तत्वार्थ सूत्र - अध्याय १ -
scjain - 01-04-2016
तत्वार्थ सूत्र आचार्य उमास्वमि द्वारा विरचित
मंगलाचरण
मोक्ष मार्गस्य नेतारं,भेतारं कर्मभूभृत्ताम् !
ज्ञातारं विश्वतत्वानं,बन्दे तद् गुणलब्धये !!
अर्थ-(मोक्ष मार्गस्य नेतारं) मोक्ष मार्ग का प्रवर्तन करने वाले -हितोपदेशी) ,( भेतारं कर्मभूभृत्ताम् ) कर्मरूपी पर्वतों का भेदन करने वाले-वीतराग ,(ज्ञातारं विश्वतत्वानं) विश्व तत्वों के ज्ञाता-सर्वज्ञ,( बन्दे तद् गुणलब्धये) को उनके गुणों की प्राप्ति के लिए वंदना करता हूँ!
जैन दर्शन की विशेषताए -
१-जैन दर्शन विश्व में -
१-एक मात्र दर्शन है जो कि व्यक्ति विशेष की वंदना ,पूजन ,अर्चना नही करता बल्कि उन अनन्तान्त अरिहंत और सिद्ध भगवंतों के गुणों की प्राप्ति के लिए करता है जो अनंत काल से सिद्ध होते आ रहे है,हो रहे है और होते रहेंगे !
२- एक मात्र दर्शन है जो प्रत्येक भव्य जीव में सिद्ध भगवान बनने की क्षमता की उद्घोषणा ही नही करता वरन ,उनके बनने के लिए मोक्षमार्ग का भी दिग्दर्शन कराता है!इसी कड़ी में मानव जाति, आचार्य उमास्वामी जी के सदैव ऋणी रहेंगी जिन्होंने 'तत्वार्थ सूत्र 'नामक इस ग्रन्थ को रचकर समस्त मानव जाति के लिए मोक्ष प्राप्ति के मार्ग का निर्देशन किया है!संसार के समस्त जीवों को इससे अधिकत्तम लाभान्वित होने के लिए पुरुषार्थ करना चाहिए!
३- जैन धर्म के सिद्धांत जैन कुल में उत्पन्न जीवों के लिए ही नही वरन समस्त मानवजाति के लिए है ,अत: इनसे भरपूर लाभ लीजिये ! ३५७, तत्वार्थ सूत्रों का संक्षिप्त एवं सरल अर्थ प्रस्तुत है!यहां आचार्य मोक्ष मार्गका १० अध्यायों में वर्णन करते हुए प्रथम अध्याय में बताते हुए कहते है
अध्याय 1-
१ -सम्यग्दर्शनज्ञानचरित्राणि मोक्षमार्ग:
समयग्दर्शन+ज्ञान +चरित्राणि)+मोक्षमार्ग:
अर्थ- सम्यग्दर्शन ,सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र तीनो की एकता (रत्नत्रय रूप ) मोक्ष मार्ग है (अलग अलग नही ) !सम्यक् का अर्थ भली भांति है/विपरीत अभिनिवेश दोष रहित !
सम्यग्दर्शन-पदार्थों का विपरीत अभिनिवेश /दोष रहित यथार्थ श्रद्धान सम्यग्दर्शन है
सम्यग्ज्ञान -संशय ,विपर्यय,और अनध्यवसाय रहित पदार्थों का ज्ञान सम्यग्ज्ञान है!संशय का अर्थ किसी तत्वार्थ में शक होना की जैसे जिनेन्द्र भगवान ने खा है वैसे ही है या नहे !विपर्यय का अर्थ जो उन्होंने खा उससे विपरीत मान्यता रखना !अनध्यवसाय का अर्थ है तत्व के स्वरुपको निर्णीत नही करना अथवा कर पाना!
सम्यक्चारित्र -सम्यग्दर्शन एवं सम्यज्ञान पूर्वक जीव के आचरण में मिथ्यात्व,अविरति,प्रमाद,कषायो योग रूप आस्रव-बंध के अभाव के लिए चारित्र धारण करना सम्यक्चारित्र है !
२ -तत्वार्थश्रद्धानंसम्यग्दर्शनम्
तत्वार्थ+श्रद्धानं+सम्यग्दर्शनम्
अर्थ- भली भांति तत्वार्थों का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है!(जीव,अजीव,आस्रव,बंध,संवर,निर्जरा और मोक्ष) तत्वों का जिनेन्द्र भगवान के द्वारा प्रतिपादित अर्थों /भावों के अनुसार दृढ श्रद्धान होना सम्यग्दर्शन है!जो पदार्थ जिस रूप में अवस्थित है,उसी रूप उनका होना तत्व है!तत्व द्वारा वस्तु को निश्चित करना तत्वार्थ है!
३ -तन्निसर्गादधिगमाद्वा
तत्+निसर्गात्+अधिगमात्+वा
अर्थ-वह (सम्यग्दर्शन) निसर्गज और अधिगमज दो प्रकार का है !
निसर्गात् /निसर्गज सम्यग्दर्शन-यह स्वभाव से स्वयं के परिणामों से ,बिना किसी गुरु के उपदेश के होता है !जैसे जातिस्मरण ,देवदर्शन आदि से सम्यग्दर्शन होता है !
अधिगमात् /अधिगमज सम्यग्दर्शन -यह किसी गुरु के उपदेशों के निमित्त से, परिणामों में विशुद्धि होने पर होता है! जैसे दो आकाशगामी चारण ऋद्धि धारी मुनियों के उपदेश से, सिंह पर्याय में महावीर भगवान के जीव को हुआ था !
४ -जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षस्त्तत्वम्
जीव+अजीव+आस्रव+बन्ध+संवर+निर्जरा+मोक्षस्त्तत्वम्
अर्थ -जीव,अजीव,आस्रव,बन्ध,संवर,निर्जरा,मोक्ष,सात ही तत्व है !
इनमे प्रत्येक के द्रव्य और भाव दो दो भेद है
जीवतत्व -चेतना लक्षण वाला (एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय पर्यन्त,सिद्ध भगवान )जो जी रहा था,जी रहा है और जीयेगा,वह जीव है!जीव तत्व का विश्लेषण व्यवहार और निश्चय दो नयों से किया जाता है !जो इन्द्रिय,बल,आयु और श्वासोच्छवास ;चार प्राणो से जीता है वह व्यवहार नय से जीव तत्व है;ऐसा कहना द्रव्य, जीव है तथा सत्ता ,सुख,बोध,चेतना इन चार निश्चय प्राणों रूप जीवतत्व कहना,भाव जीव है
अजीवतत्व-चेतना रहित संसार के समस्त जड़ रूप पुद्गल ,धर्म,अधर्म ,आकाश और काल कहना द्रव्य अजीव है!इनमे पुद्गल द्रव्य में स्पर्श,रस,गंध,वर्ण गुणों युक्त है,गति हेतुतुत्व धर्म का गुण,स्थिती हेतुत्व अधर्म का गुण ,अवगाहन हेतुत्व आकाश का गुण और वर्तना हेतुत्व काल का गुण कहना भाव अजीव है!
आस्रवतत्व- कर्मों का आत्मा की ओर आना आस्रवतत्व है !
जीव के रागादि भावों के निमित्त से पुद्गल परमाणुओं में ज्ञानावरणीय आदि अष्टकर्म रूप फल देने की शक्ति होना द्रव्यास्रव है और ५ मिथ्यात्व,१२ अविरति,२५ कषाय,१५ योगो रूप जीव के ५७ परिणाम भावास्रव है !
बन्ध-रागद्वेष का निमित्त पाकर आये कर्मों का आत्मा से बंधना /एक क्षेत्रावगाह रहना द्रव्य बंध, तत्व है!तथा आत्मा के रागादि परिणामों से कर्म रज को ग्रहण करना भाव बंध है
संवर-व्रत समिति गुप्ती आदि चारित्र धारण करने से उतपन्न परिणामों के फलस्वरूप आत्मा की ओर आते हुए कर्मो का रुक जाना ,द्रव्य संवर तत्व है तथा ५ समिति,५ व्रत, गुप्ती ,१२ भावना,१० धर्म,२२ परिषह जय ,इन ५७ भेद रूप जीव के परिणाम,भाव संवर है !
निर्जरातत्व -अनशन ,तप ,ध्यान,आदि द्वारा उत्पन्न विशुद्ध परिणामों के निमित्त से आत्मा से बंधित कर्मों का आत्मा से एक देश पृथक होना निर्जरा द्रव्य तत्व है तथा इसमें कारणभूत आत्मा के परिणाम भाव निर्जरा है मोक्षतत्व-आत्मा से समस्त कर्मों का पृथक होना मोक्ष तत्व है !
जीव के प्रदेशों से चार प्रकार (प्रकृति,स्थिति,अनुभाग और प्रदेश) कर्मों का सर्वथा क्षय होजाना द्रव्य मोक्ष है तथा मोह राग द्वेष रहित रत्नत्रय रूप परिणाम ,भाव मोक्ष है!
५-नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्न्यास:!
अर्थ-
नाम+स्थापना+द्रव्य+भाव+तत्+न्यास:
नाम-नाम,स्थापना-स्थापना,द्रव्य-द्रव्य,भाव्-भावसे ,तत्-उन(साततत्वों और सम्यग्दर्शनादि ) का ,(न्यास)- निक्षेप अर्थात लोक में व्यवहार होता है!
निक्षेप-प्रमाण और नय के अनुसार प्रचलित हुए लोकव्यवहार को निक्षेप कहते है,जो प्रकरण को स्पष्ट करे!
नाम निक्षेप-गुण,जाति,द्रव्य और क्रिया की अपेक्षा रहित लोकव्यवहार के लिए किसी का कोई नाम रखने को कहते है जैसे अपने पुत्र में बिना इन्द्र के किसी भी विध्यमान गुण के नाम इंद्र रखना! अत: वह पुत्र नाम मात्र को ही इंद्र है !
स्थापना निक्षेप-धातु,काष्ठ,पाषाण,आदि के चित्रो /मूर्ती अथवा अन्य पदार्थ में'यह वह है'इस प्रकार मान्यता,स्थापना निक्षेप है जैसे मंदिर में भगवान की मूर्ती में भगवान मान लेना!
यह दो प्रकार की होती है !
