प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा - 16 पराभव किस कारण से होता है?
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श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार : ज्ञेयतत्त्वाधिकार

गाथा -16 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -118 (आचार्य प्रभाचंद्र  की टीका अनुसार )

जं दव्वं तण्ण गुणो जो वि गुणो सो ण तच्चमत्थादो ।
एसो हु अतब्भावो णेव अभावो त्ति णिद्दिट्ठो ॥ 16 ॥



आगे सर्वथा अभावरूप गुण-गुणी-भेदका निषेध करते हैं-यद्] जो [द्रव्यं] द्रव्य है, [तत्] सो [गुणः न] गुण नहीं है, और [यः] जो [अपि] निश्चयसे [गुणः] गुण है, [सः] वह [अर्थात् ] स्वरूपके भेदसे [तत्त्वं न] द्रव्य नहीं है। [एषः हि] यह गुण-गुणी भेदरूप ही [अतद्भावः] स्वरूपभेद है, [अभावः] सर्वथा अभाव [नैव] निश्चयसे नहीं है। [इति] ऐसा [निर्दिष्टः] सर्वज्ञदेवने दिखाया है / भावार्थ-एक द्रव्यमें जो द्रव्य है, वह गुण नहीं है, और जो गुण है, वह द्रव्य नहीं है / इस प्रकार जो द्रव्यका गुणरूप न होना है, वह अन्यत्वभेद व्यवहारसे कहा जाता है, न कि द्रव्यका अभाव गुण, और गुणका अभाव द्रव्य, ऐसा सर्वथा अभावरूप भेद, क्योंकि इस तरहका अभाव माननेसे द्रव्यका अनेकपना होना, 1 (द्रव्य-गुणों) का नाश होना २, और अपोहरूपत्व दोषका प्रसंग, ३ इस प्रकार तीन दोष उपस्थित होते हैं । वे इस प्रकार हैं कि, जैसे जोवका अभाव अजीव है, और अजीवका अभाव जीव है, इसलिये इन दोनों में अनेकत्व है, उसी प्रकार द्रव्यका अभाव गुण, और गुणका अभाव द्रव्य माननेसे एकत्वके अनेकत्व द्रव्यका प्रसंग आवेगा १ । जैसे सोनेके अभावसे सोनेके गुणका अभाव होता है, और सोनेके गुणके अभावसे सोनेका नाश सिद्ध होता है, उसी तरह द्रव्यके अभावसे गुणका अभाव होगा, और फिर गुणके अभावसे द्रव्यका अभाव हो जावेगा । इस प्रकार दोनोंके नाशका प्रसंग आवेगा २ । तीसरे, जैसे घटका अभावमात्र पट है, और पटका अभावमात्र घट है, इन दोनोमें किसीका रूप किसीमें नहीं है, उसी प्रकार द्रव्यका अभावमात्र गुण होगा, और गुणका अभावमात्र द्रव्य होगा, इस तरह अपोहरूपत्व दोषका प्रसंग आवेगा ३ । इसलिये जो द्रव्य - गुणकी एकता चाहते हैं, दोनोंका नाश नहीं चाहते हैं, और अपोहरूपत्व दोषसे जुदा रहना चाहते हैं, उन्हें भगवान् वीतरागदेवने जो गुण- गुणी में व्यवहारसे अन्यत्वभेद दिखलाया है, उसे अंगीकार करना चाहिये, सर्वथा अभावरूप मानना योग्य नहीं है ॥

मुनि श्री प्रणम्य सागर जी  प्रवचनसार

जो द्रव्य है वह कभी गुण हो न पाता , है वस्तुतः गुण नहीं बन द्रव्य पाता ।
सो ही रहा अतद्भाव सही कथा है , होता कथंचित् अभाव न सर्वथा है ।

अन्वयार्थ - ( जं दव्वं ) जो द्रव्य है ( तण्ण गणो ) वह गुण नहीं है , ( वि जो गुणो ) और जो । गुण है ( सो ण तच्च ) वह द्रव्य नहीं है । ( अत्थादो ) शब्दार्थ लक्षण की अपेक्षा से ( एसो हु । अतब्भावो ) यह ही अतद्भाव ; ( ण एव अभावो ) सर्वथा अभाव अतद्भाव नहीं है ; ( त्ति णिहिट्ठो ) । ऐसा प्रभु के द्वारा निर्दिष्ट किया गया है ।


