वह भी अपूर्ण है और हम भी अपनी पर्याय में उसके प्रति भाव ला रहे हैं, वह भी अपूर्ण है। हम हमेशा जब भीतर से अपूर्ण होकर बाह र देखते हैं तो हम भी अपूर्ण को ही ग्रह ण करते हैं। पूर्ण ता को ग्रह ण नहीं करते हैं। जहा ँ हमारे अन्दर पूर्ण ता को ग्रह ण करने का भाव आएगा, वहाँ हम भीतर से सन्तु ष्ट होंगे। आप जब तक अपूर्ण ता को पकड़ ते रहेंगे तब तक आप असन्तु ष्ट रहेंगे। जगत के जीव असन्तु ष्ट क्यों हैं? सिर्फ सिर्फ इसी कारण से कि वह केवल पर्याय को ही पूर्ण समझ रहे हैं और पर्याय को ही पूर्ण समझ कर ग्रह ण करते हैं। जो भी परि णति दिख रही है, बस ये पूर्ण है और उसको वह पूर्ण समझ कर ग्रह ण कर लेते हैं। जबकि वो परि णति पूर्ण नहीं है। अभी उसमें और परिवर्त न होंगे। जिस चीज में परिवर्त न हो रहा है, वह पूर्ण कैसे हो सकती है? पूर्ण चीज में कभी परिवर्त न नहीं होता है। आप कोई पि क्चर बना रहे हो, diagram बना रहे हो आप उसको तब तक मि टाओगे, lining करोगे, हटाओगे, फिर बनाओगे, कब तक? जब तक कि वह आपकी दृष्टि में complete न हो जाए तब तक। जब तक अपूर्ण ता रहेगी तब तक वो change होता रहेगा और जब पूर्ण ता आ गई, अब इसमें कुछ भी करने लाय क नहीं है, वह पूर्ण हो गया तो सन्तुष्टि हो गई। फिर हमने कि सी के चित्र को देखा, उसको देख कर हमें लगा अरे! हमारे बनाए हुए चित्र में यह कमी रह गई। उसमें तो और अच्छे रंग उभर रहे थे। उसमें तो और अच्छा face दिखाई दे रहा था और अच्छी उसमें light थी। जैसे ही आपको यह दिखाई दिया तो फिर आपके अन्दर अपूर्ण ता आ गई। समझ आ रहा है? तो अपूर्ण ता तब तक आती रहेगी जब तक कि आप अपने आप में पूर्ण दृष्टि नहीं रखोगे। पूर्ण दृष्टि तब तक नहीं हो सकती जब तक कि आप यह न सोच लो कि हमें कोई ऐसी चीज मि ल गई जिसमें अब कोई change नहीं हो सकता।
जितनी भी change वाली चीजें हैं, उन्हीं को हम पकड़ते हैं
मतलब जितनी भी change वाली चीजें हैं, उन्हीं को हम पकड़ते हैं। वे सब चीजें अपने आप में incomplete रहती हैं इसलि ए हमें उससे कभी satisfaction हो नहीं पाता है। आप कुछ भी चीज ले लो, कहीं भी दुकान पर चढ़ जाओ। आपके लिए जब वह चीज में राग-मोह उत्प न्न कर रही है, आपके लि ए तब तक कर रही है जब तक आपको उसका पूर्ण ज्ञा न नहीं है। उसकी हकीकत का ज्ञान नहीं है। भले ही वह वस्तु अच्छी लग गई, आपने ग्रह ण करने का भाव कर लिया । चाहे वह कोई भी साड़ी हो, चाहे फर्नीचर हो और चाह े कुछ भी हो। अगर कि सी ने आपको उसकी हकीकत बता दी, कह दिया , देखो! आपको दिख नहीं रहा है। इसके अन्दर crack है। ऊपर से सब denting-painting है। अन्दर से यह break है, crack है। आपका मोह एकदम से भंग हो जाएगा। कोई भी चीज तब तक आपको सन्तुष्टि नहीं दे सकती जब तक कि आप उसको पूर्ण ता की दृष्टि से न देखें और पूर्ण ता की दृष्टि तभी आती है जब हमारी दृष्टि पूर्ण ता की ओर हो। पूर्ण ता कभी पर्याय में होती ही नहीं है। पर्याय का स्व भाव ही है ‘पज्जओ भवदि वयदि ’ उत्प न्न होती है, व्यय हो जाती है, नष्ट हो जाती है। जो द्रव्य है, वह न उत्प न्न होता है, न नष्ट होता है। जब आप द्रव्य को देखोगे तो आपके लि ए वह जो राग भी हो रहा होगा तो हो नहीं