05-11-2023, 08:37 AM
क्षु. मनोहर वर्णी - मोक्षशास्त्र प्रवचन
‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:’’
तत्त्वार्थसूत्र की जैन आम्नाय में मान्यता और पूज्यता है, वह सब जानते हैं। एक यही ग्रन्थ ऐसा है, जिसे श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों मानते हैं। क्योंकि इसमें जैनागम का तत्त्वज्ञान है। यह संक्षेप रूप से उसका संकलन करने वाली दूसरी अच्छी रचना नहीं हो सकती थी, इस लिये अपने श्वेताम्बर भाइयों में भी इसके कुछ सूत्रों में थोड़ा हेर फेर होकर इसकी मान्यता है, ऐसा कई विद्वानों का मत है। इस शास्त्र में कई तरह की विशेषता है। प्रथमानुयोग के विषय को छोड़ अन्य सब अनुयोगों का वर्णन सूत्ररूप से इसमें भरा हुआ है। वैसे तो क्षेत्र काल गति आदि सूचना रूप प्रथमानुयोग भी आ गया है। इसके विषय के प्रतिपादन का क्रम, शैली और गांभीर्य अति उत्तम है। इसका सूक्ष्म दृष्टि से मनन करने पर परम आगम का अभ्यासी हो सकता है।
‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:’ इस प्रारंभ के सूत्र में प्रारम्भ में सम्यक् और साध्या:पद इस सूत्रजी के अन्तिम सूत्र के अंत में आया हुआ है। जिससे यह अर्थ भी निकल सकता है कि रत्नत्रय जिसका विवेचन आगे पूरे ग्रन्थ में किया गया है वह साध्य है, साधने योग्य है। सम्यक् और साध्या: के मध्य में जितना प्रवचन है वह हृदय में धारने योग्य है। यद्यपि ग्रन्थकार का भाव यह रहा हो, ऐसा निश्चय नहीं कर सकते, फिर भी तत्त्वज्ञानियों के शब्दों का बड़ा महत्त्व है। एक ही बात में कई गूढ़ अर्थ भरे रहते हैं। जो अर्थ उनके ध्यान में दृष्टि उस ओर न होने से शायद नहीं भी होता हो, वह अर्थ भी उनके वचनों से निकल जाता है। ग्रन्थ में जो 10 अध्याय हैं, उनसे भी मतलब निकलता है कि गणना मूल में 9 तक है उसके बाद शून्य जोड़ कर 10 बनते हैं, जो ‘‘एक गोल’’ ऐसा लिखा जाता है। पदार्थ भी 9 होते हैं, और ये व्यवहार से हैं।
इन 9 भेदों से अतीत पदार्थ का स्वरूप शुद्ध निश्चयनय का विषयभूत स्वरूप है। इन 9 भेदों के उल्लंघन होने पर वह गोल (GOAL) आता है जो आदि मध्य अंत से रहित है वे ध्येयरूप है। इस तरह उसके दशवें प्रकार का भी संकेत दशवें अध्याय से ले सकते हैं। दशवें अध्याय में शुद्ध पर्याय का वर्णन है जो स्वभाव के अनुरूप है। यों तो सामान्य तौर पर सात तत्त्वों के प्ररूपण में 10 अध्याय बन गये, पर बात ठीक है। इंगलिश में गोल को (GOAL) ध्येय कहते हैं जिससे यह सिद्ध होता है कि ये 10 अध्याय क्या हैं? गोल (ध्येय) है। दसों अध्यायों में जीव अजीव के विस्तार का वर्णन है सो इन भेद-पर्याय-विस्तार को समझे बिना इनको एक आश्रयमात्र तत्त्व को समझना कठिन है। अत: यह विस्तार भी एक गोल पर पहुंचाने के लिये है। सूत्र के प्रारम्भ में टीकाकार पूज्यपाद स्वामी ने मंगलाचरण किया।
मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं, कर्मभूभृताम्। ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये। अर्थात् मोक्षमार्ग के नेता, द्रव्यकर्म वा रागद्वेषादि भावकर्म के भेदने वाले और विश्व के तत्त्वों के ज्ञाता को अथवा माने सम्पूर्ण तत्त्वों के ज्ञाता को उनके गुणों की प्राप्ति के लिये अथवा उन गुणों की प्राप्ति के लिये नमस्कार करता हूँ। इसमें पहिला विशेषण मोक्ष मार्ग के नेता का दिया। नेता वह कहलाता जो अपने लक्ष्य की ओर ले जाय, ले जाने वाला स्वयं जाता और दूसरों को उस अभीष्ट तक ले जाता। नेता का अर्थ पहुँचा देने वाला नहीं होता। क्योंकि पहुँचा देने वाले में यह नेतृत्व शक्ति नहीं होती। नेता तो वही है जो स्वयं उसको प्राप्त करे या उस पर चले और दूसरों को भी उसमें ले जाय। मोक्षमार्ग पर जो स्वयं न चला हो, स्वयं उस भाव को जिसने प्राप्त न किया हो तो दूसरों को मोक्षमार्ग में ले जाने का निमित्तत्त्व उसमें नहीं हो सकता। अरहंत आप्त में यह नेतृत्व पूर्णरूप से पाया जाता है। इसके साथ ही जो पूर्णरूप से रागद्वेषरहित वीतरागी हों और पूर्ण ज्ञानी (सर्वज्ञ) हों, वही वास्तविक मोक्षमार्ग का नेता हो सकता है। मोक्षमार्ग का प्रणयन, अल्पज्ञानी या रागी-द्वेषी नहीं कर सकता। इसी लिए ग्रन्थकार इन तीन गुणों की प्राप्ति के लिए अथवा उन तीन गुणों से विशिष्ट आप्त अरहंत की अनुभव में प्राप्ति के लिए उन गुणों को वा तद्विशिष्ट अरहंत को नमस्कार करते हैं। क्योंकि जो जिसका अर्थी होता है वह उसी की उपासना करता है। लोक में भी ऐसा ही देखा जाता है।
किसी भी कार्य में सफलता पानी हो तो पुरुष को पुरुषार्थी, निर्दोष व ज्ञानी होना ही चाहिए। यहां मोक्षमार्ग की बात है इसके लिए मोक्षमार्ग का पुरुषार्थी और निर्दोषता में सर्वथा निर्दोष व पूर्ण ज्ञानी होता चाहिए। इस श्लोक में 3 विशेषण दिए हैं, 1- मोक्षमार्ग-नेता, 2-कर्मभेत्ता, 3-विश्वज्ञाता। मध्य का विशेषण पूर्व और ऊपर दोनों के लिए कारण है। जब तक जीव रागादि भावकर्म और मोहनीयादि द्रव्यकर्म का क्षय नहीं करता तब तक वह मोक्षमार्ग का अधिकारी, नेता व सर्वज्ञ नहीं बन सकता। जैनसिद्धान्त गुणवादी है व्यक्तिवादी नहीं। जब एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ परिणमन ही नहीं कर सकता, तब व्यक्तिपूजा को महत्त्व का स्थान ही कैसे हो सकता है? जैन सिद्धान्त के इस मर्म को नहीं जानने वाले लोग न्याय के मार्ग में कदम रखें तो पद पद पर फिसलना पड़ता है। यहां मोक्षमार्ग के नेता का स्मरण इसीलिये है कि उनका ही निमित्तरूपेण हम सब पर उपकार है। कर्मभेत्ता का स्मरण इसलिए किया है कि आखिर निर्विकल्पता भी तो ज्ञानी ने केवल शुद्ध दशा में निर्णीत की है। विश्वज्ञाता का स्मरण इसलिए किया है कि अन्त में शुद्ध अवस्था होने पर सद्भावरूपेण यही सर्वज्ञता ही तो रहती है। अहो, नमस्कार भी हो तो ऐसा हो कि वह नमस्कार परिणमन सफलता की उन्नति करता रहे। मोक्षमार्ग के नेता, कर्मरूपी पहाड़ के भेदन करने वाले व सर्व तत्त्व (त्रिलोक व त्रिकालवर्ती) के जानने वाले चैतन्य-स्वरूप प्रभु को नमस्कार हो।
वे मोक्षमार्ग के नेता जो तत्त्वज्ञान बताते हैं, वह सनातन हैं। क्योंकि ज्ञान को वेद कहते हैं, और बहुत लोगों ने वेद को अपौरुषेय, अनादि से चला आया माना है। श्रुतज्ञान रूपी वेद, अथवा षट्खण्डागम वेद, महावीर तीर्थंकर ने नया पैदा किया हो अथवा पहिले के और दूसरे तीर्थंकरों ने पैदा किया हो, ऐसी बात नहीं है। वह ज्ञान (वस्तु का धर्म) किसी का बनाया नहीं बनता, वह तो हमेशा विद्यमान है। आत्मा की आत्मीयता, आत्मा की चेतनता, आत्मा की ज्ञानात्मकता, आत्मा का रत्नत्रय- ये सब उसमें अनादि से हैं, जो संसारी आत्माएं विकारी हैं, उनको दूर करने का उपाय भी अभी से नहीं है, वह भी सनातन है।
अत: तत्त्वज्ञानरूपी वेद सनातन हैं, तीर्थंकर उसका प्रणयन करते हैं। जगत् के प्राणी उस ज्ञान से (धर्म से) शून्य होते हैं, वे अपने उस गुण और धर्म को भूले रहते हैं। तब तीर्थंकर उसका उद्बोध मात्र कराते हैं। वर्तमान काल में 24 तीर्थंकरों के निमित्त से यह उपकार हुआ। इसके पहिले अनंत भूतकाल में, अनंत तीर्थंकर होते आए और वे मोक्षमार्ग का प्रणयन करते आए। आगे अनन्त भविष्य में भी यही क्रम चलता रहेगा। अत: इस दृष्टि से वेद (ज्ञान) अनादि है। उसी सनातन ज्ञान को यहां दिखाया जाता है। ‘‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणिमोक्षमार्ग:’’। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र-इन तीनों की एकता मोक्ष का मार्ग है।