Manish Jain Luhadia 
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#2

द्रव्य और गुण का सम्बन्ध
यहाँ पर द्रव्य और गुण के बीच जो सम्बन्ध है उसके बारे में बताया जा रहा है। कैसा सम्बन्ध होता है, कैसा नहीं होता है? पि छली गाथा में भी इसकी चर्चा की थी। एक पृथकत्व भाव है और एक अन्यत्व भाव है। इन दोनों के बीच में अन्तर को समझने की कोशि श की थी। उसी को पुनः एक निष्कर्ष के रूप में यहा ँ पर सामने रखते हुए कहा जा रहा है-”जं दव्वं ” जो द्रव्य है, “तण्ण गुणो” वह गुण नहीं है। जो द्रव्य है वह क्या है? गुण नहीं है। यहा ँ अत्यन्त स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि हम द्रव्य को गुण नहीं कहते हैं और “जो वि गुणो स ण तच्चं” जो गुण है वह द्रव्य नहीं है। ‘अत्था दो’ अर्था त् अर्थ से, अर्थ माने वास्त विकता से या परि भाषा से द्रव्य को गुण नहीं कहा जाता और गुण को द्रव्य नहीं कहा जाता है। यह हमने अच्छी तरह से समझ लिया है कि द्रव्य सभी गुणों को आश्रय देने वा ला है और गुण उसके आश्रय से रहने वा ले हैं। द्रव्य एक होता है, गुण अनेक होते हैं। द्रव्य कि सी भी पदार्थ का विशेष्य कहलाता है और गुण उसके विशेषण कहलाते हैं। इस तरह से हम देखते हैं तो द्रव्य और गुणों में हमें बहुत बड़ा अन्तर समझ में आता है क्योंकि जो एक है वह अनेक के साथ एकता नहीं रख सकता। द्रव्य एक है और गुण अनेक हैं। जो एक स्व भाव वा ला है वह अनेक स्व भाव वा लों से अपना सम्बन्ध, एकता, सर्वथा नहीं रख सकता। द्रव्य गुणों को धारण करने वा ला है, आधार है लेकि न एक गुण कि सी भी अन्य गुण को धारण नहीं करता।
गुण निर्गु ण होता है
यह भी पि छली गाथा में बताया था क्योंकि गुण निर्गु ण होता है। गुणों में कोई दूसरा गुण नहीं होता सब जो हम समझ रहे हैं कि द्रव्य गुणों के साथ रहते हैं, गुण द्रव्य के साथ रहते हैं और द्रव्य और गुणों का एक ही प्रदेशों पर, एक ही स्था न पर रहना होता है। उनमें प्रदेश भेद नहीं है क्योंकि प्रदेश भेद हो जाय ेगा तो क्या हो जाएगा? वह पृथक्त्व हो जाएगा। जिसमें प्रदेश भेद पाया जाता है वह क्या हो जाता है? वह पृथक्त्व लक्ष ण वा ली भि न्नता हो जाती है। वह न हो कर उनमें क्या भि न्नता है? वह उसी एक क्षेत्र में, उसी एक क्षेत्रव गाह में, द्रव्य और गुण दोनों एक साथ रहते हैं इसलि ए “एसो अतब्भा वो” यह ी उनका अतद्भाव है। इसको क्या कहा ? अतद्भाव भाव ।
अतद्भा व
अतद्भाव का मतलब तद् भाव नहीं होना माने उस रूप नहीं होना। द्रव्य का गुण रूप नहीं होना और गुणों का द्रव्य रूप नहीं होना। इससे यह समझाया जा रहा है कि द्रव्य में और गुणों में अन्तर जानना और गुण की परि भाषा के माध्य म से यह भी जानना कि गुण कभी द्रव्य नहीं हो जाता है और द्रव्य कभी गुण नहीं हो जाता। “णेव अभावो त् ति णिद्दिट्ठो ” फिर कहते हैं यह अभाव नहीं समझना “णिद्दिट्ठो ” यानि यह अभाव निर्दि निर्दि ष्ट नहीं किया है अर्था त् नहीं कहा है। मतलब कि द्रव्य में गुण का अभाव और गुण में द्रव्य का अभाव नहीं है। जो अभाव एक दूसरे के सर्वथा नहीं होने रूप होता है वैसा अभाव नहीं है। किन्तु यह अभाव कैसा है? एक का दूसरे रूप नहीं होना। एक गुण कभी दूसरे गुण के रूप नहीं होगा, यह ी उसका एक दूसरे में अभाव है। इसी को अतद्भाव कहते हैं। आत्मा का ज्ञा न गुण और आत्मा का दर्श न गुण।
अब समझने की कोशि श करो। आत्मा का ज्ञा न गुण कभी दर्श न गुण रूप नहीं होगा और आत्मा का दर्श न गुण कभी भी ज्ञा न गुण रुप नहीं होगा। समझ आ रहा है? एक गुण में भी दूसरे गुण का अभाव रहता है और द्रव्य में भी गुण के स्व भाव का अभाव रहता है। आत्मा ज्ञा न ही नहीं है। क्या समझ आ रहा है? आत्मा ज्ञा न ही नहीं है, आत्मा ज्ञा न के अलावा भी बहुत कुछ है क्योंकि अगर आत्मा को ज्ञा न ही मान लेंगे तो फिर आत्मा में एक ही गुण हो जाएगा। आत्मा ज्ञा न गुण वा ला है लेकि न आत्मा में ज्ञा न के अलावा और अनेक अनन्त गुण भी हैं। आत्मा कभी ज्ञा न रूप नहीं हो गया , ज्ञा न कभी आत्मा रूप नहीं हो गया । इससे यह भी समझ सकते हैं कि द्रव्य कभी गुण रूप नहीं होता है और गुण कभी द्रव्य रूप नहीं होते। आत्मा केवल ज्ञा न रूप नहीं है, आत्मा अन्य अनेक रूपों में भी है। आत्मा का ज्ञा न रूप नहीं होना माने आत्मा - आत्मा रहेगा, ज्ञा न- ज्ञा न रहेगा। यदि आत्मा ही ज्ञा न हो गया फिर दूसरा कोई गुण आत्मा में हो ही नहीं सकता है। इसलि ए आत्मा को ज्ञा न का अभाव और ज्ञा न को आत्मा के अभाव के साथ जानना, इसको कहते हैं- अतद्भाव । क्या बोला इसको? अतद्भाव । इसको जानने का प्रयोजन यह है कि जो हमारी आत्मा का ज्ञा न, दर्श न स्व भाव आदि अनेक गुणों के रूप में हमें महसूस होता है, उस स्व भाव को और स्व भाव को धारण करने वा ले द्रव्य को हम अलग-अलग शब्दों से परि भाषि त कर सके। ये वस्तु एँ एक रूप नहीं है, एक तरह से ऐसा बताने के लि ए इस गाथा का यहा ँ पर अवतरण हुआ है।
आत्मा और गुण का भिन्नपना
यह  गाथा क्या बता रही है हमको? द्रव्य कभी भी गुण रूप नहीं होता और गुण कभी भी द्रव्य रूप नहीं होता। द्रव्य और गुण में सम्बन्ध भी है, एकपना भी है, एक क्षेत्र में रहना भी होता है लेकि न फिर भी सबका स्व भाव अपना-अपना, अलग-अलग बना रहता है। अब आप भी विचार कर सकते हैं कि द्रव्य और गुण ये एक क्षेत्राव गाह ी वस्तु एँ हैं, एक ही स्था न में रहने वा ली परि णतिया ँ हैं। इनमें भी जब एक-दूसरे रूप नहीं हो रहा है और कि सी का भी अभाव नहीं हो रहा है, तो दो द्रव्य जो एक साथ रहते हैं, वे कैसे एक दूसरे रूप हो सकते हैं? दो द्रव्यों का भि न्न-भि न्न रहना, यह पृथक्त्व लक्ष ण वा ला भि न्नपना कभी भी एक रूप नहीं हो सकता है। जब हमारी दृष्टि में इस तरह का भाव आने लग जाता है तब हम प्रत्ये क द्रव्य को अपने से भि न्न-भि न्न महसूस करने लग जाते हैं।
एकत्व: अन्यत्व
आपने बारह भाव नाओं में दो भाव नाएँ पढ़ी होंगी- एक भाव ना कहलाती है- एकत्व भाव ना और एक कहलाती है- अन्यत्व भाव ना। एकत्व भाव ना का मतलब मैं एक हूँ, एक पने की भाव ना करना, मैं अनेक नहीं हूँ, मैं एक हूँ। एकपने की भाव ना करना यह कहलाती है- एकत्व भाव ना। मेरे साथ जुड़ी हुई कुछ भी वस्तु एँ हैं वह सब मुझ से अन्य हैं, यह भाव ना करना कहलाती है- अन्यत्व भाव ना। ज्या दा अन्तर आपको समझ नहीं आएगा लेकि न दोनों भाव नाओं में अन्तर है। बात वह ी है, जहा ँ एक है वहा ँ पर अनेकपना नहीं तो जहा ँ एक है, वहा ँ अन्य सब चीज छूट गई लेकि न वह हमारी दृष्टि की बात है कि हमारी दृष्टि कहा ँ है। जब हमारी दृष्टि एक पर होगी तो हमारे अन्दर एकत्व भाव ना होगी और जब हमारी दृष्टि में इतनी वस्तु एँ जो हमारे सामने है वह सब हमें सामने होते हुए भी अन्य-अन्य रूप में दिखाई देंगे, यह हम से अन्य यानि भि न्न है, तो इसे कहेंगे- अन्यत्व भाव ना।
अब देखो! यहा ँ पर आया हुआ उसमें जो अन्यत्व शब्द है और पि छली गाथा में जो अन्यत्व शब्द आया था , उसमें बड़ा अन्तर है। यहा ँ गाथा में जो अन्यत्व रूप भि न्नता बताई जा रही है, जिसे हमने कल बताया था , वह difference होते हुए भी वह identity का difference है, difference of identity। यहा ँ पर अन्यत्व को अलग रूप में प्रयोग किया है। अन्यत्व का मतलब यहा ँ पर द्रव्य में गुण का अभाव , गुण में द्रव्य का अभाव , यह वह अन्यत्व है। लेकि न व्यवहा र की भाषा में जो अन्यत्व भाव ना में हम पढ़ ते हैं उस अन्यत्व भाव ना में क्या आ जाता है? जो कोई भी द्रव्य हैं, वह पृथक रूप हैं, उस पृथक्त्व को भी हम अन्यत्व रूप में स्वी कार करेंगे। वे सब हमसे seperate-seperate हैं। यह ी हमारे अन्दर का जो भाव है- उसको अन्यत्व भाव के रूप से कहा जाता है। एकत्व भाव का अभाव होने पर जब हमारी दृष्टि में अन्य आए तो उसमें भी हमारे अन्दर अन्यत्व की भाव ना बनी रहे। क्या मतलब हुआ? एकत्व का अभाव होने पर मतलब यह है कि जब आप अपनी आत्मा में एकपने की भाव ना कर रहे हैं कि मैं एक हूँ, मैं एक हूँ तो आपके अन्दर में वह एकत्व भाव बना हुआ है। पर जब आपने उस एकत्व का अभाव कर दिया यानि अपनी आत्मा की भाव ना छोड़ दिया तो क्या होगा आपके सामने? अन्य-अन्य लोग आ जाएँगे आपके साथ । फिर क्या करोगे? जब अन्य लोग आपके सामने आएँगे तो अन्य के साथ आपका एकत्व फिर स्थापि त होगा। अभी तक आपका एकत्व कहा ँ स्थापि त हो रहा था ? अपने आप में। जब आप आत्मा की भाव ना करोगे तो अपने आप में एकत्व स्थापि त होता है और जब हम इस भाव ना को छोड़ कर बाह र आते हैं तो फिर हमारा अन्य के साथ में एकत्व होने लग जाता है। क्या समझ आ रहा है? अन्य के साथ एकत्व होने का मतलब होता है मोह के कारण से अन्य को एक रूप मानना। कि स कारण से? मोह के कारण से। आचार्य कहते हैं कि हम उस समय पर भी अपने आप को सुरक्षि त रख सकते हैं यदि हम अन्यत्व की भाव ना बना कर रखें। आप सब के बीच रह कर भी कैसे अपने आप को भि न्न रख सकते हैं? अन्यत्व की भाव ना से। यह भि न्न है, यह भि न्न है, यह भि न्न है। समझ आ रहा है? इसका स्व रुप हमारे स्व रुप से भि न्न है। अन्यत्व की भाव ना दृढ़ होने पर आपके बाह र जितनी भी वस्तु एँ होंगी उन सबसे आप मोह को प्राप्त नहीं होंगे, उनसे आपका मोह के कारण से एकत्व नहीं होगा। जब मोह नहीं होगा तो फिर आपका अपने एकत्व भाव में, एकाकी के भाव में आपका मन लग जाएगा। समझ आ रहा है?