१-तदाकार-तदाकार उसी आकारवान की मान्यता करना जैसे मूर्ती में महावीर भगवान की मूर्ती मानना !
२-अतदाकार-भिन्न आकारवान् पदार्थ में भिन्न आकारवान की मान्यता अतदाकार स्थापना है जैसे पूजन करते समय हाथ में चटक में नैवेद्य की कल्पना करन,शतरंज की मोहरों में पैदा, वजीर मानना !
नाम निक्षेप और स्थापना निक्षेप में अंतर -नाम निक्षेप में पूजनीय/सम्मानीय भाव नहीं आता किन्तु स्थापना निक्षेप में पूजनीय/सम्मानीय भाव होता है !
द्रव्य निक्षेप-भूत एवं भविष्य की पर्याय की मुख्यता से वर्तमान में कहना,द्रव्य निक्षेप है!जैसे राजा के पुत्र राजकुमार को,वर्तमान में राजा कहना क्योकि भविष्य में वही राजा होगा!किसी निवर्तमान प्रबंधक को वर्तमान में प्रबंधक कहना आदि !
भाव निक्षेप-वर्तमान पर्याय युक्त वस्तु को भाव निक्षेप कहते है जैसे देवो के स्वामी,साक्षात् इंद्र को इंद्र कहना !
६-प्रमाणनयैरधिगम:
संधि विच्छेद-प्रमाण+नयै+अधिगम:
शब्द्दार्थ-प्रमाण-प्रमाणों ,नयै-नयों से ,अधिगम:-ज्ञान होता है
भावार्थ-सात तत्वों,और रत्नत्रय;सम्यग्दर्शन,सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का ज्ञान प्रमाण और नयो से होता है -
प्रमाण-जो ज्ञान वस्तु के सर्वदेश को जानता है उस ज्ञान को प्रमाण कहते है!
प्रमाण के दो भेद है-
१-प्रत्यक्ष प्रमाण-जो ज्ञान किसी अन्य (इन्द्रियादिक) की सहायता के बिना पदार्थ को स्पष्ट, आत्मा से जानता है उस ज्ञान को प्रत्यक्ष ज्ञान कहते है जैसे केवलज्ञान !
२-परोक्ष प्रमाण-जो वस्तु को इन्द्रियों,प्रकाश आदि अन्य की सहयता से जानता है वह परोक्ष प्रमाण (ज्ञान) है जैसे मति ,श्रुत ज्ञान !मति ज्ञान इन्द्रियों के अवलंबन से होता है तथा श्रुत ज्ञान मतिज्ञान पूर्वक होता है !
नय -वस्तु के एक देश को जानने वाले ज्ञान को नय कहते है !द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय के दो भेद है !
१-द्रव्यार्थिकनय-जो नय द्रव्य को जानता है उसे द्रव्यार्थिकनय कहते है !नैगमनय,संग्रहनय और व्यवहारनय! जैसे मैं शुद्ध आत्मा हूँ !
२-पर्यायार्थिकनय-जो नय पर्याय को जानता है वह पर्यायार्थिकनय है जैसे ऋजुसूत्रनय,शब्द नय,सँभिरूढनय,एवंभूतनय !जैसे मेरे रिश्तेदार,वर्तमान शरीर आदि सभी पर्याय की अपेक्षा से है !
७-निर्देशस्वामित्वसाधनाधिकरणस्थितिविधांत:
संधि विच्छेद-निर्देश+स्वामित्व+साधन+अधिकरण+स्थिति+विधानत:-
भावार्थ-निर्देश,स्वामित्व,साधन,अधिकरण,स्थिति और विधानत:,इन छ:अनुयोगों के द्वारा भी सात तत्वों और रत्नत्रय का ज्ञान या लोकव्यवहार होता है!इनके दवारा किसी वस्तु का ज्ञान किया जाता है
निर्देश-वस्तु के स्वरुप या नाम के कथन को निर्देश कहते है! जैसे सम्यग्दर्शन क्या है?जीवादि सात तत्वों का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है ऐसा कथन करना निर्देश है !
स्वामित्व-वस्तु के स्वामीपन को स्वामित्व कहते है जैसे सामान्य से सम्यग्दर्शन किसे होता है ?सम्यग्दर्शन सामान्यत:जीव के होता है अर्थात सम्यग्दर्शन का स्वामी जीव है !
साधन-वस्तु की उत्पत्ति के कारण को साधन कहते है,जैसे सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के कारण-साधन दो;अभ्यंतर और बाह्य है!दर्शन मोहनीय का उपशम,क्षय या क्षयोपशम अभ्यंतर साधन है!बाह्य साधन में नारकियों के तीसरे नरक तक तीन कारण जाति स्मरण,धर्मश्रवण और वेदना अनुभव है और चौथे से सातवे नरक तक केवल जातिस्मरण और वेदना अनुभव है !
मनुष्यो और तिर्यन्चों के बाह्य साधन सम्यग्दर्शन के जाति स्मरण,जिनबिम्ब दर्शन एवं धर्म श्रवण है!
देवों में प्रथम से १२वे स्वर्ग तक जाति स्मरण,धर्मश्रवण,जिन महिमा दर्शन,और देवऋषि दर्शन है! १३वे से १६वे स्वर्ग तक जातिस्मरण,जिनमहिमा दर्शन और धर्मश्रवण है,नौ ग्रैवीको तक जातिस्मरण और धर्म स्मरण है!अनुदिशो और अनुतर विमानों में यह कल्पना नहीं है क्योकि वहां सम्यग्दृष्टि जीव ही उत्पन्न होते है !
अधिकरण-वस्तु के आधार को अधिकरण कहते है!सम्यग्दर्शन का अधिकरण/आधार क्या है?सम्यग्दर्शन का बाह्य और अभ्यंतर दो प्रकार का अधिकरण है!जिस सम्यग्दर्शन का जो स्वामी है वही उसका अभ्यंतर अधिकरण है !बाह्य अधिकरण एक राजू चौड़ी और १४ राजू लम्बी लोक नाड़ी है !
स्थिति -वस्तु के ठहरने के काल की मर्यादा को स्थिति कहते है !
औपशमिक सम्यग्दर्शन की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अंतर्मूर्हत है !
क्षायिक सम्यग्दर्शन की संसारी जीव की जघन्य स्थिति अंतर्मूर्हत और उत्कृष्ट स्थिति आठ वर्ष और अंतर्मूर्हत कम दो पूर्व कोटि अधिक ३३ सागर है !
मुक्त जीव के आदि अनन्त है !
क्षयोपशमिक सम्यग्दर्शन की जघन्य स्थिति अंतर्मूर्हत है व् उत्कृष्ट स्थिति ६६ सागरोपम है !
विधान-वस्तु के कितने भेद है!सामान्य से सम्यग्दर्शन का एक भेद है!निसर्गज और अधिगमज के अपेक्षा से दो भेद है!औपशमिक,क्षायिक और क्षयोपशमिक की अपेक्षा से तीन भेद है !शब्दों की अपेक्षा संख्यात भेद है !
८-
सात तत्वों और रत्न त्रय को जाननेका उपायान्तर -
सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावाल्पबहुत्वैश्च -८
सत्+संख्या+क्षेत्र+स्पर्शन+काल+अन्तर+भाव+अल्पबहुत्व+च
भावार्थ-सत्,संख्या,क्षेत्र,स्पर्शन,काल,अन्तर,भाव,(च)और अल्पबहुत्व,इन आठ अनुयोगो के द्वारा भी सात तत्वों और रत्नत्रय का( च सूत्र ६ में अधिगम) ज्ञान या लोकव्यवहार होता है!
सम्यग्दर्शन में इन आठ अनुयोगो को दर्शाते है !
सत्-वस्तु के अस्तित्व(मौजदगी) को सत् कहते है!
सम्यक्त्व आत्मा का गुण /धर्म है इसलिए शक्ति की अपेक्षा सब जीवों में पाया जाता है किन्तु भव्य जीवों में ही प्रकट होता है !
संख्या-वस्तु के भेदो की गिनती,संख्या कहते है!
सम्यग्दृष्टि कितने है इस अपेक्षा से सम्यग्दर्शन की संख्या बताई जाती है!संसार में सम्यग्दृष्टि पल्य के असंख्यातवे भाग प्रमाण है और मुक्त सम्यग्दृष्टि अनन्त है !
क्षेत्र-वस्तु के वर्तमान निवास स्थान को क्षेत्र कहते है !
सम्यग्दृष्टि जीव लोक के असंख्यातवे भाग प्रमाण में पाये जाते है!इसलिए सम्यग्दर्शन का क्षेत्र लोक का असंख्यातवा भाग प्रमाण हुआ!किन्तु केवली समुद्घात के समय यह जीव सब लोक को भी व्याप्त क़र लेता है,इस अपेक्षा से सम्यग्दर्शन का क्षेत्र सर्व लोक है!
स्पर्शन-वस्तु के तीनों काल संबंधी निवास स्थान स्पर्शन कहते है !
सम्यग्दृष्टि ने लोक के असंख्यातवे भाग क्षेत्र का,त्रस नाड़ी के चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग प्रमाण क्षेत्र का और सयोगकेवली की अपेक्षा सर्वलोक का स्पर्शन करा है !
काल-वस्तु के ठहरने की मर्यादा को काल कहते है!
एक जीव की अपेक्षा सम्यग्दर्शन का काल सादि-सान्त और अनादि-अनन्त है क्योकि सम्यग्दृष्टि जीव सदा पाये जाते है,!
अन्तर- वस्तु के विरह काल को अंतर कहते है !
नाना जीवों की अपेक्षा सम्यग्दर्शन में अंतर नहीं है क्योकि सम्यग्दृष्टि सदा होते है!
एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर,अंतर्मूर्हत और उत्कृष्ट कुछ कम अर्द्ध पुद्गल परावर्तन काल प्रमाण है !
भाव-औपशमिक,क्षायिक,आदि परिणामों को कहते है !
सम्यग्दृष्टि का औपशमिक,क्षायिक ,क्षयोपशमिक भाव है !
अल्पबहुत्व-अन्य पदार्थों की अपेक्षा किसी वस्तु की हीनाधिकता के वर्णन को अल्पबहुत्व कहते है !
औपशमिक सम्यग्दृष्टि सबसे कम है!
उनसे संसारी क्षायिक सम्यग्दृष्टि असंख्यात गुणे है!