सत् एक अखण्ड होता है और उसकी पर्याय भी एक समय में एक होती, उस सत् के भेद शक्ति के आधार पर होते हैं और पर्याय के भेद शक्ति की व्यञ्जना पर होते हैं। मोक्षमार्ग में भी आत्मा एक है और पर्याय भी एक समय में एक है। वह पर्याय नि:शंकतापूर्वक ज्ञाता द्रष्टा रहना। इस एक कार्य में सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र की एकता स्पष्ट प्रतीत हो रही है। उत्तरोत्तर यह अभेद दृढ़ होता जाता है। अंतिम मोक्षमार्ग चौदहवें में गुणस्थान का अंतिम भाग है। गुणरूप से अंतिम मोक्षमार्ग 12 वें गुणस्थान का अंतिम भाग है। मोक्षमार्ग का प्रारंभ चतुर्थ गुणस्थान में पहुँचने से पूर्व मिथ्यात्व गुणस्थान का अंतिम भाग है। अनादिमिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्वगुणस्थान को छोड़ कर यदि अन्य गुणस्थान लेता है तो उपशमसम्यक्त्व का गुणस्थान लेता है सो प्राय: अविरतसम्यक्त्वनामक चौथा गुणस्थान पाता है। बिरला कोई जीव प्रथमो प्रथम सम्यक्त्व के साथ साथ देशव्रत या महाव्रत भी पा लेता है। सर्वत्र जो भी हो दर्शन ज्ञान चारित्र का एकत्व है। जैसे मोक्षमार्ग में सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र का एकत्व है। वैसे संसार मार्ग में भी देख लो भैया ! मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र का एकत्व है।
एक कथानक के आधार पर प्रकट रूप में जो यह पहिला सूत्र कहा गया है उसकी प्रारम्भिक रचना इस रूप में नहीं हुई थी और न इस सूत्र की रचना का प्रारम्भ उमा स्वामी से हुआ। इसका प्रारम्भ करने वाला एक भव्य मुमुक्षु श्रावक है। उस मुमुक्षु ने एक बार इसका निश्चय करके कि मोक्षमार्ग का बताने वाला कम से कम 1 सूत्र बना कर ही मैं भोजन किया करूंगा। पहिले दिन उसने पहिला सूत्र बनाया ‘दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:’ कुछ समय पीछे इस श्रावक के घर मुनि आये, श्रावक की गृहिणी ने पडगाहन करके आहार दिया। मुनि जब वन को जाने लगे तो उनकी दृष्टि भींत पर लिखे हुए उस सूत्र पर पड़ी। कुछ सोचकर उसके आदि में ‘सम्यक्’ पद और जोड़ दिया। इसलिए कि दर्शन ज्ञान चारित्र मिथ्या भी होते हैं, वे मोक्ष के मार्ग नहीं संसार के मार्ग होते हैं, इसलिये संदिग्ध पद को सुधार देना उचित है- ऐसा सोचकर सूत्र के पहिले सम्यक् लिख दिया। मुनि इसके बाद तपोवन में चले गये।
श्रावक जब घर पर आता है और उसकी दृष्टि उस सूत्र पर पड़ती है तो अवाक् रह जाता है, गृहिणी से पूछता है- कोई आया था घर पर? वह साधु के आने और उन्हें आहार देने का समाचार कहती है। जिज्ञासु श्रावक निश्चय करता है कि यह उपकृति उन्हीं साधु की है। मुनिगमन की दिशा मालूम कर शीघ्रता से खोज करता हुआ मुनि के समीप पहुंच जाता है और चरणों में नम्रीभूत हो निवेदन करता है कि मुने ! जिस रचना को मैंने प्रारम्भ किया उसके प्रथम प्रयास में ही मुझसे भूल हो गई, तब आगे वह रचना ठीक ही होगी यह कैसे हो सकता है, अत: आप ही इसके अधिकारी हैं और इस ग्रन्थ का निर्माण आप ही करने की कृपा करें। मुनि ने उस भव्य का निवेदन स्वीकार किया और उसकी रचना तत्त्वार्थसूत्र के रूप में की जो कि हमारे समक्ष में है, और हमारे कल्याण के लिये जो एक अनुपम निधि है अथवा जिन योगियों ने सत्य आनन्द का अनुभव किया है उनकी प्राणियों पर दृष्टि होने पर यह भाव हुए बिना नहीं रहता है कि ये स्वभावत: आनन्दमय ज्ञानमूर्ति निज प्रभु के दर्शन बिना भटक रहे हैं, ये स्वाधीन शान्तिमार्ग पायें। इस भावना से आगृहीत् पूज्यपाद योगीश्वर ग्रन्थरचना करते हुए सर्व प्रथम एकदम स्पष्ट मोक्षमार्ग बतलाते हैं-
‘‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:’’।
प्रकरणवश इतना जान लेने पर इस प्रथमसूत्र पर ही विचार करें। सूत्र का शब्दार्थ प्रस्तावना में प्रकट हो चुका है। यह सूत्र ही ऐसा अद्भुत है कि सूत्र कहना चाहोगे तो पहिले जो कहोगे वह अर्थ ही हो जावेगा।
अब हम सम्यग्दर्शन के बारे में विशेष विचार करें-
जिस स्वरूप से विशिष्ट जो पदार्थ हैं उनका उस पर श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। यह परिभाषा व्यवहार से है। लेकिन निश्चय का अर्थ भी इसी से घटित होता है। सत् असत्, नित्य-अनित्य, सामान्य-विशेष और एक-अनेक आदि धर्म विशिष्ट जीव अजीव तत्त्व हैं। उनकी विकारी पर्याय से आश्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष मिलकर 7 भी तत्त्व हैं। उन सातों में जीव सार रूप है, उस जीव में भी उसका जो निर्विकार शुद्ध चित् भाव है, जो आनन्दस्वरूप है वह सार है। उसका श्रद्धान होना, देखना, अनुभवन होना सम्यग्दर्शन है, सम्यक् का सम्यक् दर्शन होना सम्यग्दर्शन है।
प्रत्येक पदार्थ अपने एकत्वनिश्चय में प्राप्त हो तो सुन्दर है, सम्यक् है। अपने स्वभाव के विरुद्ध पर के निमित्त को पाकर स्वविभावशक्ति से जायमान विभावों की ओर उन्मुखता हुई कि बड़े विसंवाद बन जाते हैं। वस्तु अखंड एकस्वस्वामी है। उसकी अनंतानंत पर्यायों में भी वह एक स्वभाव सदा अंत: प्रकाशमान रहता है। इस अशुद्ध संसार अवस्था में भी तीव्र मिथ्यादृष्टिजीव तक अपने स्वभाव के कारण पदार्थों को बहिर्मुखतया भी जानने से पहिले आत्मसामान्य का स्पर्श करते हैं। हां यह बात अवश्य है कि जिसके स्पर्श का यत्न होता है उसे स्पर्श कर भी उसकी संचेतना बहिरात्मा नहीं करते हैं। सिद्धान्तशास्त्रों में यह बिल्कुल स्पष्ट लिखा है कि कुमतिज्ञान से भी पहिले चक्षुदर्शन या अचक्षुदर्शन होता है। यह दर्शन क्या है? कहीं आँख से देखने का नाम चक्षुदर्शन नहीं है, किन्तु चक्षुरिन्द्रिय के निमित्त से उत्पन्न हुए ज्ञान से पहिले जानने का बल विकसित करने के अर्थ उपयोग आत्मा की ओर झुकता है तब जो सामान्य अवलोकन है उसे चक्षुदर्शन कहते हैं। इसी तरह चक्षु को छोड़कर अन्य इन्द्रिय व मन के निमित्त से जायमान ज्ञान से पहिले जो दर्शन होता है उसे अचक्षुदर्शन कहते हैं। देखो भैया ! आत्मकल्याण के लिये सुविधासामग्री सदा तैयार है, जो भव्य उसका उपयोग कर ले वह धन्य है। यह चैतन्यस्वभाव जो कि अखंड अविनाशी स्वत:सिद्ध है वही सुन्दरतम् है, सम्यक् है। इस सम्यक् का सम्यक् विधि से अर्थात् भेद विकल्पों से निर्णय कर भेद पक्ष छोड़कर अभेद दृष्टि के अवलंबन के अनंतर समस्त दृष्टिपक्ष के विकल्पों से हटकर अभेदानुभव करना सम्यग्दर्शन है। जीव के लिये सम्यग्दर्शन के समान और कोई उपकारी नहीं है। इसके बिना ही वह कुज्ञानी और मिथ्याचारी बना रहता है। इसी लिये समन्तभद्र स्वामी कहते हैं-
न सम्यक््त्वसमं किञ्चित्त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि।
श्रेयोऽश्रेश्यच मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनूभृताम्।।
तीन काल और तीनों लोकों में सम्यक्त्व के समान कल्याणकारी दूसरा नहीं और मिथ्यात्व के समान अकल्याणकारी दूसरा नहीं। यह मिथ्यात्व सम्यग्दर्शन के ठीक विपरीतरूप होता है। इस सम्यग्दर्शन की महिमा कहने में कोई समर्थ नहीं है। सम्यक्त्व के बिना पूजा, दान, तप आदि भी वास्तविक नहीं होते। उन सब अच्छे कार्यों का लक्ष्य संसार की तरफ चला जाता, विकल्प बाहर की तरफ दौड़ते रहते।
हमारी प्रारम्भिक निगोद दशा कैसी थी? हम बेचारे थे, असहाय थे। बेचारे अर्थात् जिनका चारा नहीं, आश्रय नहीं। ऐसे बेचारे तो हम निगोद में अथवा उसके ऊपर भी असंज्ञी पर्यायों में ही थे। संज्ञा (मन) होने पर सोचने समझने की शक्ति आने पर बेचारा मन कहां रहा? फिर तो यथार्थ पुरुषार्थ करने की शक्ति हम में आ गई। फिर अब भी हम बेचारे के बेचारे बने रहें और सम्यक्त्व को जागृत न करें तो यह कितनी भारी भूल होगी? मनुष्य-जन्म की सफलता अपने स्वरूप को समझने में है।