एकाकीपन: अकेलापन
एक होता है- एकाकीपन और एक होता है- अकेलापन। इन दोनों में कुछ अन्तर आपको समझ आता है कि नहीं आता है? एकत्व भाव ना करने के लि ए आचार्यों ने कहा है। एकत्व भाव ना का मतलब मैं एकाकी हूँ, मैं एक हूँ, एक स्व रूप हूँ। यह भाव ना करने में आपको कहीं कोई कठि नाई नहीं होगी और इस भाव ना में आपके अन्दर कि सी भी तरीके से खेद-खि न्नता नहीं आएगी लेकि न जिसे आप अकेलापन कहते हो वो अकेलापन आपके लि ए खेद-खि न्नता लाता है। इस अकेलेपन में आपको बोरिय त होती है। अकेलेपन में आपको कि सी का साथ चाहि ए होता है। अकेलापन होगा तो आप इसे भरने की कोशि श करेंगे कि मेरे भीतर का अकेलापन कोई दूर कर दे। कोई हमारा अकेलापन दूर कर दे। हमारा अकेलापन कोई भर दे। इसअकेलेपन में हमेशा आपको अधूरापन महसूस होगा। यह क्या है? अधूरापन। इसको हम अलग-अलग शब्दों में समझें तो इसको कहते हैं- loneliness। क्या कहते हैं अकेलेपन को? loneliness।

एकाकी रहो: अकेले नहीं
जबकि आचार्यों ने यह नहीं कहा कि आप अकेले रहो। क्या बोला? आप एकाकी रहो। एकत्व भाव ना का जिक्र किया है और अध्या त्म ग्र न्थों में जब भी आत्मा की भाव ना की गई वहा ँ पर एक: शब्द का प्रयोग किया गया । “एगो मे सासदो आदा” मेरा आत्मा एक है, शाश्वत है। एक आत्मा की तरफ आप अपना भाव ले जाओगे तो आप में अधूरापन नहीं रहेगा, आप पूर्ण ता की ओर जाओगे। जब आप अकेलापन महसूस करोगे तो आप में अधूरापन होगा, आप कि सी का साथ चाह ोगे। यदि आपका साथ कि सी से छूट गया है, तो फिर आप एक नया साथ फिर बनाने की इच्छा करोगे। Friend, relation जब कि सी भी तरीके के टूटते हैं तो खेद होता है। फिर एक friend छूट गया । उसकी खेद-खि न्नता हो गई तो फिर चलो कोई बात नहीं; मैं दूसरा बना लूँगा। एक relation था वह टूट गया ; चलो कोई बात नहीं। तुम ही एक नहीं हो जमाने में; मैं दूसरे से सम्बन्ध बना लूँगा। यह हम कि स दौड़ में होते हैं? अपने अकेलेपन को हम समझ नहीं पाते हैं, इस अकेलेपन के भाव को समझ नहीं पाते हैं तो हम अपने अकेलेपन को दूर करने के लि ए एक नया मित्र , एक नया सम्बन्धी , कोई न कोई बनाने के लि ए हमेशा लालायि त रहते हैं लेकि न कि सी के भी साथ हो जाने पर आपका वह अकेलेपन का भाव कभी भी भर नहीं सकता है। इसे भाव कहें कि घाव कहें? अकेलापन होना हमारे हृदय का एक घाव है (loneliness is a wound of our heart)। जहा ँ पर हमारे अन्दर अकेलापन आएगा वहा ँ पर हमारे अन्दर एक घाव होगा यानि हम उसे दूसरे के माध्य म से भरना चाह ेंगे लेकि न वह कभी भी भर नहीं पाता है। थोड़ी देर के लि ए आपको लगता है कि कि सी ने मेरा साथ दिया या कोई मेरे साथ हो गया और मेरे लि ए थोड़ी सी उसमें राह त मि ल गई और थोड़ी सी राह त मि लने के बाद में आपके अन्दर कि सी न कि सी घटना से आपको फिर यह महसूस होने लग जाता है कि नहीं यह अकेलेपन का भाव बहुत देर तक जाता नहीं है। यह वह ीं का वह ीं बना रहता है। समझ आ रहा है? दुनिया के अकेलेपन का भाव और अध्या त्म के एकाकीपन का भाव , इस में बहुत बड़ा अन्तर है।