उनसे क्षायोपशमिक समयगदृष्टि असंख्यातगुणे है!
उनसे मुक्त क्षायिक सम्यग्दृष्टि अनंन्त गुणे है !
शेष आगे -
३-१-१६
तत्वार्थ सूत्र आचार्य उमास्वमि द्वारा विरचित
अध्याय १
सम्यग्ज्ञान के भेद -
मतिश्रुतावधि मन:पर्यय केवलानि ज्ञानम् -९
संधि विच्छेद-मति+श्रुत+अवधि+मन:पर्यय+केवलानि ज्ञानम्
अर्थ:- मति ,श्रुत,अवधि,मन:पर्यय और केवलज्ञान ,सम्यग् ज्ञान है !
मतिज्ञान-इन्द्रियों और मन के द्वारा पदार्थों का जो ज्ञान होता है उसे मतिज्ञान कहते है !जैसे मेज है,तत्वार्थ सूत्र है मति ज्ञान है
श्रुतज्ञान-मतिज्ञान से ज्ञात पदार्थो का जो विशेष रूप से ज्ञान होता है श्रुतज्ञान कहलाता है!तत्वार्थ सूत्र में कितने अध्याय है ,उनमे क्या वर्णन है, यह श्रुत ज्ञान है! यह पंखा है मतिज्ञान है उसके कीमत जानना श्रुतज्ञान है
अवधिज्ञान-द्रव्य,क्षेत्र,काल,भाव की मर्यादा लिए हुए रुपी पदार्थों का इन्द्रियादिक की सहायता के बिना जो ज्ञान आत्मा से रुपी पदार्थों को स्पष्ट जानता है वह अवधि ज्ञान है !
मन:पर्यय ज्ञान-द्रव्य,क्षेत्र ,काल और भाव की मर्यादा लिए हुए पर के मनोगत चिंतित और अचिंतित रुपी पदार्थो को जो ज्ञान जानता है उसे मन:पर्यय ज्ञान कहते है !
यशोधर मुनि महाराज ने श्रेणिक के मन आये विचार कि मैं अपना गला काट लू, को मनपर्यय ज्ञान से जानकर उन्हें ऐसा करने से रोक लिया !
केवलज्ञान-सब द्रव्यों को उनकी सब पर्यायों को एक साथ स्पष्ट जानने वाले ज्ञान को केवलज्ञान कहते है !
वर्तमान काल में हमें मति व् श्रुत ज्ञान है!सम्यग्दृष्टि है तो मति व् श्रुत ज्ञान है और मिथ्यादृष्टि है तो कुमति और कुश्रुत ज्ञान होता है!कल्की के काल में मुनिराज को अवधि ज्ञान होता है !नरक गति में पहिले ३ ज्ञान हो सकते है !संसारी जीव के मति और श्रुत ज्ञान प्रत्येक जीव के होता है !
प्रमाण के भेद -
तत् प्रमाणे -१०
शब्दार्थ -तत्- वह(पांच प्रकार का ज्ञान),प्रमाणे -दो प्रमाण रूप है!
प्रमाण-जो ज्ञान वस्तु के सर्वदेश को जानता है उस ज्ञान को प्रमाण कहते है !अत: सम्यग्ज्ञान को प्रमाण कहते है !उसके दो भेद प्रत्यक्ष और परोक्ष है !
परोक्ष प्रमाण के भेद -
आद्ये परोक्षम् -११
शब्दार्थ -आध्ये-आदि के दो अर्थात मति और श्रुत ,परोक्षम् -परोक्ष प्रमाण है !
भावार्थ -मति और श्रुत ज्ञान परोक्ष प्रमाण है !प्रकाश ,इन्द्रियादि से ये ज्ञान होते है
प्रत्यक्ष मन्यत् -१२
शब्दार्थ-अन्यत् -अन्य तीन अर्थात अवधि,मन:पर्यय और केवल ज्ञान प्रत्यक्षम् -प्रत्यक्ष प्रमाण है !
अर्थ - अवधि,मन:पर्यय और केवल ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता से नहीं होते, आत्मा से ही होते है
मतिज्ञान के पर्यायवाची -
मति:स्मृति :संज्ञा चिन्ताभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम् -१३
संधि विच्छेद -मति:+स्मृति+:संज्ञा+ चिन्ता+अभिनिबोध+इति +अनर्थान्तरम् -
अर्थ-मति,स्मृति,संज्ञा,चिंता,अभिनिबोध अन्य पदार्थ नहीं है,मति ज्ञान के ही नामांतर /पर्यायवाची है !
मति-इन्द्रियों और मन के द्वारा होने वाला ज्ञान मति ज्ञान है !
स्मृति-पूर्व में जाने गए पदार्थ के स्मरण को स्मृति कहते है !
संज्ञा-वर्तमान में किसी वस्तु को देखकर कहना यह वही है ,इस प्रकार स्मरण और प्रयक्ष के जोड़ रूप ज्ञान को संज्ञा कहते है !
चिंता-व्याप्ति के ज्ञान को चिंता कहते है जैसे कही धूम देखने पर वहां अग्नि के ज्ञान का निश्चित रूप से होना !
अभिनिबोध-साधन से साध्य के ध्यान को अभिनिबोध कहते है !इसका दूसरा नाम अनुमान भी है!जैसे कही धुँआ उठने पर अनुमान लगा लेने का वहां अग्नि भी है !ये सब मति ज्ञानावरण के क्षयोपशम से होते है इसलिए निमित्त सामान्य की अपेक्षा से सबको एक कहा है ,परन्तु इन सब में स्वरुप भेद अवश्य है ! वीरसेन स्वामी ने षट्खण्डागम की टीका धवला जी में मति ज्ञान को अभिनिबोध ज्ञान ही कहा है !
मति ज्ञान की निमित्त की अपेक्षा उत्पत्ति के कारण
तदिन्द्रियानिन्द्रिय-निमित्तम् -१४
संधि विच्छेद -तत् +इन्द्रिय+अनिन्द्रिय -निमित्तम्
शब्दार्थ -तत् -वह (मति ज्ञान) इन्द्रिय इन्द्रियों ,अनिन्द्रिय -मन के निमित्तम्-निमित्त से होता है !
अर्थ-वह मतिज्ञान पांच (स्पर्शन ,रसना ,घ्राण,चक्षु एवं कर्ण ) इन्द्रियों और मन के निमित्त से होता है !
भावार्थ-मति ज्ञान सैनी पंचेन्द्रिय जीव के पांच इन्द्रियों और मन,असैनी के पंचेन्द्रिय ,चतुर इन्द्रिय को स्पर्शन रसना घ्राण और चक्षु,त्रि इन्द्रिय को स्पर्शना ,रसना,घ्राण ;द्वीन्द्रिय को स्पर्शन और रसना तथा एकेन्द्रिय को मात्र स्पर्शन इंद्री से होता है !प्रत्येक संसारी जीव,निगोदिया के (अक्षर के अनंतवे भाग प्रमाण) भी मति एवं श्रुत ज्ञान होता अवश्य है !
यहाँ निमित्त की अपेक्षा मति ज्ञान के भेद बताये है !
मतिज्ञान के भेद -
अवग्रहेहावय धारणा:-१५
संधि विच्छेद-अवग्रह+ईहा+आवय+धारणा:
अर्थ -मतिज्ञान के अवग्रह,ईहा,आवाय और धारणा चार भेद है !
दर्शन-वस्तु की सत्ता मात्र के ग्रहण या सामान्य अवलोकन को दर्शन कहते है जैसे दूर आकाश में किसी वस्तु के होने का आभास होता है,जब तक हम उस वस्तु का ज्ञान नहीं कर लेते कि वह क्या है तब तक आत्मा का दर्शन में उपयोग होता है ,दर्शन होता है और जब हम उसे जान लेते है की क्या वस्तु है तब ज्ञान होता है,आत्मा का उपयोग ज्ञानोपयोग कहलाता है !दर्शन अत्यंत सूक्ष्म क्रिया है,इससे समझना अत्यंत कठिन है!आपके पीछे कोई वस्तु है ,आप गर्दन मोड़कर जब तक उसे देख नहीं लेते तब तक आत्मा का दर्शनोपयोग होता है ,जैसे ही उसे देखकर जान लेते है वस्तु है तब आत्मा का ज्ञानोपयोग होता है !
अवग्रह- दर्शन के बाद हुए शुक्ल, कृष्ण आदि रूप विशेष ज्ञान को अवग्रह कहते है !जैसे की दूर आकाश में कोई सफ़ेद अथवा काली वस्तु दिखती है तो यह अवग्रह मतिज्ञान है !
ईहा-अवग्रह से ज्ञात पदार्थ में विशेष जानने की इच्छा ईहा है !जैसे उक्त उद्धाहरण में वह सफ़ेद /काली वस्तु क्या है जानने की इच्छा,वह बगुला है या पताका,ईहा मतिज्ञान है !
आवाय-विशेष चिन्हो द्वारा यथार्थ वस्तु का निर्णय होने को आवय कहते है जैसे वह वस्तु बगुला ही है जान लेना आवाय मति ज्ञान है !
धारणा-निश्चित हुई वस्तु को कालांतर में नहीं भूलना धारणा मति ज्ञान है !जैसे कुछ समय बाद शुक्ल पदार्थ में पंखो को फड़ -फाड़ना और उड़ना देख बगुला को देखकर जान लेना की बगुला है !यह धारणा मति ज्ञान है
अवग्रह आदि के वशीभूत पदार्थ -
बहुबहुविधक्षिप्रानि:सृतानुक्तध्रुवाणाम् सेतराणाम् - १६
संधि विच्छेद -बहु+बहुविध+क्षिप्रानि:+सृतानुक्त+ध्रुवाणाम् सेतराणाम्
शब्दार्थ-सेतराणाम्-अपने प्रतिपक्षी एक,एकविध,अक्षिप्र ,नि:सृत ,उक्त और अध्रुव भेदों सहित बहु,बहुविध,क्षिप्र,अनि:सृत,अनुक्त और ध्रुव इन बारह प्रकार के पदार्थों के (अवग्रह,ईहा आवय ,धरणा ) ज्ञान होते है !अथवा अवग्रह आदि से इन बारह पदार्थों का ज्ञान होता है !
बहु बहुत वस्तुओं के ग्रहण को बहुज्ञान कहते है जैसे सेना ,वन को एक समूह रूप जानना !
