08-08-2022, 10:06 AM
श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -43
उदयगदा कम्मंसा जिणवरवसहेहिं णियदिणा भणिया।
तेसु विमूढो रत्तो दुट्ठो वा बंधमणुभवदि // 43 //
अन्वयार्थ- (उदयगदा कम्मंसा) (संसारी जीव के) उदय प्राप्त कर्मांश (ज्ञानावरणादि पद्गल कर्म के भेद) (णियदिणा) नियम से (जिणवरवसहेहिं) जिनवर वृषभों ने (भणिदा) कहे है। (तेसु हि) (जीव) उन कर्मांशों के होने पर, (मुहिदो रत्तो वा दुट्ठो वा) मोही, रागी अथवा द्वेषी होता हुआ (बंधमणुहवदि) बन्ध का अनुभव करता है
आगे कहते हैं, कि ज्ञान बंधका कारण नहीं है, ज्ञेयपदार्थोंमें जो राग द्वेषरूप परिणति है, वही बंधका कारण है—[जिनवरवृषभैः] गणधरादिकोंमें श्रेष्ठ अथवा बड़े ऐसे वीतरागदेवने [उद्यगताः कर्माशाः] उदय अवस्थाको प्राप्त हुए कौके अंश अर्थात् ज्ञानावरणादि भेद [नियत्या निश्चयसे [भणिताः कहे हैं। [तेषु] उन उदयागत कर्मोंमें [हि निश्चयकरके [मूढः] मोही, [रक्तः] रागी [वा] अथवा [दुष्टः] द्वेषी [बन्धं] प्रकृति, स्थिति आदि चार प्रकारके बन्धको [अनुभवति] अनुभव करता है, अर्थात् भोगता है।
भावार्थ-
संसारी सब जीवोंके कर्मका उदय है, परंतु वह उदय बंधका कारण नहीं है / यदि कर्म जनित इष्ट अनिष्ट भावोंमें जीव रागी द्वेषी मोही होकर परिणमता है, तभी बंध होता है। इससे यह बात सिद्ध हुई, कि ज्ञान तथा कर्मके उदयसे उत्पन्न क्रियायें बंधका कारण नहीं हैं, बंधके कारण केवल राग द्वेष मोहभाव हैं, इस कारण ये सब तरहसे त्यागने योग्य हैं|
गाथा -44
ठाणणिसेन्जविहारा धम्मुवदेसो य णियदयो तेसिं।
अरहंताणं काले मायाचारो व्व इस्थीणं // 44 //
अन्वयार्थ- (तेसिं अरहंताणं) उन अरहन्त भगवन्तों के (काले) उस समय (ठाणणिसेज्ज-विहारो) खड़े रहना, बैठना, बिहार (धम्मुवदेसं च) और धर्मोपदेश (इत्थीणं मायाचारव्व) स्त्रियों के मायाचार की भाँति (णियदओ) स्वाभाविक ही-प्रयत्न बिना ही-होता है।
आगे केवलीके कर्मका उदय है, और वचनादि योग क्रिया भी है, परन्तु उनके रागादि भावोंके अभावसे बंध नहीं होता है[तेषामहंतां] उन अरहंतदेवोंके [काले] कर्मोंके उदयकालमें [स्थाननिषद्याविहाराः] स्थान, आसन, और विहार ये तीन काययोगकी क्रियायें [च] और [धर्मोपदेशः] दिव्यध्वनिसे निश्चय व्यवहार स्वरूप धर्मका उपदेश यह वचनयोगकी क्रिया [स्त्रीणां] स्त्रियोंके स्वाभाविक [मायाचार इव] कुटिल आचरणकी तरह [नियतयः] निश्चित होती हैं / भावार्थ-वीतरागदेवके औदयिकभावोंसे काय, वचन योगकी क्रियायें अवश्य होती हैं, परन्तु उन क्रियाओंमें भगवानका कोई यत्न नहीं है, मोहके अभावसे इच्छाके विना स्वभावसे ही होती हैं। जैसे स्त्रीवेदकर्मके उदयसे स्त्रीके हाव, भाव, विलास विभ्रमादिक स्वभाव ही से होते हैं, उसी प्रकार अरहंतके योगक्रियायें सहज ही होती हैं। तथा जैसे मेघके जलका वरसना, गर्जना, चलना, स्थिर होना, इत्यादि क्रियायें पुरुषके यत्नके विना ही उसके स्वभावसे होती हैं, उसी प्रकार इच्छाके विना औदयिकभावोंसे अरहंतोंके क्रिया होती हैं / इसी कारण केवलीके बंध नहीं है। रागादिकोंके अभावसे औदयिकक्रिया बंधके फलको नहीं देती