आधी छोड़ पूरी को धाए
दुनिया में हर आदमी अकेलेपन को दूर करना चाह रहा है। loneliness उसे सहन नहीं होती है, जिसे हम अकेलापन कहते हैं। उसे दूर करने के लि ए वह कि सी न कि सी से कुछ न कुछ familiar होता है, परि चित होता है। उसके माध्य म से वह अपने अकेलेपन के भाव को, घाव को दूर करने की कोशि श करता है। यह अज्ञा नता है। इसको आचार्यों ने क्या कहा है? यह एक बहुत बड़ी , एक अलग type की अज्ञा नता है। इस अज्ञा नता के भाव में कभी भी उसको कभी भी सन्तुष्टि नहीं मि लती है। जैसे बोलते हैं न “आधी छोड़ पूरी को धाए” वह ी स्थिति उसकी चलती रहती है क्योंकि अकेलेपन का भाव हमेशा उसको खटकता रहता है और उसी भाव के कारण उसके मन में कुछ अगर साथ में हो भी जाता है, तो भी वह सोचता है कि यह साथ भी कब तक रहेगा। समझ आ रहा है? यदि कोई साथ भी हो तो थोड़ी देर के लि ए तो आप भूल जाओगे लेकि न फिर भी आपके मन में एक भय भीतर पड़ा रहता है कि यह साथ भी कब तक रहेगा। आज के लोग तो साथ ी बनाने के बाद भी यह सोचते ही रहते हैं कि यह साथ कब छोड़ ना है और यह साथ कब तक रहना है और उनका दूसरा साथ ी बनाने के ऊपर दृष्टि रहती है। एक साथ पूरा चल नहीं पाता है। यह सब क्या है? यह भीतर के अकेलेपन का एक बहुत बड़ा परि णाम है, जिस परि णाम को यदि हम भर सकते हैं, जिस घाव को यदि हम भर सकते हैं तो उसका मल्हम एक ही है कि हम एकत्व भाव ना का चिन्तन करें। क्या करें? हा ँ! यह अकेलापन और कोई नहीं भर सकता। यह है- aloneness। इसको क्या बोलते हैं? एकाकी का मतलब क्या हो गया है? alone, I am alone। अकेलेपन का मतलब क्या हो गया ? loneliness। जितने भी lawn मि लेंगे आपको, यह lawn भी क्या है? यहा ँ पर भी लोग आपको घूमते हुए मि लते हैं न, एक दूसरे के साथ बैठे हुए मि लते हैं न, यह क्या है ? यह सब अपने अकेलेपन को भर रहे हैं। एक-दूसरे के माध्य म से अपने अकेलेपन के भाव को दूर करने की कोशि श कर रहे हैं। क्या उनकी यह कोशि श सही है? fundamentally यह सही नहीं है। अर्थ माने धार्मि ार्मिक दृष्टि कोण से या वास्त विक दृष्टि कोण से, तत्त्व की दृष्टि से हम देखे तो यह अकेलेपन को दूर करने का कोई उपाय है ही नहीं। अकेलेपन को दूर करने के लि ए व्यक्ति एक रि श्ता तोड़ कर दूसरा रि श्ता बना लेता है। एक को छोड़ कर दूसरे के साथ होने की कोशि श करता है लेकि न आचार्य कहते हैं इससे कभी भी तुम्हा रे अन्दर एकत्वपने का भाव नहीं आयेगा और अकेलेपन का भाव कभी दूर होगा नहीं। अतः एकत्वपने के भाव में क्या है? वह उस समय पर अपने आपको एकाकी मानेगा तो एकाकी मानने का मतलब है कि वह अपने आप में self centered हो रहा है। वह कहा ँ आ रहा है? अपने centre की ओर आ रहा है, जिसे कहते हैं- द्रव्य। उसको यहा ँ क्या कहा जा रहा है? द्रव्य। द्रव्य का मतलब ही है- तत्त्व । जो यहा ँ पर तत्त्व शब्द से define किया है “जो णो वि गुणो सो ण तच्चं” जो गुण नहीं है वह तत्त्व नहीं है। तत्त्व माने द्रव्य नहीं। अतः द्रव्य का मतलब क्या है? तत्त्व ।

