प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा - 14 जीवकी मनुष्यादि पर्यायो की क्रियाफलरूप
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श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार : ज्ञेयतत्त्वाधिकार

गाथा -14 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -116 (आचार्य प्रभाचंद्र  की टीका अनुसार )


पविभत्तपदेसत्तं पुधत्तमिदि सासणं हि वीरस्स ।
अण्णत्तमतभावो ण तब्भवो होदि कथमेक्को 


सिद्धान्तमें भेद दो प्रकारके हैं, एक पृथक्त्व दूसरा अन्यत्व / आगे इन दोनोंका लक्षण कहते हैं-[हि] निश्चयसे [वीरस्य] महावीर भगवान्का [इति] ऐसा [शासनं] उपदेश है, कि [प्रविभक्तप्रदेशत्वं] जिसमें द्रव्यके प्रदेश अत्यन्त भिन्न हों, वह [पृथक्त्वं] पृथक्त्व नामका भेद है / और [अतद्भावः] प्रदेशभेदके विना संज्ञा, संख्या, लक्षणादिसे जो गुण-गुणी-भेद है, सो [अन्यत्वं] अन्यत्व है। परंतु सत्ता और द्रव्य [तद्भवं] उसी भाव अर्थात् एक ही स्वरूप [न भवति] नहीं है, फिर [कथं एकं] दोनों एक कैसे हो सकते हैं ? नहीं हो सकते / भावार्थजिस प्रकार दंड और दंडीमें प्रदेश-भेद है, उस प्रकारके प्रदेश-भेदको पृथक्त्व कहते हैं। यह 'पृथक्त्व' सत्तामें नहीं हैं, क्योंकि सत्ता और द्रव्यमें प्रदेश-भेद नहीं है / जैसे वस्त्र और उसके शुक्ल गुणमें प्रदेश-भेद नहीं है, अभेद है। उसी प्रकार सत्ता और द्रव्यमें अभेद है, परंतु संज्ञा, संख्या, लक्षणादिके भेदसे जो द्रव्यका स्वरूप है, वह सत्ताका स्वरूप नहीं है, और जो सत्ताका स्वरूप है, वह द्रव्यका स्वरूप नहीं है / इस प्रकारके गुण-गुणी भेदको अन्यत्व कहते हैं। यह अन्यत्व भेद सत्ता और द्रव्यमें रहता है / यहाँ प्रश्न होता है कि, जैसे सत्ता और द्रव्यसे प्रदेश-भेद नहीं है, वैसे ही सत्ता-द्रव्यमें स्वरूप भेद भी नहीं है, फिर अन्यत्व-भेदके कहनेकी क्या आवश्यकता है ? सो इसका समाधान यह है, कि 'सत्ता और द्रव्यमें स्वरूप-भेद नहीं है, एक ही भाव है', ऐसा कहना बन नहीं सकता, क्योंकि सत्ता और द्रव्यमें संज्ञा, संख्या, लक्षणादिसे स्वरूप-भेद अवश्य ही है, फिर दोनों एक कैसे हो सकते हैं ? अन्यत्व-भेद मानना ही पड़ेगा / जैसे वस्त्र और शुक्ल गुणमें अन्यत्व-भेद है, उसी प्रकार सत्ता और द्रव्यमें है, क्योंकि वस्त्रमें जो शुक्ल गुण है, सो एक नेत्र इंद्रियके द्वारा ग्रहण होता है, अन्य नासिकादि इंद्रियोंके द्वारा नहीं होता, इस कारण वह शुक्ल गुण वस्त्र नहीं हैं / और जो वस्त्र है, 'सो नेत्र इंद्रियके सिवाय अन्य नासिकादि इंद्रियोंसे भी जाना जाता है, इस कारण वह वस्त्र शुक्ल गुण नहीं है / शुक्ल गुणको एक नेत्र इंद्रियसे जानते हैं, और वस्त्रको नासिकादि अन्य सब इंद्रियोंसे जानते हैं। इसलिये यह सिद्ध है, कि वस्त्र और शुक्ल गुणमें अन्यत्व अवश्य ही है। जो भेद न होता, तो जैसे नेत्र इंद्रियसे शुक्ल गुणका ज्ञान हुआ था, वैसे ही स्पर्श रस गंधरूप वस्त्रका भी ज्ञान होता, परंतु ऐसा नहीं है / इस कारण इंद्रिय-भेदसे भेद अवश्य ही है / इसी प्रकार सत्ता और द्रव्यमें अन्यत्व-भेद है / सत्ता द्रव्यके आश्रय रहती है, अन्य गुण रहित एक गुणरूप है, और द्रव्यके अनंत विशेषणोंमें एक अपने भेदको दिखाती है, तथा एक पर्यायरूप है, और द्रव्य है, सो किसीके आधार नहीं रहता है, अनंत गुण सहित है, अनेक विशेषणोंसे विशेष्य है, और अनेक पर्यायोंवाला है। इसी कारण सत्ता और द्रव्यमें संज्ञा, संख्या, लक्षणादि भेदसे अवश्य अन्यत्व-भेद है / जो सत्ता का स्वरूप है, वह द्रव्य का नहीं है, और जो द्रव्यका स्वरूप है, वह सत्ताका नहीं है। इस प्रकार गुण-गुणी-भेद है, परंतु प्रदेश-भेद नहीं है |

मुनि श्री प्रणम्य सागर जी  प्रवचनसार

होते प्रदेश अपने - अपने निरे हैं , पै वस्तु में , न बिखरे बिखरे पड़े हैं ।
पर्याय - द्रव्य - गुण लक्षण से निरे हैं , पै वस्तु में , जिन कहे जग से परे हैं ।।

अन्वयार्थ - ( पविभत्तपदेसतं ) भिन्न भिन्न प्रदेशपना ( पुधत्तं ) पृथक्त्व है , ( इदि हि ) ऐसा ही ( वीरस्स सासणं ) वीर का उपदेश है । ( अतब्भावो ) उस रूप न होना ( अण्णत्तं ) अन्यत्व है । ( ण तब्भवो ) जो उस रूप न हो वह ( कधमेक्को होदि ) एक कैसे हो सकता है ?



Manish Jain Luhadia 
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#2

एक स्थान पर होते हुए भी सबके अपने-अपने, भिन्न-भिन्न प्रदेश हैं

आचार्य कुन्द-कुन्द देव के द्वा रा जो हम अभी तक सत्ता , द्रव्य, गुण और उनकी पर्यायों के बारे में पढ़ ते हुए आ रहे हैं उसी में यह बताने का प्रया स किया जा रहा है कि सब द्रव्य अपने आप में भिन्न होते हैं। कि स रूप से भि न्न होते हैं? भि न्नता कई रूपों में बताई जाती है। द्रव्यों की भि न्नता भी होती है और जब एक ही द्रव्य में उनके गुण, उनकी पर्याय ों का वर्ण न करते हैं तो उसमें भी भि न्नता होती है। वह हम कैसे व्याख्यायि त करें कि वह भि न्नता कि स रूप है? यहाँ पर कहते हैं- ‘पवि भत्त पदेसत्तं पुधत्त ’, पुधत्त का मतलब होता है- पृथकत्व। पृथकत्व का मतलब होता है- अलग-अलग होना। वह चीज अलग-अलग कहलाएगी जिसके प्रदेशपना ‘पवि भत्त ’ हो माने अलग-अलग हो। जिसके प्रदेश भि न्न-भि न्न हो, वह चीज, वह द्रव्य ‘पुधत्त ’ यानि पृथकत्व के रूप में कहा जाता है। मतलब संसार में अनेक द्रव्य हैं, कल जैसे चर्चा की थी कि छह द्रव्य हैं और उन छह द्रव्यों में भी अगर एक जीव द्रव्य के बारे में विचार किया जाए तो अनन्त जीव द्रव्य हैं। अनन्त जीव द्रव्य एक समान होते हुए भी अलग-अलग हैं कि एक ही है। अनन्त जीव द्रव्य अलग हैं तो कि स sense में अलग हैं? वह यहा ँ बताया जा रहा है। वह इसलि ए अलग हैं क्योंकि उनके प्रदेश भि न्न-भि न्न हैं। प्रदेश का मतलब वह द्रव्य जो स्था न घेरता है, वह उसका प्रदेश कहलाता है। मतलब जो उसका क्षेत्र है, वह उसका प्रदेश है। उन सबके प्रदेश भि न्न-भि न्न होते हैं। इसलि ए वह द्रव्य भि न्न कहलाएगा जिसके प्रदेश भि न्न-भि न्न हो। जिसका स्था न भि न्न-भि न्न हो उसे तो हम कहेंगे पृथकत्व। जैसे- हम आज तक कहते हैं कि भाई! तुम अलग हो, मैं अलग हूँ, यह अलग है, तुम अलग हो। यह अलग कि स base पर कहा जाता है? आचार्य कहते हैं- जिसके प्रदेश अलग-अलग हैं, वह द्रव्य भि न्न कहलाता है, वह द्रव्य पृथकत्व रूप कहलाता है। मतलब पृथक शब्द का जो हम प्रयोग करेंगे वो उसी द्रव्य में करेंगे जिसके प्रदेश अलग-अलग हो। अब जैसे- एक ही स्था न पर अनेक द्रव्य हैं। एक ही आकाश के प्रदेश पर अनेक द्रव्य रहते हैं। यूँ समझे कि जैसे एक ही सि द्ध भगवा न के स्था न पर अनन्त सि द्ध भगवा न स्थि त हैं और वह ीं पर अनन्त नि गोदिया जीव भी स्थि त हैं। क्या समझ आ रहा है? जहा ँ एक सि द्ध भगवा न सिद्धा लय में विराजमान है वहा ँ अनेक सि द्ध भी विराजमान है उसी स्था न पर और उसी स्था न पर अनेक अनन्त संसारी जीव कहो, नि गोदिया जीव कहो, वह भी हैं। वह एक स्था न पर होते हुए भी उन सबके अपने-अपने जो प्रदेश हैं, वह सब भि न्न-भि न्न हैं। हर आत्मा जो असंख्या त प्रदेश वा ला है, उस असंख्या त प्रदेशी आत्मा का अपना जो स्था न घेरता है, वह ी उसका क्षेत्र हुआ और वह ी उसके प्रदेश हुए। यह प्रदेशों का भि न्नपना ही वस्तु तः हमें बताता है कि सभी द्रव्य भि न्न-भि न्न है। जब तक हम भि न्नता की अपेक्षा, एकता की अपेक्षा को समझ नहीं पाते तो हम एक-दूसरे में चीजों को जोड़ ते रहते हैं। अगर हमने कहा कि यह सब द्रव्य भि न्न-भि न्न हैं तो इसका मतलब है इनके प्रदेश भि न्न हो गए, इनका अपना क्षेत्र भि न्न हो गया । इनका अपना जो स्व भाव है, वह स्व भाव भी एक दूसरे से अलग-अलग हो गया ।

सत् एक होते हुए भी द्रव्य भिन्न-भिन्न हैं

इस भि न्नता को बताने के लि ए गाथा आयी है क्योंकि अभी तक जो चर्चा थी, वह सत् की थी। कि सकी थी? सत् की। सब में सत्प ना है, तो सत् की चर्चा करते-करते हम सब में एकपना देखने लग गए। सभी द्रव्य सत् हैं, सत् हैं, सत् हैं तो हम सब में एकपना देखने लग गए। अब जब एकता देखने में आने लगी तो यह भी बताना पड़े ड़ेगा कि वह एक होते हुए भी यह नहीं समझ लेना कि सब जीव द्रव्य एक ही हैं। सभी जीव द्रव्य भि न्न-भि न्न हैं, अलग-अलग हैं तो वो अलग क्यों हैं? क्योंकि उनका अपना प्रदेश, अपनी सत्ता , उनकी भि न् न है। हर द्रव्य की अपनी सत्ता भी भि न्न है, अपना द्रव्य भि न्न है और उस द्रव्य के जो गुण हैं और उसकी पर्याय है वह उसकी अपनी अलग है। इस बात से ही आपको यह समझ आएगा कि जो लोग यह शंका करते हैं कि सि द्ध भगवा न जहा ँ रहते हैं वहा ँ पर ही अनेक नि गोद जीव रहते हैं तो उन नि गोद जीवों पर सि द्ध भगवा न का प्रभाव पड़ ता है कि नहीं पड़ ता? उन नि गोद जीवों को भी कुछ सिद्धों का सुख मि लता है कि नहीं मि लता? क्या समझ आ रहा है? कई लोगों के मन में यह विचार आ जाता है, तो उसी का समाधान इस गाथा से होता है कि जो ‘पवि भत्त पदेसतं’ जो प्रदेश का भि न्नपना है वह प्रदेशों का ‘पवि भत्त पदेसतं’ या नी जो प्रदेश का प्रकृष्ट रूप से भि न्नपना है, वह ी उनका ‘पुधत्तं ’ माने पृथकत्व लक्ष ण वा ला भि न्नपना कहलाता है। नि गोद जीव अलग हैं, सि द्ध भगवा न की आत्मा अलग हैं और उसमें भी और दूसरे सि द्ध आ जाएँगे तो उनकी आत्मा , उनका जीव द्रव्य अपना अलग है। एक जीव द्रव्य के अन्दर कि तने जीव द्रव्य बैठ जाएँ लेकि न कभी भी एक जीव द्रव्य दूसरे जीव द्रव्य की सत्ता को belong नहीं करता। दोनों की सत्ता अलग-अलग रहेगी, दोनों का अस्तित्व अलग-अलग रहेगा। सत् एक होते हुए भी द्रव्य भि न्न-भि न्न हो जाता है और द्रव्य की भि न्नता होने पर ही यह कहा जाता है कि इसकी सत्ता अलग है और इसकी सत्ता अलग है। समझ आ रहा है? हम कभी एक रूप भी देखें और कभी अनेक रूप भी देखें। यह देखने और जानने का जो हमारा अनेकान्त दर्श न के अनुसार भाव है, यह भाव अगर बना रहता है, तो हमारे लि ए भ्रम पैदा नहीं होता है।