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी गाथा -43,44
मुनि श्री इस गाथा 043 कि माध्यम से बताते हैं कि
* संसारी जीव में कर्मांश का उदय हर समय चलता रहता है।
* जो कर्म सत्व में रहते हैं उनका उदय वर्तमान में चलता रहता है।
* हर जीव के लिए कर्म का उदय बना रहता है और वह उस कर्म फल को अनुभव करता रहता है।वह अपनी हर क्रिया उस कर्म फल के अनुसार करता है।
* कर्म के उदय में मोह/राग/द्वेष करता है और पुनः कर्म बंध करता है।
* ये चक्र सदेव चलता रहता है। यदि जीव ज्ञान से समझे कि कर्म मेरा स्वभाव नहीं तो वह थोड़ा सा उस समय कर्म के बंध से हल्का हो सकता है।
* केवल देशना को सुनने से भी मोहनीय कर्म के फल मंद पड़ जाते हैं।
गाथा संख्या 44 के माध्यम से मुनि श्री बताते हैं कि अरिहंत भगवान के लिए आहार,विहार,उठना,बैठना आदि क्रियाएँ सहजता से स्वभाव के साथ चलती है। उन्हें इन क्रियाओं के लिए कोई पुरुषार्थ नहीं करना पड़ता है। वे इंद्रियों और मन से रहित होते हैं, इसलिए यह सब वे बुद्धिपूर्वक नहीं करते हैं।
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार
गाथा -43
उदयगदा कम्मंसा जिणवरवसहेहिं णियदिणा भणिया।
तेसु विमूढो रत्तो दुट्ठो वा बंधमणुभवदि // 43 //
अन्वयार्थ- (उदयगदा कम्मंसा) (संसारी जीव के) उदय प्राप्त कर्मांश (ज्ञानावरणादि पद्गल कर्म के भेद) (णियदिणा) नियम से (जिणवरवसहेहिं) जिनवर वृषभों ने (भणिदा) कहे है। (तेसु हि) (जीव) उन कर्मांशों के होने पर, (मुहिदो रत्तो वा दुट्ठो वा) मोही, रागी अथवा द्वेषी होता हुआ (बंधमणुहवदि) बन्ध का अनुभव करता है
आगे कहते हैं, कि ज्ञान बंधका कारण नहीं है, ज्ञेयपदार्थोंमें जो राग द्वेषरूप परिणति है, वही बंधका कारण है—[जिनवरवृषभैः] गणधरादिकोंमें श्रेष्ठ अथवा बड़े ऐसे वीतरागदेवने [उद्यगताः कर्माशाः] उदय अवस्थाको प्राप्त हुए कौके अंश अर्थात् ज्ञानावरणादि भेद [नियत्या निश्चयसे [भणिताः कहे हैं। [तेषु] उन उदयागत कर्मोंमें [हि निश्चयकरके [मूढः] मोही, [रक्तः] रागी [वा] अथवा [दुष्टः] द्वेषी [बन्धं] प्रकृति, स्थिति आदि चार प्रकारके बन्धको [अनुभवति] अनुभव करता है, अर्थात् भोगता है।
भावार्थ-
संसारी सब जीवोंके कर्मका उदय है, परंतु वह उदय बंधका कारण नहीं है / यदि कर्म जनित इष्ट अनिष्ट भावोंमें जीव रागी द्वेषी मोही होकर परिणमता है, तभी बंध होता है। इससे यह बात सिद्ध हुई, कि ज्ञान तथा कर्मके उदयसे उत्पन्न क्रियायें बंधका कारण नहीं हैं, बंधके कारण केवल राग द्वेष मोहभाव हैं, इस कारण ये सब तरहसे त्यागने योग्य हैं|