एक-एक अथवा अल्प का ज्ञान एक/अल्प ज्ञान है जैसे एक मनुष्य अथवा एक तृण का ज्ञान !
बहुविध -बहुत प्रकार की वस्तुओं क ग्रहण को बहुविध ज्ञान कहते है जैसे सेना में हाथी ,घोडा ,इत्यादि तथा वन में आम ,महुआ आदि भेड़ो को जानना !
एकविध-एक प्रकार की वस्तुओं का ज्ञान एकविध ज्ञान है जैसे एक सदृश गेहूं को जानना !
क्षिप्र-शीघ्रता से जाती हुई वस्तुओं को जानना जैसे तेज़ चलती गाड़ी को या उसमे बैठकर बहार की वस्तुओं को जानना !
अक्षिप्र -धीरे धीरे चलते घोड़ो को जानना अक्षिप्र ज्ञान है !
अनि :सृत -वस्तु के एक भाग को जानकर उसे पूर्णतया जानना अनि:सृत ज्ञान है जैसे जल में डूबे हाथी की सूंड को देखकर हाथी का ज्ञान होना !
नि :सृत -वस्तु के सम्पूर्ण भाग को जानकर जानना जैसे जल से हाथी के पूर्णतया निकल कर उसे जानने को नि :सृत ज्ञान कहते है !
अनुक्त -बिना कहे अभिप्राय से ही जानना अनुक्त ज्ञान है
उक्त -कहने पर जानना उक्त ज्ञान है !
ध्रुव-बहुत दिनों तक स्थिर रहने वाले पर्वत आदि को जानना ध्रुव ज्ञान है
अध्रुव-चंचल बिजली आदि को जानना अध्रुव ज्ञान है !
बहु विध आदि किसके विशेषण है?
आगे
तत्वार्थ सूत्र आचार्य उमास्वमि द्वारा विरचित
बहु विध आदि को जानने वाले अवग्रहादि रूप २८८ भेद किसके विशेषण है?
अर्थस्य -१७
ये पदार्थो के भेद है !
प्रगट, व्यक्त रूप वस्तु के संबंध में;बहु ,बहु विध ,क्षिप्र,नि:सृत,उक्त ,ध्रुव और इनके विपरीत कुल १२ प्रकार के पदार्थ, ५ इन्द्रियों और मन के विषय बन कर अवग्रह,ईहा,आवाय और धारणा ४ ज्ञान द्वारा ज्ञात होते हैं!नेत्रादि इन्द्रियों के विषय अर्थ है,बहु-बहुविध आदि उनके विशेषण है ! ये २८८ भेद द्रव्य की अर्थ पर्याय को जानते है व्यञ्जन पर्याय को नही जानते !इस सूत्र का यही प्रयोजन है !
व्यञ्जनस्यावग्रह : -१८
संधि विच्छेद -व्यञ्जनस्य +अवग्रह :
शब्दार्थ -व्यञ्जनस्य -अस्पष्ट शब्द का,अवग्रह :- का केवल अवग्रह ज्ञान होता है !
भावार्थ -अस्पष्ट शब्दों का केवल अवग्रह ज्ञान होता है ,ईहा,आवय और धारणा ज्ञान नहीं होते !
विशेषार्थ-अवग्रह के दो भेद १-व्यजनावग्रह और २-अर्थावग्रह है
अस्पष्ट पदार्थ के ज्ञान को व्यंजावग्रह कहते है !जैसे कान में एक साधारण सी आवाज़ का आभास होकर रह गया किन्तु बाद कुछ भी नहीं पता लगा कि क्या था !ऐसी अवस्था में केवल व्यंजनावग्रह ही होकर रह जाता है !परन्तु धीरे धीरे वह आवाज़पष्ट हो जाए तो अर्थावग्रह और फिर ईहा आदि ज्ञान भी हो जाते है !इसलिए अस्पष्ट पदार्थों का केवल अवग्रह ज्ञान ही होता है और स्पष्ट पदार्थों के चारो ज्ञान होते है !व्यञ्जन अवग्रह के
अर्थावग्रह -स्पष्ट पदार्थों के ज्ञान को कहते है !
व्यंजावग्रह की विशेषता
न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् -१९
संधि विच्छेद -न चक्षुर+अनिन्द्रिय+आभ्याम्
शब्दार्थ- चक्षुर-चक्षु(नेत्र) और अनिन्द्रियाभ्याम् -मन से -न-नहीं होता है
भावार्थ -व्यंजनावग्रह ज्ञान चक्षु -नेत्र इंद्री और मन से नहीं होता शेष चारो इन्द्रियों से होता है !
अर्थात १२-१२ प्रकार का प्रत्येक अवग्रह,ईहा,आवय और धारणा ज्ञान हुआ इस प्रकार १२X ४ =४८ भेद मति ज्ञान के हुए। प्रत्येक पांच इन्द्रियों और १ मन अर्थात कुल ६ से होता है इसलिए मति ज्ञान के भेद ४८X ६=२८८ हुए !इसमें व्यंजनावग्रह के १२X४ (क्योकि चक्षु और मन से यह नहीं होता ,शेष चारों इन्द्रियों से होता है)=४८ जोड़ने पर कुल मति ज्ञान के ३३६ भेद होते है
श्रुत ज्ञान और उसके भेद -
श्रुतंमतिपूर्वंद्वयनेकद्वादशभेदम् !-२०
संधि विच्छेद -श्रुतं+मति+पूर्वं+द्वि+अनेक +द्वादश +भेदम्
-शब्दार्थ -श्रुतं-श्रुतज्ञान ,मति-मतिज्ञान ,पूर्वं-पूर्वक होता है ,द्वि-दो,अनेक-अनेक और द्वादश -बारह ,भेदम् -भेद है
अर्थ -श्रुतज्ञान से पूर्व मति ज्ञान होता है अर्थात पहला श्रुत ज्ञान मति ज्ञान पूर्वक होता है उसके (श्रुतज्ञान के ) दो,अनेक और बारह भेद है !
श्रुत ज्ञान के दो भेद अंग प्रविष्ट और आंग बाह्य है !
श्रुत ज्ञान के विस्तारपूर्वक भेद के इच्छुक सहधर्मी कृपया निम्न लिंक पर अवलोकन कर सकते है
RE: तत्वार्थ सूत्र - अध्याय १ -
Manish Jain - 05-11-2023
क्षु. मनोहर वर्णी - मोक्षशास्त्र प्रवचन
‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:’’
तत्त्वार्थसूत्र की जैन आम्नाय में मान्यता और पूज्यता है, वह सब जानते हैं। एक यही ग्रन्थ ऐसा है, जिसे श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों मानते हैं। क्योंकि इसमें जैनागम का तत्त्वज्ञान है। यह संक्षेप रूप से उसका संकलन करने वाली दूसरी अच्छी रचना नहीं हो सकती थी, इस लिये अपने श्वेताम्बर भाइयों में भी इसके कुछ सूत्रों में थोड़ा हेर फेर होकर इसकी मान्यता है, ऐसा कई विद्वानों का मत है। इस शास्त्र में कई तरह की विशेषता है। प्रथमानुयोग के विषय को छोड़ अन्य सब अनुयोगों का वर्णन सूत्ररूप से इसमें भरा हुआ है। वैसे तो क्षेत्र काल गति आदि सूचना रूप प्रथमानुयोग भी आ गया है। इसके विषय के प्रतिपादन का क्रम, शैली और गांभीर्य अति उत्तम है। इसका सूक्ष्म दृष्टि से मनन करने पर परम आगम का अभ्यासी हो सकता है।
‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:’ इस प्रारंभ के सूत्र में प्रारम्भ में सम्यक् और साध्या:पद इस सूत्रजी के अन्तिम सूत्र के अंत में आया हुआ है। जिससे यह अर्थ भी निकल सकता है कि रत्नत्रय जिसका विवेचन आगे पूरे ग्रन्थ में किया गया है वह साध्य है, साधने योग्य है। सम्यक् और साध्या: के मध्य में जितना प्रवचन है वह हृदय में धारने योग्य है। यद्यपि ग्रन्थकार का भाव यह रहा हो, ऐसा निश्चय नहीं कर सकते, फिर भी तत्त्वज्ञानियों के शब्दों का बड़ा महत्त्व है। एक ही बात में कई गूढ़ अर्थ भरे रहते हैं। जो अर्थ उनके ध्यान में दृष्टि उस ओर न होने से शायद नहीं भी होता हो, वह अर्थ भी उनके वचनों से निकल जाता है। ग्रन्थ में जो 10 अध्याय हैं, उनसे भी मतलब निकलता है कि गणना मूल में 9 तक है उसके बाद शून्य जोड़ कर 10 बनते हैं, जो ‘‘एक गोल’’ ऐसा लिखा जाता है। पदार्थ भी 9 होते हैं, और ये व्यवहार से हैं।
इन 9 भेदों से अतीत पदार्थ का स्वरूप शुद्ध निश्चयनय का विषयभूत स्वरूप है। इन 9 भेदों के उल्लंघन होने पर वह गोल (GOAL) आता है जो आदि मध्य अंत से रहित है वे ध्येयरूप है। इस तरह उसके दशवें प्रकार का भी संकेत दशवें अध्याय से ले सकते हैं। दशवें अध्याय में शुद्ध पर्याय का वर्णन है जो स्वभाव के अनुरूप है। यों तो सामान्य तौर पर सात तत्त्वों के प्ररूपण में 10 अध्याय बन गये, पर बात ठीक है। इंगलिश में गोल को (GOAL) ध्येय कहते हैं जिससे यह सिद्ध होता है कि ये 10 अध्याय क्या हैं? गोल (ध्येय) है। दसों अध्यायों में जीव अजीव के विस्तार का वर्णन है सो इन भेद-पर्याय-विस्तार को समझे बिना इनको एक आश्रयमात्र तत्त्व को समझना कठिन है। अत: यह विस्तार भी एक गोल पर पहुंचाने के लिये है। सूत्र के प्रारम्भ में टीकाकार पूज्यपाद स्वामी ने मंगलाचरण किया।
मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं, कर्मभूभृताम्। ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये। अर्थात् मोक्षमार्ग के नेता, द्रव्यकर्म वा रागद्वेषादि भावकर्म के भेदने वाले और विश्व के तत्त्वों के ज्ञाता को अथवा माने सम्पूर्ण तत्त्वों के ज्ञाता को उनके गुणों की प्राप्ति के लिये अथवा उन गुणों की प्राप्ति के लिये नमस्कार करता हूँ। इसमें पहिला विशेषण मोक्ष मार्ग के नेता का दिया। नेता वह कहलाता जो अपने लक्ष्य की ओर ले जाय, ले जाने वाला स्वयं जाता और दूसरों को उस अभीष्ट तक ले जाता। नेता का अर्थ पहुँचा देने वाला नहीं होता। क्योंकि पहुँचा देने वाले में यह नेतृत्व शक्ति नहीं होती। नेता तो वही है जो स्वयं उसको प्राप्त करे या उस पर चले और दूसरों को भी उसमें ले जाय। मोक्षमार्ग पर जो स्वयं न चला हो, स्वयं उस भाव को जिसने प्राप्त न किया हो तो दूसरों को मोक्षमार्ग में ले जाने का निमित्तत्त्व उसमें नहीं हो सकता। अरहंत आप्त में यह नेतृत्व पूर्णरूप से पाया जाता है। इसके साथ ही जो पूर्णरूप से रागद्वेषरहित वीतरागी हों और पूर्ण ज्ञानी (सर्वज्ञ) हों, वही वास्तविक मोक्षमार्ग का नेता हो सकता है। मोक्षमार्ग का प्रणयन, अल्पज्ञानी या रागी-द्वेषी नहीं कर सकता। इसी लिए ग्रन्थकार इन तीन गुणों की प्राप्ति के लिए अथवा उन तीन गुणों से विशिष्ट आप्त अरहंत की अनुभव में प्राप्ति के लिए उन गुणों को वा तद्विशिष्ट अरहंत को नमस्कार करते हैं। क्योंकि जो जिसका अर्थी होता है वह उसी की उपासना करता है। लोक में भी ऐसा ही देखा जाता है।
किसी भी कार्य में सफलता पानी हो तो पुरुष को पुरुषार्थी, निर्दोष व ज्ञानी होना ही चाहिए। यहां मोक्षमार्ग की बात है इसके लिए मोक्षमार्ग का पुरुषार्थी और निर्दोषता में सर्वथा निर्दोष व पूर्ण ज्ञानी होता चाहिए। इस श्लोक में 3 विशेषण दिए हैं, 1- मोक्षमार्ग-नेता, 2-कर्मभेत्ता, 3-विश्वज्ञाता। मध्य का विशेषण पूर्व और ऊपर दोनों के लिए कारण है। जब तक जीव रागादि भावकर्म और मोहनीयादि द्रव्यकर्म का क्षय नहीं करता तब तक वह मोक्षमार्ग का अधिकारी, नेता व सर्वज्ञ नहीं बन सकता। जैनसिद्धान्त गुणवादी है व्यक्तिवादी नहीं। जब एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ परिणमन ही नहीं कर सकता, तब व्यक्तिपूजा को महत्त्व का स्थान ही कैसे हो सकता है? जैन सिद्धान्त के इस मर्म को नहीं जानने वाले लोग न्याय के मार्ग में कदम रखें तो पद पद पर फिसलना पड़ता है। यहां मोक्षमार्ग के नेता का स्मरण इसीलिये है कि उनका ही निमित्तरूपेण हम सब पर उपकार है। कर्मभेत्ता का स्मरण इसलिए किया है कि आखिर निर्विकल्पता भी तो ज्ञानी ने केवल शुद्ध दशा में निर्णीत की है। विश्वज्ञाता का स्मरण इसलिए किया है कि अन्त में शुद्ध अवस्था होने पर सद्भावरूपेण यही सर्वज्ञता ही तो रहती है। अहो, नमस्कार भी हो तो ऐसा हो कि वह नमस्कार परिणमन सफलता की उन्नति करता रहे। मोक्षमार्ग के नेता, कर्मरूपी पहाड़ के भेदन करने वाले व सर्व तत्त्व (त्रिलोक व त्रिकालवर्ती) के जानने वाले चैतन्य-स्वरूप प्रभु को नमस्कार हो।
वे मोक्षमार्ग के नेता जो तत्त्वज्ञान बताते हैं, वह सनातन हैं। क्योंकि ज्ञान को वेद कहते हैं, और बहुत लोगों ने वेद को अपौरुषेय, अनादि से चला आया माना है। श्रुतज्ञान रूपी वेद, अथवा षट्खण्डागम वेद, महावीर तीर्थंकर ने नया पैदा किया हो अथवा पहिले के और दूसरे तीर्थंकरों ने पैदा किया हो, ऐसी बात नहीं है। वह ज्ञान (वस्तु का धर्म) किसी का बनाया नहीं बनता, वह तो हमेशा विद्यमान है। आत्मा की आत्मीयता, आत्मा की चेतनता, आत्मा की ज्ञानात्मकता, आत्मा का रत्नत्रय- ये सब उसमें अनादि से हैं, जो संसारी आत्माएं विकारी हैं, उनको दूर करने का उपाय भी अभी से नहीं है, वह भी सनातन है।
अत: तत्त्वज्ञानरूपी वेद सनातन हैं, तीर्थंकर उसका प्रणयन करते हैं। जगत् के प्राणी उस ज्ञान से (धर्म से) शून्य होते हैं, वे अपने उस गुण और धर्म को भूले रहते हैं। तब तीर्थंकर उसका उद्बोध मात्र कराते हैं। वर्तमान काल में 24 तीर्थंकरों के निमित्त से यह उपकार हुआ। इसके पहिले अनंत भूतकाल में, अनंत तीर्थंकर होते आए और वे मोक्षमार्ग का प्रणयन करते आए। आगे अनन्त भविष्य में भी यही क्रम चलता रहेगा। अत: इस दृष्टि से वेद (ज्ञान) अनादि है। उसी सनातन ज्ञान को यहां दिखाया जाता है। ‘‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणिमोक्षमार्ग:’’। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र-इन तीनों की एकता मोक्ष का मार्ग है।
सत् एक अखण्ड होता है और उसकी पर्याय भी एक समय में एक होती, उस सत् के भेद शक्ति के आधार पर होते हैं और पर्याय के भेद शक्ति की व्यञ्जना पर होते हैं। मोक्षमार्ग में भी आत्मा एक है और पर्याय भी एक समय में एक है। वह पर्याय नि:शंकतापूर्वक ज्ञाता द्रष्टा रहना। इस एक कार्य में सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र की एकता स्पष्ट प्रतीत हो रही है। उत्तरोत्तर यह अभेद दृढ़ होता जाता है। अंतिम मोक्षमार्ग चौदहवें में गुणस्थान का अंतिम भाग है। गुणरूप से अंतिम मोक्षमार्ग 12 वें गुणस्थान का अंतिम भाग है। मोक्षमार्ग का प्रारंभ चतुर्थ गुणस्थान में पहुँचने से पूर्व मिथ्यात्व गुणस्थान का अंतिम भाग है। अनादिमिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्वगुणस्थान को छोड़ कर यदि अन्य गुणस्थान लेता है तो उपशमसम्यक्त्व का गुणस्थान लेता है सो प्राय: अविरतसम्यक्त्वनामक चौथा गुणस्थान पाता है। बिरला कोई जीव प्रथमो प्रथम सम्यक्त्व के साथ साथ देशव्रत या महाव्रत भी पा लेता है। सर्वत्र जो भी हो दर्शन ज्ञान चारित्र का एकत्व है। जैसे मोक्षमार्ग में सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र का एकत्व है। वैसे संसार मार्ग में भी देख लो भैया ! मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र का एकत्व है।
एक कथानक के आधार पर प्रकट रूप में जो यह पहिला सूत्र कहा गया है उसकी प्रारम्भिक रचना इस रूप में नहीं हुई थी और न इस सूत्र की रचना का प्रारम्भ उमा स्वामी से हुआ। इसका प्रारम्भ करने वाला एक भव्य मुमुक्षु श्रावक है। उस मुमुक्षु ने एक बार इसका निश्चय करके कि मोक्षमार्ग का बताने वाला कम से कम 1 सूत्र बना कर ही मैं भोजन किया करूंगा। पहिले दिन उसने पहिला सूत्र बनाया ‘दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:’ कुछ समय पीछे इस श्रावक के घर मुनि आये, श्रावक की गृहिणी ने पडगाहन करके आहार दिया। मुनि जब वन को जाने लगे तो उनकी दृष्टि भींत पर लिखे हुए उस सूत्र पर पड़ी। कुछ सोचकर उसके आदि में ‘सम्यक्’ पद और जोड़ दिया। इसलिए कि दर्शन ज्ञान चारित्र मिथ्या भी होते हैं, वे मोक्ष के मार्ग नहीं संसार के मार्ग होते हैं, इसलिये संदिग्ध पद को सुधार देना उचित है- ऐसा सोचकर सूत्र के पहिले सम्यक् लिख दिया। मुनि इसके बाद तपोवन में चले गये।
श्रावक जब घर पर आता है और उसकी दृष्टि उस सूत्र पर पड़ती है तो अवाक् रह जाता है, गृहिणी से पूछता है- कोई आया था घर पर? वह साधु के आने और उन्हें आहार देने का समाचार कहती है। जिज्ञासु श्रावक निश्चय करता है कि यह उपकृति उन्हीं साधु की है। मुनिगमन की दिशा मालूम कर शीघ्रता से खोज करता हुआ मुनि के समीप पहुंच जाता है और चरणों में नम्रीभूत हो निवेदन करता है कि मुने ! जिस रचना को मैंने प्रारम्भ किया उसके प्रथम प्रयास में ही मुझसे भूल हो गई, तब आगे वह रचना ठीक ही होगी यह कैसे हो सकता है, अत: आप ही इसके अधिकारी हैं और इस ग्रन्थ का निर्माण आप ही करने की कृपा करें। मुनि ने उस भव्य का निवेदन स्वीकार किया और उसकी रचना तत्त्वार्थसूत्र के रूप में की जो कि हमारे समक्ष में है, और हमारे कल्याण के लिये जो एक अनुपम निधि है अथवा जिन योगियों ने सत्य आनन्द का अनुभव किया है उनकी प्राणियों पर दृष्टि होने पर यह भाव हुए बिना नहीं रहता है कि ये स्वभावत: आनन्दमय ज्ञानमूर्ति निज प्रभु के दर्शन बिना भटक रहे हैं, ये स्वाधीन शान्तिमार्ग पायें। इस भावना से आगृहीत् पूज्यपाद योगीश्वर ग्रन्थरचना करते हुए सर्व प्रथम एकदम स्पष्ट मोक्षमार्ग बतलाते हैं-