एकत्वपने के भ्रम का निवारण
एक रुप देखते-देखते भ्रम आ जाता है कि सब एक ही हैं। नहीं भैया ! सब एक नहीं है, कुछ अपेक्षा से अलग भी हैं। अगर सब एक हो गया तो फिर कौन पूज्य और कौन पूजक? क्या कहा ? सब सत् हैं, सभी आत्म द्रव्य एक समान हैं। जब आप ने कह दिया सब एक समान हैं तो फिर एक पूज्य है, एक पूजक है। जो पूजा कर रहा है, वह पूजक कहलाता है और जिसकी पूजा की जा रही है, वह पूज्य कहलाता है। फिर ऐसा क्यों ? हम आपको पूज्य क्यों माने? आपको उच्चा सन हम क्यों दें? क्या समझ आ रहा है? आपकी पूजा हम बैठकर क्यों करें? यह सब प्रश्न कब होंगे? जब हमने एकत्व को ही मान रखा हो, उनके अन्दर भि न्नत्व को न माना हो। भि न्नत्व भी कहा गया है, एकत्व भी कहा गया है, एकपना भी है, अनेकपना भी है। एक ही वस्तु धर्म को मानोगे तो एकान्ति हो जाओगे और व्यवहा र जब भी चलता है, तो अनेकान्त के अनुसार ही चलता है। एकान्त से कभी व्यवहा र बनता ही नहीं। जिन्हों ने कभी भी व्यवहा र चलाया है और अगर उन्हों ने एक रूप मान लिया कि सब एकरूप हैं तो व्यवहा र चल ही नहीं सकता। फिर कौन मालि क, कौन नौकर, कौन गुरु, कौन शि ष्य, कौन कि ससे क्या ग्रह ण करे? कौन कि सको क्या दे? कौन कि सका उपकार माने? कौन कि सका अपकार माने? यह व्यवहा र चल रहा है, यह भि न्नता के आधार पर चल रहा है, एकता के आधार पर व्यवहा र नहीं चल पाता इसलि ए सत् की अपेक्षा से सब में एकपना जानना और उनके प्रदेश भि न्न हैं, उनके गुण भि न्न हैं, उनकी पर्याय भि न्न हैं इसलि ए उस द्रव्य की भि न्नता को जानकर उस द्रव्य से अपने आप को भि न्न मान कर एक को पूज्य-पूजक का भाव बन जाता है, गुरु-शि ष्य का भाव बन जाता है, स्वा मी-दास का भाव बन जाता है। यह सब कब बनता है? जब हमारे अन्दर अनेकत्व का भी ज्ञा न होता है और इसी ज्ञा न से सारा का सारा व्यवहा र चलता है। इसलि ए पूज्य-पूजक भाव भी जब आ जाता है, तो उस समय पर हमारी दृष्टि में यह द्रव्य हमसे भि न्न है और इस द्रव्य के जो गुण हैं, इस द्रव्य की जो पर्याय हैं, वह भी हमसे भि न्न प्रकार की है। ऐसा जब हमारे ज्ञा न में आएगा तभी हम उसके प्रति पूज्यता का भाव लाएँगे और हम उसके पूजक कहलाय ेंगे। पूज्य-पूजक का मतलब एक बड़ा हो गया और एक छोटा हो गया । एक की पूजा की जा रही है और एक पूजा करने वा ला है और यह भाव आता ही है। जब तक हम बिल्कु बिल्कु ल एक नहीं हो जाते हैं तब तक यह भाव बना रहता है। एक होने का मतलब जब तक हम पूज्य की तरह नहीं हो जाएँगे तब तक हमारे अन्दर यह भाव बना ही रहेगा।
पूज्य -पूजक का भाव
पंच परमेष्ठी में पाँचों ही परमेष्ठी क्या हैं? पूज्य हैं और हम क्या हैं? पूजक हैं। अब उस पूजक के भाव में जब हम बैठेंगे तो हम पाँचों परमेष्ठिय ों में अपनी कुछ भि न्नता देखेंगे कि नहीं देखेंगे? कैसे भि न्न है? इनकी आत्म द्रव्य में और हमारी आत्म द्रव्य में सत् की अपेक्षा से कोई अन्तर नहीं है। इनके अन्दर भी सत्ता गुण है, हमारे अन्दर भी सत्ता का गुण है। इनके द्रव्य का भी अस्तित्व है, हमारे द्रव्य का भी अस्तित्व है लेकि न उसी सत्ता गुण के साथ -साथ जब हम अन्य गुणों की अपेक्षा से देखते हैं तो हमें उसमें भि न्नता और उस द्रव्य के गुणों की पर्याय ों में भि न्नता नजर आती है। एक द्रव्य की पर्याय बिल्कु बिल्कु ल अलग जा रही है, वीतरागता की ओर जा रही है और एक द्रव्य की पर्याय राग की ओर जा रही है। एक द्रव्य के सब गुण अशुद्ध होते चले जा रहे हैं और एक द्रव्य के सभी गुण शुद्ध होते चले जा रहे हैं। एक द्रव्य के गुणों में समीचीनपना आ गया , एक द्रव्य के गुणों में मि थ्या पना ही चल रहा है। द्रव्य के जो यह गुण और उनकी जो पर्याय हैं, जो हमें अलग-अलग रूप से प्रति भासि त होती हैं, इसी के आधार पर पूज्य और पूजक का भाव depend हो जाता है। इसलि ए एक स्था न पर आचार्य वीरसेन जी महा राज श्री धवला नाम की जो टीका है, षटखंडागम सूत्रों की, उसमें लि खते हैं कि पाँचों परमेष्ठिय ों में रत्नत्रय की अपेक्षा से एकरूपता है। क्या लि खते हैं? पाँचों परमेष्ठिय ों में कोई भी अन्तर नहीं हैं, रत्नत्रय की अपेक्षा से एकरूपता है। अब यह क्या हो गई? हमारी अपेक्षा हो गई और वो अपेक्षा कि सकी हो गई? आत्मा के अन्दर जो सम्यक् दर्श न-ज्ञा न-चारित्र इन तीनों गुणों का जो परि णमन है, वह सम्यक् दर्श न, ज्ञा न, चारित्र ही आत्मा के तीन गुणों का परि णमन उस आत्मा की पूज्यता के लि ए कारण होता है। कोई भी आत्मा पूज्य कब होगी? जब उसमें सम्यक् दर्श न-ज्ञा न-चारित्र का परि णमन होने लगेगा और वह होना चाहि ए उसी रूप में सम्यक् दर्श न, सम्यक् ज्ञा न और सम्यक् चारित्र । समझ आ रहा है? अब वह सम्यक् चारित्र में अब आप कहोगे कि एक देश चारित्र हो जाता है, एक सकल चारित्र हो जाता है, तो क्या देश चारित्र वा लों को भी इसी में शामि ल कर लें? समझ आ रहा है? देश का मतलब जो गृहस्थों का एक देश विकल चारित्र होता है, अणुव्रत रूप चारित्र होता है, तो आचार्य कहते हैं:- नहीं! यह पूर्ण चारित्र नहीं माना जाएगा। सकल व्रतों को धारण करने वा ला होना चाहि ए, महा व्रती होना चाहि ए। क्या समझ आ रहा है? वह सम्यक् चारित्र की पूर्ण ता वा ला महा व्रती होना चाहि ए, पूर्ण सकल चारित्र को धारण करने वा ला होना चाहि ए। जहा ँ पर सम्यक् दर्श न, सम्यक् ज्ञा न और सम्यक् चारित्र यह तीनों परि णाम आत्मा के अन्दर परि णमन को प्राप्त हो गए, उस आत्मा के अन्दर इन तीनों का ग्रह ण हो गया तो वही आत्मा पूज्य हो गई।
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स्त्री पूज्य क्यों नहीं है? स्त्रि याँ उपचार से महाव्रती हैं

अब लोग कहते हैं स्त्री की तरह पुरुष के अन्दर भी योग्यता होती है और पुरुष की तरह स्त्री के अन्दर भी योग्यता होती है। पुरुष पूज्य हो जाता है, स्त्री पूज्य क्यों नहीं होती है? अब आप समझो क्यों नहीं होती है? पंच परमेष्ठी में स्त्रिया ँ है कि पुरुष हैं? स्त्रिया ँ भी दो प्रकार की होती हैं- एक द्रव्य स्त्री एक भाव स्त्री । समझ आ रहा है? द्रव्य स्त्री का मतलब जिसका शरीर स्त्री रूप पर्याय के साथ में हो तो वह द्रव्य स्त्री कहलाता है और जिसके अन्दर स्त्री वेद के उदय से जो भाव पैदा होते हैं, वह भाव स्त्री रूप कहलाता है। क्या सुन रहे हो? आचार्य कहते हैं- पाँचों ही परमेष्ठिय ों को द्रव्य स्त्री नहीं होना चाहि ए। कोई है पाँचों परमेष्ठिय ों में द्रव्य स्त्री ? द्रव्य स्त्री होने का मतलब स्त्री पर्याय पाँचो परमेष्ठिय ों में कि सी की भी नहीं है। क्यों नहीं है? क्योंकि उस स्त्री पर्याय में उनके अन्दर वह सकल चारित्र का भाव नहीं आ पाता है। कौन सा चारित्र ? सकल चारित्र । अब आप कहोगे स्त्रिया ँ भी सकल चारित्र का पालन करती हैं, महा व्रतों का पालन करती हैं। करती हैं लेकि न उनके वह महा व्रत उनके अन्दर के सकल चारित्र के भाव को प्रकट नहीं कर पाते। क्यों नहीं कर पाते हैं? क्योंकि सकल चारित्र जो उत्प न्न होता है वह शुरू की जो तीन कषाय हैं उनके अभाव से उत्प न्न होगा, जिसे हम कहते हैं अनन्ता नुबंधी, अप्रत्याख्या न और प्रत्याख्या न। समझ आ रहा है? इन तीनों कषाय ों का अभाव होना चाहि ए, केवल संज्जव लन कषाय मात्र का उदय रहेगा तो सकल चारित्र बनेगा। क्या समझ आया ? स्त्री के अन्दर इतनी योग्यता नहीं आ पाती कि वह अपने उस प्रत्याख्या न कषाय का अभाव कर सके, संज्जव लन कषाय मात्र का उदय रह जाए। जब उसके अन्दर के यह कषाय भाव जो उसके बाह री रूप के साथ भी जुड़े रहते हैं और उसकी बाह री पर्याय में इतनी शक्ति नहीं होती कि वह अपनी अन्तरंग की इन कषाय ों का अभाव कर सकें। अनन्ता नुबंधी का अभाव हो सकता है, अप्रत्याख्या न का अभाव हो सकता है, प्रत्याख्या न कषाय का उदय रहेगा तो पाँचवा गुणस्था न बन जाता है और उसका भी अभाव हो जाएगा तो छठवा ँ, सातवा ँ गुणस्था न बन जाता है। जब तक उसके लि ए ये संज्जव लन कषाय का मात्र उदय नहीं रह जाता तब तक भीतर से सकल चारित्र का भाव प्रकट नहीं होता। वह क्यों नहीं हो पाता? क्योंकि अन्तरंग में वह संज्जव लन कषाय के अलावा जो अप्रत्याख्या न कषाय है उसका भी सद्भाव बना रहता है क्योंकि स्त्री का गुणस्था न पाँचवें गुणस्था न से ज्या दा होता ही नहीं है चाह े वह कि तने ही महा व्रतों को धारण कर ले, कि तनी ही कठि न तपस्या कर ले। पाँचवा गुणस्था न कि सका होता है? जो व्रती होते हैं, जो घर में रहने वा ले देश व्रती होते हैं, उनका पाँचवा ँ गुणस्था न होता है। समझ आ रहा है? छठवा ँ, सातवा ँ गुणस्था न ही सकल चारित्र का गुणस्था न है। महा व्रत मुख्य रूप से जहा ँ होंगे वह ीं पर यह छठवा ँ-सातवा ँ गुणस्था न होगा और वह ीं पर यह सकल चारित्र की दशा बनती है। तो आचार्य कहते हैं:- अगर वहा ँ छठवा ँ, सातवा ँ गुणस्था न नहीं है, तो फिर वहा ँ पर महा व्रतों का पालन भी मुख्य नहीं हैं। उसे उपचार से कहा है। इसलि ए जो भी स्त्रिया ँ होंगी अगर वह महा व्रतों का पालन करेंगी तो कि ससे कहलाएँगी? उपचार से महा व्रती हैं, मुख्यता से नहीं और जहा ँ मुख्यता नहीं है, तो अन्तरंग में सकल चारित्र का भाव पूर्ण नहीं हो सकता। रत्नत्रय जिसे हम सम्यक् दर्श न-ज्ञा न-चारित्र कहते हैं, वह रत्नत्रय सम्यक् चारित्र , सकल चारित्र के साथ है, देश चारित्र के साथ नहीं हैं। सकल चारित्र के साथ जब होगा तो ही वह रत्नत्रय कहलाएगा, देश चारित्र के साथ उसको रत्नत्रय नहीं कहा गया है। क्या सुन रहे हो? तुम माताजी हो, चाह े कोई भी दीदी हो, कोई भी हो, सब की बात ही तो चल रही है, एक भाव में सब को समझ लो। जो कोई भी है, आर्यि र्यिका के रूप में समझो या माताजी के रूप में समझो, वे सब उपचार से ही महा व्रती होते हैं। समझ आ रहा है? उपचार का मतलब होता है- काम चलाने वा ला। मुख्यता से जो महा व्रतों का भाव होता है, मुख्यता से जो महा व्रतों का पालन करना होता है, वह केवल पुरुष पर्याय में ही सम्भव है। इसलि ए मैंने कहा कि द्रव्य स्त्री नहीं होना चाहि ए। द्रव्य स्त्री होने पर वह महा व्रतों का मुख्य रूप से पालन कर ही नहीं सकता।

पूज्य ता किससे आती है?
शरीर द्रव्य से स्त्री रूप होगा तो वह कभी भी महा व्रतों के पालन के योग्य नहीं हो पाता और जब नहीं होगा तो सकल चारित्र भीतर से नहीं होगा। सकल चारित्र नहीं होगा तो उसका गुणस्था न कभी भी छठवा ँ, सातवा ँ नहीं होगा। क्या समझ में आया ? सम्यक् दर्श न, सम्यक् ज्ञा न और सम्यक् चारित्र को ही रत्नत्रय कहा जाता है। रत्नत्रय ही पूज्य होता है और उस रत्नत्रय में हम सम्यक् चारित्र को सकल चारित्र के रूप में ही ग्रह ण करते हैं, देश चारित्र के रूप में नहीं। अगर हम देश चारित्र के रूप में ग्रह ण करेंगे तब तो फिर घर में रहने वा ले जितने भी प्रति माधारी हैं, व्रती हैं, सभी पूज्य हो जाएँगे। समझ आ रहा है? सभी के लि ए वह पूज्यता का भाव आ जाएगा लेकि न पूज्यता सबके अन्दर नहीं होती है। पूज्य का मतलब होता है जिसकी हम पूजा करें। पूजा करने के योग्य जो होगा, वह पूज्य होगा। अतः पूज्यता का जो भाव आएगा वह रत्नत्रय के साथ आएगा, सम्यक् दर्श न-ज्ञा न-चारित्र के साथ आएगा और वह रत्नत्रय पंच परमेष्ठी में ही है, अन्य कहीं पर भी नहीं है। इसलि ए आचार्य वीर सेन जी महा राज कहते हैं कि ये पंच परमेष्ठी रत्नत्रय की अपेक्षा से एक समान है इसीलि ए यह पूज्य हैं। सुन रहे हो कि नहीं? समझ भी आ रहा है कि नहीं? यह सिद्धा न्त है। हम सिद्धा न्त की अपेक्षा से ही चले, सिद्धा न्त को ही समझे। पूज्यता कि ससे आ रही है? हम पूजा कि सकी करें? हम कि सी के भी आगे पूज्य शब्द लगा देते हैं। यह हमारी नासमझी होती है। पूज्य-पूजक भाव , उपास्य-उपासक भाव , यह रत्नत्रय की आराधना करने वा लों के साथ ही बनता है, अन्य कि सी के साथ नहीं बनता। अगर हम अन्य कि सी के साथ जोड़ देते हैं तो हमारी जो पंच परमेष्ठी की परम्परा है, पंच परमेष्ठी का जो हमारा बहुमान है, उससे हम अलग हट जाते हैं। जब पंच परमेष्ठी के अलावा भी हम कि सी की पूजा करने लगे माने हम दिगम्बरत्व के अलावा भी कि सी की पूजा करने लगे तो फिर आप दिगम्बर नहीं कहलाओगे। हम क्या कह रहे हैं? पहले सिद्धा न्त समझो। बीच में इधर-उधर के प्रश्न करने से कुछ समाधान नहीं होता। जो सिद्धा न्त है, वह सिद्धा न्त है। दिगम्बरों की पूजा करने वा ला ही दिगम्बर कहलाएगा, पाँच परमेष्ठी की पूजा करने वा ला ही दिगम्बर कहलाएगा, णमोकार मंत्र की आराधना करने वा ला ही दिगम्बर कहलाय ेगा और वह णमोकार मंत्र में पाँच परमेष्ठी हैं। पाँचों ही कैसे हैं? द्रव्य से कोई भी स्त्री नहीं हैं। बस हर एक चीज को बिल्कु बिल्कु ल स्पष्ट कहना पड़ ता है क्या ? समझदारी से काम लो। क्या कोई भी द्रव्य से स्त्री है, पाँचों परमेष्ठी में? अरिह न्त, सि द्ध, आचार्य, उपाध्याय , साधु, होता ही नहीं। क्योंकि जिसके अन्दर अरिह न्त बनने की योग्यता होती है, वह ी हमारे लि ए पूज्य होता है और वह योग्यता पुरुष पर्याय में ही आती है। इसलि ए हमेशा इस बात का ध्या न रखना कि पुरुष पर्याय में ही, द्रव्य से पुरुष होने पर ही वह पाँच परमेष्ठी की श्रेणी में आने योग्य होता है, इसके अलावा नहीं। यह बात आपके लि ए सही ढंग से समझ में आ जानी चाहि ए। सही ढंग से मतलब सिद्धान्तः । समझ आ रहा है न? ऐसा नहीं कि ऐसा होता है, वहा ँ ऐसा होता है, ये ऐसा करते है, वे ऐसा करते है। कोई कुछ भी करे हमें इससे कोई लेना-देना नहीं है लेकि न हमें सही बात को समझना जरूरी है।