गाथा -44
ठाणणिसेन्जविहारा धम्मुवदेसो य णियदयो तेसिं।
अरहंताणं काले मायाचारो व्व इस्थीणं // 44 //
अन्वयार्थ- (तेसिं अरहंताणं) उन अरहन्त भगवन्तों के (काले) उस समय (ठाणणिसेज्ज-विहारो) खड़े रहना, बैठना, बिहार (धम्मुवदेसं च) और धर्मोपदेश (इत्थीणं मायाचारव्व) स्त्रियों के मायाचार की भाँति (णियदओ) स्वाभाविक ही-प्रयत्न बिना ही-होता है।
आगे केवलीके कर्मका उदय है, और वचनादि योग क्रिया भी है, परन्तु उनके रागादि भावोंके अभावसे बंध नहीं होता है[तेषामहंतां] उन अरहंतदेवोंके [काले] कर्मोंके उदयकालमें [स्थाननिषद्याविहाराः] स्थान, आसन, और विहार ये तीन काययोगकी क्रियायें [च] और [धर्मोपदेशः] दिव्यध्वनिसे निश्चय व्यवहार स्वरूप धर्मका उपदेश यह वचनयोगकी क्रिया [स्त्रीणां] स्त्रियोंके स्वाभाविक [मायाचार इव] कुटिल आचरणकी तरह [नियतयः] निश्चित होती हैं / भावार्थ-वीतरागदेवके औदयिकभावोंसे काय, वचन योगकी क्रियायें अवश्य होती हैं, परन्तु उन क्रियाओंमें भगवानका कोई यत्न नहीं है, मोहके अभावसे इच्छाके विना स्वभावसे ही होती हैं। जैसे स्त्रीवेदकर्मके उदयसे स्त्रीके हाव, भाव, विलास विभ्रमादिक स्वभाव ही से होते हैं, उसी प्रकार अरहंतके योगक्रियायें सहज ही होती हैं। तथा जैसे मेघके जलका वरसना, गर्जना, चलना, स्थिर होना, इत्यादि क्रियायें पुरुषके यत्नके विना ही उसके स्वभावसे होती हैं, उसी प्रकार इच्छाके विना औदयिकभावोंसे अरहंतोंके क्रिया होती हैं / इसी कारण केवलीके बंध नहीं है। रागादिकोंके अभावसे औदयिकक्रिया बंधके फलको नहीं देती
मुनि श्री प्रणम्य सागर जी गाथा -43,44
मुनि श्री इस गाथा 043 कि माध्यम से बताते हैं कि
* संसारी जीव में कर्मांश का उदय हर समय चलता रहता है।
* जो कर्म सत्व में रहते हैं उनका उदय वर्तमान में चलता रहता है।
* हर जीव के लिए कर्म का उदय बना रहता है और वह उस कर्म फल को अनुभव करता रहता है।वह अपनी हर क्रिया उस कर्म फल के अनुसार करता है।
* कर्म के उदय में मोह/राग/द्वेष करता है और पुनः कर्म बंध करता है।
* ये चक्र सदेव चलता रहता है। यदि जीव ज्ञान से समझे कि कर्म मेरा स्वभाव नहीं तो वह थोड़ा सा उस समय कर्म के बंध से हल्का हो सकता है।
* केवल देशना को सुनने से भी मोहनीय कर्म के फल मंद पड़ जाते हैं।
गाथा संख्या 44 के माध्यम से मुनि श्री बताते हैं कि अरिहंत भगवान के लिए आहार,विहार,उठना,बैठना आदि क्रियाएँ सहजता से स्वभाव के साथ चलती है। उन्हें इन क्रियाओं के लिए कोई पुरुषार्थ नहीं करना पड़ता है। वे इंद्रियों और मन से रहित होते हैं, इसलिए यह सब वे बुद्धिपूर्वक नहीं करते हैं।