सकता क्योंकि द्रव्य एक समान मि लेगा। पर्याय ों में ही अन्तर दिखाई देगा। जब एक समानता है, तो फिर कौन कि स को पकड़े ड़ेगा? कौन कि सके लि ए प्रया स करेगा? जहा ँ हमें incomplete दशाएँ दिखती हैं, वह ीं पर हम एक-दूसरे के माध्य म से कुछ न कुछ ग्रह ण करने की चेष्टा करते हैं और ये पर्यायों में ही होता है, इसलिए पर्याय हमेशा incomplete रहती हैं। Modes are always incomplete. We never gets satisfaction by them कभी भी हमारे अन्दर उनके द्वा रा कभी satisfaction हो नहीं सकता है। इसीलि ए सारा जगत आज देखोगे unsatisfied है। all world are unsatisfied, every person is unsatisfied. क्यों हैं? इसी द्रव्य, गुण, पर्याय को नहीं जानने के कारण से है। वस्तु व्यवस्था समझोगे तो satisfaction आएगा। जब आपको यह पता है कि जो चीज हमारे लिए मोह या राग उत्पन्न कर रही है, यह भी शाश्वत नहीं, स्थि र नही, changeable है, तो आपके लि ए उससे मोह नहीं होगा। यह सिद्धान्त है। इसलिए जगत की हर पर्याय को देख कर उसकी द्रव्य की ओर दृष्टि ले जाओ कि यह पर्याय है कि सकी? द्रव्य की है। अपने पुत्र को भी देख कर अगर आपके अन्दर ही दृष्टि आ जाएगी कि यह पुत्र रूप जो पर्याय है, यह वस्तु तः है कि सकी? मान तो हमने रखी हैं कि यह मेरी है। लेकि न यह है उसी की, अपनी आत्मा की तो आपका मोह थोड़ा सा भंग हो जाएगा, कम हो जाएगा।
एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ नहीं कर सकता
जब वो अपनी आत्म द्रव्य की पर्याय को लिए हुए है, तो हम उसकी पर्याय पर अपना अधि कार कैसे जमा सकते है? अपने आप सब चीजें आपको अलग-अलग दिखाई देने लगेंगी। नहीं दिखाई देगा तो मोह आपके ऊपर फिर चढ़ जाएगा। फिर आपको नहीं देखने देगा, फिर उस मोह को हटाना, फिर देखने की कोशि श करना। जब आप मोह रहि त हो कर देखोगे तो आपको हर पुत्र में अपना पुत्र नजर आएगा। हर माँ में अपनी माँ नजर आएगी। आपके लि ए कहीं पर भी कोई भी ऐसा भाव नहीं आएगा कि यह केवल मेरे लि ए हैं। सब कुछ सबके लिए हैं। जहाँ पर यह होगा, वही पर आपके अन्दर, यह द्रव्य का भाव आया , पूर्ण ता का भाव आया , सन्तुष्टि का भाव आया । फिर वहाँ ँ आप मोह नहीं करेंगे कि यह केवल मेरा ही पुत्र है, यह मेरे ही पिता हैं, यह मेरी ही माँ हैं। बस फिर आप शान्ति से देखोगे। क्या देखोगे? बस देखोगे आप कि यह उस द्रव्य की अपनी पर्याय है। मैं केवल देख रहा हूँ, जान रहा हूँ। मेरे द्वा रा कुछ हुआ नहीं, मैं इसका कुछ कर सकता नहीं। जब आपके अन्दर इतना एक भेद ज्ञान उत्प न्न होने लगेगा, मोह से हट कर तो फिर कोई भी चीज आपको दुनिया में दुःख देने वा ली हो ही नहीं सकती है। दुनिया में दुःख सिर्फ सिर्फ इसी मोह के कारण से मिलता है और कुछ नहीं है दुनिया में। मोह है, तो दुनिया है। मोह नही है, तो काह े की दुनिया ।