जहाँ दि गम्बर रूप नहीं है, तो वह पूज्य कैसे हो गए?
ह म जिस की पूजा कर रहे हैं, उनके पास रत्नत्रय कहा जाएगा क्या ? अगर रत्नत्रय नहीं है, तो उनके लि ए हमें पूजा नहीं करना। रत्नत्रय उसी को कहते हैं- जहा ँ पर सम्यक् दर्श न के साथ में सकल चारित्र हो, महा व्रत हो। इसलि ए पंच परमेष्ठी पूज्य हैं और उनकी पूज्यता को अगर हम बनाए रखेंगे तो तभी बनाए रख सकते हैं जब उसके साथ में हम कि सी दूसरी चीज को न जोड़े ड़े। कि सी अन्य कपड़े ड़े वा लों को उसके साथ add न करे। तभी दिगम्बरत्व सुरक्षि त रहेगा, तभी दिगम्बर धर्म सुरक्षि त रहेगा, दिगम्बर परम्परा सुरक्षि त रहेगी। कपड़े ड़े वा ले जहा ँ जुड़ गए तो सब गड़ बड़ हो जाएगा। दिगम्बरत्व धर्म का मतलब ही है कि दिगम्बर रूप में ही वे हमारे लि ए पूज्य हैं। जहा ँ दिगम्बर रूप नहीं हैं तो पूज्य कैसे हो गए? उनके लि ए अलग title दिए जाते हैं। इसलि ए नमोस्तु शब्द जो है, यह पाँचो परमेष्ठिय ों में एक साथ चलेगा। पाँचो परमेष्ठिय ों को आप नमोस्तु कह सकते हैं। लेकि न कभी भी भूल से, कि सी भी कपड़े ड़े वा ले को नमोस्तु मत कह देना। कह देते हो क्या ? जब कपड़े ड़े वा ले को नमोस्तु नहीं कहते हो क्योंकि वे पंच परमेष्ठी में नहीं आते हैं, सकल महा व्रत उनके पास में नहीं होते हैं तो उनकी पूज्यता पंच परमेष्ठी की तरह हो कैसे सकती है। अगर आपने उनको भी उसी तरीके से पूज्य बना दिया तो अब यह आपकी कमी कहलाएगी, आपके सम्यक् ज्ञा न की कमी कहलाएगी। सिद्धा न्त तो जो कहता है, वह आपको बताया जा रहा है। इसलि ए कहा गया है कि रत्नत्रय ही पूज्य है और रत्नत्रय की आराधना करोगे तो ही रत्नत्रय आपको प्राप्त होगा। ‘रत् न त्रयं च वंदे रत् न त्रय सिद्ध ये भक् त् या ’ पंच महा गुरु भक्ति आती है, उसमें पंच परमेष्ठी का ग्रह ण किया जाता है, पंच परमेष्ठी की पूजा की जाती है, तो वह सब पंच परमेष्ठी रत्नत्रय स्व रूप हैं। बड़े ड़े-बड़े ड़े आचार्य भी उसमें कोई भेद नहीं रखते हैं कि ये मुनि महा राज है, कि ये उपाध्याय हैं, सबके पास में रत्नत्रय है। फिर आचार्य भी मुनि महा राज को क्यों नमस्का र करते हैं? उपाध्याय भी मुनि महा राज को क्यों नमस्का र करते हैं? वह मुनि महा राज को नमस्का र नहीं कर रहे हैं, वे उनके अन्तरंग के रत्नत्रय को नमस्का र कर रहे हैं क्योंकि जो जिस line का होगा वह उसी लाइन की व्यक्ति के साथ में अपना समानता का व्यवहा र रखेगा। समझ आ रहा है? आचार्य पूज्यपाद महा राज पंच परमेष्ठिय ों की भक्ति करते हुए एक लाइन में कह देते हैं ‘रत् न त्रयं च वंदे रत् न त्रय सिद्ध ये भक् त् या ’- मैं भक्ति से रत्नत्रय की वन्दना करता हूँ। कि सके लि ए? रत्नत्रय की सिद्धि के लि ए। समझ आ रहा है? सिद्धि का मतलब पूर्ण ता। अब वह रत्नत्रय भी परि पूर्ण रत्नत्रय कब होगा? जब वह बिल्कु बिल्कु ल सि द्ध भगवा न बन जाएँगे तो परि पूर्ण रत्नत्रय होगा। लेकि न रत्नत्रय की शुरुआत कहा ँ से होती है? वह छठवें-सातवें गुणस्था न के साथ सम्यक् दर्श न-ज्ञा न-चारित्र को ग्रह ण करने पर ही होती है। यहा ँ से वह रत्नत्रय प्रा रम्भ होता है, तो रत्नत्रय की अपेक्षा से पंच परमेष्ठिय ों में कुछ भी अन्तर नहीं है।


सत् की अपेक्षा से किसी में कोई अन्तर नहीं है
अब देखो! कैसे-कैसे पृथक् होता चला जाता है। सत् की अपेक्षा से पंच परमेष्ठी भी सत् हैं, हम भी सत् हैं, नि गोदिया जीव भी सत् हैं। सि द्ध भी सत् हैं और उन्हीं के पास में उन्हीं के शरीर, उन् ह ीं के जो आत्म प्रदेश हैं, उसी स्था न पर बैठा हुआ नि गोदिया जीव है, वह भी सत् स्व रूप है। सत् की अपेक्षा से कि सी में कोई अन्तर नहीं है। हर द्रव्य सत्ता स्व रूप है, सत् स्व रूप है। सत् की अपेक्षा से कोई अन्तर नहीं रहा । अब अन्तर कि स अपेक्षा से आया ? एक तो रत्नत्रय को धारण करने वा ली आत्मा है, जिसके अन्दर दर्श न गुण, ज्ञा न गुण और चारित्र गुण की पर्याय नि कल रही हैं और वह समीचीन पर्याय नि कल रही हैं। एक तरफ यह रत्नत्रय से रहि त, मि थ्या दर्श न, मि थ्या ज्ञा न, मि थ्या चारित्र को धारण करने वा ली आत्मा एँ हैं, जिनके अन्दर हर दर्श न, ज्ञा न, चारित्र गुण की मिथ्या पर्याय नि कल रही हैं माने वह मि थ्या परि णमन उनका चल रहा है। यह अंतर हो जाता है। सत्ता एक होते हुए भी प्रदेश भि न्नता होती है, तो द्रव्य की भि न्नता हुई और द्रव्य की भि न्नता होने पर जब उन गुण और पर्याय ों का परि णमन अलग होता है, तो फिर उसमें पूज्यता और पूजक का भाव अन्तर में आ जाता है। नहीं तो फिर सब एक समान पूज्य हो जाएँगे। क्या समझ आया ? अब आपको कुछ समझने की जरूरत नहीं है। अगर हमने एक बार भीतरी सिद्धा न्त समझ लिया तो अब आप हर चीज को हटा सकते हो। इसी को बोलते हैं कि अगर हमने एक बार सम्यक् दर्श न की बात समझ ली, सम्यकत्व की बात अगर हमारी धारणा में पड़ गई तो मि थ्या त्व को छोड़ ने के लि ए अलग-अलग कहने की जरूरत नहीं कि अब आप यह मि थ्या त्व छोड़ो , यह मि थ्या त्व छोड़ो , यह मि थ्या त्व छोड़ो । पहले सही चीज तो पकड़ लो। सही औषधि मि ल जाएगी फिर कि तने भी तरह के रोग होंगे सब अपने आप दूर होते चले जाएँगे, सब कटते चले जाएँगे। सही मार ्ग पर चलने लग जाओगे, कि तनी भी मि थ्या मार ्ग पर ले जाने वा ली पगडण्डिया ँ होंगी, सब अपने आप छूटती चली जाएँगी। सही चीज पकड़ लो बस। पहले सही सिद्धा न्त पकड़ लो। आज आपको बताया जा रहा है कि पूज्यता कि ससे आती है? रत्नत्रय से आती है। अब जितना भी दुनिया में हमारे लि ए दिखाई दे रहा है, जो कुछ भी मि थ्या त्व का कारण है, आप सबको इसी एक सूत्र पर चलकर सबको अलग कर सकते हो। बाबा बैठे हैं- आसन पर, गद्दिय ों पर। बाबा से मतलब समझ रहे हो न? अच्छा काजू, पिस्ता , बादाम खाय े जा रहे हैं और प्रवचन दिए जा रहे हैं। क्या है यह ? रत्नत्रय है यहा ँ पर? आप खुद अपनी बुद्धि से हर चीज का निर्णय लगाते चले जाओ, कहीं पर भी आग्रह नहीं करना।

सि द्धा न्त कभी भी बदलता नहीं है
सिद्धान्त चतुर्थ काल में जैसा था पंचम काल में भी वैसा ही है। आगे भी आने वा ले कालों में जब नए तीर्थं कर होंगे तब भी यह ी रहेगा। सिद्धा न्त कभी भी बदलता नहीं है। यह जो सिद्धा न्त होते हैं अपरिवर्त नीय होते हैं, त्रैकालि क होते हैं। ये कभी भी नहीं बदलते। हमेशा जो गुणी व्यक्ति होगा पूजा करेगा तो कि सकी करेगा? पू्ज्य की करेगा। पूज्यता कहा ँ से आती है? रत्नत्रय को पूज्य माना गया है यह सिद्धा न्त है। अब आपकी दृष्टि में जो कुछ भी हो, आपको जो करना पड़ ता हो, आपको जो करना है वह करो। समझ आ रहा है न? इसके लि ए काेई आपके ऊपर जबरदस्ती नहीं है कि आपको कि सकी पूजा करनी पड़ ती है? अपनी माता जी की या पि ताजी की, यह सब आप जानो, इससे कोई लेना-देना नहीं। सिद्धा न्त क्या है, पहले यह ध्या न में रखो। सिद्धा न्त को जानने वा ला व्यक्ति सिद्धा न्त के अनुसार चलेगा तो उसके अन्दर यह रत्नत्रय को ग्रह ण करने का भाव रहेगा। पूज्यता के भाव को अगर समझेगा तो वह भी पूजक बनते-बनते एक दिन पूज्य बन जाएगा क्योंकि उसको मालूम है पूज्य वास्तव में क्या होता है। फिर क्या हुआ? अब दुनिया का जितना मि थ्या त्व फैला हुआ है, आप बस एक सिद्धा न्त अपने दिमाग में रखो, हमें कि स की पूजा करनी है? रत्नत्रय की। रत्नत्रय का मतलब सम्यक् दर्श न, सम्यक् ज्ञा न और सम्यक् चारित्र का मतलब सकल चारित्र । सकल चारित्र का मतलब पाँच महा व्रतों का मुख्यता से पालन करने वा ला। पाँच महा व्रतों का मुख्यता से पालन कब होगा? जब ऊपर क्या होगा? कपड़ा नहीं होगा। तो कौन होगा? दिगम्बर ही होगा। दिगम्बर स्त्री होगी कि नहीं होगी? हो गई तो, मान लो भविष्य में, काल बदल रहा है पंचम काल में कुछ भी हो सकता है। स्त्री पुरुष के समान होने की चेष्टा कर रही है। सब कुछ चल रहा है, कुछ भी हो सकता है। यह प्रश्न आते हैं, अपने सामने इसलि ए आपको बता रहा हूँ। आप यह ध्या न में रखो कि अगर स्त्री कहीं इस पंचम काल में, कि सी भी आगे के काल में कभी मान लो दिगम्बर भी हो गई तो क्या करोगे? पहले से सिद्धा न्त अपने दिमाग में रख लो। वह पंच परमेष्ठी में आएगी कि नहीं आएगी? नहीं आएगी। यह समझ लेना स्त्रिय ों से ही कहलवा रहा हूँ। सिद्धा न्त, सिद्धा न्त है।


स्त्री और पुरुष के बीच का भेद समझो
तब भी वह पंच परमेष्ठी में नहीं आएगी क्योंकि उस स्त्री के अन्दर उस स्त्री पर्याय के कारण से उसके जो भाव हैं, वह भाव इतने सुदृढ़ नहीं होते हैं कि वह अपने लि ए सकल चारित्र का पालन करने का भाव कर सके। आचार्यों ने कहा है:- स्त्री पर्याय में, स्त्री के शरीर में, पुरुष के शरीर की अपेक्षा से अधि क सम्मुर्च्छ म्मुर्च्छनम् जीवों की उत्पत्ति होती है। यह बातें इसलि ए बताना जरूरी हो रहा है कि आज की बेटिया ँ पूछने लगी हैं। कहने लगी हैं कि हम क्यों नहीं दिगम्बर बन सकते हैं। इतना समानता का भाव आ रहा है, उनके अन्दर इसलि ए बताना जरूरी हो रहा है। स्त्री को कभी भी वो संहनन नहीं मि लता जिस संहनन के साथ में वह केवलज्ञा न प्राप्त कर सके, उत्कृ ष्ट शुक्ल ध्या न प्राप्त कर सके। स्त्री का शरीर ऐसा होता है कि वह कभी भी ध्या न की स्थि रता में आ ही नहीं सकती और अगर वह दिगम्बर हो गई तो और ज्या दा नहीं आ सकती। यह उसका एक स्व भाव है, पर्याय है उसकी। भीतर से डर बना रहना, भीतर से भयशील रहना और भीतर से संकुचित रहना, यह उसके स्व भाव में है। इसी कारण से उसकी इस पर्याय में ध्या न की इतनी स्थि रता नहीं होती कि वह कभी भी शुक्ल ध्या न कर सके और शुक्ल ध्या न नहीं कर पाने के कारण से उसे कभी केवलज्ञा न नहीं होता। स्त्री के शरीर और पुरुष के शरीर की विशेषता के कारण से यह होता है। यह चीजें ज्ञा न में होनी चाहि ए। क्यों नहीं है बराबर? स्व भाव ही है ऐसा। बराबर इसीलि ए नहीं है क्योंकि हमारे लि ए इस तरह की पर्याय में वह बराबर का भाव आता ही नहीं है। अब कोई एक स्त्री कहीं मान लो मैराथ न दौड़ में first आ गई कि कोई एक स्त्री मान लो एवरेस्ट चोटी पर चढ़ गई, कोई एक स्त्री मान लो अन्तरिक्ष में चली गई, इतना हो गया तो आप कैसे कह सकते हो कि स्त्री में भय होता है। कि सी स्त्री में अगर कोई ऐसी चेष्टा एँ हो गई हैं तो भी इसका मतलब यह नहीं हैं कि भय नहीं है। वह उसकी अपनी एक क्रिया शीलता हो सकती है कि वह इतना काम कर सकती है, तो कर लिया उसने। उसका भय से क्या लेना-देना, उसकी योग्यता है। लेकि न जो उसके अन्दर ध्या न करने की योग्यता होती है, वह ध्या न करने की योग्यता उसको शुक्ल ध्या न के लि ए नहीं मि लती है। धर्म ध्या न करने में कोई बाधा नहीं, धर्म ध्या न करो। यह स्त्री और पुरुष के बीच का भेद समझो। इसीलि ए अगर कभी स्त्री नग्न भी हो गई तो भी वह दिगम्बर नहीं कहलाएगी क्योंकि वह तब भी अहि ंसा महा व्रत का पालन करने लाय क उसका शरीर नहीं है। ऐसा आचार्य कुन्द-कुन्द देव ने इसी प्रवचनसार में कहा है, जो आगे आएगा।
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आगम और सि द्धान्तों पर हमारी धारणा कठोर और स्पष्ट होनी चाहिए