‘‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:’’।
प्रकरणवश इतना जान लेने पर इस प्रथमसूत्र पर ही विचार करें। सूत्र का शब्दार्थ प्रस्तावना में प्रकट हो चुका है। यह सूत्र ही ऐसा अद्भुत है कि सूत्र कहना चाहोगे तो पहिले जो कहोगे वह अर्थ ही हो जावेगा।
अब हम सम्यग्दर्शन के बारे में विशेष विचार करें-
जिस स्वरूप से विशिष्ट जो पदार्थ हैं उनका उस पर श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। यह परिभाषा व्यवहार से है। लेकिन निश्चय का अर्थ भी इसी से घटित होता है। सत् असत्, नित्य-अनित्य, सामान्य-विशेष और एक-अनेक आदि धर्म विशिष्ट जीव अजीव तत्त्व हैं। उनकी विकारी पर्याय से आश्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष मिलकर 7 भी तत्त्व हैं। उन सातों में जीव सार रूप है, उस जीव में भी उसका जो निर्विकार शुद्ध चित् भाव है, जो आनन्दस्वरूप है वह सार है। उसका श्रद्धान होना, देखना, अनुभवन होना सम्यग्दर्शन है, सम्यक् का सम्यक् दर्शन होना सम्यग्दर्शन है।
प्रत्येक पदार्थ अपने एकत्वनिश्चय में प्राप्त हो तो सुन्दर है, सम्यक् है। अपने स्वभाव के विरुद्ध पर के निमित्त को पाकर स्वविभावशक्ति से जायमान विभावों की ओर उन्मुखता हुई कि बड़े विसंवाद बन जाते हैं। वस्तु अखंड एकस्वस्वामी है। उसकी अनंतानंत पर्यायों में भी वह एक स्वभाव सदा अंत: प्रकाशमान रहता है। इस अशुद्ध संसार अवस्था में भी तीव्र मिथ्यादृष्टिजीव तक अपने स्वभाव के कारण पदार्थों को बहिर्मुखतया भी जानने से पहिले आत्मसामान्य का स्पर्श करते हैं। हां यह बात अवश्य है कि जिसके स्पर्श का यत्न होता है उसे स्पर्श कर भी उसकी संचेतना बहिरात्मा नहीं करते हैं। सिद्धान्तशास्त्रों में यह बिल्कुल स्पष्ट लिखा है कि कुमतिज्ञान से भी पहिले चक्षुदर्शन या अचक्षुदर्शन होता है। यह दर्शन क्या है? कहीं आँख से देखने का नाम चक्षुदर्शन नहीं है, किन्तु चक्षुरिन्द्रिय के निमित्त से उत्पन्न हुए ज्ञान से पहिले जानने का बल विकसित करने के अर्थ उपयोग आत्मा की ओर झुकता है तब जो सामान्य अवलोकन है उसे चक्षुदर्शन कहते हैं। इसी तरह चक्षु को छोड़कर अन्य इन्द्रिय व मन के निमित्त से जायमान ज्ञान से पहिले जो दर्शन होता है उसे अचक्षुदर्शन कहते हैं। देखो भैया ! आत्मकल्याण के लिये सुविधासामग्री सदा तैयार है, जो भव्य उसका उपयोग कर ले वह धन्य है। यह चैतन्यस्वभाव जो कि अखंड अविनाशी स्वत:सिद्ध है वही सुन्दरतम् है, सम्यक् है। इस सम्यक् का सम्यक् विधि से अर्थात् भेद विकल्पों से निर्णय कर भेद पक्ष छोड़कर अभेद दृष्टि के अवलंबन के अनंतर समस्त दृष्टिपक्ष के विकल्पों से हटकर अभेदानुभव करना सम्यग्दर्शन है। जीव के लिये सम्यग्दर्शन के समान और कोई उपकारी नहीं है। इसके बिना ही वह कुज्ञानी और मिथ्याचारी बना रहता है। इसी लिये समन्तभद्र स्वामी कहते हैं-
न सम्यक््त्वसमं किञ्चित्त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि।
श्रेयोऽश्रेश्यच मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनूभृताम्।।
तीन काल और तीनों लोकों में सम्यक्त्व के समान कल्याणकारी दूसरा नहीं और मिथ्यात्व के समान अकल्याणकारी दूसरा नहीं। यह मिथ्यात्व सम्यग्दर्शन के ठीक विपरीतरूप होता है। इस सम्यग्दर्शन की महिमा कहने में कोई समर्थ नहीं है। सम्यक्त्व के बिना पूजा, दान, तप आदि भी वास्तविक नहीं होते। उन सब अच्छे कार्यों का लक्ष्य संसार की तरफ चला जाता, विकल्प बाहर की तरफ दौड़ते रहते।
हमारी प्रारम्भिक निगोद दशा कैसी थी? हम बेचारे थे, असहाय थे। बेचारे अर्थात् जिनका चारा नहीं, आश्रय नहीं। ऐसे बेचारे तो हम निगोद में अथवा उसके ऊपर भी असंज्ञी पर्यायों में ही थे। संज्ञा (मन) होने पर सोचने समझने की शक्ति आने पर बेचारा मन कहां रहा? फिर तो यथार्थ पुरुषार्थ करने की शक्ति हम में आ गई। फिर अब भी हम बेचारे के बेचारे बने रहें और सम्यक्त्व को जागृत न करें तो यह कितनी भारी भूल होगी? मनुष्य-जन्म की सफलता अपने स्वरूप को समझने में है।
देखो भैया ! निज चैतन्य महाप्रभु की सत्कृपा:- निगोद जैसे दुष्पद से निकलने में चैतन्यभाव के सद्विकास का ही तो अनुग्रह है। यह चैतन्य महा-प्रभु जैसे जैसे प्रसन्न होता गया उत्तरोत्तर समृद्धि पाता हुआ आज सैनी पञ्चेन्द्रिय मनुष्य की दशा में आ गया जिसके लिए इन्द्र भी तरसते हैं। यदि अब भी हमने चैतन्यदेव की भक्ति नहीं की और विषय कषाय की वृत्ति से प्रभु पर हमला किया तो हमारी बड़ी दुर्गति होगी।
एक साधु जंगल में बैठे ध्यान कर रहे थे। उनके पास एक चूहा बैठा रहा करता था। अचानक बिलाव ने उस पर हमला करना चाहा तो झट दयावश साधु ने आशीर्वाद दिया ‘‘विडालो भव’’। वह बिलाव बन गया। अब बिलाव का तो डर न रहा किन्तु कुत्ता ने आक्रमण करना चाहा तो आशीर्वाद मिला कि श्वान भव। कुत्ता बन गया। फिर झपटा व्याघ्र, सो कहा ‘‘व्याघ्रो भव’’। फिर सिंह झपटा तो आशीर्वाद दिया ‘‘सिहों भव’’ । वह चूहा उत्तरोत्तर वृद्धि से सिंह बन गया। अब सिंह को लगी भूख, सो साधु को ही सिंह ने खाना चाहा, तब आशीर्वाद मिला ‘‘पूनर्मूषको भव’’। बन्धुवों ! इसी प्रकार चैतन्यदेव का आशीर्वाद पाकर यह जीव निगोद से निकलकर मनुष्य हो गया। यदि यह मनुष्य जिस चैतन्यदेव की प्रसन्नता से उन्नत बना, उसी चैतन्यदेव पर आक्रमण करेगा तो झट यही आशीर्वाद मिलेगा कि ‘‘पुनर्निगोदो भव’’ अर्थात् फिर निगोद बन जा।
इस मनुष्य-जन्म में देखो कितनी शक्ति प्रकट हो गई है, विवेक उसके उपयोग का होना चाहिये। चाहे उपयोग को स्वभाव की ओर लगा दो, चाहे कषाय की ओर लगा दो। भावना से ही सब काम होता है। इस मनुष्य-जन्म में सम्यक्त्व प्राप्त होने के योग्य क्षयोपशमलब्धि प्राप्त है। क्योंकि भला बुरा सोचने समझने का हममें पर्याप्त ज्ञान है। देशना लब्धि अर्थात् तत्त्वज्ञानी का उपदेश मिलना। वह भी हमारे लिये उपलब्ध है। विशुद्धि लब्धि आत्मपरिणामों की विशेष निर्मलता को कहते हैं। यदि हम चाहें तो परिणामों में कठोरता तीव्रता तामसी वृत्ति न आने दें। परिणामों में कठोरता रखना या कोमलता रखना यह हमारे हाथ की बात है क्योंकि इस लायक योग्यता प्रकट हो गई। इन तीन लब्धियों की प्राप्ति हो जाने पर चौथी प्रायोग्यलब्धि होती है। विशुद्धि बढ़ने पर जब कर्मों की लम्बी स्थिति बढ़ना बंद हो जाती है और अधिक से अधिक अन्त:कोटाकोटि सागर प्रमाण कर्मों का स्थिति बंध रह जाता है, तब यह विशुद्धि प्रायोग्यलब्धि कहलाती है। इस प्रायोग्यलब्धि वाला जीव पहिले गुणस्थान से लेकर छठवें तक बंधने योग्य कितने ही कर्मों का बन्ध नहीं करता। यद्यपि सम्यक्त्व हो जाने पर चौथे, पांचवें और छठवें गुणस्थान में बंधने योग्य उन प्रकृतियों का बन्ध होने लगता है, लेकिन सम्यक्त्व के उन्मुख होने पर प्रायोग्यलब्धि में यह बंध नहीं होता, उतने समय के लिए वह रुक जाता है। जैसे जिस वर की शादी होती है, उसको विवाह होने के समय तक के लिए बादशाह मान लिया जाता है। पीछे विवाह हो चुकने पर फिर वह बादशाहीपन नहीं रहता। उसी तरह कुछ प्रकृतियों के बंधविचार में प्रायोग्यलब्धि वाले मिथ्यादृष्टि के अविरत सम्यग्दृष्टि देशविरत या प्रमत्तविरत जैसी बादशाहीयत समझना चाहिये। इस लब्धि के प्राप्त हो जाने पर जीव के आगे आगे समय में असंख्यातगुणी असंख्यातगुणी निर्जरा होने लगती है और बंध इसी क्रम से हीन-हीन। कर्मों की स्थिति पल्य के असंख्यातवें भाग कम हो होकर पृथक्त्वशतसागर कम हो जाने पर नरक आयु के बंध का होना रुक जाता है। उसके बाद की हीन-हीन स्थितियों में क्रमश: तिर्यञ्च, मनुष्य और देवायु के बंध का अभाव होता है। फिर नरकगति नरकगत्वानुपूर्वी इन 2 प्रकृतियों का बंधव्युच्छेद हो जाता है। पुन: सूक्ष्म अपर्याप्त और साधारण इन प्रकृतियों का सम्मिलित बंध रुक जाता है।
