08-16-2014, 06:37 AM
सोलह - कारण भावना :-
जिन्हे बार बार भाया जाये अर्थात चिन्तवन किया जायें वे भावना कहलाती हैं।सोलह भावनाऐं ही तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध का कारण हैं, अतः इन्हें सोलह कारण भावनाऐं कहते हैं। इन १६ भावनाओं में प्रथम भावना दर्शन विशुध्दि है। इस भावना का भाना परमावश्यक है।यदि यह भावना नहीं है तो तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध नहीं हो सकता है। इसके साथ कुछ अन्य (या सभी शेष १५ ) भावनायें और हो तो तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध होता है।
ये १६ भावनायें निम्नानुसार हैं :-
१. दर्शन विशुध्दि भावना :- सम्यक् दर्शन का अत्यन्त निर्मल व दृढ होना, २५ दोष रहित विशुध्द सम्यक् दर्शन को धारण करना।
२. विनय-सम्पन्नता भावना :- सच्चे देव,शास्त्र,गुरु और रत्न-त्रय का हृदय से सम्मान करना।
३. शील-व्रत अनतिचार भावना :-सम्यक् सहित ज्ञान की प्रकृति को शील कहा जाता है। शील व व्रतों का निर्दोष पालन करना तथा उनमें अतिचार नहीं लगाना।
४. अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग भावना :- अभीक्ष्ण का अर्थ सदा या निरन्तर है।ज्ञान के अभ्यास में सदा लगे रहना ।
५. अभीक्ष्ण संवेग भावना :- दुःखमय संसार के आवागमन से सदा डरते रहना - धर्म और धर्म के फल में सदा अनुराग रखना।
६. शक्तिस्त्याग भावना :- अपनी शक्ति के अनुसार आहार आदि का दान देना।
७. शक्तिस्तप भावना :- अपनी शक्ति के अनुसार अंतरंग व बाह्य तप करना।
८. साधु समाधि भावना :- साधुओं का उपसर्ग दूर करना।
९. वैयावृत्यकरण भावना :- रोगी,वृध्द,साधु-त्यागी की सेवा सुश्रुसा करना,उनके कष्टों को औषधि आदि निर्दोष विधि से दूर करना।
१०. अरहन्त भक्ति भावना :- अरहन्त की भक्ति करना, अरहन्त द्वारा कहे गये अनुसार आचरण करना और उनके गुणों में अनुराग रखते हुए ऐसे गुण स्वयं को प्राप्त हों; ऐसी भावना भाना ।
११.आचार्य भक्ति भावना :- आचार्य परमेष्ठी की भक्ति करना,उनके गुणों में अनुराग रखना एवं ऐसे गुण हमें भी प्राप्त हों ऐसी भावना सदैव रखना ।
१२. बहुश्रुत भक्ति भावना :- जो मुनि द्वादशांग के पारगामी हैं , वे बहुश्रुत कहलाते हैं ।चूंकि शास्त्रों में पारंगत उपाध्याय परमेष्ठी हैं, अतः इस भावना का तात्पर्य उपाध्यायों का आदर करना,उनके अनुरूप प्रवृति करना,ऐसे ही गुण हमें प्राप्त हों ऐसी भावना सदैव बनाये रखना, बहुश्रुत भक्ति भावना है।
१३.प्रवचन - भक्ति भावना :-केवली भगवान के प्रवचन में अनुराग रखना अर्थात वीतरागी द्वारा प्रणीत आगम (जिनवाणी) की भक्ति करना एवं तदनुसार आचरण करते हुए ऐसी शक्ति स्वयं में प्रकट हो ऐसी भावना का चिन्तवन करना।
१४॰ आवश्यक अपरिहाणि भावना :- अपरिहाणि का अर्थ " न छोड़े जाने योग्य “ है। इस प्रकार छः आवश्यक क्रियाओं को यथासमय सावधानी पूर्वक करना इस भावना में में आता है।
१५. मार्ग प्रभावना भावना :- ज्ञान, ध्यान,तप,पूजा आदि के माध्यम से जिनेन्द्र भगवान द्वारा बताये गये धर्म (अर्थात जैन धर्म) को प्रकाशित करना,फेलाना मार्ग प्रभावना भावना है।विद्यालय व औषधालय खुलवाना ,असहाय व्यक्तियों की सहायता करना आदि कल्याण कारी कार्य भी इस भावना में आते हैं ।
१६. प्रवचन वात्सल्य भावना :-साधर्मी बन्धुओं से अगाध प्रेम भाव रखना।