मारी धारणा इतनी कठोर और स्पष्ट होनी चाहि ए कि कोई कुछ भी कहे, अगर हमें सही समझ में आ गया तो हमारे अन्दर पहले श्रद्धा न दृढ़ बनना चाहि ए और तब हम जा कर दूसरे को समझ पाएँगे। अपने आप मि थ्या जितनी भी चीजें हैं, सब छूटती चली जाती हैं, सही लाइन पर चलो। अब हमें एक-एक चीज को बताने की जरूरत नहीं है। आप सैंकड़ों प्रश्न लेकर आ जाओ क्या यह रत्नत्रय है? क्या यह हमारे लि ए पूज्य है? क्या हम इनकी पूजा करें? हम कैसे बताएँगे? हर चीज मान लो आगम में नहीं भी लि खी हो तो भी आगम में एक चीज तो लि खी है न, एक विधेयक बात को ग्रह ण करो बस। हजार नि षेधात् म क बातें हो सकती हैं। एक line है सही और हजार पथ उसके सामने गैलरिय ों के रूप में चल रहे हैं। उसकी अलग-अलग गैलरिया ँ नि कल रही हैं। हम हजारों को कहा ँ तक तोड़ ते फिरेंगे, एक सही लाइन पर चलो। हमें जब भी उत्त र देना होगा हम कि स परि पेक्ष में, कि स भाव से क्या context में सोच कर उत्त र देंगे। पूज्यता कि स में है? रत्नत्रय में है। समझ आ रहा है? और रत्नत्रय कहा ं होता है? सम्यक् दर्श न-ज्ञा न-चारित्र के साथ होता है। सम्यक् चारित्र कि से कहते हैं? जो सकल चारित्र रूप होता है। सकल चारित्र भी कहीं उपचार रूप होता है कि मुख्य रूप होता है। कौन-सा रत्नत्रय में आएगा? मुख्य रूप वा ला आएगा। मुख्य रूप होगा तो वह पुरुष में होगा कि स्त्री में होगा? पुरुष में होगा। बस इतना clarification आपके mind में होना चाहि ए फिर कुछ मतलब ही नहीं है कोई कुछ भी करे। सिद्धा न्त क्या बोलता है? आगम क्या बोलता है? हमें यह सीखना है। परम् प राएँ बाद में, पहले क्या चीज है? आगम। कम से कम आगम को ध्या न में तो रखो। सत्य को ध्या न में तो रखो कि आचार्यों ने क्या कहा है? हम जिस णमोकार की आराधना कर रहे हैं उस णमोकार में, क्यों णमोकार की आराधना कर रहे हैं? क्या है उस णमोकार में? वह पाँच परमेष्ठिय ों के अन्दर क्या है? वैसे ही लि खा है- णमो अरिह ंताणं, णमो सिद्धा णं, णमो लोए सव्व साहू णं। यूँ लि खा है, तो पढ़ लेता हूँ ऐसा। इससे क्या लेना-देना। पहले यह तो जानो कि णमो लोए सव्व साहू णं में क्या आ रहा है? णमो अरिह ंताणं में भी क्या है? सिद्धा णं में भी क्या है? आयरिया णं, उवज्झाया णं क्या है? कि सकी पूजा? ‘रत्नत्रयं च वंदे’ इस चीज को समझो। जब तक आप यह नहीं समझोगे आप को दुनिया कुछ न कुछ घूमाती रहेगी, अपने स्वार्थों के अनुसार, अपने परम् प राओं के अनुसार। हम कि सी का कोई विरोध नहीं कर रहे हैं लेकि न यह ध्या न में रखना चाहि ए सिद्धा न्त क्या है? समझ आ रहा है न? आप करो कुछ भी, हमें इससे कोई लेना-देना नहीं लेकि न यह मालूम आपको होना चाहि ए कि सिद्धा न्त वस्तु तः क्या है? और सिद्धा न्त एक ही होता है, अपरिवर्त नीय होता है। उसमें हम परिवर्त न करके खि लवाड़ करेंगे तो यह अपने को बर्दाश्त होना नहीं चाहि ए। सिद्धा न्त के विरुद्ध कोई चले, सिद्धा न्त के विरुद्ध कोई बात करे तो आचार्य शुभचन्द्र जी महा राज ज्ञा नार्णव जैसे महा न ग्रन्थ में लि खते हैं कि ‘अपृष् टै ् टैरपि वक् तव् यं सुसि द्धान् तार ्थविप् ल वे’। अगर कहीं सिद्धा न्त का विप्लव हो रहा हो माने सिद्धा न्त नष्ट हो रहा हो तुमसे कोई नहीं भी पूछे तो भी तुम बोलना। ‘अपृष् टै ् टैरपि वक् तव् यं ’ माने बि ना कोई प्रश्न पूछे हुए भी तुम्हें बोलना जरूरी है। वहा ँ मौन साध लोगे तो तुम्हा रे लि ए तुम्हा रा सत्य महा व्रत नष्ट हो जाएगा। क्या समझ आ रहा है? इतना तक कहा गया है कि अगर सिद्धा न्त कहीं नष्ट हो रहा हो, तुम्हा रे सामने देखते-देखते तो बि ना कोई पूछे भी तुम्हें बोलना जरूरी है कि भाई यह चीज गलत है। यह रक्षा करना भी तुम्हा रा दायि त्व है। ऐसे बोलते हैं न कहीं-कहीं मौन भी बहुत खतरनाक होता है या मौन भी गलत का समर्थन करने वा ला हो जाता है। यह नहीं होना चाहि ए वह आचार्यों ने मना किया है। मतलब कहीं आपके सामने गलत हो रहा है, आप मौन बैठे हैं तो वह मौन भी जो है आपके लि ए गलत है क्योंकि आपके सामने-सामने सब सिद्धा न्त विरुद्ध बात हो गई और आप कुछ नहीं बोले। ऐसा क्यों ? तो आचार्य कहते हैं बि ना पूछे भी बोलना। ‘अपृष् टै ् टैरपि वक् तव् यं ’ सिद्धा न्त जब बि ना पूछे बोलने को कहा गया है, तो आपने तो कहा ही है कि महा राज हमें सुनाओ। नहीं समझ आ रहा है? हमें प्रवचनसार पढ़ ना है, सिद्धा न्त पढ़ ना है, तो सिद्धा न्त की व्याख्या एँ समझो। सिद्धा न्त को समझे बि ना आपके दिमाग में कभी सम्यक् ज्ञा न उतर नहीं सकता। एक line clear अपने अन्दर होनी चाहि ए। फिर जितनी भी चीजें हैं उनको सब उसी line के context में देखो कि यह सही है या गलत है। गलत भी हो मत कहो गलत है लेकि न अपने मन में तो समझो ऐसा क्यों ? और यदि है तो फिर ऐसा क्यों नहीं हो रहा है? आप समझो, अपने मन में समझो, नहीं भी कह पाओ कोई बात नहीं लेकि न अपने को तो पता पहले पड़े ड़े। जब आपको ही सिद्धा न्त पता नहीं हैं तो आप दूसरों से क्या बताओगे? उत्त र कोई क्या दोगे? कोई प्रश्न करें तो क्या कहोगे? पहले अपने को अपना सिद्धा न्त दृढ़ करना चाहि ए। इसलि ए कहा जाता है, अगर कभी आचार्य परमेष्ठी के बराबर कोई आचार्या णी परमेष्ठि नी बन कर बैठ जाए तो क्या हो सकती है? यह समझने की बातें हैं। हि म्मत रखो, सब जैन श्राव क बुजदिल हो गए। सि द्धा न्त को भी स्वी कार करने की ताकत नहीं। कोई अगर जबरदस्ती कहे भी कि मैं पंच परमेष्ठी में हूँ तो क्या करोगे? स्वी कार करोगे, मान लोगे? अगर कि सी ने अपने title में आगे लगा दिया पंच परमेष्ठी में शामि ल होने के लि ए आचार्या णी तो क्या करोगे? समर्थन करोगे? आचार्यों ने तो कहा है ‘अपृष् टै ् टैरपि वक् तव् यं ’ बि ना पूछे भी आप उसको बोलो, यह गलत है। यह दिगम्बर परम्परा, यह रत्नत्रय की परम्परा के विरुद्ध है। स्त्री पर्याय में कभी भी वह आचार्या णी हो भी जाए तो पंच परमेष्ठी की तुलना में नहीं आ सकती। अपने मन में चाह े कुछ भी समझ ले वह लेकि न सुधि श्राव क के लि ए इतना ज्ञा न होना चाहि ए कि यह परम्परा कौन सी है, जिसमें कोई भी तीर्थं कर स्त्री पर्याय से मुक्त नहीं हुए हैं।


रत्नत्रय की परम्परा, दि गम्बरत्व की परम्परा अनादि निध न है
कोई भी आचार्य, उपाध्याय , साधु स्त्री रूप में नहीं होते हैं, यह वह ी परम्परा है। दिगम्बरत्व की परम्परा, दिगम्बरत्व की अवधारणा जिस चीज से चल रही है, वह णमोकार मंत्र है। जिस तरह से णमोकार मंत्र अनादि नि धन है वैसे ही यह रत्नत्रय की परम्परा, दिगम्बरत्व की परम्परा भी अनादि नि धन है। क्या समझ आ रहा है? कुछ आ रहा है कि नहीं आ रहा है? जब यह परम्परा अनादि नि धन है, तो फिर इस परम्परा के साथ खि लवाड़ करना अच्छी बात नहीं है, इतना तो ज्ञा न होना चाहि ए। यह शास्त्र को पढ़ ने का मतलब ही इसीलि ए है। पूज्य कहा ँ होगा? अब हमें कुछ भी कोई कि तना ही कहे, कोई तुम्हें पेड़ के सामने ले जाकर खड़ा कर दे, बोले इनकी आरती उतारो, इनकी पूजा करो, करो, करो। क्यों करो? इसी से तुम्हा रा कल्या ण होगा। यहा ँ पर जो देवता है, वह प्रसन्न होगा तब तुम्हा रे सब काम बनेंगे। अरे भाई! देवता के प्रसन्न हो जाने से, न हो जाने से क्या होगा? जब हमारे अन्दर का देवता, हमारी आत्मा का देवता ही हमसे रूठा रहेगा और जब तक हम रत्नत्रय की आराधना करके उसको नहीं मनाएँगे, बाह र के कि तने भी देवता प्रसन्न हो जाए उनसे हमारा कोई फाय दा होने वा ला नहीं है। आपके दिमाग में अगर एक सम्यक् चीज होगी तो सब चीजें आपको मि थ्या लगेंगी। जो चीजें मि थ्या लगेंगी उनमें आपको कोई कि तना भी प्रलोभन देगा, अगर आपके अन्दर श्रद्धा न सम्यक् का है, तो आपका मन प्रलोभन में जाएगा ही नहीं। इसलि ए सम्यग्दृष्टि जीव को प्रलोभन नहीं होता है। देव मूढ़ ता में वह ी पड़ ता है जिसके अन्दर प्रलोभन आ जाता है।
सम्यक् क्या है, मिथ्या क्या है? वि भाजन जरूरी है
जो आचार्य समंतभद्र महा राज ने कहा है
वरोपलिप् स याशावान् रागद्वेषमलीमसा:,
देवता यदुपासीत देवता मूढमुच् य ते ।।
वर की उपलि प्सा से यह सबसे पहली शर्त है। वर की उपलि प्सा से माने वरदान प्राप्त करने की इच्छा से अगर आप कोई भी देवता की आराधना कर रहे हैं तो आप देव मूढ़ हैं। समझ आ रहा है? जब आपके अन्दर सम्यग्दर्श न होगा तो आपके अन्दर यह वर की उपलि प्सा होगी ही नहीं। देवी-देवताओं की आराधना वर को प्राप्त करने की इच्छा से करना कि हमारे लि ए यह वरदान मि ल जाए, हमारी यह इच्छा पूरी हो जाए, यह स्पष्ट बताती है कि वह व्यक्ति अभी मि थ्या दृष्टि है। यह स्पष्ट लि खा हुआ है। इसी श्लो क की टीका में भी लि खा हुआ है। कि सी भी देवी-देवता की, चाह े अपना भी शासन देवी-देवता हो, उसके लि ए भी अगर आप वर की उपलि प्सा से पूजा कर रहे हैं तो भी वह मि थ्या दृष्टि है, ऐसा लि खा हुआ है। सम्यग्दृष्टि जीव को संसार की इन क्रिया ओं की और संसार के भोगों की इच्छा अगर बनी रहेगी तो वह कभी भी सम्यग्दर्श न की सुरक्षा कर ही नहीं सकता। इसलि ए यह ध्या न रखने की बात है कि अगर हमारे लि ए कोई मि थ्या पथ पर भटकाना भी चाह े तो हमें पता होना चाहि ए कि सम्यक् क्या है? मि थ्या क्या है? यह प्रविभक्त करना है, विभाजन जरूरी है हर जगह पर।

व्यवहार में पूज्य -पूजक का भाव आता ही है
सबकी सत्ता भि न्न है, सत्ता ही भि न्न नहीं है उनके अन्दर के गुण हैं, पर्याय हैं, द्रव्य हैं, वह सब भि न्न हो रहा है। इस प्रसंग को इसके साथ जोड़ ने का प्रयोजन यह है कि केवल द्रव्य, गुण और पर्याय एक जैसे हो जाने पर सभी सत् द्रव्य एक जैसे नहीं हो गए। अगर सब एक जैसे हो जाएँगे फिर तो कोई आराध्य रहेगा ही नहीं, आराधक कोई करेगा ही नहीं और पूज्य कोई बचेगा ही नहीं, पूजक कोई होगा ही नहीं, सब बराबर है। एकेन्द्रिय में भी उतना ही सत् है पंचेन्द्रिय में भी वह ी सत् है, तो चाह े एकेन्द्रिय की पूजा करो, चाह े पंचेन्द्रिय की करो या कि सी की मत करो या सब की करो, भेदभाव क्यों करते हो फिर? समझ आ रहा है न? सत्-सत् सुनते-सुनते कहीं आपके दिमाग में भेदभाव बिल्कु बिल्कु ल ही नि कल गया हो और कहीं आपके दिमाग में यह आ गया हो कि भाई सब कुछ बराबर ही बराबर है, एक ही एक है। आचार्य यहा ँ तुरन्त लि खते हैं कि भाई अनेकान्त दर्श न को ध्या न में रखना, विभाजन भी करने की बुद्धि रखना, सत् अलग-अलग भी होता है क्योंकि अलग-अलग द्रव्य का अलग-अलग अस्तित्व है और इसी अस्तित्व के कारण से हमारा व्यवहा र चलता है और व्यवहा र में पूज्य-पूजक का भाव आता ही है। ठीक है! अब आप एक-एक प्रश्न हमसे करो कि महा राज यह भी मि थ्या है, क्या ? महा राज यह भी गलत है, क्या ? महा राज यह भी गलत है, हम कि स-कि स का उत्त र दें? आपको एक line बता दी, एक track पर तो चलो। उसमें जो चीजें belong करती हो तो ठीक है, नहीं करती हो तो गलत है। अब एक-एक का कहा ँ तक उत्त र दे? नहीं समझ आ रहा ? मान लो अलग-अलग दस लोग, दस पक्ष के बना कर बैठे हैं और दस लोग हमारे विरोधी हो जाए, हमारे विरुद्ध हो जाएँ तो हम कि स-कि स का उत्त र देते फिरेंगे, हमें क्या लेना-देना। हमें तो एक सही बात बताना है न और इसमें कहीं से कहीं तक बाल बराबर भी अन्तर हो तो हमें बता देना। बाल बराबर भी कहीं अन्तर मि ले हमारे कथन में तो बता देना। रत्नत्रय की पूज्यता के अलावा कोई पूज्यता नहींहै। इसलि ए जो नमोस्तु शब्द का प्रयोग रत्नत्रय के साथ होता है, वह अन्य कपड़े ड़े वा लों के साथ नहीं होता। यह पहले से ही सब लोगों ने, पूर्व आचार्यों ने विभाजन इसलि ए कर रखा है कि आप इसको अलग तरीके से देखें, मि ला कर न देखें। जिनके साथ नमोस्तु हो रही है, बस वह ी हमारे लि ए दिगम्बर हैं। वह ी हमारे लि ए पूजा के योग्य हैं, वह ी हमारे लि ए आरती उतारने योग्य हैं, वह ी हमारे लि ए आराध्य हैं, वह ी हमारे लि ए उपासना के योग्य है। बाकी सब अपनी-अपनी category के अनुसार आदरणीय है, पूज्य नहीं है। जो जिस के योग्य है, उसका आदर करो, सम्मा न करो लेकि न बराबर का सम्मा न नहीं करना। नमोस्तु जिसके लि ए उसके लि ए भी वह ी बराबर का सम्मा न और जिसके लि ए नमोस्तु नहीं हो रही उसके लि ए भी बराबर का सम्मा न तो फिर आपके अन्दर सम्यग्ज्ञा न नहीं है? समझ आ रहा है न? आप कि तने ही दस प्रश्न ला कर खड़े ड़े कर दो अगर आपकी बुद्धि में एक बात सही आ गई तो सब का समाधान मि ल जाएगा। एक बात सही नहीं आई तो कोई कुछ पूछेगा, कोई कुछ पूछेगा, कोई कुछ पूछेगा और हम यह ही बताते रहेंगे कि यह भी नहीं, यह भी नहीं, यह भी नहीं। अतः मि थ्या , मि थ्या , मि थ्या सौ बार कहने की अपेक्षा से सत्य क्या , सम्यक् क्या ? वह एक चीज को समझ लो तो कल्या ण हो जाएगा।
रत्नत्रय ही हमारी आत्मा का श्रृं गार है
सत्य क्या है? रत् नत्रय । ‘रत्नत्रयं च वंदे रत् न त्रय सिद्ध येभक् त् या ‘ हमें रत्नत्रय की सिद्धि करना है, तो कि स की वन्दना करना? रत्नत्रय की ही वन्दना करना। जो सि द्धभक्ति पूर्व क, श्रुतभक्ति पूर्व क, आचार्य भक्ति पूर्व क यह जो हम वन्दना करते हैं सुबह, दोपहर, शाम, त्रि काल जो वन्दना की जाती है, यह वन्दना भी कि सकी होती है? पंच परमेष्ठी की ही होती है। सि द्ध भक्ति में सिद्धों की वन्दना हो गई, श्रुत भक्ति की अरिहन्तों की वन्दना हो गई और आचार्य भक्ति में आचार्य, उपाध्याय , साधु सब आ जाते हैं। रत्नत्रय सबके साथ जुड़ा हुआ है। रत्नत्रय की पूर्ण ता अपने आप में बताती है कि यह रत्नत्रय ही हमारी आत्मा का श्रृं गार है और इसी रत्नत्रय से यह पूर्ण ता होने पर यह आत्मा पूज्य हो जाती है इसीलि ए रत्नत्रय की महि मा समझो। कहते तो रहते हो, रत्नत्रय की आराधना के लि ए महा राज आहा र ग्रह ण करो। कई श्राव क पूछ लेते हैं महा राज रत्नत्रय अच्छा चल रहा है कि नहीं। तुम्हें पता भी है कि रत्नत्रय क्या होता है? श्राव क को भी पता नहीं रहता है लेकि न उसके लि ए पूछने में आ जाता है। रत्नत्रय क्या होता है, पहले हम तो समझ ले। अब समझ में आ गया तो पूछने का मतलब क्या है? क्या रत्नत्रय कभी महा राज का खराब हो सकता है? जो साधु होगा वह अपने सम्यग्दर्श न, ज्ञा न, चारित्र को शुद्ध बना करके ही रखता है। यह पूछने की भी क्या जरूरत पड़ ती है, हमारी यह समझ में नहीं आता और आपके पूछने से क्या कोई रत्नत्रय उनका सुधर जाएगा? क्या आपके पूछने से वह रत्नत्रय कोई और अच्छा हो जाएगा? आपके पूछने से कोई उनके रत्नत्रय का कोई और ज्या दा विकास हो जाएगा? कुछ समझ में नहीं आता। “व्यवहा र से पूछ लेते हैं”, यह भी व्यवहा र थोड़ा कुछ समझ में तो आना चाहि ए। रत्नत्रय कैसा है? अगर मान लो वह रत्नत्रय खराब हो गया तो साधु ही नहीं हुआ तो फिर तुम्हा रे लि ए वन्दन करने योग्य नहीं रहा । यह पूछने की क्या जरूरत है? रत्नत्रय होगा तो वह खुद भी भाव ों में, उसके लि ए कब उसके लि ए क्या हो जाए, उसे खुद भी नहीं पता होता। तुम्हा रे पूछने से वह क्या बता देगा? यह भी व्यवहा र उस रूप में होना चाहि ए कि जिस रूप में हमारे उस व्यवहा र से कोई प्रतिक्रिया कुछ फलि त दिखाई दे। नहीं समझ आ रहा ? व्यवहा र भी उस रूप में कि कुछ प्रतिक्रिया रूप में, कुछ फलि त रूप में, कुछ दिखाई दे और उसका कोई प्रयोजन समझ में नहीं आता, कोई प्रतिक्रिया समझ में नहीं आती। अब यह बड़ी बात हो गई। अब कुछ लोगों के लि ए यह ी परेशानी कि महा राज के पास जाएँ तो महा राज बोलते नहीं तो क्या पूछे, क्या बोले? कोई कहता है कि महा राज रत्नत्रय ठीक है कि नहीं। कोई कह रहा महा राज स्वा स्थ्य ठीक है कि नहीं। कोई पूछता है महा राज सुख-साता है कि नहीं।

