10-26-2022, 02:29 PM
आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश
गाथा -5,6
निजनिजरूपयुत द्रव्योंको सबको सदा सुहाया है।
धर्मोपदेशदायक जिनको सल्लक्षण गाया है ॥
सहजसिद्ध उस लक्षणमुक्त वस्तुत्वको जो न गहे ।
वही परसमय होता है ऐसा जिनशासन सदा कहे ॥ ३ ॥
सारांश:- जीव चेतनावान् है और पुद्गल रूपादिमान् है इसप्रकार प्रत्येक द्रव्य अपनी अपनी विशेषताको लिये हुए होनेसे एक दूसरेसे भिन्न है। फिर भी अस्तित्व सामान्यकी अपेक्षासे सब द्रव्य एक होजाते हैं। प्रत्येक पदार्थके अन्य गुण जैसे और द्रव्योंसे हटकरके उसके उसीमें रहते हैं वैसेही प्रत्येक पदार्थका अस्तित्व सामान्य भी उसका उसीमें रहता है। ऐसा कभी नहीं है कि अस्तित्व बिछी हुई जाजमकी तरह या फैले हुए दीपकके प्रकाशकी तरह अखण्ड एक चीज हो और वहाँ पर बैठे हुए मनुष्यादिकी तरह सब पदार्थ हों जो उस सत्ता सामान्यको स्वीकार किये हुए उससे पृथक् हों। यह अवश्य है कि जैसा एक द्रव्यका अस्तित्व है वैसे ही दूसरे द्रव्यका भी है। जैसे एक मनुष्य, मनुष्य है वैसे ही दूसरा मनुष्य भी मनुष्य है।
इस समानताको लेकर ही सब द्रव्य एक और उनकी सत्ता भी एक कही जाती है, जो अस्तित्वसामान्य है अर्थात् यह भी है और यह भी है। इसप्रकारके अनुगत विचारके द्वारा सब पदार्थगत ठहरती है। अन्यथा सब पदार्थ अपनी अपनी सत्ता भिन्न भिन्न रखते हैं। यह बात दूसरी है कि कोई भी पदार्थ सत्ताविहीन न तो कभी हुआ है, न है ही और न होगा ही क्योंकि सत्ता पदार्थका स्वभाव है। जो सत्ताविहीन है, वह पदार्थ ही नहीं है, जैसे वंध्या पुत्र। इस बातको नहीं मानकर और तरहसे माननेवाला मिध्यादृष्टि है, वह भूल करता है, सही रास्ते पर नहीं है। इसीका समर्थन आगे और भी किया जाता है
गाथा -5,6
निजनिजरूपयुत द्रव्योंको सबको सदा सुहाया है।
धर्मोपदेशदायक जिनको सल्लक्षण गाया है ॥
सहजसिद्ध उस लक्षणमुक्त वस्तुत्वको जो न गहे ।
वही परसमय होता है ऐसा जिनशासन सदा कहे ॥ ३ ॥
सारांश:- जीव चेतनावान् है और पुद्गल रूपादिमान् है इसप्रकार प्रत्येक द्रव्य अपनी अपनी विशेषताको लिये हुए होनेसे एक दूसरेसे भिन्न है। फिर भी अस्तित्व सामान्यकी अपेक्षासे सब द्रव्य एक होजाते हैं। प्रत्येक पदार्थके अन्य गुण जैसे और द्रव्योंसे हटकरके उसके उसीमें रहते हैं वैसेही प्रत्येक पदार्थका अस्तित्व सामान्य भी उसका उसीमें रहता है। ऐसा कभी नहीं है कि अस्तित्व बिछी हुई जाजमकी तरह या फैले हुए दीपकके प्रकाशकी तरह अखण्ड एक चीज हो और वहाँ पर बैठे हुए मनुष्यादिकी तरह सब पदार्थ हों जो उस सत्ता सामान्यको स्वीकार किये हुए उससे पृथक् हों। यह अवश्य है कि जैसा एक द्रव्यका अस्तित्व है वैसे ही दूसरे द्रव्यका भी है। जैसे एक मनुष्य, मनुष्य है वैसे ही दूसरा मनुष्य भी मनुष्य है।
इस समानताको लेकर ही सब द्रव्य एक और उनकी सत्ता भी एक कही जाती है, जो अस्तित्वसामान्य है अर्थात् यह भी है और यह भी है। इसप्रकारके अनुगत विचारके द्वारा सब पदार्थगत ठहरती है। अन्यथा सब पदार्थ अपनी अपनी सत्ता भिन्न भिन्न रखते हैं। यह बात दूसरी है कि कोई भी पदार्थ सत्ताविहीन न तो कभी हुआ है, न है ही और न होगा ही क्योंकि सत्ता पदार्थका स्वभाव है। जो सत्ताविहीन है, वह पदार्थ ही नहीं है, जैसे वंध्या पुत्र। इस बातको नहीं मानकर और तरहसे माननेवाला मिध्यादृष्टि है, वह भूल करता है, सही रास्ते पर नहीं है। इसीका समर्थन आगे और भी किया जाता है