देखो भैया ! निज चैतन्य महाप्रभु की सत्कृपा:- निगोद जैसे दुष्पद से निकलने में चैतन्यभाव के सद्विकास का ही तो अनुग्रह है। यह चैतन्य महा-प्रभु जैसे जैसे प्रसन्न होता गया उत्तरोत्तर समृद्धि पाता हुआ आज सैनी पञ्चेन्द्रिय मनुष्य की दशा में आ गया जिसके लिए इन्द्र भी तरसते हैं। यदि अब भी हमने चैतन्यदेव की भक्ति नहीं की और विषय कषाय की वृत्ति से प्रभु पर हमला किया तो हमारी बड़ी दुर्गति होगी।
एक साधु जंगल में बैठे ध्यान कर रहे थे। उनके पास एक चूहा बैठा रहा करता था। अचानक बिलाव ने उस पर हमला करना चाहा तो झट दयावश साधु ने आशीर्वाद दिया ‘‘विडालो भव’’। वह बिलाव बन गया। अब बिलाव का तो डर न रहा किन्तु कुत्ता ने आक्रमण करना चाहा तो आशीर्वाद मिला कि श्वान भव। कुत्ता बन गया। फिर झपटा व्याघ्र, सो कहा ‘‘व्याघ्रो भव’’। फिर सिंह झपटा तो आशीर्वाद दिया ‘‘सिहों भव’’ । वह चूहा उत्तरोत्तर वृद्धि से सिंह बन गया। अब सिंह को लगी भूख, सो साधु को ही सिंह ने खाना चाहा, तब आशीर्वाद मिला ‘‘पूनर्मूषको भव’’। बन्धुवों ! इसी प्रकार चैतन्यदेव का आशीर्वाद पाकर यह जीव निगोद से निकलकर मनुष्य हो गया। यदि यह मनुष्य जिस चैतन्यदेव की प्रसन्नता से उन्नत बना, उसी चैतन्यदेव पर आक्रमण करेगा तो झट यही आशीर्वाद मिलेगा कि ‘‘पुनर्निगोदो भव’’ अर्थात् फिर निगोद बन जा।
इस मनुष्य-जन्म में देखो कितनी शक्ति प्रकट हो गई है, विवेक उसके उपयोग का होना चाहिये। चाहे उपयोग को स्वभाव की ओर लगा दो, चाहे कषाय की ओर लगा दो। भावना से ही सब काम होता है। इस मनुष्य-जन्म में सम्यक्त्व प्राप्त होने के योग्य क्षयोपशमलब्धि प्राप्त है। क्योंकि भला बुरा सोचने समझने का हममें पर्याप्त ज्ञान है। देशना लब्धि अर्थात् तत्त्वज्ञानी का उपदेश मिलना। वह भी हमारे लिये उपलब्ध है। विशुद्धि लब्धि आत्मपरिणामों की विशेष निर्मलता को कहते हैं। यदि हम चाहें तो परिणामों में कठोरता तीव्रता तामसी वृत्ति न आने दें। परिणामों में कठोरता रखना या कोमलता रखना यह हमारे हाथ की बात है क्योंकि इस लायक योग्यता प्रकट हो गई। इन तीन लब्धियों की प्राप्ति हो जाने पर चौथी प्रायोग्यलब्धि होती है। विशुद्धि बढ़ने पर जब कर्मों की लम्बी स्थिति बढ़ना बंद हो जाती है और अधिक से अधिक अन्त:कोटाकोटि सागर प्रमाण कर्मों का स्थिति बंध रह जाता है, तब यह विशुद्धि प्रायोग्यलब्धि कहलाती है। इस प्रायोग्यलब्धि वाला जीव पहिले गुणस्थान से लेकर छठवें तक बंधने योग्य कितने ही कर्मों का बन्ध नहीं करता। यद्यपि सम्यक्त्व हो जाने पर चौथे, पांचवें और छठवें गुणस्थान में बंधने योग्य उन प्रकृतियों का बन्ध होने लगता है, लेकिन सम्यक्त्व के उन्मुख होने पर प्रायोग्यलब्धि में यह बंध नहीं होता, उतने समय के लिए वह रुक जाता है। जैसे जिस वर की शादी होती है, उसको विवाह होने के समय तक के लिए बादशाह मान लिया जाता है। पीछे विवाह हो चुकने पर फिर वह बादशाहीपन नहीं रहता। उसी तरह कुछ प्रकृतियों के बंधविचार में प्रायोग्यलब्धि वाले मिथ्यादृष्टि के अविरत सम्यग्दृष्टि देशविरत या प्रमत्तविरत जैसी बादशाहीयत समझना चाहिये। इस लब्धि के प्राप्त हो जाने पर जीव के आगे आगे समय में असंख्यातगुणी असंख्यातगुणी निर्जरा होने लगती है और बंध इसी क्रम से हीन-हीन। कर्मों की स्थिति पल्य के असंख्यातवें भाग कम हो होकर पृथक्त्वशतसागर कम हो जाने पर नरक आयु के बंध का होना रुक जाता है। उसके बाद की हीन-हीन स्थितियों में क्रमश: तिर्यञ्च, मनुष्य और देवायु के बंध का अभाव होता है। फिर नरकगति नरकगत्वानुपूर्वी इन 2 प्रकृतियों का बंधव्युच्छेद हो जाता है। पुन: सूक्ष्म अपर्याप्त और साधारण इन प्रकृतियों का सम्मिलित बंध रुक जाता है।
इस प्रायोग्यलब्धि में इस प्रकार 34 बंधापसरण होते हैं। प्रत्येक बंधापसरण में पृथक्त्व शतसागर स्थिति कम होती है। वह हीनता पल्य के असंख्यातवें भाग कम हो होकर कम होती है। ये 6 बंधापसरण हुए। इसी प्रकार ये 28 बंधापसरण कहना चाहिये। 7-सूक्ष्म अपर्याप्त प्रत्येक, 8-बादर अपर्याप्त साधारण, 9-बादर अपर्याप्त प्रत्येक, 10-द्वीन्द्रिय अपर्याप्त, 11-त्रीन्द्रिय अपर्याप्त, 12-चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त, 13-असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त, 14-सज्ञी पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त, 15-सूक्ष्मपर्याप्त साधारण, 16-सूक्ष्म पर्याप्त प्रत्येक, 17-वादर पर्याप्त साधारण, 18-वादर पर्याप्त प्रत्येक एकेन्द्रिय आताप स्थावर, 19-द्वीन्द्रिय पर्याप्त, 20-त्रीन्द्रिय पर्याप्त, 21-चतुरिन्द्रियपर्याप्त, 22-असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त, 23-तिर्यग्गति तिर्यग्गत्यानुपूर्वी उद्योत, 24-नीच गोत्र, 25-अप्रशस्तविहायोगति दुर्भग दु:रवर अनादेय, 26-हुंडकसंस्थान असंप्राप्तसृपाटिका संहनन, 27-नपुसंकवेद, 28-वामनसंस्थान, कीलकं संहनन, 29-कुब्जकसंस्थान अर्द्धनाराचसंहनन, 30-स्त्रीवेद, 31-स्वातिसंस्थान नाराचसंहनन, 32-न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थान वज्रनाराचसंहनन, 33-मनुष्यगति मनुष्यगत्यानुपूर्वी औदारिकाङ्गोपाङ्ग वज्रवृषभनाराचसंहनन, और 34 वीं बार में असाता अरति शोक अस्थिर अशुभ अयश:कीर्ति। ये बंधापसरण की प्रकृतियां वे हैं जो 1, 2, 4, 6, 7 वें गुणस्थान में बंध से व्युच्छिन्न होती है। यहां विचारिये यह प्रयोग्यलब्धि वाला जीव भी कितना बलिष्ट हो रहा है, सातवें गुणस्थान तक की अनेक प्रकृतियों के बंध को हटा देता है।
इतनी करामात प्रायोग्यब्धि में रहती है। फिर आगे करणलब्धि का प्रारंभ होता है, करण नाम निर्मल परिणामों का है। अनादि मिथ्यादृष्टि जीव के करणलब्धि प्रथमोपशमसम्यक्त्व के प्रादुर्भाव के लिए होती है। करण तीन होते हैं- 1 अध:करण, 2 अपूर्वकरण, 3 अनिवृत्तिकरण। अव्यवस्थित परिणाम जब किसी उत्तम व्यवस्था में आने को होते हैं तो एक सदृश व्यवस्थित होने से पहिले 2 प्रकार की अवस्थायें होती हैं, वे हैं अध:करण और अपूर्वकरण। अध:करणपरिणाम वाले जीवों के परिणाम एक ही समय अथवा कुछ समय पहिले के व आगे के समयों में सदृश अथवा विसदृश होते हैं। अपूर्वकरणपरिणामों में एक ही समयवर्ती आत्मावों के परिणाम चाहे सदृश हो जावें परन्तु आगे-पीछे के समयवर्ती आत्मावों के परिणाम अपूर्व ही होते हैं। अनिवृत्तिकरण परिणाम में एक समयवर्ती आत्मावों के परिणाम एक सदृश ही होते हैं। लोक में भी व्यवस्था सम्बन्धी यत्न ऐसा देखा जाता है। जैसे अव्यवस्थित घूमने वाले सिपाहियों को कमाण्डर व्यवस्था से समीप आने की आज्ञा दे तब वे सिपाही कुछ लाइन में व कुछ बाहर, इसी प्रकार कुछ बिना पैर मिले व कुछ मिले पैर वाले होते हैं। दूसरे यत्न में लाइन एक हो जाती है, परन्तु पैरों का मेल बेमेल बना रहता है। तीसरे यत्न में सर्वथा व्यवस्थित हो जाते हैं। इसी प्रकार यहां सम्यक्त्व के प्रादुर्भाव के लिये जो करणयत्न है उसमें त्रिविधता होती है। इन करणों में सम्यक्त्वघातक निषेकों के उपशम का यत्न व अन्तरकरण होता है। जिन समयों में सम्यक्त्व रहेगा उन समयों की स्थिति का सम्यक्त्वघातक निषेक नहीं रहता है। उस स्थिति वाले निषेक आगाल प्रत्यागाल की विधि से कुछ पहिले कुछ पश्चात् की स्थिति वाले निषेकों में पहुंच लेते हैं।