गुरु के समीप जाकर क्या भावना रखें?
क्या पूछे फिर? बि ना पूछे काम नहीं चलता क्या ? अब स्वा स्थ्य तो स्वा स्थ्य है और स्वा स्थ्य में भी आपकी दृष्टि अगर शारीरि क स्वा स्थ्य पर जा रही है, तो वह भी व्यवहा र ठीक नहीं है क्योंकि शारीरि क स्वा स्थ्य पर भी कि तना ध्या न रखेंगे महा राज। वह तो जो है सो है, जो चल रहा है वो चल रहा है। ठीक है, सो ठीक है, नहीं ठीक है, तो भी ठीक है। मान लो कि सी साधु को कोई रोग हो गया और मान लो उसका स्वा स्थ्य ठीक भी नहीं हो तो भी आप उससे पूछो कि महा राज स्वा स्थ्य ठीक है कि नहीं तो क्या कहेगा? नहीं-नहीं आज बीमार पड़ा हूँ, ऐसे बोलेगा क्या ? यह भी नहीं बोल सकता वह । फिर आपके पूछने का मतलब ही क्या रहा ? यह पूछना जरूरी कहा ँ लि खा है, यह समझ नहीं आता मेरे को। अच्छा एक बात बताओ आप अरिह न्त, सि द्ध के सामने पहुँ चते हो तो कुछ नहीं पूछते। साधु के सामने ही पहुँ च कर क्यों पूछते हो? मान लो समवशरण में भी कभी आप पहुँ च जाओ साक्षात् भगवा न के सामने और बहुत दिनों बाद भगवा न के दर्श न करने जाओ और पूछो कि भगवा न जी कैसे हो? आहा र नहीं भी ले रहे हो तो भी आपके मन में यह पूछने का भाव इसलि ए आता है क्योंकि आप बहुत दिनों बाद दर्श न करते हो। रोजाना आने वा ला तो नहीं पूछता। जो कोई बहुत दिनों बाद आता है, तो वह पूछता है। इसका मतलब यह हुआ कि आप बहुत दिनों के बाद दर्श न करने आते हो तो आपके मन में यह पूछने का भाव आता है कि आप कैसे हो। वह भाव क्यों आया ? क्योंकि आप अपने रि श्तेदारों के साथ जाते हो या रि श्तेदारों के पास जाते हो तो आपको यह भाव आता है कि हम उनसे पूछे कि भाई ठीक-ठाक चल रहा है न। How are you, All is fine. नहीं समझ आ रहा ? यह आपका भाव जो है, जो राग के साथ चल रहा था . हमें ऐसा लगता है कि आपने उसी को इधर वीतरागता के साथ भी जोड़ दिया । यह कहीं शास्त्रों में तो ऐसा नहीं लि खा है कि आपको ऐसा पूछना चाहि ए। सेवा भाव के लि ए! तब तो यह पूछना चाहि ए कि महा राज जी! गुरुदेव! हम आपकी क्या सेवा कर सकते हैं? अगर सेवा भाव है, तो हम आपकी क्या सेवा कर सकते हैं? समझ आ रहा है न? फिर भी वह बताने वा ले नहीं कि क्या सेवा कर सकते हो। फिर भी अपना भाव तो दे ही सकते हो क्योंकि आपके लि ए भी अतिथि -संविभाग, वैय्याव ृत्ति करने को कहा गया है। आप यह पूछ सकते हो कि महा राज हम आपकी क्या वैय्याव ृत्ति कर सकते हैं? आपकी क्या सेवा कर सकते हैं? स्त्रिया ँ भी कर लेती हैं। जो स्त्रिया ँ सुबह आहा र की तैयारिया ँ करती हैं, वह पूरी की पूरी मुनि महा राज की वैय्याव ृत्ति करती हैं। समझ आ रहा है न? उसी वैय्याव ृत्ति के फल से उनको मुनि महा राज की सेवा का, रत्नत्रय का फल प्राप्त होता है। वह सेवा ही तो होती है, direct indirect भी होती है। अब आप क्या पूछे, यह आप को सोचना पड़े ड़ेगा थोड़ा सा। “कल्या ण हो” यह तो मेरे लि ए हो गया । आपको पूछना है महा राज से कि महा राज आप कैसे हो? आपका स्वा स्थ्य ठीक है, आपका रत्नत्रय ठीक है। यह जो आपके अन्दर पूछने की भाव ना आ रही है, यह समाचार में आपके आता है कि नहीं आता है, यह आपको सोचना है। मुनिय ों का मुनिय ों के साथ समाचार होगा तो मुनि तो पूछ लेंगे हा ँ! कैसा है? सुख साता है। रास्ते में आए हो तो कोई कष्ट तो नहीं हुआ? विहा र करते हुए आए, कि तना विहा र कर लिया ? कब से चले थे? आज आहा र नि रन्तराय हुआ कि नहीं हुआ? समझ आ रहा है न? यह तो ठीक है, मुनि महा राज का मुनि महा राज से। लेकि न श्राव क का मुनि महा राज से क्या होना चाहि ए? यह थोड़ी सी एक खोज का विषय है। क्या कहें? देखो! अगर बोलने की इच्छा होती है, तो आप यह पूछ सकते हो जो शास्त्रों में लि खा है। कोई भी आसन्न भव्य होता है, आसन्न भव्य माने नि कट भव्य होता है, वह कभी भी गुरुजनों के पास जाता है, तो कहता है- महा राज! हमें अपने आत्म कल्या ण का कुछ उपदेश दीजिए। यह तो पूछा जा सकता है, मेरा आत्म कल्या ण कैसे होगा महा राज। यह पूछने की बात हो सकती है। जब कोई बहुत दिनों बाद आता है तभी तो पूछता है न। रोज-रोज कौन, कहा ँ पूछता है? इसका मतलब यह हुआ कि जैसे आप अपने रि श्तेदारों के साथ कभी मि लते हैं तभी आप पूछते हैं न । रि श्तेदार में भी रोजाना रहने लगे मान लो आप अपने मामा, नाना के घर गए तो रोजाना पूछते हो क्या या वो आपसे पूछते हैं? 4 दिन रहना, 6 दिन रहना, पहले दिन तो सब पूछेंगे बाद में 4 दिन कौन पूछता है। इसका मतलब यह हुआ कि वह ी लोग पूछ रहे हैं जो दूर से आते हैं, कई दिनों बाद आते हैं, कई महीनों बाद आते हैं तो उन्हें भी क्या पूछना चाहि ए? महा राज मेरा आत्म कल्या ण कैसे हो और अगर आपके लि ए कुछ करना है, तो मैं महा राज आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ? इतना तो चलो ठीक लगता है। बाकी रत्नत्रय कैसा है? कि स्वा स्थ्य कैसा है? यह सब आप के अधि कार की बातें समझ में आती नहीं। फिर भी प्रया स करना सीखने का, समझने का। यह भाव रखना कि हमारे दिमाग में एकता और अनेकता दोनों का बराबर ज्ञा न रहे। सत् की अपेक्षा से एकत्व होते हुए भी हर द्रव्य अपने आप में पृथक है, भि न्न है और भि न्न द्रव्य, गुण, पर्याय ों के कारण से उसके अन्दर की भि न्नता का व्यवहा र हम करते हैं तो वह व्यवहा र भी हम समीचीन करते हैं। क्योंकि वह सिद्धान्तः जैसे व्यवहा र करने को कहा है, तो वह ी व्यवहा र हमारे लि ए करने योग्य है।

ोते प्रदेश अपने-अपने निरे हैं, पै वस् तु में, न बि खरे बि खरे पड़े ड़े हैं।
पर्या य-द्रव् य -गुण लक्ष ण से निरे हैं, पै वस् तु में, जि न कहे हे जग से परे हैं।।
(to be contd.)

द्यपि इस गाथा के बारे में कल विवेचना हुई है, फिर भी कुछ गाथा के पद हैं वे पुनः ध्या न में लाने योग्य और समझने के योग्य हैं। कल इतना तो बताया था कि ‘पवि भत्त पदेसत्तं पुधत्तं ’, यह जो पृथकत्व भाव है, जिसे हम कहते हैं- अलग-अलग होना, यह पृथकपना उनमें घटित होता है जिनके प्रदेश भि न्न-भि न्न होते हैं। प्रदेश मतलब स्था न, द्रव्य के रहने का जो क्षेत्र है। वह जिनका भि न्न-भि न्न होता है, उनको जो हम पृथकत्व के रूप में जानते हैं माने भि न्न अलग-अलग रूप में जानते हैं। जैसे हम कहते हैं कि कोई भी दो चीजें जो seperate हैं तो उस seperateness को हम कैसे define करें। उसके लि ए आचार्य यहा ँ पर एक लक्ष ण बता रहे हैं।

Manish Jain Luhadia 
B.Arch (hons.), M.Plan
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पृथकत्व के लक्षण

हर वह चीज seperate कहलाएगी जिसमें प्रदेश भि न्नता हो। प्रदेश का अर्थ- जो space point होते हैं उसको प्रदेश बोलते हैं। आकाश के जो क्षेत्र हैं, उन क्षेत्रों में जो द्रव्य रह रहा है, दोनों के रहने का वह क्षेत्र जब तक अलग-अलग रहता है या भि न्न प्रदेशपना दोनों में घटित होता है, उसको हम पृथकत्व कहते हैं। भि न्नपना वास्त विक रूप से कहा जाता है। ‘सासणं हि वीरस्स’ ऐसा वीर भगवा न का शासन है। अब देखो! यहा ँ पर शासन का मतलब क्या हुआ? यह वीर भगवा न के द्वा रा कहा हुआ है, उपदेश है या यूँ कहें कि आज्ञा है। ‘शासनं आज्ञा निर् देशः इति एकार्थवाची’ शासन का मतलब पहले भी आपको बताया था , कि सी भी पदार्थ पर या व्यक्ति पर शासन करना नहीं है। शासन का मतलब उपदेश देना है। यह वीर भगवा न का जो शासन है, वीर भगवा न के उपदेश में यह बात आपको बड़ी हल्की भी लग सकती है और अगर आप इसको सोचने की कोशि श करे तो आपको बहुत गहरी भी लग सकती है। हल्की इसलि ए लगती है कि जब हमें कुछ knowledge नहीं होती है, तो हम अपने अनुसार कोई भी चीज को सोचते हैं, जानते हैं तो हमें उस चीज का जो वजन है उसका हमें पता नहीं रहता। अब आप कहोगे इतनी सी बात में क्या हो गया ? जो पृथकत्व है, उसका लक्ष ण बताया जा रहा था तो पृथक्त्व माने जो चीजें अलग-अलग space point में हो, अलग-अलग क्षेत्र में हो, जिनका अस्तित्व अलग-अलग हो, उसे हमने पृथक्त्व के रूप में define किया । इसमें विशेष बात क्या हो गई? इसलि ए कहना पड़ा कि वीर भगवा न का उपदेश है। यह इसलि ए विशेष बात हो गई कि आपको इसको समझने के लि ए अभी थोड़ा सा और पुरुषार्थ करना पड़े ड़ेगा और जो एक चीज आ रही है नीचे अगली लाइन में जिसकी व्याख्या कल नहीं हो पाई थी कि "अण्णत्त मतभावो" जो अन्यत्व है, अन्यपना है, वह अतद्भाव रूप होता है। ‘ण तब्भ वो होदि कथमेकको’ वह तद्भाव रूप नहीं होता है इसलि ए वे दोनों चीजें एक कैसे हो सकती हैं। अब यह तद्भाव औऱ अतद्भाव क्या है? कि सी भी चीज की भि न्नता को देखने के कई तरीके होते हैं। एक तो वह चीज भि न्न-भि न्न क्षेत्रों में रह रही हो तो भि न्न कहलाती है और एक भि न्नता उस समय पर भी परि लक्षि त होती है जब चीज एक ही क्षेत्र में हो लेकि न उसके गुण अलग-अलग रूप से व्याख्यायि त कि ए जाते हो, उसकी पर्याय अलग-अलग रूप से व्याख्यायि त की जाती है, उनमें भी भि न्नता है। जैसे द्रव्य है, द्रव्य के गुण हैं, द्रव्य की पर्याय है। अब जहा ँ एक द्रव्य होगा वह ीं पर उसके अनेक गुण रहेंगे, वह ीं पर उसकी पर्याय रहेगी तो द्रव्य को हम अलग कहेंगे, गुण को अलग कहेंगे, पर्याय को अलग कहेंगे तो यह भी भि न्नता हो गई। अगर यह तीनों चीजें एक हैं तो फिर आप सबको एक ही कह दो और अगर यह अलग-अलग है, तो फिर यह भी अलग है और जो अलग-अलग द्रव्य है, वह भी अलग है। उन में क्या अन्तर है? इस भेद को बताने के लि ए यहा ँ यह वीर भगवा न का उपदेश कार्यकारी है। एक भेद तो वह है अलग-अलग द्रव्य हैं, जो अलग-अलग क्षेत्रों में अपना अलग अस्तित्व बना करके रखते हैं। एक ही क्षेत्र में भी रहेंगे तो भी उनका अस्तित्व अपना अलग-अलग है इसलि ए वह द्रव्य भि न्न-भि न्न कहलाएँगे, उसको तो कहा जाएगा पृथक्त्व। वह भि न्नता कौन सी कहलाएगी? पृथक्त्व रूप भि न्नता मतलब उसको हम कहेंगे seprateness और एक भि न्नता उस रूप है कि द्रव्य के गुण हैं और हम उसको अलग-अलग गुण कहेंगे। द्रव्य का यह ज्ञा न गुण है, द्रव्य का यह दर्श न गुण है, द्रव्य का यह सुख गुण है, ये गुण भी अलग-अलग हैं तो एक द्रव्य के गुणों में जो भि न्नता आएगी उसको हम क्या कहेंगे। आचार्य कहते हैं:- यह कहलाएगा अन्यत्व रूप भि न्नता। दोनों के नाम अलग-अलग हैं। यह अन्यत्व रूप भि न्नता का मतलब हो गया अतद्भाव माने वह तद्भाव नहीं हो गया , वह उस रूप नहीं हो गया । अतद्भाव का मतलब वह उस रूप नहीं हो गया , एकमेक नहीं हो गया । द्रव्य में गुण रहते हुए भी द्रव्य और गुण दोनों एकमेक नहीं हो गये। द्रव्य में ही पर्याय रहते हुए भी द्रव्य और पर्याय सर्वथा एकमेक नहीं हो गयी। उनके स्व भाव अलग हैं। उनका पृथक्त्वपना हमें उसके अन्यत्वपने से ज्ञा न में आएगा। उनमें भी आप भेद को देखो! उनमें भी आप भि न्नता को देखो! कि समें? द्रव्य में, गुण में, पर्याय में। समझ में आ रहा है? जो लोग लगातार सुनते आ रहे हैं उन्हें थोड़ा -थोड़ा समझ में आ रहा होगा। कुछ लोग जो नए आकर बैठ जाते हैं उन्हें लगता होगा कि आज कुछ समझ ही नही आ रहा , थोड़ी कोशि श करो। हमेशा सरल सरल चीजें ही मत सुना करो। कभी-कभी सैद्धा न्ति क चीजें भी सुना करो क्योंकि वीर भगवा न का उपदेश ऐसा नहीं हैं कि केवल कि स्से-कहानिय ों में ही नि पटता रहे। समझ आ रहा है?

