प्रवचनसारः गाथा -21, 22 केवल ज्ञान का स्वरूप
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आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -20,21 
नहीं केवलज्ञानयानके सुख दुख शरीरगत होते ।
क्योंकि इन्द्रियादीत बोधसे सबको एकसाथ जोते
मतिज्ञानपूर्वक क्रमार्जित नहीं काम उनका होता ।
फिर क्यों खाने पोने जैसी आठोंका हो समझोता ॥ ११

गाथा -22,23
नहीं जानने लायक जिनके रहा जरा भी तो बाकी ।
समुपलब्ध हो चुकी सदाके लिए अतीन्द्रिय विद्याकी ॥
ज्ञानमात्र वस्तुतया आत्मा ज्ञान ज्ञेय मित होता है।
ज्ञेय अलोक लोक सब ऐसे सर्वज्ञपनको ढोता है ॥ १२ ॥


गाथा -19,20a, 20,21
सारांश:- कुछ लोगोंका यह प्रश्न हो सकता है कि वीतराग सर्वज्ञ होजाने पर जबतक यह आत्मा शरीरमें विद्यमान रहता है तबतक तो छद्मस्थकी तरह वह भी खाना पीना करता ही होगा? इसी प्रश्नका यहाँ उत्तर दिया गया है। जब भगवान् सर्वज्ञ होगये, सब बातों को युगपत् जानने लगे और किसी भी बातकी चाह नहीं रही तब फिर उन्हें खानेकी क्या आवश्यकता है? खानेका मतलब तो यह है कि भोजनस्वाद जिह्वाके द्वारा लिया जावे।

गाथा -22,23, 24,25
सारांश :- आत्मा गुणी है और ज्ञान उसका गुण एवं ज्ञान और आत्मामें तादात्म्य है। ज्ञान आत्माको छोड़कर कहीं अन्यत्र नहीं रहता है और ज्ञानसे शून्य आत्माका एक भी प्रदेश कभी नहीं होता है। भगवान् आत्माका ज्ञान सम्पूर्ण संसारके सभी पदार्थोंको एक साथ स्पष्ट जानता है। कोई भी पदार्थ उनके ज्ञानसे बाहर नहीं है। वह सम्पूर्ण लोकाकाशके पदार्थोंकी तरह अलोकाकाशको भी जानता है, अतः विषय विषयीके रूपमें वह सर्वगत है। ज्ञान आत्मारूप है किन्तु आत्माके ज्ञानरूप होते हुए भी उसमें और भी गुण पाये जाते हैं, यही बताते हैं
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प्रवचनसारः गाथा -21, 22 केवल ज्ञान का स्वरूप - by Manish Jain - 08-03-2022, 07:11 AM
RE: प्रवचनसारः गाथा -22, 23 - by sandeep jain - 08-03-2022, 07:16 AM
RE: प्रवचनसारः गाथा -21, 22 केवल ज्ञान का स्वरूप - by sumit patni - 08-14-2022, 11:40 AM

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