द्रव्य और पर्या य
तत्त्व का मतलब ही होता है अपना भाव , अपना द्रव्य और द्रव्य माने अपना जिससे सम्बन्ध है, वह centre point। वह क्या है? वह द्रव्य है। उसी द्रव्य के चारों ओर सभी गुण रह रहे हैं, उसी द्रव्य में सभी गुणों का वा स हो रहा है। समझ आ रहा है? उस गुण की, उन गुणों की जो अनेक प्रकार की परि णतिया ँ हो रही हैं, यह उसकी पर्याय है। एक तरह से हम समझें कि पर्याय हमारे लि ए परिधि के रूप में है जो चारों ओर हमें दिखाई देती हैं। केन्द्र हमारा द्रव्य है। सुन रहे हो? उस द्रव्य को परीधि से मि लाने वा ली जो रेखाएँ हैं, वह सब हमारे गुण हैं, जो हमारे उस केन्द्र के साथ और उस circle के साथ में हमेशा बने रहने वा ले हैं। हम हमेशा कहा ँ घूमते हैं? परिधि पर घूमते हैं। पर्याय ों में घूमते हैं। हम न तो कभी गुणों की ओर आ पाते हैं, न कभी द्रव्य की ओर आ पाते हैं। जब तक हम गुणों की ओर नहीं आएँगे तो द्रव्य की ओर आना तो कभी सम्भव ही नहीं हो पाएगा। जब हम परिधि से हट कर, पर्याय से हटकर द्रव्य की ओर आएँगे उस समय पर हमें अपना पूरा का पूरा भरा हुआ भाव दिखाई देगा। परिधि पर घूम रहे हो तो आपको वहा ँ पर पूरा का पूरा खालीपन दिखाई दे रहा है क्योंकि आप की भीतर दृष्टि नहीं रही। बाह र की ओर देखोगे तो बाह र तो नि तान्त एक अन्धकार है, समझ लो। उसमें ही आप डोलने की इच्छा कर रहे हैं। उसी में आप अपने साथ ी बनाना चाह रहे हैं, उसी में आप अपना अकेलापन भरना चाह रहे हो लेकि न आपको यह पता नहीं है कि हमारी यह दौड़ हमें थकाने वा ली है। परिधि के बाह र जितना जाने की कोशि श करोगे उतना परेशान होंगे, भटकोगे। जितना परिधि से केन्द्र की ओर आने की कोशि श करोगे तो क्या होगा? अपने में आओगे। अपने में आओगे तो आप को सुख मि लेगा, शान्ति मि लेगी। आप एकत्व की ओर आओगे। इसी का मतलब है हम अब अपने जो centre था एक था , गुण तो अनेक हैं। जो पूरे ३६० degree के angle बनेंगे, वह सब क्या हो गए? गुण। वह एक-एक लाइन जो केन्द्र से परिधि की ओर जा रही है, वह सब क्या हो गए? गुण। गुण तो अनेक हैं लेकि न द्रव्य, centre point एक ही है। उन सब गुणों का समूह और उन सब गुणों का परि णमन हमें एक पर्याय के रूप में बाह र दिखाई देता है। हमारी दृष्टि केवल पर्याय पर रहती है। हम कभी भी अपने तत्त्व , अपने  द्रव्य की ओर नहीं आ पाते क्योंकि एकत्व का भाव हमारे अन्दर नहीं आता। एकत्व भाव ना आए बि ना आप कभी भी अपने द्रव्य की ओर नहीं आ पाएँगे। अब देखो, अभी भी आपका अपने द्रव्य में समाना नहीं हुआ। एकत्व भाव ना अलग है और एक शुद्ध आत्मा की भाव ना करना अलग है। इसमें बड़ा अन्तर है। एकत्व भाव ना तो इसलि ए है कि पहले आप जो परिधि पर घूम-घूम कर थक गये हो उस थकान को मि टाने के लि ए पहले आप यह सोचे कि यह सब कुछ आपका था नहीं, है नहीं और उससे जब तक आप विराम नहीं लोगे तब तक आपको कभी सुख मि लेगा नहीं। अन्यत्व भाव ना करके इन सब को, परिधि के बाह र जो वस्तु एँ हैं, उन सब को अन्य समझ कर के अपने केन्द्र की ओर आने की भाव ना करना, इसे एकत्व भाव ना कहते हैं।
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जन्मे मरे अकेला चेतन
इस एकत्व भाव ना में क्या होता है? इसमें सिर्फ सिर्फ इतना ही भाव होता है “जन्मे मरे अकेला चेतन सुख दुख का भोगी। और किसी का क्या इक दि न यह, देहेह जुदी होगी” यह ी है न एकत्व भाव ना? “जन्मे मरे अकेला चेतन” यह एकत्व भाव ना है। सुख-दुःख का भोगी। चेतना, मेरी आत्मा , एक अकेला ही जन्म लेता है, अकेला ही मरण को प्राप्त होता है। जन्म लेते समय भी कोई साथ नहीं होता है, मरते समय पर भी इसके साथ कोई नहीं होता। जन्मे , मरे, अकेला चेतन सुख-दुःख का भोगी। सुख का भी भोग अकेले करेगा और दुःख का भी भोग अकेले करेगा। आपका सुख आप के लि ए ही होगा, दूसरे के लि ए हो जाए, जरूरी नहीं है और हो भी नहीं सकता है। दूसरे का सुख दूसरे के लि ए है, आपका सुख आपके लि ए है। हर एक चेतना का अपना-अपना सुख का भाव है और हर एक चेतना अपने ही सुख का अनुभव करता है। अपने ही सुख का भोग करता है, कि सी दूसरे के सुख का कोई भोग कर ही नहीं सकता है। दूसरे के सुख में शामि ल तो हो सकता है, दुःख में शामि ल तो हो सकता है लेकि न भोग नहीं कर सकता। अगर आपके अन्दर सुख को भोगने की शक्ति नहीं तो आप सुख भोग नहीं सकते। आपके अन्दर अगर दुःख को ही देने वा ले कर्म के उदय चल रहे हैं तो भी आप सुख भोग नहीं सकते। आपके अन्दर अगर सुख भोगने की क्ष मता नहीं तो भी आप सुख भोग नहीं सकते। सुख में सब के शामि ल हो जाओ, सब आपको अपने सुख में शामि ल कर ले लेकि न फिर भी आपको सुख मि ल जाए, ये आपके अपने ही कर्म के ऊपर है। कि सी के ऊपर नहीं। नहीं आता समझ में?
मान लो कि सी को cancer हो गया है। घर में था , cancer हो गया , उसको वेदना हो रही है। रोग का पता पड़ने से पहले कि सी का रि श्ता उसी घर में तय हो चुका है। अपने ही कि सी बेटे-बेटी का रि श्ता तय हुआ। पहले रि श्ता तय हो गया तो बड़ी खुशी का माह ौल था , सभी बड़े ड़े सुखी थे। रि श्ता बन गया । अब उसी घर के मान लो माता-पि ता हैं। उनमें से कि सी एक को कुछ दिनों बाद cancer हो गया । अब क्या हुआ? अब वह सुख तो गया । जो बेटा-बेटी का रि श्ता हुआ था वह सुख तो गया । अब यह जो दुःख हो गया है, तो इस सुख-दुःख का भोगी, कौन है अब? अब उसको जो दुःख हो रहा है, उसको जो पीड़ा हो रही है, उस पीड़ा का भोगी वो अकेला ही होगा। अब मान लो घर के लोगों ने कहा कि देखो आपको cancer तो हो गया है लेकि न अब यह शादी की पहले से ही जो date fix हुई है, तो अब इसको change नहीं किया जा सकता है। विवाह तो करना ही है क्योंकि बड़ी मुश् किल से बड़े ड़े सालों बाद यह सम्बन्ध बना है। इसको ज्या दा delay करेंगे तो दिक्कत हो सकती है। घर के लोगों ने ही आपस में committment किया तो फिर उसने कहा भाई, अब जो होगा सो होगा। आप बीमार हो आप परेशान न हो, जब तक चल रहा है चल रहा है। आप कुछ काम मत करना, सब हो जाएगा लेकि न इस काम को रोकना ठीक नहीं है। अब वो बेटी की शादी हो रही है। मान लो पि ता पड़ा है, cancer है, उसको। क्या सुन रहे हो? घर में सब लोग आ रहे हैं, खुशिया ँ मनाई जा रही हैं। चारों तरफ अच्छा माह ौल है और जिसको cancer हुआ है वह अलग एक जगह पड़ा हुआ है। अब क्या ? सब जगह सुख ही सुख है, खुशिया ँ ही खुशिया ँ हैं लेकि न क्या हो गया ? सुख-दुःख का भोगी। उसको कि स का भोग होगा? चारों ओर सुख का भोग हो रहा है लेकि न उसको कि स का भोग हो रहा है? उसको दुःख का भोग हो रहा है। यह ी तो बताना चाह रहा हूँ मैं। क्या आप सुन रहे हो? चारों ओर सब लोग मतलब ऐसा कि कोई आप को शामि ल करना चाह े अपने सुख में, सुख का भोग करने में, ज़रूरी नहीं कि आप उसके सुख में सुख का भोग कर पाओ। अब बेटा समझाए, पि ताजी आपकी बड़ी इच्छा थी, आपकी इच्छा से सब काम हुआ है, अब आप दुःखी मत हो। अब आप अपने सामने यह मंगल कार्य देख लो, यह आपका सौभाग्य, आपका पुण्य। हर तरीके से समझाए लेकि न पि ता को क्या समझ आ रहा है? काह े का सौभाग्य? काह े का पुण्य? मेरे लि ए तो अब डॉक्टर ने कह दिया पन्द्रह दिन, बीस दिन भी जी जाऊँ तो बड़ी बात है। एक दिन भी जी सकता हूँ, बीस दिन भी जी सकता हूँ, एक घण्टे में भी मर सकता हूँ, दस घण्टे में भी मर सकता हूँ। क्या करे? कोई कि सी के सुख-दुःख का भोगी बन ही नहीं सकता है। हर व्यक्ति अपने ही सुख का, अपने ही दुःख का भोगी होता है। समझ आ रहा है? फिर भी थोड़ी देर के लि ए हमें ऐसा लगता है कि सुखी व्यक्ति के साथ रहने में हमें भी सुख का भोग हो जाता है और यदि हमें सुख नहीं मि ल रहा है, तो भी हम अपनी सुख की इच्छा को दूसरों के साथ जुड़ कर ही पूर्ण करने की कोशि श करते हैं। यह सब क्या है? यह एकत्व भाव ना नहीं भाने का परि णाम होता है। बारह भाव नाओं में एकत्व भाव ना हमेशा भानी चाहि ए। कुछ या द आए या नहीं आए लेकि न ये एकत्व भाव ना भाने के लि ए अपने को हमेशा ये दो लाइनें ध्या न में रखनी चाहि ए। कौन सी दो लाइनें? “जन्मे मरे अकेला चेतन” समझ आ रहा है? “सुख दुःख का भोगी”।