पृथक्त्व रुप भिन्नता और अन्यत्व रुप भिन्नता
तत्त्व दृष्टि अगर बनानी है, द्रव्य, गुण, पर्याय का स्व रूप समझना है, तो हमें देखना है कि आचार्यों ने व्याख्या ओं में कि तनी साव धानी रखते हुए हमें समझाने का प्रया स किया है कि दो प्रकार की भि न्नताएँ जो हमारे जानने में आती हैं, उन भि न्नताओं को अलग-अलग नामों से बताया है। एक तो हो गया पृथक्त्व रूप और एक हो गया अन्यत्व रूप भि न्नता। इन दोनों भि न्नताओं का अन्तर जानने के लि ए ही यह गाथा है, जिसकी चर्चा कल नहीं हो पाई थी तो पृथक्त्व का मतलब क्या हो गया ? जब दो द्रव्य भि न्न-भि न्न रूप हैं तो वह पृथकत्व कहलाएँगे लेकि न एक ही द्रव्य के जब गुणों की, पर्याय ों की चर्चा करेंगे वह अन्यत्व रूप कहलाएँगे। यह भि न्नता ही दो प्रकार से व्याख्यायि त की गई है। अब वह अन्यत्व रूप क्यों है? क्योंकि द्रव्य, गुण और पर्याय ये तीनों चीजें द्रव्य में ही हैं लेकि न तीनों चीजों की अपनी identity अलग-अलग है। Identity जानते हो क्या ? पहचान। आपके शरीर में मान लो आठ अंग हैं तो सबकी अपनी identity अलग-अलग होती है कि नहीं होती? शरीर एक भी है और शरीर अनेक भी है। एक होते हुए भी उसके अंग सब अलग-अलग हैं और सबका अलग-अलग काम है। सबकी अपनी अलग-अलग identity है, तो इस अलग-अलगपने की जो identity है इसको कहा जाएगा- अन्यत्व और यह अन्यत्व क्यों है? यह अतद्भाव है। अब यह शब्दाव ली भी पकड़ ने की कोशि श करो। अतद्भाव और तद्भाव । तद्भाव का मतलब उसी रूप तद्! तद्! जैसे कभी सुना हो ततमसि ? वह ी तुम हो, तद्भाव उसी भाव । तद् माने होता है वह , वह ी भाव । जो वह ी भाव को बताए, वह तद्भाव है और जो उस भाव को न बताए, वह अतद्भाव है। जब हमने कहा आँख तो आँख का भाव अलग है। क्योंकि आँख का काम देखना है और जब हमने कहा कान तो कान का काम अलग है, कान का भाव अलग है। भाव माने उसका स्व रुप, उसका लक्ष ण, उसकी अपनी identity सब अलग है। है कि नहीं! सब एक ही शरीर में है लेकि न सब कैसे हैं? पाँचों ही इन्द्रिया ँ अपना अतद्भाव रखती हैं। माने एक इन्द्रिय दूसरी इन्द्रिय रूप नहीं हो जाती है। तद्भाव नहीं हो गया । एक शरीर में रहते हुए भी स्पर्श न इन्द्रिय , घ्रा ण इन्द्रिय नहीं हो जाएगी। घ्रा ण इन्द्रिय , स्पर्श न इन्द्रिय नहीं हो जाएगी। चक्षु, कर्ण नहीं हो जाएगा। कर्ण , चक्षु नहीं हो जाएगा। चीजें वह ी हैं, आप सब अनुभूत कर रहे हो लेकि न आपको यह ज्ञा न नहीं है कि ये चीजें कि स तरीके से, कैसे व्याख्यायि त हो सकती हैं या इन चीजों को हम कि स तरह से समझ सकते हैं। एक भी है, अनेक भी है। एक में अनेकपना कैसे आएगा? तो आचार्य कहते हैं- अतद्भाव रूप अन्यत्व को जानने से आएगा। क्या मतलब हुआ? अतद्भाव मतलब वह वह ी नहीं है। कान, आँख नहीं है; आँख, कान नहीं है। आँख, आँख है; कान, कान है। ऐसे ही द्रव्य, गुण नहीं है; गुण, द्रव्य नहीं है। द्रव्य, द्रव्य है; गुण, गुण है; पर्याय , पर्याय है। यह सब कि ससे कहेंगे? इस बीच जो यह अन्तर आ रहा है द्रव्य में, गुण में, पर्याय में, इस अन्तर को बताने के लि ए यह अन्यत्व भाव है। इसको कहते हैं identity। यह अन्तर कि ससे पड़ा ? identity से। एक शरीर दूसरे शरीर से भि न्न है। जो एक शरीर है वह दूसरा शरीर नहीं है। ये जो अलग-अलग शरीर दिखाई दे रहे हैं, यह जो पृथकत्वता का लक्ष ण रूप भि न्नता है, तो इसको कहेंगे ये separate हैं। समझ आया ? कोशि श करो ऐसी कोई बहुत बड़ी बात नहीं है कि समझ में न आए। दो द्रव्य के बीच की भि न्नता पृथक्त्व रूप हो गयी और एक ही द्रव्य के अन्दर जो गुण है और जो पर्याय हैं उसको हम अलग-अलग define कर रहे हैं, वह जो भि न्नता है, वह ही अन्यत्व है। समझदार हो! आप तो समझ गये एक ही बार में। कठि न चीजों को भी समझ जाओ फिर कोई बात ही नहीं और वह शब्दाव ली कठि न है और कुछ नहीं। आपको एक उदाह रण से ही समझ में आ गया । शरीर एक है लेकि न उस एक शरीर के ही ये सब part हैं लेकि न हम कहेंगे कि इनके अभाव में भी शरीर नहीं है और शरीर के बि ना ये भी नहीं है। आँख, कान के अभाव में भी शरीर का कोई अस्तित्व नहीं है। धड़ , सि र, हाथ , पैर के अभाव में शरीर का कोई अस्तित्व नहीं और शरीर के बि ना भी इनका अलग से कोई अस्तित्व नहीं। इसी को हम समझें द्रव्य, गुण और पर्याय । अब चलो हो सकता है यह उदाह रण हमने आपको थोड़ा सा समझाने के लि ए, विषय में प्रवेश करने के लि ए दिया है। अब इसी को और सूक्ष्मता से समझने के लिय े दूसरा उदाह रण दे रहा हूँ। पहला उदाह रण इसलि ए दिया कि जिससे आपकी मोटी बुद्धि थोड़ी पतली हो जाय े। फिर पतली को और पतली करने कि लि ए दूसरा उदाह रण दिया जाएगा। कोई भी ऐसी छैनी है, कोई भी औजार है एकदम से तो पतला नहीं हो जाता। पहले वह मोटा है, तो पहले पतला करना पड़े ड़ेगा। पतले के बाद ही और ज़्या दा पतला होगा। अब आपको इतना तो समझ में आने लगा कि अन्यत्व क्या ? पृथक्त्व क्या ?

गुण और गुणी का भेद
अब अन्यत्व को और अच्छे ढंग से समझने के लि ए इससे भी बारीक उदाह रण है। इसमें भी आप को ऐसा लग सकता है कि बि ना हाथ , पैर के भी शरीर कुछ हो सकता है या बि ना शरीर के भी हाथ , पैर भी अलग हो सकते हैं। क्या समझ आ रहा है? अब इसी को और बारीकी से समझने के लि ए आगे का दूसरा उदाह रण देते हैं जिसको हम समझ सकते हैं गुण और गुणी के भेद के साथ । क्या बोला? गुण माने खाने वा ला गुड़ नहीं। quality जो गुण हैं, हर एक द्रव्य के अन्दर जो गुण हैं और गुण जिस द्रव्य में रहते हैं, वह द्रव्य हो गया गुणी। गुण को धारण करने वा ला गुणी है। गुण हो गयी quality और गुणी माने जो उस quality को रखता है, धारण करता है। Possesser of quality- गुणी और केवल quality- गुण। समझ आ रहा है? जैसे आपके पास में धन और धन को धारण करने वा ला धनी। ऐसे ही गुण और गुणी। अब देखो! आपका सफ़े फ़े द वस्त्र है। वस्त्र क्या हो गया ? यह एक द्रव्य हो गया । जितना भी वस्त्र है, वह कैसा है? सफेद है। सफेदी उसका क्या हो गई? गुण हो गया । whiteness is the quality of that cloth. समझ आ रहा है? थोड़ा english इसलि ए बोलता हूँ कि कुछ लोग ऐसे बैठे रहते हैं जिनको हिन्दी समझ में नहीं आती। थोड़ा उन्हें समझ में आने लगे तो whiteness क्या हो गई? यह quality हो गई, यह गुण हो गया और जो वस्त्र है वह द्रव्य हो गया । ठीक है न! द्रव्य को ही गुणी कहते हैं। गुण कि समें होते हैं? गुणी में। गुणी कौन कहलाता है? जिसमें गुण हो। शब्दों का खेल है थोड़ा सा। गुण कि समें होंगे? गुणी में। गुणी कौन कहलाय ेगा? जो द्रव्य होगा, जो गुणों को धारण कर रहा होगा। जैसे सफेदी कहा ँ रहेगी? कपड़े में तो कपड़ा क्या होगा? सफेद गुण को धारण करने वा ला हो गया । Whiteness को धारण करने वा ला हो गया । अब इस कपड़े में जो सफेदी है वह सफेदी तो हो गयी उसका शुक्ल गुण। क्या बोलते हैं? उसको whiteness कह लो, quality of whiteness या शुक्ल गुण। शुद्ध संस्कृ स्कृ त में शुक्ल गुण हो गया । जो द्रव्य है वह उसका कपड़ा हो गया , वस्त्र हो गया । अब हमें इन दोनों चीजों में क्या समझें? यह दोनो चीजें भि न्न हैं या एक है? जो वस्त्र है वह ी सफेदी है या सफेदी अलग है वस्त्र अलग है। अगर वस्त्र अलग है तो सफेदी के बि ना कैसे? और सफेदी अलग है तो वस्त्र कि बि ना कैसे? अगर अलग है तो है, एक नहीं कह सकते और अगर एक है, तो हम अलग-अलग फिर उनको रख नहीं सकते कि एक को बुलाओ तो दूसरा अपना आप आ जाएगा। वस्त्र को खींचो तो सफेदी भी खि ंच जाएगी या नहीं या सफेदी को अलग खि ंचना पड़े ड़ेगा, वस्त्र को अलग खींचना पड़े ड़ेगा। तो क्या समझ में आ रहा है? इसमें भि न्नता भी है और अभि न्नता भी है। कि समें? गुण में और गुणी में। द्रव्य में और गुण में भि न्नता भी है और अभि न्नता भी है। भि न्नता कि स रूप में है? नाम अलग-अलग हैं। एक का नाम वस्त्र है, एक का नाम सफेदी है। एक का नाम द्रव्य है, एक का नाम गुण है। काम भी अलग-अलग है। द्रव्य का काम अलग है, गुण का काम अलग है। लक्ष ण उसके अलग-अलग समझ में आ जाते हैं। क्या समझ आ रहा है? लक्ष ण भी अलग-अलग होंगे क्योंकि द्रव्य को तो हम कि सी भी इन्द्रिय से ग्रह ण कर सकते हैं लेकि न उसका जो शुक्लत्व गुण है, whiteness है वह तो चक्षु इन्द्रिय से ही ग्रह ण करने में आएगी। अन्तर हो गया न। द्रव्य को, कपड़े ड़े को हम कि सी भी इन्द्रिय से ग्रह ण कर सकते हैं, स्पर्श न इन्द्रिय से भी समझ सकते हैं कि हा ँ! यह वह ी कपड़ा है। रसना इन्द्रिय से भी समझ सकते हैं। कपड़े ड़े में भी taste होता है। नहीं देखा! खाते तो रहते हो, चबाते तो रहते हो कई बार देखा है, मैंने। कोई अपना पल्लू चबा रहा है, दुपट्टा चबा रहा है। अभी भी चबा रहे हैं कुछ लोग। क्या समझ आ रहा है? उसमें भी taste है कि नहीं! कुछ स्वा द आता है कि नहीं आता! उससे भी ग्रह ण करने में आ जाता है कि यह कपड़ा में चबा रहा हूँ। समझ आ रहा है? उसमें कुछ गंध भी होती है। घ्रा ण इन्द्रिय का भी विषय बन जाती है और कर्ण इन्द्रिय का विषय भी बन जाएगा, वह कपड़ा । अगर उससे हवा की जाए तो आपको पता पड़ेगा कि हा ँ! यह कपड़े की हवा है। हवा की आवा ज अन्दर जाएगी। ये सब चीजें आप वस्त्र के साथ घटित कर सकते हो लेकि न उसकी जो सफेदी है, शुक्लत्व है, उसके साथ घटित नहीं कर सकते हो। शुक्लत्व माने whiteness is the subject only of our eyes. समझ आ रहा है? whiteness जो होगा वह तो केवल आँखों का ही विषय होगा। यह अन्तर हो गया । कि तना बड़ा अन्तर हो गया ? आपने कभी महसूस किया कि नहीं किया ? रोज कपड़े पहनते हो, फाड़ ते रहते हो, कभी सफेद रखते हो, कभी लाल ले लेते हो। देखा कि तना अन्तर अपने को समझ में आता है। समझ आ रहा है न? यह अन्तर जो हमें अलग-अलग शब्दावलिय ों के साथ बताया जा रहा है, यह वीर भगवा न का उपदेश है। द्रव्य में जो गुण होते हैं, वह गुण कथंचित द्रव्य के स्व भाव से अलग होते हैं। द्रव्य का जो लक्ष ण है वह अलग और जो गुण का लक्ष ण है, वह अलग है। इसलि ए तो उन्हें अलग-अलग कहा जाता है। नहीं तो सब को द्रव्य ही कह देते या सबको गुण ही कह देते। जब हमने उनको अलग-अलग नाम दिया है, अलग-अलग उनकी संज्ञा है, अलग-अलग उनके लि ए पुकारा जा रहा है, तो इसका मतलब है कि उनमें भि न्नता है। एक ही चीज में रहते हुए भी भि न्नता है। कि सकी अपेक्षा से? उसके नाम की अपेक्षा से। नाम अलग-अलग हैं, उसके जो characteristic हैं, जो उसकी पहचान के जो लक्ष ण हैं, सब अलग हैं। उनके प्रयोजन भी अलग-अलग हैं। द्रव्य में अनेक गुण रह सकते हैं। क्या सुन रहे हो? द्रव्य में रहते ही हैं। द्रव्य में अनन्त गुण रहते हैं। अनेक गुण रहते हैं लेकि न गुण में कोई गुण नहीं रहता है, गुण अपना अलग ही रहेगा। द्रव्य में अनेक गुण हैं। वस्त्र में जिस स्थान पर सफेदी है, उसी स्था न पर स्पर्श गुण भी है। सफेदी हो गया रूप गुण और जैसा आपको कोमल या कठोर स्पर्श हो रहा है, वह उसका हो गया स्पर्श गुण। उसी स्था न पर उसका रस गुण है, उसी स्था न पर गंध गुण भी है। लेकि न जिस स्था न पर जिस गुण के रूप में जो सफेदी रह रही है उस गुण में कोई दूसरा गुण नहीं आ सकता। गुण अलग-अलग रहेंगे। एक ही point पर रहेंगे लेकि न गुणों का अलग-अलग रहना होगा और वे एक ही द्रव्य के गुण कहलाएँगे तो एक द्रव्य में गुण तो अनेक हो जाएँगे लेकि न एक गुण में एक ही गुण रहता है। गुण में कोई दूसरा गुण नही आता है। यह गुण का सबसे बड़ा दुर्गु ण है। क्या समझ आ रहा है? वह अपने गुण में कि सी दूसरे गुण को समाहि त नही करेगा।

