03-03-2025, 03:58 AM
आदि पुराण, प्रथम पर्व, श्लोक 2 से 15
भगवान ऋषभनाथ के त्याग, तप, केवलज्ञान प्राप्ति और मोक्ष मार्ग के प्रणेता के रूप में चित्रित हैं, जिन्होंने असंख्य अनुयायियों को प्रेरित किया।
आदिपुराण Ādi purāṇa
पर्व 1 - श्लोक 1 | श्लोक 2 से 15 | श्लोक 16 से 25 | श्लोक 26 से 35 | श्लोक 36 to 45 | श्लोक 46 से 55 | श्लोक 56 से 65 | श्लोक 66 से 75 | श्लोक 76 से 85 | श्लोक 86 से 95 | श्लोक 96 से 105 | श्लोक 106 से 116 | श्लोक 117 से 126 | श्लोक 127 से 136 | श्लोक 137 से 146 | श्लोक 147 से 156 | श्लोक 157 से 166 | श्लोक 167 से 171 | श्लोक 172 से 180 | श्लोक 181 से 190 | श्लोक 191 से 200 | श्लोक 201 से 210
भगवान ऋषभनाथ के त्याग, तप, केवलज्ञान प्राप्ति और मोक्ष मार्ग के प्रणेता के रूप में चित्रित हैं, जिन्होंने असंख्य अनुयायियों को प्रेरित किया।
- श्लोक 2: भगवान जिन को नमस्कार है, जो सूर्य के समान हैं और अज्ञान के अंधेरे से ढके विश्व को ज्ञान की सर्वव्यापी प्रभा से प्रकाशित करते हैं।
- श्लोक 3: जिनशासन की अजेय महिमा की जय हो, जो मिथ्या दृष्टियों को नष्ट करता है, तर्कसंगत ज्ञान से प्रकाशित रहता है और मोक्ष का मुख्य मार्ग है।
- श्लोक 4: रत्नत्रय (सही श्रद्धा, ज्ञान और आचरण) की जय हो, जो जिनेंद्र का अजेय अस्त्र है, जिससे उन्होंने पापरूपी शत्रुओं पर विजय पाई।
- श्लोक 5-15: ये श्लोक भगवान ऋषभनाथ (प्रथम तीर्थंकर) की स्तुति करते हैं:
- उन्होंने इंद्र के वैभव को तृणवत् तुच्छ मानकर संन्यास लिया, जिससे इक्ष्वाकु आदि वंशों के हजारों राजा स्वामिभक्ति से दीक्षा लेने को प्रेरित हुए (5-6)।
- उनके निर्दोष आचरण को न अपना सकने वाले कच्छ आदि राजाओं ने जंगल में छाल पहनकर कंद-मूल खाना शुरू किया (7)।
- उन्होंने कठिन तप किया, उपसर्ग सहे, और ध्यान की अग्नि से कर्मों को जलाया, उनकी जटाएँ धूम की शिखाओं-सी शोभित हुईं (8-9)।
- धर्म-मर्यादा दिखाने हेतु स्वेच्छा से विहार करते हुए वे सुर-असुरों को चलते स्वर्ण मेरु जैसे दिखे (10)।
- श्रेयांस के दान देने पर देवताओं ने रत्नवर्षा की, और घातक कर्मों पर विजय पाकर उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ, जो विश्व को प्रकाशित करता है (11-12)।
- उन्होंने कर्मनाशक धर्म का उपदेश दिया, भव्य जीवों को प्रकाशित किया, और उनके वंश का महत्त्व सुन मरीचि (भरत-पुत्र) ने नृत्य किया (13-14)।
- अंत में, नाभिराजा के पुत्र, वृषभ चिह्न वाले आदिदेव ऋषभनाथ को बार-बार नमस्कार और एकाग्र स्तुति अर्पित की गई (15)।
- उन्होंने इंद्र के वैभव को तृणवत् तुच्छ मानकर संन्यास लिया, जिससे इक्ष्वाकु आदि वंशों के हजारों राजा स्वामिभक्ति से दीक्षा लेने को प्रेरित हुए (5-6)।
आदिपुराण Ādi purāṇa
पर्व 1 - श्लोक 1 | श्लोक 2 से 15 | श्लोक 16 से 25 | श्लोक 26 से 35 | श्लोक 36 to 45 | श्लोक 46 से 55 | श्लोक 56 से 65 | श्लोक 66 से 75 | श्लोक 76 से 85 | श्लोक 86 से 95 | श्लोक 96 से 105 | श्लोक 106 से 116 | श्लोक 117 से 126 | श्लोक 127 से 136 | श्लोक 137 से 146 | श्लोक 147 से 156 | श्लोक 157 से 166 | श्लोक 167 से 171 | श्लोक 172 से 180 | श्लोक 181 से 190 | श्लोक 191 से 200 | श्लोक 201 से 210