उस समय जीव के भारी निर्मलता रहती है इतनी निर्मलता कि शीघ्र शुद्धि बढे़ तो अन्तर्मुहूर्त में (जिस अन्तर्मुहूर्त के अवान्तर 14 अन्तर्मुहूर्त 14 तरह के कार्यों के लिए हैं।) मोक्ष पा सकता है। वे चौदह अन्तर्मुहूर्त चौदह कार्यों के लिये इस प्रकार है:-
पहिला अन्तर्मुहूर्त अन्तर करण का, दूसरा उपशम सम्यक्त्व प्राप्त करने का, तीसरा अन्तर्मुहूर्त क्षयोपशम सम्यक्त्व प्राप्त करने का, चौथा व 5 वां अन्तर्मुहूर्त अनंतानुबन्धी के विसंयोजन का व दर्शनमोह के क्षय का, 6 वां अन्तर्मुहूर्त अप्रमत्तविरत गुणस्थान होने का, 7 वां अ. मु. प्रमत्त-अप्रमत्त गुणस्थानों में अदल बदल होने का, इसमें छोटे-छोटे असंख्यात अन्तर्मुहूर्त हैं। 8 वां अन्तर्मुहूर्त अध:करण का, 9 वां अन्तर्मुहूर्त अपूर्वकरण का, 10 वां अन्तर्मुहूर्त अनिवृत्तिकरण का, 11 वां अन्तर्मुहूर्त सूक्ष्म साम्पराय का, 12 अ. मु. क्षीणमोह का, 13 वां अन्तर्मुहूर्त संयोग केवली होने का, चौदहवां अन्तर्मुहूर्त अयोगकेवली होकर सिद्ध होने का है।
इन 14 अन्तर्मुहूर्तों का काल बहुत थोड़ा है। सबका समय मिलकर भी अन्तर्मुहूर्त ही होता है। क्योंकि अन्तर्मुहूर्त के अगणित भेद हैं। इस तरह सम्यक्त्व की प्राप्ति होने पर मोक्ष प्राप्त होने में देर नहीं लगती यह स्पष्ट हुआ। यदि विलम्ब भी हो तो कुछ कम अर्द्ध पुद्गल परिवर्तन काल से अधिक विलम्ब तो हो ही नहीं सकता।
आत्मश्रद्धा को सम्यग्दर्शन, (2) आत्मज्ञान को सम्यग्ज्ञान और आत्मलीनता को सम्यक्चारित्र कहते हैं। व्यवहार से सात तत्त्वों का यथार्थ श्रद्धान सम्यग्दर्शन, तत्त्वों का यथार्थ ज्ञान सम्यग्ज्ञान और पापनिवृत्ति को सम्यक्चारित्र कहते हैं।
सम्यक्त्वभाव का निमित्त अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ व मिथ्यात्व- इन पाँच प्रकृतियों का उपशम तथा वेदक योग्य सादिमिथ्यादृष्टि के सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति मिलकर 7 प्रकृतियों का उपशम, क्षयोपशम व 7 का क्षय है तो क्षय तो वेदकसम्यग्दृष्टि ही करता है। उपशम व क्षयोपशम को मिथ्यादृष्टि कर लेता है। क्षयोपशमसम्यक्त्व को उपशमसम्यग्दृष्टि भी करता है। प्रकृतियों के उपशमादि का निमित्त है अखंड चैतन्य स्वभाव का ध्यान। इस ध्यान के लिये आवश्यक है तत्त्वाभ्यास। तत्त्वाभ्यास के लिये द्रव्य, गुण, पर्यायों की समस्या अच्छी तरह से हल कर लेना चाहिये। द्रव्य सत्स्वरूप, स्वत:सिद्ध, अनादिनिधन, स्वसहाय व अखण्ड होता है। जो कुछ दिखता है उसके खंड-खंड हो जाते हैं वह द्रव्य नहीं, उनमें अविभागी जो एकप्रदेशी सत् है वह द्रव्य है। आत्मा तो हमारा आपका सबका एक-एक अखण्ड है वह द्रव्य है। इसी तरह एक धर्म द्रव्य, एक अधर्म द्रव्य, एक आकाश द्रव्य, असंख्यात कालाणु एक-एक ये सब द्रव्य हैं। द्रव्य अनंतशक्त्यात्मक होता है, एक-एक शक्ति का नाम एक-एक गुण है, उन सब गुणों से पर्यायें उत्पन्न होती हैं। यहां जीव का निमित्त पाकर अजीव कर्म में व अजीव कर्म का घनिष्ठ संयोग या अभाव का निमित्त पाकर जीव में कई अवस्थायें हो गई हैं, वे संक्षेप में 5 हैं- आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा व मोक्ष। आस्रव जिन प्रकृतियों का हुआ है वे पुण्यापाप के भेद से 2 प्रकार के हैं, तथा जीव व अजीव की अपेक्षा 2 मूलद्रव्य हैं इस प्रकार सब तत्त्व 9 हुए। इन भेदों-विकल्पों का यथार्थ ज्ञान करके पर्यायों को पर्यायों के स्रोत मूलद्रव्य के उन्मुख करे, निमित्त की दृष्टि का उपयोग न करे, तब पर्यायें विलीन होकर एक मात्र द्रव्यदृष्टि रहेगी, वहां भी निश्चयपक्ष छोड़कर अत्यंत निष्पक्ष होता हुआ स्वभाव का अनुभव करे। सर्व भेद विकल्पों को छोड़कर अभेदस्वभाव में स्थिर रहे। यह कल्याण का अमोघ उपाय है।
ये तीनों सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र के निजस्वरूप और नाम आदि की अपेक्षा से भिन्न–भिन्न हैं, किन्तु अमूर्त आत्मा के असंख्यात प्रदेशों में एकमेक होकर रहते इसलिये अभिन्न हैं। आजकल का राष्ट्रध्वज भी जैन सिद्धांत के अनुकूल है।
राष्ट्रीय तिरंगा झन्डा में रत्नत्रय की कल्पना घटित होती है। साहित्यकार रुचि का वर्णन पीले रंग से करते हैं। और और जैनधर्म में रुचि को सम्यग्दर्शन कहते हैं। हरा रंग हरे-भरे रंग का द्योतक है। यह सम्यक् चारित्र को बतलाता है, क्योंकि उससे शुद्ध आत्मपर्याय की उत्पत्ति होती है। और ज्ञान का वर्णन सफेद रंग से किया जाता है, तब सफेद रंग सम्यग्ज्ञान का प्रतीक हुआ। इस तरह रत्नत्रय का प्रतीक, पीला, हरा और सफेद रंग वाला तिरंगा झन्डा (राष्ट्रीय झंडा) है। उसमें जो चक्र का चिन्ह है उसमें 24 आरे रहते हैं, जिनका अर्थ होता है कि उस मोक्षमार्गरूप रत्नत्रय को 24 तीर्थंकरों ने प्रकट किया है। तिरंगा झंडा 24 तीर्थंकरों द्वारा प्ररूपित, प्रदर्शित आत्मा के रत्नत्रय-धर्म को या कहिये मोक्षमार्ग को स्मरण कराता है। हमको उस मोक्षमार्ग में अपना पुरुषार्थ प्रकट करना चाहिये। इस भव से नहीं तो अगले भवों से हम मोक्ष पाने के अधिकारी हो जावें। मनुष्यजीवन में यह सबसे बड़ा काम है।
कोई कहे कि इस काल में तो मोक्ष होता नहीं है, फिर उसके लिये प्रयत्न क्यों किया जाय? तो उत्तर है कि भाई ! यदि मुझे मोक्ष की चाह है तो उस मार्ग में लग जाना ही एक तेरा कर्तव्य है। अब नहीं तो तब, मोक्ष होकर ही रहेगा। यदि तुझे आज ही कुछ दिनों या वर्षों में मोक्ष मिले, तभी तू उसके लिये प्रयत्न करेगा, नहीं तो नहीं, तो यह तेरी आत्मवंचना है, बहाना है। तू आत्मकर्तव्य से पीछे हटने के लिये झूठी दलील चलाना चाहता है और फिर यह भी तो सोच कि बड़े बड़े महापुरुषों को भी सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के बाद मोक्ष पा लेने में कितना समय लगा है? सभी जीवों को तो अंतर्मुहूर्त में मोक्ष नहीं हो जाता, अरबों-खरबों वर्ष तक इसकी साधना में बीत जाते हैं। ऋषभदेव भगवान् को कुछ कम (अरहंत अवस्था का समय कम) 1 लाख पूर्व अर्थात् हजारों अरब वर्ष लग गया। तू तो उनसे जल्दी भी जा सकता है। यहां से मरकर विदेह में उत्पन्न होकर तो 8-9 वर्ष में ही सिद्ध बन सकता है। हां, कमी यह है कि मरते समय हमारे सम्यक्त्व रहे तो विदेह में नहीं पैदा हो सकते। उस विदेह की भी चिन्ता हटावो। सम्यक्त्व का वियोग मत होओ। तू भव को मत देख। देख भव रहित निज चैतन्य स्वभाव को, आत्म संतोष और धेर्यपूर्वक मोक्षपथ में चलते रहने के लिये ज्ञानवृत्ति रूप उद्यम कर, तू भव को मत देख। यदि स्वभाव की ओर उपयोग हो तो तुम ही बतावो क्या भव का उपयोग रहता है? स्वभाव तो शुद्ध अशुद्ध सभी पर्यायों से विलक्षण एक केवल शुद्ध है। स्वभाव में भव कहां है? भव की शंका विचारणा में स्वभाव का उपयोग कहां है? देखो-देखो स्वभाव में बड़ी महिमा है तभी तो इसके आश्रय से इसका धनी महान् बन जाता है। स्वभाव अखंड है तभी तो अखंड के आश्रय से अन्त में ज्ञान त्रिलोक, त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थों का अखंड ज्ञाता हो जाता है। स्वभाव निर्विकल्प है तभी तो स्वभाव के आश्रय से इसका धनी निर्विकल्प हो जाता है। स्वभाव अविनाशी है तभी तो इसके आश्रय से इसका धनी विषम पर्याय के अभाव रूप अविनाशी एक समान पर्यायों के अविनश्वर प्रवाह रूप अविनाशी पद को प्रकट कर लेता है। अहो ! बड़े बड़े योगीन्द्रों ने भी मात्र एक आत्मस्वभाव की उपासना की। यह बात तो बिलकुल पूर्ण प्रकट है, साईंस में उत्तीर्ण नि:संदेह बात है। मित्रों ! एक इस ही ज्ञानस्वभाव का, चैतन्यस्वभाव का आश्रय लो, फिर मुक्ति हस्तगत ही है। भले ही कुछ समय और लग जावे, परन्तु विचारो तो सही, अनन्तानन्त काल के सामने असंख्यात भी समय क्या चीज है? एक सच्ची कहानी है। सुनिये-
‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:’’
तत्त्वार्थसूत्र की जैन आम्नाय में मान्यता और पूज्यता है, वह सब जानते हैं। एक यही ग्रन्थ ऐसा है, जिसे श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों मानते हैं। क्योंकि इसमें जैनागम का तत्त्वज्ञान है। यह संक्षेप रूप से उसका संकलन करने वाली दूसरी अच्छी रचना नहीं हो सकती थी, इस लिये अपने श्वेताम्बर भाइयों में भी इसके कुछ सूत्रों में थोड़ा हेर फेर होकर इसकी मान्यता है, ऐसा कई विद्वानों का मत है। इस शास्त्र में कई तरह की विशेषता है। प्रथमानुयोग के विषय को छोड़ अन्य सब अनुयोगों का वर्णन सूत्ररूप से इसमें भरा हुआ है। वैसे तो क्षेत्र काल गति आदि सूचना रूप प्रथमानुयोग भी आ गया है। इसके विषय के प्रतिपादन का क्रम, शैली और गांभीर्य अति उत्तम है। इसका सूक्ष्म दृष्टि से मनन करने पर परम आगम का अभ्यासी हो सकता है।
‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:’ इस प्रारंभ के सूत्र में प्रारम्भ में सम्यक् और साध्या:पद इस सूत्रजी के अन्तिम सूत्र के अंत में आया हुआ है। जिससे यह अर्थ भी निकल सकता है कि रत्नत्रय जिसका विवेचन आगे पूरे ग्रन्थ में किया गया है वह साध्य है, साधने योग्य है। सम्यक् और साध्या: के मध्य में जितना प्रवचन है वह हृदय में धारने योग्य है। यद्यपि ग्रन्थकार का भाव यह रहा हो, ऐसा निश्चय नहीं कर सकते, फिर भी तत्त्वज्ञानियों के शब्दों का बड़ा महत्त्व है। एक ही बात में कई गूढ़ अर्थ भरे रहते हैं। जो अर्थ उनके ध्यान में दृष्टि उस ओर न होने से शायद नहीं भी होता हो, वह अर्थ भी उनके वचनों से निकल जाता है। ग्रन्थ में जो 10 अध्याय हैं, उनसे भी मतलब निकलता है कि गणना मूल में 9 तक है उसके बाद शून्य जोड़ कर 10 बनते हैं, जो ‘‘एक गोल’’ ऐसा लिखा जाता है। पदार्थ भी 9 होते हैं, और ये व्यवहार से हैं।
इन 9 भेदों से अतीत पदार्थ का स्वरूप शुद्ध निश्चयनय का विषयभूत स्वरूप है। इन 9 भेदों के उल्लंघन होने पर वह गोल (GOAL) आता है जो आदि मध्य अंत से रहित है वे ध्येयरूप है। इस तरह उसके दशवें प्रकार का भी संकेत दशवें अध्याय से ले सकते हैं। दशवें अध्याय में शुद्ध पर्याय का वर्णन है जो स्वभाव के अनुरूप है। यों तो सामान्य तौर पर सात तत्त्वों के प्ररूपण में 10 अध्याय बन गये, पर बात ठीक है। इंगलिश में गोल को (GOAL) ध्येय कहते हैं जिससे यह सिद्ध होता है कि ये 10 अध्याय क्या हैं? गोल (ध्येय) है। दसों अध्यायों में जीव अजीव के विस्तार का वर्णन है सो इन भेद-पर्याय-विस्तार को समझे बिना इनको एक आश्रयमात्र तत्त्व को समझना कठिन है। अत: यह विस्तार भी एक गोल पर पहुंचाने के लिये है। सूत्र के प्रारम्भ में टीकाकार पूज्यपाद स्वामी ने मंगलाचरण किया।
मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं, कर्मभूभृताम्। ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये। अर्थात् मोक्षमार्ग के नेता, द्रव्यकर्म वा रागद्वेषादि भावकर्म के भेदने वाले और विश्व के तत्त्वों के ज्ञाता को अथवा माने सम्पूर्ण तत्त्वों के ज्ञाता को उनके गुणों की प्राप्ति के लिये अथवा उन गुणों की प्राप्ति के लिये नमस्कार करता हूँ। इसमें पहिला विशेषण मोक्ष मार्ग के नेता का दिया। नेता वह कहलाता जो अपने लक्ष्य की ओर ले जाय, ले जाने वाला स्वयं जाता और दूसरों को उस अभीष्ट तक ले जाता। नेता का अर्थ पहुँचा देने वाला नहीं होता। क्योंकि पहुँचा देने वाले में यह नेतृत्व शक्ति नहीं होती। नेता तो वही है जो स्वयं उसको प्राप्त करे या उस पर चले और दूसरों को भी उसमें ले जाय। मोक्षमार्ग पर जो स्वयं न चला हो, स्वयं उस भाव को जिसने प्राप्त न किया हो तो दूसरों को मोक्षमार्ग में ले जाने का निमित्तत्त्व उसमें नहीं हो सकता। अरहंत आप्त में यह नेतृत्व पूर्णरूप से पाया जाता है। इसके साथ ही जो पूर्णरूप से रागद्वेषरहित वीतरागी हों और पूर्ण ज्ञानी (सर्वज्ञ) हों, वही वास्तविक मोक्षमार्ग का नेता हो सकता है। मोक्षमार्ग का प्रणयन, अल्पज्ञानी या रागी-द्वेषी नहीं कर सकता। इसी लिए ग्रन्थकार इन तीन गुणों की प्राप्ति के लिए अथवा उन तीन गुणों से विशिष्ट आप्त अरहंत की अनुभव में प्राप्ति के लिए उन गुणों को वा तद्विशिष्ट अरहंत को नमस्कार करते हैं। क्योंकि जो जिसका अर्थी होता है वह उसी की उपासना करता है। लोक में भी ऐसा ही देखा जाता है।
किसी भी कार्य में सफलता पानी हो तो पुरुष को पुरुषार्थी, निर्दोष व ज्ञानी होना ही चाहिए। यहां मोक्षमार्ग की बात है इसके लिए मोक्षमार्ग का पुरुषार्थी और निर्दोषता में सर्वथा निर्दोष व पूर्ण ज्ञानी होता चाहिए। इस श्लोक में 3 विशेषण दिए हैं, 1- मोक्षमार्ग-नेता, 2-कर्मभेत्ता, 3-विश्वज्ञाता। मध्य का विशेषण पूर्व और ऊपर दोनों के लिए कारण है। जब तक जीव रागादि भावकर्म और मोहनीयादि द्रव्यकर्म का क्षय नहीं करता तब तक वह मोक्षमार्ग का अधिकारी, नेता व सर्वज्ञ नहीं बन सकता। जैनसिद्धान्त गुणवादी है व्यक्तिवादी नहीं। जब एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ परिणमन ही नहीं कर सकता, तब व्यक्तिपूजा को महत्त्व का स्थान ही कैसे हो सकता है? जैन सिद्धान्त के इस मर्म को नहीं जानने वाले लोग न्याय के मार्ग में कदम रखें तो पद पद पर फिसलना पड़ता है। यहां मोक्षमार्ग के नेता का स्मरण इसीलिये है कि उनका ही निमित्तरूपेण हम सब पर उपकार है। कर्मभेत्ता का स्मरण इसलिए किया है कि आखिर निर्विकल्पता भी तो ज्ञानी ने केवल शुद्ध दशा में निर्णीत की है। विश्वज्ञाता का स्मरण इसलिए किया है कि अन्त में शुद्ध अवस्था होने पर सद्भावरूपेण यही सर्वज्ञता ही तो रहती है। अहो, नमस्कार भी हो तो ऐसा हो कि वह नमस्कार परिणमन सफलता की उन्नति करता रहे। मोक्षमार्ग के नेता, कर्मरूपी पहाड़ के भेदन करने वाले व सर्व तत्त्व (त्रिलोक व त्रिकालवर्ती) के जानने वाले चैतन्य-स्वरूप प्रभु को नमस्कार हो।
वे मोक्षमार्ग के नेता जो तत्त्वज्ञान बताते हैं, वह सनातन हैं। क्योंकि ज्ञान को वेद कहते हैं, और बहुत लोगों ने वेद को अपौरुषेय, अनादि से चला आया माना है। श्रुतज्ञान रूपी वेद, अथवा षट्खण्डागम वेद, महावीर तीर्थंकर ने नया पैदा किया हो अथवा पहिले के और दूसरे तीर्थंकरों ने पैदा किया हो, ऐसी बात नहीं है। वह ज्ञान (वस्तु का धर्म) किसी का बनाया नहीं बनता, वह तो हमेशा विद्यमान है। आत्मा की आत्मीयता, आत्मा की चेतनता, आत्मा की ज्ञानात्मकता, आत्मा का रत्नत्रय- ये सब उसमें अनादि से हैं, जो संसारी आत्माएं विकारी हैं, उनको दूर करने का उपाय भी अभी से नहीं है, वह भी सनातन है।
अत: तत्त्वज्ञानरूपी वेद सनातन हैं, तीर्थंकर उसका प्रणयन करते हैं। जगत् के प्राणी उस ज्ञान से (धर्म से) शून्य होते हैं, वे अपने उस गुण और धर्म को भूले रहते हैं। तब तीर्थंकर उसका उद्बोध मात्र कराते हैं। वर्तमान काल में 24 तीर्थंकरों के निमित्त से यह उपकार हुआ। इसके पहिले अनंत भूतकाल में, अनंत तीर्थंकर होते आए और वे मोक्षमार्ग का प्रणयन करते आए। आगे अनन्त भविष्य में भी यही क्रम चलता रहेगा। अत: इस दृष्टि से वेद (ज्ञान) अनादि है। उसी सनातन ज्ञान को यहां दिखाया जाता है। ‘‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणिमोक्षमार्ग:’’। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र-इन तीनों की एकता मोक्ष का मार्ग है।