Manish Jain Luhadia 
B.Arch (hons.), M.Plan
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#6

गुण द्रव्य के आश्रि त रहते हैं एक दूसरे में प्रवेश नहीं करते

'द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः' तत्वार्थ सूत्र के पाँचवे अध्याय में एक सूत्र आता है। गुणों की पहचान बताने के लि ए सूत्र दिया है। 'द्रव्याश्रया', द्रव्य के आश्रय से गुण रहते हैं। गुण कहाँ रहेंगे? एक आधार हो गया और उस एक आधार पर रहने वा ली चीज हो गई तो दोनों एक कैसे हो गई? द्रव्य आधार है, आश्रय है। कि नके लि ए? गुणों के लि ए वे आश्रय देने वा ला है और एक आश्रय लेने वा ला है। दोनों का nature अलग-अलग हो गया कि नहीं लेकि न ऐसा नहीं है। जैसे मान लो कि आपने यहा ँ दिल्ली में आश्रय ले लिया या इस रोहि णी के इस sector में आश्रय ले लिया । आपको कभी नि काल भी दिया जाए तो sector वह ी रहे, ऐसा आश्रय नहीं है। ये कैसा आश्रय है? यह स्व भाविक आश्रय है। अपने आप बना हुआ है। द्रव्य के ही आश्रय से गुण रहते हैं। गुण कभी भी द्रव्यों को छोड़ कर नहीं जाते। गुणों के बि ना द्रव्य की पहचान नहीं और द्रव्य के बि ना गुणों का अस्तित्व नहीं। समझ लो! थोड़ी सी चर्चा अभी सुन लो। ‘द्रव्यश्र या निर्गु णा गुणाः’ और गुणों की जो दूसरी characterstic है, वह क्या है? निर्गु णा गुणा: मतलब गुण निर्गु ण होते हैं माने उसमें कोई भी दूसरा गुण कभी भी प्रवेश नहीं करता। जैसे हम इसको पुद्गल द्रव्य में घटित करके बताते हैं ऐसा ही इसको अपने जीव द्रव्य में, आत्म द्रव्य में घटित करना चाहि ए। कैसे? आत्म द्रव्य में हर एक आत्मा का द्रव्य असंख्या त प्रदेश वा ला है। कि तने प्रदेश वा ला? असंख्या त प्रदेश वा ला। मतलब क्या हो गया ? कोई भी आत्मा कहीं पर भी इस लोक में रहेगी तो वह इस लोक के असंख्या त परमाणुओं के बराबर जो जगह है, उतनी घेरेगी। संख्या त नहीं, कि तनी? असंख्या त। मतलब हर आत्मा लोक के असंख्यात्वें भाग में है। असंख्या त points उसके लि ए घेरने में आएँगे। चाह े वह बिल्कु बिल्कु ल सुई की नोक के हजारवें भाग के बराबर भी जीव होगा तो भी वह लोक के असंख्या तवें भाग में कहलाएगा। वह भी उसका असंख्या त क्षेत्र घेर रहा है। मतलब लोक इतना बड़ा है कि उसका असंख्यतवा ँ भाग जो है, वह यह सुई की नोक के बराबर का क्षेत्र भी असंख्यतवा ँ भाग है और चींटी के बराबर जो क्षेत्र है वह भी असंख्यतवा ँ भाग है और जो मनुष्य के बराबर क्षेत्र है वह भी लोक के असंख्यात्वें भाग में है। हाथ ी, डाय नासोर कुछ भी बड़े ड़े से बड़ा जो आप जानते हो वह भी लोक के असंख्यात्वाँ भाग ही कहलाएगा। यह सब असंख्यात्वें भाग के ही सब proportion हैं और यह सब उसी में आ जाते हैं। तो क्या सि द्ध हुआ? द्रव्य हर आत्मा का कि तना क्षेत्र घेर रहा ह
ै? लोक का असंख्या तवा ँ भाग मतलब असंख्या त। एक संख्या है वह भी, असंख्या त भी एक गि नती है। समझ आ रहा है न? वो अनन्त नहीं है। वह असंख्या त माने असंख्या त। बस इतना ही है कि उसको हम गि न नहीं सकते। इसलि ए जो गि नती है, जो वह अपने आप में अलग है। उसका विवेचन फिर कभी करेंगें। असंख्यात्वें भाग माने असंख्या त points को घेरने वा ला हर आत्मा हैं एक द्रव्य के रूप में और हर आत्मा में अनन्त गुण हैं।

द्रव्य में ही गुण है लेकिन उन्हें भी अतद्भा व रूप में जानो
एक गुण का नाम जैसे ज्ञा न गुण। वह पूरी आत्मा के हर एक point पर पूरा फैला हुआ है जैसे कि वस्त्र में सफेदी फैली हुई है। ऐसे ही आत्मा का दूसरा गुण दर्श न गुण, जिससे वह देखता है। वह भी पूरी आत्मा में फैला हुआ है जैसे कि वस्त्र में सफ़े फ़े दी फैली हुई है। ऐसे ही आत्मा का सुख गुण, आत्मा में फैला हुआ है जैसे कि वस्त्र में सफ़े फ़े दी फैली हुई है। ऐसे एक नहीं अनेक, अनन्त गुण हैं और वे पूरे आत्म द्रव्य में फैले हुये हैं इसलि ए द्रव्य के अन्दर तो अनन्त गुण रहेंगे लेकि न गुण के अन्दर कोई गुण नहीं रहेगा। यह सीखने की कोशि श करो। भीतर जा रहा है कुछ? ‘द्रव्याश्र या निर्गु णा गुणा:’, गुण जो होते हैं वे द्रव्य के आश्रि त होते हैं पहली बात और दूसरी वे निर्गु ण होते हैं, माने गुणों को अपने अन्दर नहीं धारण करते। अकेले ही गुण के रूप में रहेंगे। यह द्रव्य अलग, गुण अलग। द्रव्य और गुणों के बीच में कि तना बड़ा अन्तर आ गया । लक्ष ण, भेद कि तना अलग-अलग हो गया । उनके लक्ष ण अलग और उनके लक्ष ण अलग लेकि न एक ही साथ रहते हैं तो इसलि ए कथंचित एक हैं लेकि न एक होते हुए भी हम उन्हें भि न्न कैसे जानें? उसके लि ए आचार्य कहते हैं- उन्हें अतद्भाव रूप में जानना। कैसे रूप में जानना? अतद्भाव रूप में जानना। तद्भाव का मतलब क्या हो गया ? जो द्रव्य है, वह ी गुण हो गया । जो substance है, वह ी उसकी quality हो गयी, वह ी उसका mode हो गया । ऐसा नहीं है। ऐसा हो जाएगा तो तद्भाव हो जाएगा। तो आचार्य कहते है- यह तद्भाव नहीं है, यह क्या है? अतद्भाव । सब एक रूप नहीं हो रहे हैं, सब अलग-अलग हैं लेकि न फिर भी एक ही साथ में हैं। माने जिस space point पर द्रव्य है, वह ीं पर गुण है, वह ीं पर पर्याय है। लेकि न फिर भी द्रव्य अलग है, गुण अलग है, पर्याय अलग है। नाम अलग है, लक्ष ण अलग है, प्रयोजन अलग है, पहचान अलग है। आ रहा है समझ में? इसको क्या बोलेंगे? इसको कहेंगे अन्यत्व रूप difference मतलब difference of identity। ये कि सका difference हो गया ? अतद्भाव रूप, difference of identity मतलब अपनी-अपनी identity का difference है और दो आत्मा एँ एक ही स्था न पर भी रहेंगी तो भी वे दो आत्म द्रव्य अलग-अलग कहलाएँगे और वे दोनों separate-separate कहलाएँगे। तब वह कहलाएगा difference of seperateness. समझ आ रहा है दोनो में अन्तर? एक पृथक्त्व में और एक अन्यत्व में।
पृथक्त्व दो द्रव्यों में घटि त होता है और अन्यत्व एक ही द्रव्य के गुण और पर्या य में घटि त होता है
पृथक्त्व दो द्रव्यों में घटित हो रहा है और अन्यत्व एक ही द्रव्य के गुण और पर्याय में घटित हो रहा है। हो रहा है कि नहीं हो रहा है? अब तो हो गया या और भी कि सी उदाह रण की जरूरत है। एक और जरूरत है। कोई भी उदाह रण ले लो आप। जैसे सोना है, स्वर्ण है और स्वर्ण में उसका पीलापन, उसकी yellowness है। उसी स्वर्ण में उसकी जो पर्याय है- कुण्ड ल रूप में। कुण्ड ल उसकी क्या हो गई? पर्याय हो गयी। पीलापन उसका गुण हो गया और सोना उसका द्रव्य हो गया । द्रव्य गुणों को धारण कि ए हुए है। अब सोचो! द्रव्य, गुणों का आश्रय है। सोचो! स्वर्ण , पीलेपन आदि अनेक गुणों का आश्रय भूत द्रव्य है। ठीक! उसकी पर्याय कुण्ड ल रूप है, द्रव्य भी अलग जानो, गुण भी अलग जानो, पर्याय भी अलग जानो। लेकि न जैसे हम कहेंगे- कुण्ड ल ले आओ तो सोना भी आ जाएगा, पीलापन भी आ जाएगा, उसकी जितनी कीमत होगी सब साथ में आ जाय ेगी। अलग-अलग तो नहीं है। अब आप अलग-अलग भी कह रहे हो यह पीला है, यह भारी है, यह कुण्ड ल है, यह हा र है। समझ आ रहा है? अब उसी कुण्ड ल का हम हा र बना देंगे तो क्या हो गया ? पर्याय बदल गयी। द्रव्य वह ी रहा , गुण वह ी रहे।
द्रव्य-गुण-पर्या य एक साथ रहते हुए भी भिन्न हैं--अतद्भा व है
द्रव्य कभी भी गुणों के साथ अलग नहीं है लेकि न द्रव्य और गुण को भी हम भि न्न-भि न्न जाने इसलि ए यहा ँ कहा जा रहा है- अतद्भाव है। द्रव्यों में, गुणों में, पर्याय ों में क्या है? अतद्भाव । तद्भाव नहीं है। वह उसी रूप नहीं है। जो वह है, वह ी वह है ऐसा नहीं है। जो आँख है, वह ी कान है ऐसा नहीं है। आँख का काम अलग है और कान का काम अलग है लेकि न जब एक शरीर को बुलाएँगे एक शरीर आएगा तो उसमें कान भी आ जाएगा, आँख भी आ जाएगी। समझ आ गया ? आ जाय ेगा और धीरे-धीरे। इतना कठि न तो कुछ नहीं है, शब्दाव ली है। यह भाव बताने के लि ए जो कल नही बता पाए थे, उसी को यहा ँ इसलि ए बताना जरुरी है क्योंकि हम जो कोई ग्रन्थ पढ़ रहे हैं तो उसका पूरा मर्म भी हमें आना चाहि ए। ‘अण् णत्त मतब्भा वो ण तब् भ वो होदि कथमेक्को ’ वह तद्भाव नहीं है, तो फिर एक कैसे हो गये। आचार्य महा राज ने खुद ही गाथा में प्रश्न उठा दिया कि द्रव्य, गुण, पर्याय सब एक नहीं हो गए जो तुम एक मान रहे हो। वे क्यों बता रहे हैं? अभी तक चर्चा चल रही थी सत् की। कि स की चर्चा चल रही थी? सत्!, सत्!, सत्! हर द्रव्य में क्या है? सत् है। सत् माने सत्ता गुण है। हर द्रव्य का existence है, तो सत्ता भी उसका एक गुण है और वह गुण कि स रूप में है? आप यह नहीं समझ लेना जो सत्ता है, वह ी द्रव्य है, जो द्रव्य है, वही सत्ता है। रहेंगी तो दोनो चीजें एक साथ । जहाँ द्रव्य आयेगा वहाँ सत्ता आ जाएगी। जहाँ सत्ता आएगी वहाँ द्रव्य होगा क्योंकि द्रव्य बि ना सत्ता के नहीं होता और सत्ता कि सी भी चीज की हो, वह द्रव्य रूप ज़ रूर होगा ही।