इस प्रायोग्यलब्धि में इस प्रकार 34 बंधापसरण होते हैं। प्रत्येक बंधापसरण में पृथक्त्व शतसागर स्थिति कम होती है। वह हीनता पल्य के असंख्यातवें भाग कम हो होकर कम होती है। ये 6 बंधापसरण हुए। इसी प्रकार ये 28 बंधापसरण कहना चाहिये। 7-सूक्ष्म अपर्याप्त प्रत्येक, 8-बादर अपर्याप्त साधारण, 9-बादर अपर्याप्त प्रत्येक, 10-द्वीन्द्रिय अपर्याप्त, 11-त्रीन्द्रिय अपर्याप्त, 12-चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त, 13-असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त, 14-सज्ञी पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्त, 15-सूक्ष्मपर्याप्त साधारण, 16-सूक्ष्म पर्याप्त प्रत्येक, 17-वादर पर्याप्त साधारण, 18-वादर पर्याप्त प्रत्येक एकेन्द्रिय आताप स्थावर, 19-द्वीन्द्रिय पर्याप्त, 20-त्रीन्द्रिय पर्याप्त, 21-चतुरिन्द्रियपर्याप्त, 22-असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त, 23-तिर्यग्गति तिर्यग्गत्यानुपूर्वी उद्योत, 24-नीच गोत्र, 25-अप्रशस्तविहायोगति दुर्भग दु:रवर अनादेय, 26-हुंडकसंस्थान असंप्राप्तसृपाटिका संहनन, 27-नपुसंकवेद, 28-वामनसंस्थान, कीलकं संहनन, 29-कुब्जकसंस्थान अर्द्धनाराचसंहनन, 30-स्त्रीवेद, 31-स्वातिसंस्थान नाराचसंहनन, 32-न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थान वज्रनाराचसंहनन, 33-मनुष्यगति मनुष्यगत्यानुपूर्वी औदारिकाङ्गोपाङ्ग वज्रवृषभनाराचसंहनन, और 34 वीं बार में असाता अरति शोक अस्थिर अशुभ अयश:कीर्ति। ये बंधापसरण की प्रकृतियां वे हैं जो 1, 2, 4, 6, 7 वें गुणस्थान में बंध से व्युच्छिन्न होती है। यहां विचारिये यह प्रयोग्यलब्धि वाला जीव भी कितना बलिष्ट हो रहा है, सातवें गुणस्थान तक की अनेक प्रकृतियों के बंध को हटा देता है।
इतनी करामात प्रायोग्यब्धि में रहती है। फिर आगे करणलब्धि का प्रारंभ होता है, करण नाम निर्मल परिणामों का है। अनादि मिथ्यादृष्टि जीव के करणलब्धि प्रथमोपशमसम्यक्त्व के प्रादुर्भाव के लिए होती है। करण तीन होते हैं- 1 अध:करण, 2 अपूर्वकरण, 3 अनिवृत्तिकरण। अव्यवस्थित परिणाम जब किसी उत्तम व्यवस्था में आने को होते हैं तो एक सदृश व्यवस्थित होने से पहिले 2 प्रकार की अवस्थायें होती हैं, वे हैं अध:करण और अपूर्वकरण। अध:करणपरिणाम वाले जीवों के परिणाम एक ही समय अथवा कुछ समय पहिले के व आगे के समयों में सदृश अथवा विसदृश होते हैं। अपूर्वकरणपरिणामों में एक ही समयवर्ती आत्मावों के परिणाम चाहे सदृश हो जावें परन्तु आगे-पीछे के समयवर्ती आत्मावों के परिणाम अपूर्व ही होते हैं। अनिवृत्तिकरण परिणाम में एक समयवर्ती आत्मावों के परिणाम एक सदृश ही होते हैं। लोक में भी व्यवस्था सम्बन्धी यत्न ऐसा देखा जाता है। जैसे अव्यवस्थित घूमने वाले सिपाहियों को कमाण्डर व्यवस्था से समीप आने की आज्ञा दे तब वे सिपाही कुछ लाइन में व कुछ बाहर, इसी प्रकार कुछ बिना पैर मिले व कुछ मिले पैर वाले होते हैं। दूसरे यत्न में लाइन एक हो जाती है, परन्तु पैरों का मेल बेमेल बना रहता है। तीसरे यत्न में सर्वथा व्यवस्थित हो जाते हैं। इसी प्रकार यहां सम्यक्त्व के प्रादुर्भाव के लिये जो करणयत्न है उसमें त्रिविधता होती है। इन करणों में सम्यक्त्वघातक निषेकों के उपशम का यत्न व अन्तरकरण होता है। जिन समयों में सम्यक्त्व रहेगा उन समयों की स्थिति का सम्यक्त्वघातक निषेक नहीं रहता है। उस स्थिति वाले निषेक आगाल प्रत्यागाल की विधि से कुछ पहिले कुछ पश्चात् की स्थिति वाले निषेकों में पहुंच लेते हैं।
उस समय जीव के भारी निर्मलता रहती है इतनी निर्मलता कि शीघ्र शुद्धि बढे़ तो अन्तर्मुहूर्त में (जिस अन्तर्मुहूर्त के अवान्तर 14 अन्तर्मुहूर्त 14 तरह के कार्यों के लिए हैं।) मोक्ष पा सकता है। वे चौदह अन्तर्मुहूर्त चौदह कार्यों के लिये इस प्रकार है:-
पहिला अन्तर्मुहूर्त अन्तर करण का, दूसरा उपशम सम्यक्त्व प्राप्त करने का, तीसरा अन्तर्मुहूर्त क्षयोपशम सम्यक्त्व प्राप्त करने का, चौथा व 5 वां अन्तर्मुहूर्त अनंतानुबन्धी के विसंयोजन का व दर्शनमोह के क्षय का, 6 वां अन्तर्मुहूर्त अप्रमत्तविरत गुणस्थान होने का, 7 वां अ. मु. प्रमत्त-अप्रमत्त गुणस्थानों में अदल बदल होने का, इसमें छोटे-छोटे असंख्यात अन्तर्मुहूर्त हैं। 8 वां अन्तर्मुहूर्त अध:करण का, 9 वां अन्तर्मुहूर्त अपूर्वकरण का, 10 वां अन्तर्मुहूर्त अनिवृत्तिकरण का, 11 वां अन्तर्मुहूर्त सूक्ष्म साम्पराय का, 12 अ. मु. क्षीणमोह का, 13 वां अन्तर्मुहूर्त संयोग केवली होने का, चौदहवां अन्तर्मुहूर्त अयोगकेवली होकर सिद्ध होने का है।
इन 14 अन्तर्मुहूर्तों का काल बहुत थोड़ा है। सबका समय मिलकर भी अन्तर्मुहूर्त ही होता है। क्योंकि अन्तर्मुहूर्त के अगणित भेद हैं। इस तरह सम्यक्त्व की प्राप्ति होने पर मोक्ष प्राप्त होने में देर नहीं लगती यह स्पष्ट हुआ। यदि विलम्ब भी हो तो कुछ कम अर्द्ध पुद्गल परिवर्तन काल से अधिक विलम्ब तो हो ही नहीं सकता।
आत्मश्रद्धा को सम्यग्दर्शन, (2) आत्मज्ञान को सम्यग्ज्ञान और आत्मलीनता को सम्यक्चारित्र कहते हैं। व्यवहार से सात तत्त्वों का यथार्थ श्रद्धान सम्यग्दर्शन, तत्त्वों का यथार्थ ज्ञान सम्यग्ज्ञान और पापनिवृत्ति को सम्यक्चारित्र कहते हैं।
सम्यक्त्वभाव का निमित्त अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ व मिथ्यात्व- इन पाँच प्रकृतियों का उपशम तथा वेदक योग्य सादिमिथ्यादृष्टि के सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति मिलकर 7 प्रकृतियों का उपशम, क्षयोपशम व 7 का क्षय है तो क्षय तो वेदकसम्यग्दृष्टि ही करता है। उपशम व क्षयोपशम को मिथ्यादृष्टि कर लेता है। क्षयोपशमसम्यक्त्व को उपशमसम्यग्दृष्टि भी करता है। प्रकृतियों के उपशमादि का निमित्त है अखंड चैतन्य स्वभाव का ध्यान। इस ध्यान के लिये आवश्यक है तत्त्वाभ्यास। तत्त्वाभ्यास के लिये द्रव्य, गुण, पर्यायों की समस्या अच्छी तरह से हल कर लेना चाहिये। द्रव्य सत्स्वरूप, स्वत:सिद्ध, अनादिनिधन, स्वसहाय व अखण्ड होता है। जो कुछ दिखता है उसके खंड-खंड हो जाते हैं वह द्रव्य नहीं, उनमें अविभागी जो एकप्रदेशी सत् है वह द्रव्य है। आत्मा तो हमारा आपका सबका एक-एक अखण्ड है वह द्रव्य है। इसी तरह एक धर्म द्रव्य, एक अधर्म द्रव्य, एक आकाश द्रव्य, असंख्यात कालाणु एक-एक ये सब द्रव्य हैं। द्रव्य अनंतशक्त्यात्मक होता है, एक-एक शक्ति का नाम एक-एक गुण है, उन सब गुणों से पर्यायें उत्पन्न होती हैं। यहां जीव का निमित्त पाकर अजीव कर्म में व अजीव कर्म का घनिष्ठ संयोग या अभाव का निमित्त पाकर जीव में कई अवस्थायें हो गई हैं, वे संक्षेप में 5 हैं- आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा व मोक्ष। आस्रव जिन प्रकृतियों का हुआ है वे पुण्यापाप के भेद से 2 प्रकार के हैं, तथा जीव व अजीव की अपेक्षा 2 मूलद्रव्य हैं इस प्रकार सब तत्त्व 9 हुए। इन भेदों-विकल्पों का यथार्थ ज्ञान करके पर्यायों को पर्यायों के स्रोत मूलद्रव्य के उन्मुख करे, निमित्त की दृष्टि का उपयोग न करे, तब पर्यायें विलीन होकर एक मात्र द्रव्यदृष्टि रहेगी, वहां भी निश्चयपक्ष छोड़कर अत्यंत निष्पक्ष होता हुआ स्वभाव का अनुभव करे। सर्व भेद विकल्पों को छोड़कर अभेदस्वभाव में स्थिर रहे। यह कल्याण का अमोघ उपाय है।