सत् एक अखण्ड होता है और उसकी पर्याय भी एक समय में एक होती, उस सत् के भेद शक्ति के आधार पर होते हैं और पर्याय के भेद शक्ति की व्यञ्जना पर होते हैं। मोक्षमार्ग में भी आत्मा एक है और पर्याय भी एक समय में एक है। वह पर्याय नि:शंकतापूर्वक ज्ञाता द्रष्टा रहना। इस एक कार्य में सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र की एकता स्पष्ट प्रतीत हो रही है। उत्तरोत्तर यह अभेद दृढ़ होता जाता है। अंतिम मोक्षमार्ग चौदहवें में गुणस्थान का अंतिम भाग है। गुणरूप से अंतिम मोक्षमार्ग 12 वें गुणस्थान का अंतिम भाग है। मोक्षमार्ग का प्रारंभ चतुर्थ गुणस्थान में पहुँचने से पूर्व मिथ्यात्व गुणस्थान का अंतिम भाग है। अनादिमिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्वगुणस्थान को छोड़ कर यदि अन्य गुणस्थान लेता है तो उपशमसम्यक्त्व का गुणस्थान लेता है सो प्राय: अविरतसम्यक्त्वनामक चौथा गुणस्थान पाता है। बिरला कोई जीव प्रथमो प्रथम सम्यक्त्व के साथ साथ देशव्रत या महाव्रत भी पा लेता है। सर्वत्र जो भी हो दर्शन ज्ञान चारित्र का एकत्व है। जैसे मोक्षमार्ग में सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र का एकत्व है। वैसे संसार मार्ग में भी देख लो भैया ! मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र का एकत्व है।
एक कथानक के आधार पर प्रकट रूप में जो यह पहिला सूत्र कहा गया है उसकी प्रारम्भिक रचना इस रूप में नहीं हुई थी और न इस सूत्र की रचना का प्रारम्भ उमा स्वामी से हुआ। इसका प्रारम्भ करने वाला एक भव्य मुमुक्षु श्रावक है। उस मुमुक्षु ने एक बार इसका निश्चय करके कि मोक्षमार्ग का बताने वाला कम से कम 1 सूत्र बना कर ही मैं भोजन किया करूंगा। पहिले दिन उसने पहिला सूत्र बनाया ‘दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:’ कुछ समय पीछे इस श्रावक के घर मुनि आये, श्रावक की गृहिणी ने पडगाहन करके आहार दिया। मुनि जब वन को जाने लगे तो उनकी दृष्टि भींत पर लिखे हुए उस सूत्र पर पड़ी। कुछ सोचकर उसके आदि में ‘सम्यक्’ पद और जोड़ दिया। इसलिए कि दर्शन ज्ञान चारित्र मिथ्या भी होते हैं, वे मोक्ष के मार्ग नहीं संसार के मार्ग होते हैं, इसलिये संदिग्ध पद को सुधार देना उचित है- ऐसा सोचकर सूत्र के पहिले सम्यक् लिख दिया। मुनि इसके बाद तपोवन में चले गये।
श्रावक जब घर पर आता है और उसकी दृष्टि उस सूत्र पर पड़ती है तो अवाक् रह जाता है, गृहिणी से पूछता है- कोई आया था घर पर? वह साधु के आने और उन्हें आहार देने का समाचार कहती है। जिज्ञासु श्रावक निश्चय करता है कि यह उपकृति उन्हीं साधु की है। मुनिगमन की दिशा मालूम कर शीघ्रता से खोज करता हुआ मुनि के समीप पहुंच जाता है और चरणों में नम्रीभूत हो निवेदन करता है कि मुने ! जिस रचना को मैंने प्रारम्भ किया उसके प्रथम प्रयास में ही मुझसे भूल हो गई, तब आगे वह रचना ठीक ही होगी यह कैसे हो सकता है, अत: आप ही इसके अधिकारी हैं और इस ग्रन्थ का निर्माण आप ही करने की कृपा करें। मुनि ने उस भव्य का निवेदन स्वीकार किया और उसकी रचना तत्त्वार्थसूत्र के रूप में की जो कि हमारे समक्ष में है, और हमारे कल्याण के लिये जो एक अनुपम निधि है अथवा जिन योगियों ने सत्य आनन्द का अनुभव किया है उनकी प्राणियों पर दृष्टि होने पर यह भाव हुए बिना नहीं रहता है कि ये स्वभावत: आनन्दमय ज्ञानमूर्ति निज प्रभु के दर्शन बिना भटक रहे हैं, ये स्वाधीन शान्तिमार्ग पायें। इस भावना से आगृहीत् पूज्यपाद योगीश्वर ग्रन्थरचना करते हुए सर्व प्रथम एकदम स्पष्ट मोक्षमार्ग बतलाते हैं-
‘‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:’’।
प्रकरणवश इतना जान लेने पर इस प्रथमसूत्र पर ही विचार करें। सूत्र का शब्दार्थ प्रस्तावना में प्रकट हो चुका है। यह सूत्र ही ऐसा अद्भुत है कि सूत्र कहना चाहोगे तो पहिले जो कहोगे वह अर्थ ही हो जावेगा।
अब हम सम्यग्दर्शन के बारे में विशेष विचार करें-
जिस स्वरूप से विशिष्ट जो पदार्थ हैं उनका उस पर श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। यह परिभाषा व्यवहार से है। लेकिन निश्चय का अर्थ भी इसी से घटित होता है। सत् असत्, नित्य-अनित्य, सामान्य-विशेष और एक-अनेक आदि धर्म विशिष्ट जीव अजीव तत्त्व हैं। उनकी विकारी पर्याय से आश्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष मिलकर 7 भी तत्त्व हैं। उन सातों में जीव सार रूप है, उस जीव में भी उसका जो निर्विकार शुद्ध चित् भाव है, जो आनन्दस्वरूप है वह सार है। उसका श्रद्धान होना, देखना, अनुभवन होना सम्यग्दर्शन है, सम्यक् का सम्यक् दर्शन होना सम्यग्दर्शन है।
प्रत्येक पदार्थ अपने एकत्वनिश्चय में प्राप्त हो तो सुन्दर है, सम्यक् है। अपने स्वभाव के विरुद्ध पर के निमित्त को पाकर स्वविभावशक्ति से जायमान विभावों की ओर उन्मुखता हुई कि बड़े विसंवाद बन जाते हैं। वस्तु अखंड एकस्वस्वामी है। उसकी अनंतानंत पर्यायों में भी वह एक स्वभाव सदा अंत: प्रकाशमान रहता है। इस अशुद्ध संसार अवस्था में भी तीव्र मिथ्यादृष्टिजीव तक अपने स्वभाव के कारण पदार्थों को बहिर्मुखतया भी जानने से पहिले आत्मसामान्य का स्पर्श करते हैं। हां यह बात अवश्य है कि जिसके स्पर्श का यत्न होता है उसे स्पर्श कर भी उसकी संचेतना बहिरात्मा नहीं करते हैं। सिद्धान्तशास्त्रों में यह बिल्कुल स्पष्ट लिखा है कि कुमतिज्ञान से भी पहिले चक्षुदर्शन या अचक्षुदर्शन होता है। यह दर्शन क्या है? कहीं आँख से देखने का नाम चक्षुदर्शन नहीं है, किन्तु चक्षुरिन्द्रिय के निमित्त से उत्पन्न हुए ज्ञान से पहिले जानने का बल विकसित करने के अर्थ उपयोग आत्मा की ओर झुकता है तब जो सामान्य अवलोकन है उसे चक्षुदर्शन कहते हैं। इसी तरह चक्षु को छोड़कर अन्य इन्द्रिय व मन के निमित्त से जायमान ज्ञान से पहिले जो दर्शन होता है उसे अचक्षुदर्शन कहते हैं। देखो भैया ! आत्मकल्याण के लिये सुविधासामग्री सदा तैयार है, जो भव्य उसका उपयोग कर ले वह धन्य है। यह चैतन्यस्वभाव जो कि अखंड अविनाशी स्वत:सिद्ध है वही सुन्दरतम् है, सम्यक् है। इस सम्यक् का सम्यक् विधि से अर्थात् भेद विकल्पों से निर्णय कर भेद पक्ष छोड़कर अभेद दृष्टि के अवलंबन के अनंतर समस्त दृष्टिपक्ष के विकल्पों से हटकर अभेदानुभव करना सम्यग्दर्शन है। जीव के लिये सम्यग्दर्शन के समान और कोई उपकारी नहीं है। इसके बिना ही वह कुज्ञानी और मिथ्याचारी बना रहता है। इसी लिये समन्तभद्र स्वामी कहते हैं-
न सम्यक््त्वसमं किञ्चित्त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि।
श्रेयोऽश्रेश्यच मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनूभृताम्।।
तीन काल और तीनों लोकों में सम्यक्त्व के समान कल्याणकारी दूसरा नहीं और मिथ्यात्व के समान अकल्याणकारी दूसरा नहीं। यह मिथ्यात्व सम्यग्दर्शन के ठीक विपरीतरूप होता है। इस सम्यग्दर्शन की महिमा कहने में कोई समर्थ नहीं है। सम्यक्त्व के बिना पूजा, दान, तप आदि भी वास्तविक नहीं होते। उन सब अच्छे कार्यों का लक्ष्य संसार की तरफ चला जाता, विकल्प बाहर की तरफ दौड़ते रहते।
हमारी प्रारम्भिक निगोद दशा कैसी थी? हम बेचारे थे, असहाय थे। बेचारे अर्थात् जिनका चारा नहीं, आश्रय नहीं। ऐसे बेचारे तो हम निगोद में अथवा उसके ऊपर भी असंज्ञी पर्यायों में ही थे। संज्ञा (मन) होने पर सोचने समझने की शक्ति आने पर बेचारा मन कहां रहा? फिर तो यथार्थ पुरुषार्थ करने की शक्ति हम में आ गई। फिर अब भी हम बेचारे के बेचारे बने रहें और सम्यक्त्व को जागृत न करें तो यह कितनी भारी भूल होगी? मनुष्य-जन्म की सफलता अपने स्वरूप को समझने में है।