वस्तु व्यवस्था केवल ज्ञान का वि षय है

‘सद्-द्रव्यस्य-लक्ष णम्’ यह तत्वा र्थ सूत्र के सूत्र हैं। यहाँ  पढ़ ने में अच्छे काम आ रहे हैं। द्रव्य का लक्ष ण क्या है? सत् है। माने द्रव्य की पहचान कि ससे होती है? सत् से होती है। यह नहीं समझ लेना जो द्रव्य है, वह ी सत् है, जो सत् है वह ी द्रव्य है। समझ आ रहा है? अन्तर कि समें है? उनके नाम में है, उनकी पहचान में है। एक द्रव्य है, एक गुण है, यह उनमें अन्तर है लेकि न ऐसा अन्तर नहीं समझ लेना कि जैसे एक द्रव्य यह रखा है, दूसरा द्रव्य यह रखा है, इन दोनों द्रव्यों में जो पृथकत्व रूप अन्तर है वैसा अन्तर नहीं समझ लेना। अलग-अलग कहते हुए भी कैसे अलग-अलग हैं, यह विचार बनाए रखना। जैसे आपके शरीर के अंग अलग-अलग हैं फिर भी कैसे अलग-अलग हैं? जैसे दो टमाटर अलग-अलग रखे हैं ऐसे। ऐसे तो नहीं है न! अपने ही शरीर के अंग कि स रूप में अलग हैं? अन्यत्व रूप में और अपने से दूसरा शरीर जो अलग है, वह कि स रूप में है? पृथक्त्व रूप में। बस यह इसलि ए बताने की ज़ रूरत पड़ गयी कि सत्! सत्! सत्! कहते-कहते आप यह नहीं समझ लेना की सत् ही द्रव्य हो गया और द्रव्य ही सत् हो गया । इतनी गहरी बारीकिया ँ केवल ज्ञा नी के अलावा और कोई न जान सकता और न ही बता सकता। समझ आ रहा है न? आपको इसलि ए कहा गया है कि यह वीर भगवा न का शासन है। यह बातें आपको कहीं नहीं मि लेंगी। क्यों नही मि लेंगी? क्योंकि केवलज्ञा नी कोई होता ही नहीं। अब कि सी से कहो कि केवलज्ञा नी वह ी कैसे हैं? कैसे पहचान हो गयी कि आपके तीर्थं कर ही केवल ज्ञा नी हैं और आप दूसरों को मना कर देते हो और कोई केवलज्ञा नी नहीं है, कोई सर्वज्ञ नहीं है। अपने ही तीर्थं कर को सर्वज्ञ मान लेते हो आप। हमें बताओ तो, यदि सर्वज्ञ है। कोई सर्वज्ञ ता की कुछ बातें तो बताओ कि जिसके ज्ञा न में कौन सी ऐसी चीजें आ रही हैं, जिसको देख कर, जानकर हम यह अनुमान लगा ले कि हा ँ! ये सर्वज्ञ ता की चीजें हैं। बता दो आप! कोई भी कि तने भी सम्प्रदाय वा ले हो, कोई भी दर्श न हो, कोई भी मत हो, ऐसी कौन सी चीजें हैं जिससे उसकी सर्वज्ञ ता का अनुमान लगाया जा सके। यह चीजें हैं जिससे सर्वज्ञ ता का अनुमान लगता है। ये वे शब्दावलिया ँ है, वह तत्त्व ज्ञा न है जिससे सर्वज्ञ ता का अनुमान लगता है। बताओ! नहीं तो काैन देखने वा ला है? सत् कहा ँ होता है? सत् द्रव्य होता है, सत् गुण होता है। काैन जानता है? हम कि तने ही कपड़े ड़े पहनते रहते हैं, कि तने शरीर बदलते रहते हैं, कि तने शरीर जल चुके, मर चुके, कि तने कपड़े ड़े फट चुके, कट चुके और बदल चुके लेकि न द्रव्य, गुण और पर्याय के रूप में कुछ समझ आया है? नहीं समझ आया ? कैसे पता चले? होने को तो सब कुछ हो सकता है लेकि न यह सब कि सके आश्रि त हो रहा है? यह वस्तु की व्यवस्था क्या है? यह सारी की सारी बारीकिया ँ, गहराइया ँ जो केवल ज्ञा न में देखने में आती है, वह हमें इस तरह से बताई गयी है। इससे सर्वज्ञ ता की पहचान होती है।

द्रव्य व्यवस्था का ज्ञान सर्वज्ञ द्वा रा कहा गया है
इतनी सी बात को बताने के लि ए ही यह शब्द आया ‘शासन’ यह वीर भगवा न का है, दूसरी जगह यह बातें नही मि लेंगी। दूसरी जगह तो सब जानते है कि यह अलग है, यह अलग है लेकि न अलग-अलग भी कि स तरीके का अलग है। आप बता दो! कहीं पर भी इतनी बारीकिय ों से कोई। एक भी है, अनेक भी है। एक साथ भी है फिर भी अलग है। यह एक साथ रह कर अलग है, वो अपना एक साथ रह कर अलग है फिर भी दोनों आपस में अलग-अलग हैं। इन सबकी क्या -क्या व्याख्या न की जाएँ? इन सब की परि भाषाएँ क्या बनाई जाएँ? तो वह परभाषाएँ बनायी हैं। समझ आ रहा है? यह द्रव्य व्यवस्था है। मेरा आत्म द्रव्य और आपका आत्म द्रव्य, अभी तक हम क्या बोल रहे थे?

एक है! एक है! लेकि न ध्या न रखना सब पृथकत्व है! पृथकत्व है! पृथकत्व है! है कि नहीं पृथकत्व? अलग-अलग हैं, सब separate-separate है। एक नहीं मान लेना। जब आप एक मान लोगे तो सब कैसा हो जाएगा? सब उसी का एक ब्रह्मा जैसा हो जाएगा। समझ आ रहा है? जब आप अलग-अलग कहोगे पृथकत्व है! पृथकत्व है! पृथक्त्व है! तब आपके लि ए आएगा, क्यों पृथक्त्व है? उनका प्रदेशपना अलग है, उनका क्षेत्र अलग है और आपका आत्मा का क्षेत्र अलग है। एक ही स्था न पर रहते हुए भी दोनों द्रव्यों का क्षेत्र अलग-अलग होगा क्योंकि उनके प्रदेश अलग हैं और उस द्रव्य के प्रदेश अलग हैं। इस अलग-अलग विज्ञा न को कोई भी दुनिया में नहीं बताता। सब एक ही ब्रह्मा हैं, एक ही ब्रह्मा के सब कट-कट कर सब में अंश समाहि त हो गए हैं और जैसे एक चन्द्रमा की परछाइया ँ अलग-अलग तालाबों में एक ही दिखाई देती हैं वैसे ही सब घट में, घट माने सब शरीरों में एक ही वह ब्रह्मा की परछाइया ँ आ रही हैं। ऐसा समझाया जाता है। पहले भी सुना होगा और वह ी दिमाग में बैठा रहता है। उसको समझने के लि ए कि जो हमने बि ठा रखा है, दिमाग में कि वह सही है या गलत है और अगर आपके दिमाग में यह सब समझ में आएगा तो अपने आप समझ में आ जाएगा कि जो हमने अभी तक सोच रखा था , वह सही था या गलत था । यह ी अपने आप में सबसे बड़ा द्रव्य व्यवस्था का ज्ञा न है, तत्त्व का ज्ञा न है। इसी को हमने कहा था कि सबसे पहले द्रव्य पर विश्वा स करो। द्रव्य, गुण, पर्याय ों को जानने से सम्यग्दर्श न होता है। कैसे होगा? ऐसे द्रव्य, गुण, पर्याय ों को जानने से होगा। सत्! सत्! कहते हुए उस ब्रह्मा के अंश की तरह सबको एक मत मान लेना, ये सब भि न्न-भि न्न हैं लेकि न एक में भी अलग-अलग गुण हैं, अनेक गुण हैं और वे सब अपना अस्तित्व, अपना-अपना स्व भाव से अलग-अलग बनाए हुए हैं।

द्रव्य के एक भी गुण कोई अलग नहीं कर सकता
एक गुण भी द्रव्य से कोई अलग नहीं कर सकता, नष्ट नहीं कर सकता है। क्या समझ में आ रहा है? कभी आत्मा के अन्दर से ज्ञा न नि काल दिया जाए। मान लो असंख्या त प्रदेशी आत्मा है, एक point से बस ज्ञा न अलग कर दिया जाए। possible है? नहीं, यह बि ठा लो दिमाग में। तभी आपको आत्मा का ध्या न करते हुए आत्मा कुछ समझ में आएगी नहीं तो कुछ समझ में नहीं आयेगा। चेतना, आत्मा कहते हुए हमें ऐसा तो लगे मेरा आत्म द्रव्य, द्रव्य माने एक अलग पदार्थ है। जो हमें आँख बन्द करके भीतर से महसूस होता है। उस एक अलग पदार्थ को पहले हम पदार्थ के रूप में जान लेंगे और तब आँख बंद करोगे तो पूरा पदार्थ, पूरी चेतना, पूरा आत्म द्रव्य आपको शरीर के अन्दर महसूस होगा। कि ससे भरा हुआ? ज्ञा न शक्ति से, दर्श न शक्ति से, सुख से, अस्तित्व से, वस्तु त्व से, अनेक अनन्त गुणों से भरा हुआ, वह आत्म द्रव्य। उसी की पहचान करने के लि ए यहा ँ यह शब्द डालना पड़ा । ऐसा नहीं समझना कि गाथा पूरी नहीं हो रही थी तो लि ख दिया 'सासणं हि वीरस्स'। कई बार ऐसे भी कह देते है लोग गाथा पूर्ति र्ति करने के लि ए ऐसे शब्द डाल दिए जाते हैं। यह गाथा पूर्ति र्ति नहीं है। यह बताने के लि ए कि वीर भगवा न के शासन में ही ये चीजें हैं, ये इतना बारीकी का ज्ञा न है, अन्यत्र कहीं पर भी ये ज्ञा न आपको मि लने वा ला नहीं है। सबके पास जितना ज्ञा न मि लेगा बस वह उतना ही मि लेगा कि मनुष्य है, दुनिया में बहुत पशु हैं। जैसे कर्म करोगे वैसा फल मि लेगा। इसलि ए दया भाव रखो, क्ष मा भाव रखो और मानवता के अनुसार जीयो। इसके लि ए आप कहीं पर भी दूसरे धर्म में देख लो कोई दूसरी theory हो। बस इतनी सी theory है, सबके पास। द्रव्य, गुण, पर्याय तो कुछ है ही नहीं। आत्मा , परमात्मा तो कुछ है ही नहीं। तीन लोक की कोई व्यवस्था कुछ भी नहीं कही। फिर भी लोग पूछते हैं कि आप अपने भगवा न को ही तीर्थं कर कहते हो, सबको क्यों नहीं कहते हो? सबको तीर्थं कर क्यों नहीं मानते हो? तुम्हा रे पास बुद्धि तो हो कि हम क्यों नहीं मानते? और तुम क्यों मानते हो? तुम्हा रे पास तो बुद्धि की शून्यता है। तुम्हा रे पास तो परखने की, जानने की इतनी बुद्धि ही नहीं है कि हम क्यों नहीं मान रहे हैं और जब बुद्धि है, तो आप अपनी बुद्धि से उसको परखो, देखो। सर्वज्ञ ता की पहचान करने के कोई तरीके है या नहीं? यह तरीके हैं जो मैं आपको बता रहा हूँ। इसलि ए सब भगवा न एक जैसे, सब मन्दि र एक जैसे, सब तीर्थं कर एक जैसे। यहा ँ तीर्थं कर कहने से मतलब सबने अपने-अपने तीर्थं कर मान रखे हैं। सब तीर्थ एक जैसे, अलग-अलग क्यों करना। अरे! जब तुम्हा रे पास बुद्धि होगी तभी तो तुम समझोगे कि क्या तीर्थ होते हैं? क्या तीर्थं कर होते हैं? क्या भगवा न होते हैं? क्या तमाशे होते हैं? ये सब चीजें जब तक आप खुद नही समझोगे तब तक आप न दूसरों को समझा पाओगे, न आपके अन्दर दृढ़ विश्वा स कि सी चीज का आ पाएगा। आगे इसी बात को और विस्तारि त किया जा रहा है- देखो क्या कहते हैं।

होते प्रदेश अपने-अपने निरे हैं, पै वस् तु में, न बि खरे बि खरे पड़े ड़े हैं।
पर्या य-द्रव् य -गुण लक्ष ण से निरे हैं, पै वस् तु में, जि न कहे हे जग से परे हैं।।

अब उसी तद्भाव को, अतद्भाव को और बताने के लि ए आगे कहते हैं—
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#7

Lord Mahavira has expounded that the existence characterized by difference of space-points (predeśa) is separateness (prthaktva). The existence characterized by difference of individual identity, without difference of space-points, is the
self-identity (anyatva). How can that which maintains own identity be one with the other?

Explanatory Note: 
The existence characterized by difference of space-points (pradeśa), as in case of the stick-holder (dańdī) and the stick (dańda), is separateness (prthaktva). This kind of separateness (prthaktva) does not exist between the substance (dravya) and the existence (sattā) since these have commonality of space-points (pradeśa). As the cloth and its whiteness have the same space-points, in the same way, the substance (dravya) and the existence (sattā) have the same space-points. However, the nature of substance (dravya), with regard to its designation (samjñā), number (samkhyā), or sign (laksana), is not the same as that of the existence (sattā), and vice versa. Such difference beween the possessor-of-quality (gunī) and the quality (guna) is due to self-identity (anyatva). This self-identity (anyatva) exists in the substance (dravya) as well as in the existence (sattā). Both the substance (dravya) and the existence (sattā) have the same spacepoints (pradeśa) but differ with regard to their designation, number, or sign. Thus, there certainly is the difference of selfidentity (anyatva) between the two. As the cloth and its quality of whiteness have the difference of self-identity (anyatva), similarly, the substance (dravya) and the existence (sattā) have the difference of self-identity (anyatva). The quality of whiteness is the subject of the sense of sight and not of the other senses, but the cloth is the subject of other senses too. Therefore, the quality of whiteness is not the same as the cloth and the cloth is not the same as the quality of whiteness. The quality of existence (sattā) has the substance (dravya) as its substratum, it is one attribute of the substance (dravya) and is not the substratum of other attributes, it is one of the infinite attributes of the substance (dravya), and has many modes (paryāya). The nature of the substance (dravya), therefore, is not the nature of the existence (sattā) and the nature of the existence (sattā) is not the nature of the substance (dravya). There is the difference of self-identity (anyatva), as between the possessor-of-quality (gunī) and the quality (guna). There is, however, no difference of space-points (pradeśa).
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#8

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -13,14

सत्ता संबंध असत् भी सत् यदि तो खरभृंग बने ।
सतमें सत्तायोग क्या करें यों स्वभावसे सत्य सने
गुणगुणि एकप्रदेशता इसलिये वे भिन्न नहीं ।
गुणका क्षण और गुणी का और किन्तु यो अन्य सही ॥ ७ ॥

सारांश:- कुछ लोगों का विचार है कि सत्व सामान्य एक पृथक् चीज है और द्रव्य उससे भिन्न है। सत्व सामान्यके साथ संबंध होनेसे द्रव्य भी सत् कहा जाता है। इस पर ग्रंथकारका कहना है कि सत्ता सामान्यके साथ संबंध होनेसे पहिले द्रव्य स्वयं सत् है या असत् है?

यदि यह कहा जावे कि सत्व संबंधसे पहिले वह असत् ही होता है। तब जिसप्रकार सत्ताके साथ सम्बन्ध होनेसे द्रव्य असत्से सत् हो गया उसीप्रकार गधेके सींग भी उसी सत्तासे सम्बन्धित होकर सत् क्यों नहीं बन जाता है, उसे कौन रोकता है? क्योंकि दोनोंके ही स्वयं असत्यनेमें कोई भेद नहीं है। फिर सताका सम्बन्ध पृथिव्यादिके साथमें हो और खरविधा के साथमें न हो इसमें विशेष नियामक कौन है?

यदि पृथिव्यादि द्रव्योंको सत्ता सम्बन्धके पहिले भी सद्रूप ही मान लिया जाये तब वहाँ सत्ता सम्बन्ध होने का फल क्या शेष रह जाता है? कुछ भी नहीं। यही सर्वज्ञ श्री वीर भगवान्का कथन है कि जीवादिक सम्पूर्ण पदार्थ स्वयं सद्रूप हैं। ये सब गुणी हैं और इनका सत्व गुण है। जो भिन्न प्रदेशत्वके रूपमें इनसे कभी भी पृथक नहीं होता है किन्तु सर्वथा एकरूप ही होता है और उनसे किसी भी तरहसे भिन्न प्रतीत नहीं होता है, ऐसी बात भी नहीं है।

गुण और गुणीमें संज्ञा, संख्या, प्रयोजनादिसे भेद भी रहता ही है। जैसे वस्त्र और उसकी सफेदीमें होता है। वस्त्रकी सफेदी नेत्र इन्द्रियके द्वारा जानी जाती है, स्पर्शन आदिके द्वारा नहीं जानी जा सकती है किन्तु वस्त्रको जिसप्रकार हम लोग नेत्र इन्द्रियसे जान सकते हैं वैसे ही स्पर्शनादि इन्द्रियोंके द्वारा भी जान सकते हैं अतः मानना पड़ता है कि सफेदी वस्त्रसे भिन्न है।

इसीप्रकार सत्ता और द्रव्यमें भी अन्यपना है। सत्ता अपने आप में अन्यगुणसे रहित स्वयं गुणरूपसे आश्रित होकर रहनेवाली है किन्तु द्रव्य वस्तुत्वादि अनेक गुणोंका समुदायरूप गुणी होकर उस सत्ताका आश्रयभूत है। इसप्रकार सत्ता और द्रव्यके स्वरूपमें भेद है। ऐसा ही आगे और भी स्पष्टरूपसे बताते हैं
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