बारह अंगों के नाम-
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बारह अंगों के नाम-
आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्या-प्रज्ञप्ति अंग, नाथधर्मकथांग, उपासकाध्ययनांग, अन्त:कृद्दशांग, अनुत्तरौपपादिकदशांग, प्रश्नव्याकरणांग, विपाकसूत्रांग और दृष्टिवादांग ये द्वादशांग के नाम हैं।
१. आचारांग-अठारह हजार पदों के द्वारा मुनियों के आचार/आचरण/चर्या का वर्णन करने वाला पहला आचारांग श्रुत है। यथा-
शिष्य पूछता है कि हे भगवन्! मैं वैâसे विचरण करूँ ? वैâसे ठहरूँ ? वैâसे बैठूँ ? वैâसे शयन करूँ ? वैâसे भोजन करूँ ? और वैâसे भाषण करूँ-बोलूँ ? जिससे पाप का बंध न हो।
तब आचार्य कहते हैं कि हे शिष्य! तू यत्नपूर्वक-सावधानीपूर्वक (समितिपालनयुक्त यत्नाचारपूर्वक) विचरण कर, यत्नपूर्वक ठहर, यत्नपूर्वक बैठ, यत्नपूर्वक शयन कर, यत्नपूर्वक भोजन कर और यत्नपूर्वक वचन बोल जिससे कि पाप का बंध नहीं होगा।
२. सूत्रकृतांग-छत्तीस हजार पदों के द्वारा यह अंग ज्ञानविनय-प्रज्ञापना-कल्प्याकल्प्य-छेदोपस्थापना और व्यवहार धर्मक्रिया की प्ररूपणा करता है तथा स्वसमय (जैनागम) और परसमय (अन्य मतावलम्बी ग्रंथों) को भी कहता है।
३. स्थानांग-ब्यालीस हजार पदों के द्वारा एक से लेकर, उत्तरोत्तर एक-एक अधिक स्थानों का वर्णन करता है। जैसे-यह जीव चैतन्य गुण से समन्वित धर्म वाला होने से एक है, ज्ञान-दर्शन उपयोग रूप से दो प्रकार का है तथा कर्मफलचेतना, कर्मचेतना और ज्ञानचेतना व्ाâे भेद से तीन प्रकार का है इत्यादि।
४. समवायांग-एक लाख चौंसठ हजार पदों के द्वारा समस्त पदार्थों के समवाय का वर्णन करने वाला यह अंग है। उनमें से द्रव्यसमवाय की अपेक्षा धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश और एक जीव के प्रदेश समान हैं।
क्षेत्रसमवाय की अपेक्षा प्रथम नरक के प्रथम पटल का सीमन्तक नामक प्रथम इन्द्रकबिल, ढाई द्वीप प्रमाण मनुष्य क्षेत्र, प्रथम स्वर्ग के प्रथम पटल का ऋजु नाम का इन्द्रक विमान और सिद्धक्षेत्र ये सब समान प्रमाण वाले हैं अर्थात् इन सबका विस्तार ४५ लाख योजन प्रमाण है। कालसमवाय की अपेक्षा एक समय एक समय के बराबर है और एक मुहूर्त एक मुहूर्त के बराबर है। भावसमवाय की अपेक्षा केवलज्ञान केवलदर्शन के समान है।
५. व्याख्याप्रज्ञप्तिअंग-दो लाख अट्ठाईस हजार पदों के द्वारा क्या जीव है ? क्या जीव नहीं है ? इत्यादि साठ हजार प्रश्नों का व्याख्यान करने वाला यह पाँचवाँ अंग है।
६. नाथधर्मकथांग-पाँच लाख छप्पन हजार पदों के द्वारा सूत्र पौरुषी अर्थात् सिद्धान्तोक्त विधि से तीर्थंकरों की धर्मदेशना, संदेह को प्राप्त गणधरदेव के संदेह को दूर करने की विधि का तथा अनेक प्रकार की कथा और उपकथाओं का वर्णन करने वाला यह अंग ‘‘ज्ञातृधर्मकथांग’’ के नाम से भी जाना जाता है।