देखो भैया ! निज चैतन्य महाप्रभु की सत्कृपा:- निगोद जैसे दुष्पद से निकलने में चैतन्यभाव के सद्विकास का ही तो अनुग्रह है। यह चैतन्य महा-प्रभु जैसे जैसे प्रसन्न होता गया उत्तरोत्तर समृद्धि पाता हुआ आज सैनी पञ्चेन्द्रिय मनुष्य की दशा में आ गया जिसके लिए इन्द्र भी तरसते हैं। यदि अब भी हमने चैतन्यदेव की भक्ति नहीं की और विषय कषाय की वृत्ति से प्रभु पर हमला किया तो हमारी बड़ी दुर्गति होगी।
एक साधु जंगल में बैठे ध्यान कर रहे थे। उनके पास एक चूहा बैठा रहा करता था। अचानक बिलाव ने उस पर हमला करना चाहा तो झट दयावश साधु ने आशीर्वाद दिया ‘‘विडालो भव’’। वह बिलाव बन गया। अब बिलाव का तो डर न रहा किन्तु कुत्ता ने आक्रमण करना चाहा तो आशीर्वाद मिला कि श्वान भव। कुत्ता बन गया। फिर झपटा व्याघ्र, सो कहा ‘‘व्याघ्रो भव’’। फिर सिंह झपटा तो आशीर्वाद दिया ‘‘सिहों भव’’ । वह चूहा उत्तरोत्तर वृद्धि से सिंह बन गया। अब सिंह को लगी भूख, सो साधु को ही सिंह ने खाना चाहा, तब आशीर्वाद मिला ‘‘पूनर्मूषको भव’’। बन्धुवों ! इसी प्रकार चैतन्यदेव का आशीर्वाद पाकर यह जीव निगोद से निकलकर मनुष्य हो गया। यदि यह मनुष्य जिस चैतन्यदेव की प्रसन्नता से उन्नत बना, उसी चैतन्यदेव पर आक्रमण करेगा तो झट यही आशीर्वाद मिलेगा कि ‘‘पुनर्निगोदो भव’’ अर्थात् फिर निगोद बन जा।
इस मनुष्य-जन्म में देखो कितनी शक्ति प्रकट हो गई है, विवेक उसके उपयोग का होना चाहिये। चाहे उपयोग को स्वभाव की ओर लगा दो, चाहे कषाय की ओर लगा दो। भावना से ही सब काम होता है। इस मनुष्य-जन्म में सम्यक्त्व प्राप्त होने के योग्य क्षयोपशमलब्धि प्राप्त है। क्योंकि भला बुरा सोचने समझने का हममें पर्याप्त ज्ञान है। देशना लब्धि अर्थात् तत्त्वज्ञानी का उपदेश मिलना। वह भी हमारे लिये उपलब्ध है। विशुद्धि लब्धि आत्मपरिणामों की विशेष निर्मलता को कहते हैं। यदि हम चाहें तो परिणामों में कठोरता तीव्रता तामसी वृत्ति न आने दें। परिणामों में कठोरता रखना या कोमलता रखना यह हमारे हाथ की बात है क्योंकि इस लायक योग्यता प्रकट हो गई। इन तीन लब्धियों की प्राप्ति हो जाने पर चौथी प्रायोग्यलब्धि होती है। विशुद्धि बढ़ने पर जब कर्मों की लम्बी स्थिति बढ़ना बंद हो जाती है और अधिक से अधिक अन्त:कोटाकोटि सागर प्रमाण कर्मों का स्थिति बंध रह जाता है, तब यह विशुद्धि प्रायोग्यलब्धि कहलाती है। इस प्रायोग्यलब्धि वाला जीव पहिले गुणस्थान से लेकर छठवें तक बंधने योग्य कितने ही कर्मों का बन्ध नहीं करता। यद्यपि सम्यक्त्व हो जाने पर चौथे, पांचवें और छठवें गुणस्थान में बंधने योग्य उन प्रकृतियों का बन्ध होने लगता है, लेकिन सम्यक्त्व के उन्मुख होने पर प्रायोग्यलब्धि में यह बंध नहीं होता, उतने समय के लिए वह रुक जाता है। जैसे जिस वर की शादी होती है, उसको विवाह होने के समय तक के लिए बादशाह मान लिया जाता है। पीछे विवाह हो चुकने पर फिर वह बादशाहीपन नहीं रहता। उसी तरह कुछ प्रकृतियों के बंधविचार में प्रायोग्यलब्धि वाले मिथ्यादृष्टि के अविरत सम्यग्दृष्टि देशविरत या प्रमत्तविरत जैसी बादशाहीयत समझना चाहिये। इस लब्धि के प्राप्त हो जाने पर जीव के आगे आगे समय में असंख्यातगुणी असंख्यातगुणी निर्जरा होने लगती है और बंध इसी क्रम से हीन-हीन। कर्मों की स्थिति पल्य के असंख्यातवें भाग कम हो होकर पृथक्त्वशतसागर कम हो जाने पर नरक आयु के बंध का होना रुक जाता है। उसके बाद की हीन-हीन स्थितियों में क्रमश: तिर्यञ्च, मनुष्य और देवायु के बंध का अभाव होता है। फिर नरकगति नरकगत्वानुपूर्वी इन 2 प्रकृतियों का बंधव्युच्छेद हो जाता है। पुन: सूक्ष्म अपर्याप्त और साधारण इन प्रकृतियों का सम्मिलित बंध रुक जाता है।
इस प्रायोग्यलब्धि में इस प्रकार 34 बंधापसरण होते हैं। प्रत्येक बंधापसरण में पृथक्त्व शतसागर स्थिति कम होती है। वह हीनता पल्य के असंख्यातवें भाग कम हो होकर कम होती है। ये 6 बंधापसरण हुए। इसी प्रकार ये 28 बंधापसरण कहना चाहिये। 7-सूक्ष्म अपर्याप्त प्रत्येक, 8-बादर अपर्याप्त साधारण, 9-बादर अपर्याप्त प्रत्येक, 10-द्वीन्द्रिय अपर्याप्त, 11-त्रीन्द्रिय अपर्याप्त, 12-चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त, 13-असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त, 14-सज्ञी पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त, 15-सूक्ष्मपर्याप्त साधारण, 16-सूक्ष्म पर्याप्त प्रत्येक, 17-वादर पर्याप्त साधारण, 18-वादर पर्याप्त प्रत्येक एकेन्द्रिय आताप स्थावर, 19-द्वीन्द्रिय पर्याप्त, 20-त्रीन्द्रिय पर्याप्त, 21-चतुरिन्द्रियपर्याप्त, 22-असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त, 23-तिर्यग्गति तिर्यग्गत्यानुपूर्वी उद्योत, 24-नीच गोत्र, 25-अप्रशस्तविहायोगति दुर्भग दु:रवर अनादेय, 26-हुंडकसंस्थान असंप्राप्तसृपाटिका संहनन, 27-नपुसंकवेद, 28-वामनसंस्थान, कीलकं संहनन, 29-कुब्जकसंस्थान अर्द्धनाराचसंहनन, 30-स्त्रीवेद, 31-स्वातिसंस्थान नाराचसंहनन, 32-न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थान वज्रनाराचसंहनन, 33-मनुष्यगति मनुष्यगत्यानुपूर्वी औदारिकाङ्गोपाङ्ग वज्रवृषभनाराचसंहनन, और 34 वीं बार में असाता अरति शोक अस्थिर अशुभ अयश:कीर्ति। ये बंधापसरण की प्रकृतियां वे हैं जो 1, 2, 4, 6, 7 वें गुणस्थान में बंध से व्युच्छिन्न होती है। यहां विचारिये यह प्रयोग्यलब्धि वाला जीव भी कितना बलिष्ट हो रहा है, सातवें गुणस्थान तक की अनेक प्रकृतियों के बंध को हटा देता है।
इतनी करामात प्रायोग्यब्धि में रहती है। फिर आगे करणलब्धि का प्रारंभ होता है, करण नाम निर्मल परिणामों का है। अनादि मिथ्यादृष्टि जीव के करणलब्धि प्रथमोपशमसम्यक्त्व के प्रादुर्भाव के लिए होती है। करण तीन होते हैं- 1 अध:करण, 2 अपूर्वकरण, 3 अनिवृत्तिकरण। अव्यवस्थित परिणाम जब किसी उत्तम व्यवस्था में आने को होते हैं तो एक सदृश व्यवस्थित होने से पहिले 2 प्रकार की अवस्थायें होती हैं, वे हैं अध:करण और अपूर्वकरण। अध:करणपरिणाम वाले जीवों के परिणाम एक ही समय अथवा कुछ समय पहिले के व आगे के समयों में सदृश अथवा विसदृश होते हैं। अपूर्वकरणपरिणामों में एक ही समयवर्ती आत्मावों के परिणाम चाहे सदृश हो जावें परन्तु आगे-पीछे के समयवर्ती आत्मावों के परिणाम अपूर्व ही होते हैं। अनिवृत्तिकरण परिणाम में एक समयवर्ती आत्मावों के परिणाम एक सदृश ही होते हैं। लोक में भी व्यवस्था सम्बन्धी यत्न ऐसा देखा जाता है। जैसे अव्यवस्थित घूमने वाले सिपाहियों को कमाण्डर व्यवस्था से समीप आने की आज्ञा दे तब वे सिपाही कुछ लाइन में व कुछ बाहर, इसी प्रकार कुछ बिना पैर मिले व कुछ मिले पैर वाले होते हैं। दूसरे यत्न में लाइन एक हो जाती है, परन्तु पैरों का मेल बेमेल बना रहता है। तीसरे यत्न में सर्वथा व्यवस्थित हो जाते हैं। इसी प्रकार यहां सम्यक्त्व के प्रादुर्भाव के लिये जो करणयत्न है उसमें त्रिविधता होती है। इन करणों में सम्यक्त्वघातक निषेकों के उपशम का यत्न व अन्तरकरण होता है। जिन समयों में सम्यक्त्व रहेगा उन समयों की स्थिति का सम्यक्त्वघातक निषेक नहीं रहता है। उस स्थिति वाले निषेक आगाल प्रत्यागाल की विधि से कुछ पहिले कुछ पश्चात् की स्थिति वाले निषेकों में पहुंच लेते हैं।
उस समय जीव के भारी निर्मलता रहती है इतनी निर्मलता कि शीघ्र शुद्धि बढे़ तो अन्तर्मुहूर्त में (जिस अन्तर्मुहूर्त के अवान्तर 14 अन्तर्मुहूर्त 14 तरह के कार्यों के लिए हैं।) मोक्ष पा सकता है। वे चौदह अन्तर्मुहूर्त चौदह कार्यों के लिये इस प्रकार है:-