परिधि से केन्द्र की ओर
यह भाव जब ध्या न में आएगा तो आप परिधि से हटकर अपने द्रव्य की ओर आएँगे। अपने तत्त्व की ओर आएँगे। आपको महसूस होगा कि मैं अकेला ही जन्म लेता हूँ, अकेला ही मरण करता हूँ। मेरे जन्म और मरण का कोई भी दूसरा साथ ी-सगा नहीं है। समझ आ रहा है? जब ये भाव आपका आएगा तब एक आत्मा की भाव ना यानि एक शुद्ध आत्मा की भाव ना आएगी। पहले क्या करना है? पहले एकत्व भाव ना करना है। वह जो एकाकी भाव ना या एक शुद्धात्मा की भाव ना जो समयसार की भाव ना है, वह उसके बाद की बात है। पहले आपको व्यवहा र से एकत्व स्थापि त करने के लि ए अपने अन्दर अन्यत्व की भाव ना कर के एकत्व में आना होगा। समझ आ रहा है? य दि आप इस तरह से onlyness में नहीं आएँगे तो आप हमेशा loneliness में पड़े ड़े रहेंगे। क्या होगा? एकाकीपना तो छूटा रहेगा, अकेलापन बस आपको अखरता रहेगा |
अब उस पि ता की बात समझो। वह अब वहा ँ पर अकेला है कि एकाकी है? क्या सुन रहे हो? अकेला क्यों है? पूरा घर परिवा र सभी भरा पड़ा हुआ है, सब उत्सव मनाया जा रहा है। बेटे की शादी है, विवाह हो रहा है, पूरा घर भरा हुआ है, सब रि श्तेदार आए हैं, सब धूम-धाम मची है। यह क्या बात हुई? यह तो हमें समझ में नहीं आया ? अभी तक आपने अपने अकेलेपन को दूर करने के लि ए जो सम्बन्ध बनाए थे, बेटा, पत्नी , चाचा, ताऊ, भाई, भाभी वे सब आपके साथ हैं। पर जब अपने लि ए दुःख हो गया , अपने लि ए रोग हो गया , पीड़ा हो गई, उस समय सब होते हुए भी अकेला ही है। समझ आ रहा है? पहले सम्बन्ध बना रहा था तब भी अकेला था । तब अकेलेपन के भाव को, घाव को भर रहा था । आप भी मेरे रि श्तेदार बन जाओ, रि श्तेदार बन गया तो बड़ा अच्छा हो गया । एकदम से feeling आती है कि अब हमारे लि ए दुःख अकेले का नहीं रहा , अब हमारे रि श्तेदार भी हो गये यानि उस ने हमारा दुःख बाँट लिया । एक से दो हो जाते हैं तो दुःख बँट जाता है, ऐसा कहते तो हैं लोग। इसीलि ए एक से दो तो हमेशा ही रहना चाहि ए, कभी यदि अकेले भी हो जाए तो फिर एक से दो बना लेते हो। आप देखो कभी कोई बेटा या बेटी विवाह होने के बाद में अकेला पड़ जाता है, तो उसके घर वा ले कि तना pressure करते हैं उसको फिर से। नहीं मेरी बेटी अकेले नहीं रह सकती। वह उसके अकेलेपन से खुद भी डरते हैं और वह बेटी भी डरती है। वह भी सोचती है कि अब मैं अकेली पूरी जिन्दगी कैसे रह पाऊँगी? मान लो कि सी का छोटी उम्र में कुछ हो गया हो तो फिर क्या होता है? माता-पि ता के अन्दर कि तना बड़ा भाव आता है, पूरी जिन्दगी मेरी बेटी अकेले कैसे रहेगी? लेकि न धर्म का भाव क्या कहता है? जिनवा णी क्या कहती है? आपने अपने अकेलेपन को भरने की कोशि श की थी। चलो! कोई बात नहीं, आपके कर्म के उदय से वह अकेलापन बहुत दिनों तक नहीं भर पाया , नहीं रह पाया तो अब क्या करना? नहीं! नहीं! अभी तो बेटी की उम्र बहुत कम है, इतनी लम्बी उम्र कैसे नि कालेगी? समझ आ रहा है न? अतः हर माता- पि ता उसके लि ए पुन: दूसरा सम्बन्ध करने की सोचते हैं और बेटी भी सोचती है इतनी बड़ी जिन्दगी अकेले कैसे नि कलेगी? जैन, जैन होते हुए भी, धर्म -धर्म करते हुए भी, कभी भी हमें जिनवा णी के भाव ों के साथ जीना आ ही नहीं पाता है। अकेलापन यदि हमारी जिन्दगी में आया है, तो अब हम उसको तोड़ ने के लि ए, उस अकेलेपन को भरने के लि ए जितने भी प्रया स करेंगे तो क्या उनसे अकेलापन भर जाएगा? कि तने केस ऐसे होते हैं, पि ता ने फिर बेटी की शादी दूसरी जगह करा दी। उस दूसरी जगह बेटी फिर दुःखी होने लगी और ज्या दा दुःखी होने लगी। अब उसका भी दुःख पि ता को आने लगा है कि बेटी का जो दूसरा सम्बन्ध हुआ, वहा ँ पर उसके घर वा ले, सास-ससुर उसको परेशान करते हैं, वह वहा ँ परेशान रहती है, अब क्या करें?

परम औषधि: जि नवाणी
क्या करोगे? कहा ँ तक क्या करोगे? अकेलेपन के भाव को दूर करने की अगर कोई दवा ई है, तो वह केवल जिनवा णी माँ ने हमें बताई है। तीर्थं कर से पि ता और जिनवा णी सी माता, जब तक इनकी शरण में नहीं जाओगे तब तक आप अकेलेपन की बीमारी से कभी भी बच नहीं पाओगे। इन माता-पि ता की बात कोई सुनता नहीं है। न माता-पि ता सुनते हैं, न बेटा-बेटी सुनते हैं। क्यों ? यह भी माँ हैं कि नहीं? जिन्दगी भर कहते रहते हो- हे! जिनवा णी मइया ! जन्म-दुःख मेट दो। यह तो केवल शास्त्र स्वा ध्याय समाप्त होने के बाद अन्त में खड़े ड़े होकर गाने के लि ए है, बस। हे! जिनवा णी मइया जन्म दुःख मेट दो, हे जिनवा णी भारती तोहे जपूँ दिन रैन, जो तेरी शरणा गहे। कहा ँ कब पा रहे हो शरणा? ये जिनवा णी की शरणा कैसे मि लेगी? जिनवा णी को माँ कब माना आपने? तीर्थं कर को पि ता स्व रुप कब माना आपने? आप मानते नहीं, बात कि सी की सुनते नहीं। अरे! महा राज जिसके ऊपर दुःख आता है वह ी जानता है। आप ये सब बातें अब बाद में करना, पहले मुझे मेरी बेटी के लि ए कोई दूसरा सम्बन्ध ढूँढना है। कई बार तो यहा ँ तक देखा है कि बेटी नहीं भी चाह रही हो तो माता-पि ता ने जबरदस्ती की। नहीं बेटी, तू अकेले नहीं रह सकती और कर दिया । बाद में वह सुखी नहीं, दुःखी ही रही लेकि न कभी भी माता-पि ता यह भाव नहीं करते, यह नहीं समझा सकते कि द्रव्य से, तत्त्व से तुम अकेले ही हो। उन्हें खुद ही नहीं पता है। क्यों नहीं पता ?
क्यों बने हैं हम अज्ञा न?