क्या लेना देना कि सी से? जब हमें सब दिख ही रहा है कि हर द्रव्य अपनी-अपनी पर्यायों में मगन है और अपनी ही पर्यायों को उत्प न्न करके उन्हीं से मोहि त हो रहा है। उस द्रव्य को भी जब यह पता नहीं है कि वह क्या कर रहा है? तो हम उसके लि ए क्या कर सकते हैं? इसलि ए कहा जाता है, एक द्रव्य कभी दूसरे द्रव्य का कुछ कर नहीं सकता। इसका मतलब यह है कि हम कि सी की आत्मा को बना नहीं सकते। जो आत्मा है, वो आत्मा ही रहेगी। वह आत्म द्रव्य को न हमने उत्प न्न किया , न हम नष्ट कर सकते हैं। इसलि ए हम क्या हो जाएँगे? उस समय पर मध्य स्थ हो जाएँगे। जब एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ नहीं कर सकता। क्या कर सकता है? उसकी अपनी पर्याय चल रही हैं। अपनी पर्याय उसकी, अपनी द्रव्य की गुणवत्ता से नि कल रही है। हम उसकी पर्याय ों को भी नहीं नि काल सकते हैं। हम उसकी पर्याय ों को बदल भी नहीं सकते हैं। इसका भाव यह है। जब हमारे अन्दर यह भाव आ जाएगा फिर क्या होगा? हमारे परि णाम अपने आप शान्त होंगे। कर्ता बुद्धि बिल्कु बिल्कु ल मन्द हो जाय ेगी। समझ आ रहा है? जब हम ऐसा परि णाम लाएँगे तो अपने अन्दर की जो उछल-कूद है, ये करना, अभी ये और करना है, ये और कर लूँ, फिर ये हो जाएगा, फिर ये और कर लूँ, फिर ये और हो जाएगा। यह उधेड़बुन चलती ही रहती है। इसी के कारण से उसका कभी भी अपनी आत्मा में मन नहीं लगता है। यह उधेड़बुन कब कम होती है? जब हम हर चीज को देखे कि आखि र हम करेंगे क्या ? बनाएँगे तो हम पर्याय ही। पर्यायों में ही हेर-फेर करेंगे। द्रव्य तो कभी बनने वाला है नहीं। द्रव्य को हम जब बना नहीं सकते हैं तो हमारे अन्दर का कर्ता भाव अपने आप शान्त हो जाता है। हमें कुछ करने की जरूरत नहीं है। मध्यस्थ हो जाने की जरूरत है। शान्त हो जाने की जरूरत है। हम कि सी के लि ए कुछ भी करेंगे तो वह केवल पर्याय ों तक ही सीमि त रहेगा। द्रव्य में कुछ भी नहीं किया जा सकता। सिर्फ सिर्फ पर्यायो में ही होता है, द्रव्य में कुछ भी नहीं होता है।
द्रव्य-गुण-पर्या यों के ज्ञान का फल- तत्त्वज्ञान उत्पन्न होना
ऐसे द्रव्य को जान कर, पर्यायो को जान कर, जो व्यक्ति अपने मोह पर इस तरीके से control कर लेता है, उसी को इस ज्ञान का फल मि लता है। ज्ञा न का कुछ फल होता है कि नहीं होता है? कि द्रव्य, गुण, पर्याय पढ़ाये जा रहे हो महा राज कुछ इसका फल क्या है? यह तो बताओ? अतः द्रव्य-गुण और पर्याय ों के ज्ञा न का फल यह है कि इसी से हमारे अन्दर तत्त्व ज्ञा न उत्प न्न होता है। इसी से हमारा मोह कम होता है। इसी से हमें वस्तु व्यवस्था समझ में आती है। reality क्या है? यह द्रव्य, गुण और पर्याय ों से ही ज्ञा न में आता है। कि सी को देख कर आपको दया भी आ रही है, तो उसकी पर्याय को ही देख कर दया आती है, देख लो आप। समझ आता है? रो रहा है, सि सक रहा है, तड़फ रहा है। कौन? अब मान लो, हमें उसके दुःख से अपने आप को बचाना है। हमें उसके दुःख में दुःखी नहीं होना है। फिर भी हमें क्या आलम्बन लेना पड़े ड़ेगा? बस हमें द्रव्य की ओर ही देखना पड़े ड़ेगा कि देखो यह तड़प रहा है, फिर भी हम इसके लिए कि तना क्या कर सकते हैं? अब जैसे मान लो कोई बिल्कु बिल्कुल ही तड़प रहा हो। आगे के दो मि नट में जिसका मरण होने वाला हो। पाँच मिनट में मरण होने वाला हो। कि सी का बिल्कु बिल्कु ल सि र-धड़ अलग हो गया हो, थोड़ा सा जुड़ा हो, कट रहा हो और वो बिल्कु बिल्कु ल तड़ प रहा हो। अब आप उसके लिए क्या कर सकेंगे? आपकी दया भी कि तना काम करेगी? क्या करेगी? जो मरने ही वा