ये तीनों सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र के निजस्वरूप और नाम आदि की अपेक्षा से भिन्न–भिन्न हैं, किन्तु अमूर्त आत्मा के असंख्यात प्रदेशों में एकमेक होकर रहते इसलिये अभिन्न हैं। आजकल का राष्ट्रध्वज भी जैन सिद्धांत के अनुकूल है।
राष्ट्रीय तिरंगा झन्डा में रत्नत्रय की कल्पना घटित होती है। साहित्यकार रुचि का वर्णन पीले रंग से करते हैं। और और जैनधर्म में रुचि को सम्यग्दर्शन कहते हैं। हरा रंग हरे-भरे रंग का द्योतक है। यह सम्यक् चारित्र को बतलाता है, क्योंकि उससे शुद्ध आत्मपर्याय की उत्पत्ति होती है। और ज्ञान का वर्णन सफेद रंग से किया जाता है, तब सफेद रंग सम्यग्ज्ञान का प्रतीक हुआ। इस तरह रत्नत्रय का प्रतीक, पीला, हरा और सफेद रंग वाला तिरंगा झन्डा (राष्ट्रीय झंडा) है। उसमें जो चक्र का चिन्ह है उसमें 24 आरे रहते हैं, जिनका अर्थ होता है कि उस मोक्षमार्गरूप रत्नत्रय को 24 तीर्थंकरों ने प्रकट किया है। तिरंगा झंडा 24 तीर्थंकरों द्वारा प्ररूपित, प्रदर्शित आत्मा के रत्नत्रय-धर्म को या कहिये मोक्षमार्ग को स्मरण कराता है। हमको उस मोक्षमार्ग में अपना पुरुषार्थ प्रकट करना चाहिये। इस भव से नहीं तो अगले भवों से हम मोक्ष पाने के अधिकारी हो जावें। मनुष्यजीवन में यह सबसे बड़ा काम है।
कोई कहे कि इस काल में तो मोक्ष होता नहीं है, फिर उसके लिये प्रयत्न क्यों किया जाय? तो उत्तर है कि भाई ! यदि मुझे मोक्ष की चाह है तो उस मार्ग में लग जाना ही एक तेरा कर्तव्य है। अब नहीं तो तब, मोक्ष होकर ही रहेगा। यदि तुझे आज ही कुछ दिनों या वर्षों में मोक्ष मिले, तभी तू उसके लिये प्रयत्न करेगा, नहीं तो नहीं, तो यह तेरी आत्मवंचना है, बहाना है। तू आत्मकर्तव्य से पीछे हटने के लिये झूठी दलील चलाना चाहता है और फिर यह भी तो सोच कि बड़े बड़े महापुरुषों को भी सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के बाद मोक्ष पा लेने में कितना समय लगा है? सभी जीवों को तो अंतर्मुहूर्त में मोक्ष नहीं हो जाता, अरबों-खरबों वर्ष तक इसकी साधना में बीत जाते हैं। ऋषभदेव भगवान् को कुछ कम (अरहंत अवस्था का समय कम) 1 लाख पूर्व अर्थात् हजारों अरब वर्ष लग गया। तू तो उनसे जल्दी भी जा सकता है। यहां से मरकर विदेह में उत्पन्न होकर तो 8-9 वर्ष में ही सिद्ध बन सकता है। हां, कमी यह है कि मरते समय हमारे सम्यक्त्व रहे तो विदेह में नहीं पैदा हो सकते। उस विदेह की भी चिन्ता हटावो। सम्यक्त्व का वियोग मत होओ। तू भव को मत देख। देख भव रहित निज चैतन्य स्वभाव को, आत्म संतोष और धेर्यपूर्वक मोक्षपथ में चलते रहने के लिये ज्ञानवृत्ति रूप उद्यम कर, तू भव को मत देख। यदि स्वभाव की ओर उपयोग हो तो तुम ही बतावो क्या भव का उपयोग रहता है? स्वभाव तो शुद्ध अशुद्ध सभी पर्यायों से विलक्षण एक केवल शुद्ध है। स्वभाव में भव कहां है? भव की शंका विचारणा में स्वभाव का उपयोग कहां है? देखो-देखो स्वभाव में बड़ी महिमा है तभी तो इसके आश्रय से इसका धनी महान् बन जाता है। स्वभाव अखंड है तभी तो अखंड के आश्रय से अन्त में ज्ञान त्रिलोक, त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थों का अखंड ज्ञाता हो जाता है। स्वभाव निर्विकल्प है तभी तो स्वभाव के आश्रय से इसका धनी निर्विकल्प हो जाता है। स्वभाव अविनाशी है तभी तो इसके आश्रय से इसका धनी विषम पर्याय के अभाव रूप अविनाशी एक समान पर्यायों के अविनश्वर प्रवाह रूप अविनाशी पद को प्रकट कर लेता है। अहो ! बड़े बड़े योगीन्द्रों ने भी मात्र एक आत्मस्वभाव की उपासना की। यह बात तो बिलकुल पूर्ण प्रकट है, साईंस में उत्तीर्ण नि:संदेह बात है। मित्रों ! एक इस ही ज्ञानस्वभाव का, चैतन्यस्वभाव का आश्रय लो, फिर मुक्ति हस्तगत ही है। भले ही कुछ समय और लग जावे, परन्तु विचारो तो सही, अनन्तानन्त काल के सामने असंख्यात भी समय क्या चीज है? एक सच्ची कहानी है। सुनिये-
RE: तत्वार्थ सूत्र - अध्याय १ -
Manish Jain - 05-11-2023
एक तपस्वी पलाश वृक्ष के नीचे ध्यान लगाये थे। एक श्रावक भक्त आया। मुनि का भी ध्यान टूटा। धर्मकथा हुई, श्रावक भगवान के समवशरण में जा रहा था। वहां मुनि से विदा मांग चलने लगा। मुनि ने कहा, मेरे संसार में कितने भव बाकी हैं, मेरा मोक्ष कब होगा? भगवान से पूछना। श्रावक भगवान के समवशरण में गया। तत्त्वज्ञान प्राप्त किया और मुनि के संसारी भवों को भी मालूम किया। वापिस समवशरण से आया तो इसी बीच मुनिराज पलाश वृक्ष के नीचे से उठकर इमली के वृक्ष के नीचे पहुंच गये। श्रावक मुनि को इमली के वृक्ष के नीचे बैठा देख खिन्न होता है। मुनि पूछते हैं क्या कारण है? तेरे दु:ख मनाने का। श्रावक बोलता है कि महाराज ! भगवान ने अपनी दिव्य वाणी में आपके प्रश्न का उत्तर दिया है कि आप जिस वृक्ष के नीचे बैठे हैं उतने ही भव बाकी हैं। इस बात से मुझे खुशी हो गई थी क्योंकि आप उस पलाश वृक्ष के नीचे बैठे थे, जिसमें कि इनेगिने पत्ते थे। लेकिन अब आप इमली के नीचे बैठे हैं। जिसके पत्तों की गणना करना कठिन है। इसी बात को विचारकर मन में क्लेश हो रहा है कि अभी आपके इतने अधिक भव संसार के पड़े हैं। मुनि खुश होते हैं और श्रावक को समझाते हैं कि इसमें अप्रसन्न होने की बात नहीं, खुशी मनाने की बात है। अनादि से कितने भव बीते सो क्या पता? अब यह तो निश्चय हो गया कि इतने ही भव शेष हैं अधिक नहीं। और भैया देखो इतने भी भव थोड़े काल में निकल सकते हैं। एक अन्तर्मुहूर्त में 66336 भवों से निपट लिया जाता है। अब मुमुक्षु को मोक्षमार्ग में प्रयत्न करने की सच्ची प्रेरणा हासिल करना चाहिये, घबड़ाहट तो कुछ काम भी नहीं। मोक्ष मार्ग में भी सम्यग्दर्शन जो खास महत्त्व रखता है, इसकी प्राप्ति के लिये कमर कस लेना चाहिये। जीव और शरीर का भेद विज्ञान और फिर आत्मस्वरूप का अनुभव जिस किसी तरह करने की चेष्टा पूरी-पूरी करना चाहिये। तब ही पुरुषार्थी कहलाओगे।
आत्मा का धर्म चैतन्य स्वभाव है जो मलिन है, न विमल है किन्तु अपने स्वभाव से ही सदा एक स्वभाव सर्वचिद्वृत्तियों का स्रोत है। उसकी दृष्टि से कार्यधर्म होता है। कारणधर्म की दृष्टि अथवा उपादत्ति बिना कार्यधर्म होता नहीं है। यह कार्यधर्म न पापवृत्तियों से प्रकट होता है और न पुण्यवृत्तियों से। किसी भी विचार से धर्म प्रकट नहीं होता। सनातन निर्मल स्वभाव की दृष्टि व उपादत्ति से निर्मल पर्याय प्रकट होती है। निर्मल पर्याय आकुलता के अनुभव से रहित पूर्ण सुखमय होती है। अत: सुख प्राप्ति के अर्थ अनादि अनन्त अहेतुक चैतन्यस्वभावमय निज सहजसिद्ध भगवान के दर्शन करना चाहिये।
RE: तत्वार्थ सूत्र - अध्याय १ -
Manish Jain - 06-13-2023
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तत्वार्थ सूत्र (Tattvartha sutra)
अध्याय 1
अध्याय 2
अध्याय 3
अध्याय 4
अध्याय 5
अध्याय 6
अध्याय 7
अध्याय 8
अध्याय 9
अध्याय 10