म जैन होते हुए भी, धर्म की शरण में रहते हुए भी, जिनवा णी के गुणगान करते हुए भी, हमें ये वस्तु एँ क्यों पता नहीं? जबकि यह ी तो सबसे बड़ा उपचार है, उस दुःख का। उस अकेलेपन को दूर करने के लि ए हमें यह एकत्व भाव ना ही तो भाना होगा। यह एकत्व भाव ना जब आएगी तो फिर वह दुःख हमेशा के लि ए दूर होगा जो बार-बार हमें देता रहता है, बार-बार दुःख का कारण हमारे सामने जो बनता रहता है। इसलि ए यह बात समझने की है कि हम अकेलेपन को भरने की कोशि श में जिन्दगी नि काल देते हैं लेकि न कभी भी एकत्व भाव ना को अपने मन में भरने के लि ए समय नहीं नि कालते। समझ आ रहा है? अपना हृदय इसीलि ए हमेशा दुःखी रहता है, खाली रहता है। कि ससे? सुख से खाली रहता है। वह सुख से कब भरेगा? जब हम सब को अन्य समझ कर, यह सब अन्य हैं, अन्यत्व भाव ना लाएँगे और अपनी एकत्व भाव ना करेंगे।
दो नाव की सवारी एक साथ- असम्भव
मेरी चेतना, मेरी सत्ता , मेरा द्रव्य, मेरे गुण, ये सब शाश्वत हैं, ये सब कभी मि टने वा ले नहीं है। हम क्यों मि टने वा ली वस्तु ओं के पीछे पड़े ड़े रहते हैं? हम जिसको भी देखेंगे, जिसकी भी संगति करेंगे उसके द्रव्य से तो नहीं करेंगे, उसकी पर्याय से ही तो करेंगे। हम अपनी पर्याय से एक पर्याय पकड़ रहे हैं। यह ऐसा खेल हो गया कि मानो दो circle हैं और एक circle की परिधि पर, उसके circumference पर कोई व्यक्ति घूम रहा है, तो एक पैर उसने वहा ँ रखा है। अब एक का balance नहीं बन रहा है, तो बगल वा ले की परिधि पर दूसरा पैर रखकर घूमने की कोशि श कर रहा है। कि तना घूमेगा? उसका घुमाव अपना अलग है, उसका अपना परि णमन अलग है और इसका परि णमन अपना अलग है। इसके भाव अपने अलग हैं। उन दोनों के बीच में balance बनाना है। यह और कठि न काम है। दो circle जो अपने-अपने परि णमन से अलग-अलग घूम रहे हैं, अपने outer और inner force के कारण घूम रहे हैं और हम उसमें balance बनाने की कोशि श कर रहे हैं। उस process में अपनी ज़ि न्दगी नि कल गई। इस कोशि श में कौन सफल हो पाएगा? जब तक हमें यह ध्या न नहीं रहेगा कि ये हमारे लि ए और बड़ा खतरे का काम है। जिसको हमने आसान समझ रखा है यह और मुश् किल काम है, यह और खतरे का काम है। तब तक आप उसको अन्य समझकर, अन्यत्व भाव ना के माध्य म से उसको छोड़ कर, अपने एकत्व की ओर आ ही नहीं सकते। जब तक ये शुरुआत नहीं होगी तब तक कोई भी अध्या त्म आपके लि ए सुख दे ही नहीं सकता। जिनवा णी भी आपकी मदद नहीं कर सकती क्योंकि आप मदद लेते ही नहीं। आपका काम इतना ही है, बस! महा राज! आप tablet बता दो। जैसे डॉक्टर के पास जाओ तो बस दवा ई लि ख दो, आप हमारा test कर लो, checkup कर लो। दवा लि खने के बाद, उस दवा को मेडि कल से खरीदना, नहीं खरीदना हमारे मन की बात है और उसको खाना, नहीं खाना भी हमारे मन की बात है। आपके लि ए यह ज्ञा न सब हो रहा है। बारह भाव ना का ज्ञा न हो रहा है, समयसार, प्रवचनसार सब ज्ञा न हो रहा है लेकि न ये सब क्या हो रहा है? सब आप बस दवा ई सुन रहे हो डॉक्टर से, थोड़ा बहुत लि ख रहे हो। वह दवा ई ही लि ख ही रहे हो। खाने की कोशि श नहीं करेंगे। दवा डॉक्टर के द्वा रा लि ख कर दी गई है या लि खी हुई दवा डॉक्टर ने आपको दे दी या आपके कहने से डॉक्टर ने आपको लि खा दी या आपने लि ख ली, वह कोई भी दवा कि सी भी तरह से आप की बीमारी को दूर कर सकती है क्या ? क्या करे? बड़ी परेशानी है। खाए बि ना, उसका सेवन किय े बि ना, कभी भी वह दवा हमारे स्वा स्थ्य को ठीक करने वा ली नहीं है। आप कि तना भी पढ़ लो, सुन लो लेकि न जब तक आप एकत्व भाव ना का भाव , अन्यत्व भाव ना का भाव नहीं लाएँगे, आपके हृदय में पड़े ड़े हुए जो दुःख हैं, उनके जो घाव हैं, उनकी जो पीड़ा है, वह कभी भी भरी नहीं जाएगी, दूर नहीं होगी।
हृदय की पीड़ ा को भरने के लिए एकत्व की भावना करो
इसीलि ए जब बिल्कु बिल्कु ल एकाकी होकर आप अपने एकत्व आत्मा की भाव ना करेंगे तो वह पीड़ा भरने लगेगी। मान लो बाह र से सुख है, वह भी सुख आपके काम में नहीं आ रहा है, उस पि ता की तरह। अब आप के लि ए दुःख ही दुःख है। इस दुःख को भी आप दूर करना चाह रहे हैं पर अब उस दुःख को दूर करने के लि ए डॉक्टर ने हाथ खड़े ड़े कर दिए। अब आप क्या करोगे? अब सबसे ज्या दा वेदना होगी अकेलेपन की। देखो! कैसा स्वा र्थ का संसार है। सब अपने अपने रंग में रंगे हुए हैं और मैं यह कराह रहा हूँ, मैं अकेला पड़ा हुआ हूँ, कोई मेरी तरफ देखने वा ला नहीं है। वह बेटा भी suit-boot-tie लगा कर घोड़ी पर बैठने जा रहा है और मैं यहा ँ पड़ा हूँ। ऐसे-ऐसे case हो गए हैं। सुन रहे हो? बेटी की जिस दिन शादी हुई, शादी से पहले से ही वह लड़ का बीमार था और बीमारी में ही उसकी शादी करनी पड़ी । शादी हो गयी। शादी के दूसरे दिन से ही hospital में admit हो गया और दस दिन बाद उसकी मृत्यु हो गई। अभी यह ीं की दिल्ली की बात बता रहा हूँ। रेवाड़ी की लड़ की थी और यहा ँ दिल्ली शाह दरा में ऐसी शादी हो गई। सब यह ीं देखने को मि लता है। सब आज दुनिया देख रही है लेकि न फिर भी कि सी के अन्दर कोई एकत्व भाव ना, अन्यत्व भाव ना कुछ भी नहीं आता है। अब बताओ! इससे विचित्र स्थिति क्या होगी? लड़ की को पति का कोई सुख नहीं मि ला, एक भी दिन। लड़की वा लों ने कहा कि मानो मेरी बेटी के शादी हुई ही नहीं। जल्दी से अपनी बेटी को अपने घर ले आये। बोले मेरी बेटी की शादी हुई ही नहीं। अब कुछ भी कह लो, सन्तो ष जैसे भी करना है, कर लो। लेकि न कर्म का उदय इतना तीव्र रहता है कि हम उस परि णति को देखकर भी, खेद-खि न्न तो होंगे, अकेलेपन के भाव में ही पड़े ड़े रहेंगे लेकि न एकाकीपन के भाव में नहीं आएँगे, यह कहने का मतलब है। दुनिया सब देख रही है, सब कर रही है पर उसके अकेलेपन को दूर करने का ही प्रया स किया जाएगा, उसको कोई भी एकाकीपने का भाव नहीं दिया जाएगा, एकत्व भाव ना कोई नहीं बताएगा।
पर्या य मूढ़ ता
यह
difference कोई-कोई ही जानता है कि loneliness और onlyness में क्या अन्तर होता है। Loneliness depends on our illusion, वह हमारे भ्रम पर, मोह पर depend करता है। कौन सा? loneliness। जिस के कारण से we attach other person, हम कि सी न कि सी दूसरे व्यक्ति से जुड़ ना चाह ते हैं। हम कि सी न कि सी को अपनी friendship, अपने relationship में लेना चाह ते हैं। जब onlyness का भाव आने लगता है, तो वह हमें अपने से जोड़ ता है, वह दूसरे से नहीं जोड़ ता है। वह कि स से जोड़ता है? अपने से जोड़ ता है। we connect with our own nature, हम अपने स्व भाव से जुड़ ते हैं। जब तक हमें अन्दर यह अपने own nature का ज्ञा न नहीं, अपने own nature से जुड़ ने में हमें सुख-शान्ति नहीं, उसका भाव नहीं तब तक आप कभी भी पर्याय ों से हटकर द्रव्य की ओर आ ही नहीं सकते। शुरुआत यह ीं से की थी, हर व्यक्ति संसार में पर्याय मूढ़ है। जो पर्याय से मूढ़ है वह ी मि थ्या बुद्धि वा ला है, मि थ्या दृष्टि है, जिसको बोलते हैं wrong believer, वह मि थ्या दृष्टि , मि थ्या श्रद्धा रखने वा ला है लेकि न उसकी दृष्टि right कब होती है? जब वह पर्याय से हट कर अपने द्रव्य को स्वी कार करता है।
अतद्भा व
यह
ी यहा ँ पर द्रव्य, गुण, पर्याय ों के उपदेश के साथ बताया जा रहा है। हमारा जो द्रव्य है, हमारे जो गुण हैं वह कभी भी कम नहीं होते, द्रव्य कभी भी विनष्ट नहीं होता। द्रव्य के साथ गुणों का जो एकत्व बना हुआ है, वह हमेशा बना रहता है। पर्याय विनष्ट होती है लेकि न द्रव्य कभी भी विनष्ट नहीं होता है। यह सारा का सारा सारांश के रूप में पहले आपको बताया जा चुका है, आगे भी यह ी बताया जाने वा ला है कि इन सबके बीच में आप द्रव्य, गुण और पर्याय ों को जानकर, इन सबको भि न्न भी जानो और एक भी जानो। भि न्न कैसे जाने? उनके नाम अलग हैं, उनका लक्ष ण, उनके गुण अलग हैं। फिर एक कैसे हैं? जिस space point पर द्रव्य है वह ी space point गुणों का है। वह ी द्रव्य और गुणों का समूह एक परि णति तैया र कर देता है, जिसका नाम पर्याय है। वह क्षेत्र की अपेक्षा से एक ही कहलाता है लेकि न सबका अपना-अपना काम, सबकी identity अलग-अलग है। यह अन्यत्व का भाव जो यहा ँ बताया जा रहा है, उसका प्रयोजन है कि वह अभाव रूप नहीं है। वह अतद्भाव है यानि एक में दूसरा समाहि त नहीं है। द्रव्य अलग समझना, गुण अलग समझना और पर्याय अलग समझना। फिर भी अभाव ऐसा मत समझना जैसे एक वस्तु में दूसरी वस्तु का अभाव है ऐसा अभाव नहीं समझना या केवल अभाव मात्र यानि जैसे कोई उसका sense ही नहीं है, उसका कोई existence नहीं है, ऐसा अभाव नहीं समझना लेकि न एक का दूसरे रूप में नहीं होने रूप अभाव समझना। जैसे पि छली गाथा में आपको बताया था आँख, कान नहीं है; कान, आँख नहीं है मतलब आँख में कान का अभाव है और कान में आँख का अभाव है। यह कैसा अभाव है? अभाव का मतलब यह नहीं है कि यह आँख नहीं है, यह कान नहीं है। एक तो यह हो गया कि आँख ही नहीं है, समझ आ रहा है? जैसे मान लो हमने कहा इस कि ताब की आँख नहीं हैं, एक तो यह अभाव हो गया कि इसमें आँख है ही नहीं लेकि न हमने कहा कान में आँख नहीं है, तो इसका मतलब क्या हो गया ? कान में आँखपने का अभाव है माने कान कभी आँख रूप नहीं और आँख कभी कान रूप नहीं। इसको बोलते हैं- अतद्भाव । इस अतद्भाव को ध्या न में रखते हुए यहा ँ पर उसका व्याख्या न हुआ।