७. उपासकाध्ययनांग-ग्यारह लाख सत्तर हजार पदों के द्वारा- दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषधोपवास, सचित्तविरत, रात्रिभुक्तिविरत, ब्रह्मचर्य, आरम्भत्याग, परिग्रहत्याग, अनुमतित्याग और उद्दिष्टत्याग इस प्रकार ग्यारह प्रतिमारूप व्रतों के द्वारा उपासकों-श्रावकों के लक्षण, उनके व्रतारोपण-व्रत धारण करने की विधि और उनके आचरण का वर्णन यह ‘‘उपासकाध्ययन अंग’’ नामक ग्रंथ करता है।
८. अन्त:कृद्दशांग-तेईस लाख अट्ठाईस हजार पदों के द्वारा एक-एक तीर्थंकर के तीर्थ में नाना प्रकार के दारुण उपसर्गों को सहन कर और प्रातिहार्य प्राप्त कर निर्वाण को प्राप्त हुए दश-दश अन्तकृत केवलियों का वर्णन करता है।
तत्त्वार्थभाष्य में कहा भी है-
जिन्होंने संसार का अन्त कर दिया उन्हें ‘‘अन्तकृतकेवली’’ कहते हैं। वर्धमान तीर्थंकर के तीर्थ में नमि, मतंग, सोमिल, रामपुत्र, सुदर्शन, यमलीक, वलीक, किष्कंविल, पालम्ब और अष्टपुत्र ये दश अन्तकृत्केवली हुए हैं। इसी प्रकार ऋषभदेव आदि तेईस तीर्थंकरों के तीर्थ में और दूसरे दश-दश अनगार दारुण उपसर्गों को सहनकर सम्पूर्ण कर्मों के क्षय से अन्तकृतकेवली हुए। इन सबकी दशा का जिसमें वर्णन किया जाता है उसे ‘‘अन्तकृद्दश’’ नामक अंग कहते हैं।
९. अनुत्तरौपपादिकदशांग-बानवे लाख चवालीस हजार पदों द्वारा एक-एक तीर्थंकर के तीर्थ में नाना प्रकार के दारुण उपसर्गों को सहन करके प्रातिहार्यों को प्राप्त करके पाँच अनुत्तर विमानों में गए हुए दश-दश महामुनियों का वर्णन करने वाला यह अंग है।
तत्त्वार्थभाष्य में भी कहा है-
उपपाद जन्म ही जिनका प्रयोजन है उन्हें औपपादिक कहते हैं। विजय-वैजयन्त-जयन्त-अपराजित और सर्वार्थसिद्धि ये पाँच अनुत्तर विमान हैं। जो इन अनुत्तरों में उपपाद जन्म से पैदा होते हैं उन्हें अनुत्तरौपपादिक कहते हैं। ऋषिदास, धन्य, सुनक्षत्र, कार्तिकेय, आनन्द, नन्दन, शालिभद्र, अभय, वारिषेण और चिलातपुत्र ये दश अनुत्तरौपपादिक वर्धमान तीर्थंकर के तीर्थ में हुए हैं। इसी प्रकार ऋषभनाथ आदि तेईस तीर्थंकरों के तीर्थ में अन्य दश-दश महासाधु दारुण उपसर्गों को जीतकर विजयादिक पाँच अनुत्तरों में उत्पन्न हुए।
इस तरह अनुत्तरोें में उत्पन्न होने वाले दश साधुओं का जिसमें वर्णन किया जावे, उसे अनुत्तरौपपादिकदशांग नाम का अंग कहते हैं।
१०. प्रश्नव्याकरणांग-तिरानवे लाख सोलह हजार पदों के द्वारा आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदनी, निर्वेदनी इन चार कथाओं का वर्णन करता है अर्थात् भूत, भविष्यत् और वर्तमानकाल संबंधी धन-धान्य, लाभ-अलाभ, जीवन-मरण, जय और पराजय संबंधी प्रश्नों के पूछने पर उनके उपाय का लाभ वर्णन करने वाला यह अंग है।