ला है, उसकी तड़फन देख कर आपके अन्दर दया परि णाम आएगा तो भी आप कुछ नहीं कर पाओगे। फिर आपके अन्दर दुःख पैदा हो जाएगा कि देखो हम इसके लि ए कुछ भी कर नहीं पाए। उस दुःख को भी कैसे दूर करोगे? मान लो आपको बहुत दिनों तक उसी बात का दुःख बना रहा कि वो मेरे सामने तड़ प-तड़ प कर मर गया । मैं उसके लि ए कुछ भी कर नहीं पाया । उस दुःख को भी दूर करने का अगर कोई तरीका होगा तो वह यह ी होगा। आप यह समझें, यह जो हमारे अन्दर दया का भी परि णाम आता है, तो वह भी उसकी पर्याय को देख कर ही आता है। द्रव्य ने जैसे ही पर्याय छोड़ी , उसका दुःख तो उसी समय पर छूट गया । लेकि न जिसने देखा, उसके अन्दर कि तने समय तक वह दुःख बना रहता है ? आप कहीं कोई भयंकर accident देख ले तो आपके दिमाग में कई दिनों तक छाया रहता है और जिसके साथ हुआ, suddenly वह तो उसी समय पर उस पर्याय को छोड़ गया । उस आत्मा को तो नया शरीर मि ल गया । उसको कोई दुःख नहीं। लेकि न हमारे लि ए कि तनी देर तक ध्या न रहता है। जब उसका accident हुआ होगा, उसके कैसे परि णाम होंगे? कैसे वह तड़ पा होगा? कैसे वह मरा होगा? और मरने वा ला क्ष ण भर में मर जाता है, चला जाता है। आपके भी परि णाम उससे हटेंगे तो कैसे हटेंगे? द्रव्य की ओर देखने से ही हटेंगे। हर प्रकार की सन्तुष्टि हमें द्रव्य की ओर दृष्टि पात करने से ही मि लती है क्योंकि हम जब कि सी भी वस्तु के मूल स्व भाव को पकड़ लेते हैं तो उस मूल स्व भाव को पकड़ ने के बाद में फिर हमारे लि ए कहीं पर भी विचलन नहीं होता है। जो मन में कि सी भी तरह का विचलन होगा, वह तभी होगा जब हम उसके मूल स्व भाव को न पकड़ कर उसकी शाखा की ओर देखेंगे। फल था , टूट गया , नष्ट हो गया , गि र पड़ा उसमें भी दुःख हो गया । फिर आ गया फल उसी पर, फिर अच्छा लग गया , फिर तोड़ लिया , फिर खा लिया फिर नहीं दिखा तो दुःख हो गया । फिर आ गया फिर हँस गया , फिर ले लिया । कब तक चलता रहेगा? यह चलता ही रहेगा। फल तो नहीं कहेगा कि मेरे से दृष्टि हटाओ। अगर आप उस वृक्ष की ओर देखेंगे तो फलों के गि र जाने से, फलों के आ जाने से, आपके अन्दर कुछ भी नहीं होगा। न राग, न मोह, न कि सी भी प्रकार की खेद-खि न्नता। कुछ भी नहीं होगा लेकि न जब आप केवल फल की ओर देखेंगे तो आपके अन्दर सब कुछ उत्प न्न होगा। यह ी वजह है, आचार्य कहते हैं कि द्रव्य कभी भी नष्ट नहीं होता। वह कभी भी उत्प न्न नहीं होता। द्रव्य के स्व भाव को देखो। द्रव्यत्व गुण की ओर अपनी दृष्टि रखो। पर्याय नष्ट होती हैं, उत्प न्न होती हैं। आप नहीं भी कुछ करेंगे तो भी होंगी। कुछ कर लोगे तो भी होती रहेगी। द्रव्य के ऊपर आपके कर्ता पन का कोई ज्या दा फर्क र्क पड़ ने वा ला नहीं है। ये परि णाम जब हमारे अन्दर आएगा तब हमें द्रव्य, गुण, पर्याय के पढ़ ने का फल मि लने लगेगा। मोह की कमी होना, परि णामों में शान्ति , सन्तुष्टि उत्प न्न होना, ये इस द्रव्य, गुण और पर्याय को जानने का फल होता है।
पर्या य एक उगती दि खती यदा है, तो दूसरी मरण भी करती तदा है।
पै द्रव्य द्रव्य वर को लसता सदा है, उत्प न्न हो न मिटता ध्रुव संपदा है।।
(This post was last modified: 10-28-2022, 11:48 AM by
Manish Jain.)