पहिला अन्तर्मुहूर्त अन्तर करण का, दूसरा उपशम सम्यक्त्व प्राप्त करने का, तीसरा अन्तर्मुहूर्त क्षयोपशम सम्यक्त्व प्राप्त करने का, चौथा व 5 वां अन्तर्मुहूर्त अनंतानुबन्धी के विसंयोजन का व दर्शनमोह के क्षय का, 6 वां अन्तर्मुहूर्त अप्रमत्तविरत गुणस्थान होने का, 7 वां अ. मु. प्रमत्त-अप्रमत्त गुणस्थानों में अदल बदल होने का, इसमें छोटे-छोटे असंख्यात अन्तर्मुहूर्त हैं। 8 वां अन्तर्मुहूर्त अध:करण का, 9 वां अन्तर्मुहूर्त अपूर्वकरण का, 10 वां अन्तर्मुहूर्त अनिवृत्तिकरण का, 11 वां अन्तर्मुहूर्त सूक्ष्म साम्पराय का, 12 अ. मु. क्षीणमोह का, 13 वां अन्तर्मुहूर्त संयोग केवली होने का, चौदहवां अन्तर्मुहूर्त अयोगकेवली होकर सिद्ध होने का है।
इन 14 अन्तर्मुहूर्तों का काल बहुत थोड़ा है। सबका समय मिलकर भी अन्तर्मुहूर्त ही होता है। क्योंकि अन्तर्मुहूर्त के अगणित भेद हैं। इस तरह सम्यक्त्व की प्राप्ति होने पर मोक्ष प्राप्त होने में देर नहीं लगती यह स्पष्ट हुआ। यदि विलम्ब भी हो तो कुछ कम अर्द्ध पुद्गल परिवर्तन काल से अधिक विलम्ब तो हो ही नहीं सकता।
आत्मश्रद्धा को सम्यग्दर्शन, (2) आत्मज्ञान को सम्यग्ज्ञान और आत्मलीनता को सम्यक्चारित्र कहते हैं। व्यवहार से सात तत्त्वों का यथार्थ श्रद्धान सम्यग्दर्शन, तत्त्वों का यथार्थ ज्ञान सम्यग्ज्ञान और पापनिवृत्ति को सम्यक्चारित्र कहते हैं।
सम्यक्त्वभाव का निमित्त अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ व मिथ्यात्व- इन पाँच प्रकृतियों का उपशम तथा वेदक योग्य सादिमिथ्यादृष्टि के सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति मिलकर 7 प्रकृतियों का उपशम, क्षयोपशम व 7 का क्षय है तो क्षय तो वेदकसम्यग्दृष्टि ही करता है। उपशम व क्षयोपशम को मिथ्यादृष्टि कर लेता है। क्षयोपशमसम्यक्त्व को उपशमसम्यग्दृष्टि भी करता है। प्रकृतियों के उपशमादि का निमित्त है अखंड चैतन्य स्वभाव का ध्यान। इस ध्यान के लिये आवश्यक है तत्त्वाभ्यास। तत्त्वाभ्यास के लिये द्रव्य, गुण, पर्यायों की समस्या अच्छी तरह से हल कर लेना चाहिये। द्रव्य सत्स्वरूप, स्वत:सिद्ध, अनादिनिधन, स्वसहाय व अखण्ड होता है। जो कुछ दिखता है उसके खंड-खंड हो जाते हैं वह द्रव्य नहीं, उनमें अविभागी जो एकप्रदेशी सत् है वह द्रव्य है। आत्मा तो हमारा आपका सबका एक-एक अखण्ड है वह द्रव्य है। इसी तरह एक धर्म द्रव्य, एक अधर्म द्रव्य, एक आकाश द्रव्य, असंख्यात कालाणु एक-एक ये सब द्रव्य हैं। द्रव्य अनंतशक्त्यात्मक होता है, एक-एक शक्ति का नाम एक-एक गुण है, उन सब गुणों से पर्यायें उत्पन्न होती हैं। यहां जीव का निमित्त पाकर अजीव कर्म में व अजीव कर्म का घनिष्ठ संयोग या अभाव का निमित्त पाकर जीव में कई अवस्थायें हो गई हैं, वे संक्षेप में 5 हैं- आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा व मोक्ष। आस्रव जिन प्रकृतियों का हुआ है वे पुण्यापाप के भेद से 2 प्रकार के हैं, तथा जीव व अजीव की अपेक्षा 2 मूलद्रव्य हैं इस प्रकार सब तत्त्व 9 हुए। इन भेदों-विकल्पों का यथार्थ ज्ञान करके पर्यायों को पर्यायों के स्रोत मूलद्रव्य के उन्मुख करे, निमित्त की दृष्टि का उपयोग न करे, तब पर्यायें विलीन होकर एक मात्र द्रव्यदृष्टि रहेगी, वहां भी निश्चयपक्ष छोड़कर अत्यंत निष्पक्ष होता हुआ स्वभाव का अनुभव करे। सर्व भेद विकल्पों को छोड़कर अभेदस्वभाव में स्थिर रहे। यह कल्याण का अमोघ उपाय है।
ये तीनों सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र के निजस्वरूप और नाम आदि की अपेक्षा से भिन्न–भिन्न हैं, किन्तु अमूर्त आत्मा के असंख्यात प्रदेशों में एकमेक होकर रहते इसलिये अभिन्न हैं। आजकल का राष्ट्रध्वज भी जैन सिद्धांत के अनुकूल है।
राष्ट्रीय तिरंगा झन्डा में रत्नत्रय की कल्पना घटित होती है। साहित्यकार रुचि का वर्णन पीले रंग से करते हैं। और और जैनधर्म में रुचि को सम्यग्दर्शन कहते हैं। हरा रंग हरे-भरे रंग का द्योतक है। यह सम्यक् चारित्र को बतलाता है, क्योंकि उससे शुद्ध आत्मपर्याय की उत्पत्ति होती है। और ज्ञान का वर्णन सफेद रंग से किया जाता है, तब सफेद रंग सम्यग्ज्ञान का प्रतीक हुआ। इस तरह रत्नत्रय का प्रतीक, पीला, हरा और सफेद रंग वाला तिरंगा झन्डा (राष्ट्रीय झंडा) है। उसमें जो चक्र का चिन्ह है उसमें 24 आरे रहते हैं, जिनका अर्थ होता है कि उस मोक्षमार्गरूप रत्नत्रय को 24 तीर्थंकरों ने प्रकट किया है। तिरंगा झंडा 24 तीर्थंकरों द्वारा प्ररूपित, प्रदर्शित आत्मा के रत्नत्रय-धर्म को या कहिये मोक्षमार्ग को स्मरण कराता है। हमको उस मोक्षमार्ग में अपना पुरुषार्थ प्रकट करना चाहिये। इस भव से नहीं तो अगले भवों से हम मोक्ष पाने के अधिकारी हो जावें। मनुष्यजीवन में यह सबसे बड़ा काम है।
कोई कहे कि इस काल में तो मोक्ष होता नहीं है, फिर उसके लिये प्रयत्न क्यों किया जाय? तो उत्तर है कि भाई ! यदि मुझे मोक्ष की चाह है तो उस मार्ग में लग जाना ही एक तेरा कर्तव्य है। अब नहीं तो तब, मोक्ष होकर ही रहेगा। यदि तुझे आज ही कुछ दिनों या वर्षों में मोक्ष मिले, तभी तू उसके लिये प्रयत्न करेगा, नहीं तो नहीं, तो यह तेरी आत्मवंचना है, बहाना है। तू आत्मकर्तव्य से पीछे हटने के लिये झूठी दलील चलाना चाहता है और फिर यह भी तो सोच कि बड़े बड़े महापुरुषों को भी सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के बाद मोक्ष पा लेने में कितना समय लगा है? सभी जीवों को तो अंतर्मुहूर्त में मोक्ष नहीं हो जाता, अरबों-खरबों वर्ष तक इसकी साधना में बीत जाते हैं। ऋषभदेव भगवान् को कुछ कम (अरहंत अवस्था का समय कम) 1 लाख पूर्व अर्थात् हजारों अरब वर्ष लग गया। तू तो उनसे जल्दी भी जा सकता है। यहां से मरकर विदेह में उत्पन्न होकर तो 8-9 वर्ष में ही सिद्ध बन सकता है। हां, कमी यह है कि मरते समय हमारे सम्यक्त्व रहे तो विदेह में नहीं पैदा हो सकते। उस विदेह की भी चिन्ता हटावो। सम्यक्त्व का वियोग मत होओ। तू भव को मत देख। देख भव रहित निज चैतन्य स्वभाव को, आत्म संतोष और धेर्यपूर्वक मोक्षपथ में चलते रहने के लिये ज्ञानवृत्ति रूप उद्यम कर, तू भव को मत देख। यदि स्वभाव की ओर उपयोग हो तो तुम ही बतावो क्या भव का उपयोग रहता है? स्वभाव तो शुद्ध अशुद्ध सभी पर्यायों से विलक्षण एक केवल शुद्ध है। स्वभाव में भव कहां है? भव की शंका विचारणा में स्वभाव का उपयोग कहां है? देखो-देखो स्वभाव में बड़ी महिमा है तभी तो इसके आश्रय से इसका धनी महान् बन जाता है। स्वभाव अखंड है तभी तो अखंड के आश्रय से अन्त में ज्ञान त्रिलोक, त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थों का अखंड ज्ञाता हो जाता है। स्वभाव निर्विकल्प है तभी तो स्वभाव के आश्रय से इसका धनी निर्विकल्प हो जाता है। स्वभाव अविनाशी है तभी तो इसके आश्रय से इसका धनी विषम पर्याय के अभाव रूप अविनाशी एक समान पर्यायों के अविनश्वर प्रवाह रूप अविनाशी पद को प्रकट कर लेता है। अहो ! बड़े बड़े योगीन्द्रों ने भी मात्र एक आत्मस्वभाव की उपासना की। यह बात तो बिलकुल पूर्ण प्रकट है, साईंस में उत्तीर्ण नि:संदेह बात है। मित्रों ! एक इस ही ज्ञानस्वभाव का, चैतन्यस्वभाव का आश्रय लो, फिर मुक्ति हस्तगत ही है। भले ही कुछ समय और लग जावे, परन्तु विचारो तो सही, अनन्तानन्त काल के सामने असंख्यात भी समय क्या चीज है? एक सच्ची कहानी है। सुनिये-