मोक्षमार्ग हड़बड़ी का मार्ग नहीं है।
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अध्यात्म योग 
आचार्य पूज्यपादस्वामी द्वारा विरचित इष्टोपदेश पर मुनि श्री प्रणम्यसागरजी के प्रवचनों का संग्रह, अतिशयक्षेत्र बिजोलियाजी, 2016
यस्य स्वयं स्वभावाप्तिरभावे कृत्स्नकर्मणः। तस्मै सञ्ज्ञानरूपाय नमोऽस्तु परमात्मने ॥१॥


आचार्य उस आत्मा को नमस्कार करते हैं जिसने स्वभाव की प्राप्ति कर ली हो।
स्वभाव की प्राप्ति करने के लिए 'पर' की भी कोई आवश्यकता नहीं है।
जैसे पाषाण के अन्दर प्रतिमा छिपी हुई है वैसे ही हमारे अन्दर परमात्मा छिपा है
मन की एकाग्रता, ध्यान की परिणति कर्म काटने के औजार हैं।
जिनेन्द्र देव के दर्शन करना श्रावक का प्रथम मूलगुण है।
भगवान् के दर्शन में आह्लाद भाव ही आपके अन्दर विशुद्धि का भाव पैदा करेगा।

इसलिए जितने भी तीर्थ क्षेत्र, सिद्ध क्षेत्र ऊँचाइयों पर बने होते हैं और उन ऊँचाईयों पर पहुँचते-पहुँचते हम थक जाते हैं। हम मन में यह सोचते हैं कि क्या इतनी ऊँचाई पर बैठने से मोक्ष होता है? लेकिन अगर आपको यह ध्यान रहे कि भगवान ने जहाँ से मोक्ष प्राप्त किया है, हम उस स्थान पर पहुँच रहे हैं और जाते हुए बस दर्शन करने की भावना है और पूरा का पूरा पुण्य आप संजोते जा रहे हैं। जिस क्षण आपको दर्शन हो जायेगा उस समय आपके मन में जो विशुद्धि का भाव आयेगा वो आपको हेलिकाप्टर से पहुँचने पर नहीं आयेगा। हर चीज को धीरे-धीरे समझना और धीरे-धीरे प्राप्त करना। मोक्षमार्ग जल्दी का मार्ग नहीं है, हड़बड़ी का मार्ग नहीं है। हड़बड़ी से बाहर कुछ कर सकते हो लेकिन हड़बड़ी में भीतर कुछ होता ही नहीं है। हड़बड़ी का मतलब घबराहट हो रही हो, कुछ करने की जल्दी पड़ी हो और आप बैठ जाओ, आँख बंद करके हड़बड़ी में आपकी आँखें भी बंद नहीं रहेंगी। आपको अंदर भीतर घबराहट होगी, कुछ करने की आकुलता होगी तो आँख बंद करके भी नहीं बैठ पाओगे क्योंकि भीतर शांति चाहिए, परमशांति चाहिए। शांति तभी प्राप्त होगी जब हमें बाहर कोई शांति की मूर्ति दिखाई जाये जैसे मूर्ति हमें अपने अन्दर प्रकट करनी है, बनानी है और उस मूर्ति को बनाने के लिए ही हम बाहर यह प्रयास करते हैं इन गुणों की प्रशंसा, इन गुणों की प्राप्ति करने के लिए हम प्रयास करते हैं कि जैसा बाहर हमें चेहरा दिखाई दे रहा है भगवन् मेरा स्वरूप वैसा ही है और मुझे अपने स्वरूप को ऐसा बनाना है। एक बहुत बड़े मूर्तिकार से भी ज्यादा मेहनत का काम है, जब आप अपनी आत्मा के अंदर भी परमात्मा को प्राप्त कर उसे प्रकट कर सकोगे। स्वभाव की प्राप्ति करना और वह स्वभाव की प्राप्ति खुद को करना, दूसरा नहीं करा सकेगा आपको बगल में बैठा व्यक्ति आपको ध्यान लगा नहीं सकता है, आप से कहेगा कि आप सीधे बैठ जाओ लेकिन आपसे सीधे बैठने के बाद ध्यान नहीं हुआ, ध्यान में जो करना है वो आपको स्वयं करना है। वो. आपके मन को मालूम है, आपका मन क्या कर रहा है, आपके मन को क्या करना है, आपका मन आपके द्वारा संचालित होना है सब कुछ स्वयं करना होगा, बाहर तो केवल कहने के लिए होता है, किसी ने किसी के लिए कुछ आलम्बन दे दिया बाकी स्वयं में स्वयं को स्वयं के द्वारा ही प्राप्त करना होता है।

For more detail ... अध्यात्म योग गाथा 1 
English Translation .... Adhyatm Yog Gatha 1


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Manish Jain Luhadia 
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