जो नाना प्रकार की एकान्त दृष्टियों का और दूसरे समयों-ग्रंथों का निराकरणपूर्वक शुद्धि करके छह द्रव्य और नौ पदार्थ का प्ररूपण करती है उसे आक्षेपणी कथा कहते हैं। जिसमें पहले परसमय के द्वारा स्वसमय में दोष बतलाये जाते हैं पश्चात् परसमय की आधारभूत अनेक एकान्त दृष्टियों का शोधन करके स्वसमय की स्थापना की जाती है और छह द्रव्य, नव पदार्थों का वर्णन किया जाता है, उसे विक्षेपणी कथा कहते हैं।
तीर्थंकर, गणधर, ऋषि, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, देव और विद्याधरों की ऋद्धियों का एवं उनकी पुण्यकथा का वर्णन करने वाली संवेदनी कथा है।
नरक, तिर्यंच और कुमानुष की योनियों में जन्म, जरा, मरण, व्याधि, वेदना और दारिद्र्य आदि पाप-फलों को बतलाने वाले निर्वेदनी कथा है। यह संसार, शरीर और भोगों में वैराग्य को उत्पन्न करने वाली कथा है।
यहाँ समस्त कथाओं के मध्य में जो विक्षेपणी कथा है उसे सबके सामने नहीं कहना चाहिए। क्योंकि जिसे जिनवचनों का ज्ञान नहीं है वह कदाचित् परसमय का प्रतिपादन करने वाली इन कथाओं को सुनकर मिथ्यात्वपने को स्वीकार कर सकता है अत: उसके लिए विक्षेपणी कथा का उपदेश न देकर शेष तीन कथाओं को ही कहना चाहिए-वे ही उसके लिए सुनने योग्य हैं।
यह दशवाँ अंग प्रश्न की अपेक्षा से हत, नष्ट, मुष्टि, चिन्ता, लाभ-अलाभ, सुख-दु:ख, जीवन-मरण, जय-पराजय, नाम, द्रव्य, आयु और संख्या का निरूपण भ्ाी करता है।
११. विपाकसूत्रांग-एक करोड़ चौरासी लाख पदों के द्वारा पुण्य-पाप कर्मों के विपाक-फल का वर्णन करता है।
इन ग्यारह अंगों के कुल पदों का जोड़ चार करोड़ पन्द्रह लाख दो हजार प्रमाण है।
१२. दृष्टिवाद अंग-इसमें कौत्कल, काण्ठेविद्धि, कौशिक, हरिश्मश्रु, मांधपिक, रोमश, हारीत, मुण्ड और अश्वलायन आदि क्रियावादियों के एक सौ अस्सी मतों का मरीचि, कपिल, उलूक, गार्ग्य, व्याघ्रभूति, वाद्बलि, माठर और मौद्गल्यायन आदि अक्रियावादियों के चौरासी मतों का, शाकल्य, वल्कल, कुथुमि, सात्यमुग्रि, नारायण, कण्व, माध्यंदिन, मोद, पैप्पलाद, वादरायण, स्वेष्टकृत, ऐतिकायन, वसु, जैमिनी आदि अज्ञानवादियों के सड़सठ (६७) मतों का तथा वशिष्ट, पाराशर, जतुकर्ण, वाल्मीकि,रोमहर्षिणी, सत्यदत्त, व्यास, एलापुत्र, औपमन्यु, ऐन्द्रदत्त और अयस्थूल आदि वैनयिकवादियों के बत्तीस मतों का वर्णन और निराकरण किया गया है।
पूर्व में कहे हुए क्रियावादी आदि के कुल भेद तीन सौ त्रेसठ होते हैं।
इस प्रकार इन ३६३ पाखंड मतों का वर्णन और निराकरण दृष्टिवाद अंग में किया गया है।
 

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