जिन्हे बार बार भाया जाये अर्थात चिन्तवन किया जायें वे भावना कहलाती हैं।सोलह भावनाऐं ही तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध का कारण हैं, अतः इन्हें सोलह कारण भावनाऐं कहते हैं। इन १६ भावनाओं में प्रथम भावना दर्शन विशुध्दि है। इस भावना का भाना परमावश्यक है।यदि यह भावना नहीं है तो तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध नहीं हो सकता है। इसके साथ कुछ अन्य (या सभी शेष १५ ) भावनायें और हो तो तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध होता है।
ये १६ भावनायें निम्नानुसार हैं :-
१. दर्शन विशुध्दि भावना :- सम्यक् दर्शन का अत्यन्त निर्मल व दृढ होना, २५ दोष रहित विशुध्द सम्यक् दर्शन को धारण करना।
२. विनय-सम्पन्नता भावना :- सच्चे देव,शास्त्र,गुरु और रत्न-त्रय का हृदय से सम्मान करना।
३. शील-व्रत अनतिचार भावना :-सम्यक् सहित ज्ञान की प्रकृति को शील कहा जाता है। शील व व्रतों का निर्दोष पालन करना तथा उनमें अतिचार नहीं लगाना।
४. अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग भावना :- अभीक्ष्ण का अर्थ सदा या निरन्तर है।ज्ञान के अभ्यास में सदा लगे रहना ।
५. अभीक्ष्ण संवेग भावना :- दुःखमय संसार के आवागमन से सदा डरते रहना - धर्म और धर्म के फल में सदा अनुराग रखना।
६. शक्तिस्त्याग भावना :- अपनी शक्ति के अनुसार आहार आदि का दान देना।
७. शक्तिस्तप भावना :- अपनी शक्ति के अनुसार अंतरंग व बाह्य तप करना।
८. साधु समाधि भावना :- साधुओं का उपसर्ग दूर करना।
९. वैयावृत्यकरण भावना :- रोगी,वृध्द,साधु-त्यागी की सेवा सुश्रुसा करना,उनके कष्टों को औषधि आदि निर्दोष विधि से दूर करना।
१०. अरहन्त भक्ति भावना :- अरहन्त की भक्ति करना, अरहन्त द्वारा कहे गये अनुसार आचरण करना और उनके गुणों में अनुराग रखते हुए ऐसे गुण स्वयं को प्राप्त हों; ऐसी भावना भाना ।
११.आचार्य भक्ति भावना :- आचार्य परमेष्ठी की भक्ति करना,उनके गुणों में अनुराग रखना एवं ऐसे गुण हमें भी प्राप्त हों ऐसी भावना सदैव रखना ।
१२. बहुश्रुत भक्ति भावना :- जो मुनि द्वादशांग के पारगामी हैं , वे बहुश्रुत कहलाते हैं ।चूंकि शास्त्रों में पारंगत उपाध्याय परमेष्ठी हैं, अतः इस भावना का तात्पर्य उपाध्यायों का आदर करना,उनके अनुरूप प्रवृति करना,ऐसे ही गुण हमें प्राप्त हों ऐसी भावना सदैव बनाये रखना, बहुश्रुत भक्ति भावना है।
१३.प्रवचन - भक्ति भावना :-केवली भगवान के प्रवचन में अनुराग रखना अर्थात वीतरागी द्वारा प्रणीत आगम (जिनवाणी) की भक्ति करना एवं तदनुसार आचरण करते हुए ऐसी शक्ति स्वयं में प्रकट हो ऐसी भावना का चिन्तवन करना।
१४॰ आवश्यक अपरिहाणि भावना :- अपरिहाणि का अर्थ " न छोड़े जाने योग्य “ है। इस प्रकार छः आवश्यक क्रियाओं को यथासमय सावधानी पूर्वक करना इस भावना में में आता है।
१५. मार्ग प्रभावना भावना :- ज्ञान, ध्यान,तप,पूजा आदि के माध्यम से जिनेन्द्र भगवान द्वारा बताये गये धर्म (अर्थात जैन धर्म) को प्रकाशित करना,फेलाना मार्ग प्रभावना भावना है।विद्यालय व औषधालय खुलवाना ,असहाय व्यक्तियों की सहायता करना आदि कल्याण कारी कार्य भी इस भावना में आते हैं ।
१६. प्रवचन वात्सल्य भावना :-साधर्मी बन्धुओं से अगाध प्रेम भाव रखना।