जो द्रव्य है वह कभी गुण हो न पाता, है वस्तु तः गुण नहीं बन द्रव्य पाता।
सो हो रहा अतद्भा व सही कथा है, होता कथञ्चित् अभाव न सर्व था है।

Manish Jain Luhadia 
B.Arch (hons.), M.Plan
Email: manish@frontdesk.co.in
Tel: +91 141 6693948
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#4

The substance (dravya) is not the quality (guna) and, certainly, the quality (guna), due to difference in respective nature, is not the substance (dravya); this difference [between the possessor- of-quality (gunī) and the quality (guna)] is the difference of selfidentity (anyatva). There is no absolute difference between the two. The Omniscient Lord has expounded thus.

Explanatory Note: In a substance (dravya), that which is the substance (dravya) is not the quality (guna), and that which is the quality (guna) is not the substance (dravya); the difference is from the empirical (vyavahāra) point-of-view, as the two exhibit the difference of self-identity (anyatva). The difference between the two is not absolute; it is not that the absence of the substance (dravya) is the presence of the quality (guna), and the absence of the quality (guna) is the presence of the substance (dravya). If the two were to be considered absolutely different, three kinds of faults would arise: 1) it will indicate manyness of the substance – anekapanā, 2) both the substance (dravya) and the quality (guna) will become non-existent – ubhayaśūnyatā, and 3) only the absence of the one will entail the presence of the other – apoharūpatā. These are now explained.  

The animate (cetana) and the inanimate (acetana) substances (dravya) are two absolutely different substances. The absence of animate substance (dravya) indicates the presence of inanimate substance (dravya), and vice versa. These, therefore, exhibit manyness (anekapanā). The same is not the case when the substance (dravya) and the quality (guna) of a single substance are considered. Considering the two as absolutely different will indicate manyness (anekapanā) in the single substance (dravya), which is not tenable. 

As the absence of gold means the absence of its quality and the absence of quality (of gold) means the absence of gold, in the same way, the absence of the substance (dravya) will mean the absence of the quality (guna) and the absence of the quality (guna) will entail the absence of the substance (dravya) itself. Thus, if the two – the substance (dravya) and the quality (guna) – were absolutely different, both must become non-existent – ubhayaśūnyatā.

The absence of the pot must indicate the presence of the board and the absence of the board must indicate the presence of the pot; this is apoharūpatā. If considered in the same manner, the absence of the substance (dravya) must indicate the presence of the quality (guna), and the absence of the quality (guna) must indicate the presence of the substance (dravya). This is not true as there is no apoharūpatā – negation of the one must indicate the presence of the other – in case of the substance (dravya) and the quality (guna). 

Those who wish to avoid the above-mentioned three faults must accept that there is the difference of self-identity (anyatva) between the substance (dravya) and the quality (guna). The difference is that of the possossor-of-quality (gunī) and the quality (guna).
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#5

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -15,16


है पद है गुण है पर्वय भी किन्तु न पद ही सत्ता है
और न गुण हो या पर्यय हो यही विचार महत्ता है
जो गुण है वह नहीं द्रव्य है द्रव्य नहीं गुण अहो कहा ।
जीवाभाव अजोवकी तरह किन्तु नहीं है भिन्न यहाँ ॥ ८ ॥


सारांशः–ऊपर सत्ताको द्रव्यका गुण बताया है सो वह गुण होकर भी गुणरूप ही हो ऐसी बात नहीं है किन्तु वह द्रव्य गुण और पर्याय इन तीनों रूपोंमें रहता हुआ पाया जाता है। जैसे मोतियोंकी मालाकी श्वेतता, हार, सूत और मोती इन तीनोंमें दिखती है। हार भी श्वेत, उसके मोती भी श्वेत और उसमें होनेवाला सूत भी श्वेत है। ऐसी ही वस्तुमें रहनेवाली सत्ताकी दशा है। स्वयं द्रव्य भी सतुस्वरूप, उसका हरएक गुण भी सत्स्वरूप और उनमें होनेवाली प्रत्येक पर्याय भी सत्स्वरूप होती है जिससे हमको द्रव्य है, गुण है और पर्याय है, इसप्रकार का अनुभव होता रहता है। यह तो तद्भाव हुआ।

जो द्रव्य है वही गुण नहीं एवं जो गुण है वही द्रव्य नहीं क्योंकि जो द्रव्य ही गुण हो तो फिर संसारी जीव गुणवान् बननेका प्रयत्न क्यों करे और अगर गुणको ही द्रव्य मान लिया जावे तो फिर हमको अपनी आँखोंसे आमके पीले रूपका ज्ञान होता है, उसी समय उसके चखने आदिका विचार भी निवृत्त होजाना चाहिये, ऐसा होता नहीं है। अतः द्रव्य और गुणमें भी भेद है। यह अतद्भाव कहलाता है क्योंकि जिसप्रकार जीवद्रव्यमें अजीव द्रव्यका तथा अजीव द्रव्यमें जीवद्रव्यका अभाव होता है, इस प्रकारका प्रदेशात्मक अभाव आपसमें गुणगुणीमें नहीं होता है अर्थात् परस्पर द्रव्य और गुणकी सत्ता एक रहती है।
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