05-11-2023, 08:38 AM
एक तपस्वी पलाश वृक्ष के नीचे ध्यान लगाये थे। एक श्रावक भक्त आया। मुनि का भी ध्यान टूटा। धर्मकथा हुई, श्रावक भगवान के समवशरण में जा रहा था। वहां मुनि से विदा मांग चलने लगा। मुनि ने कहा, मेरे संसार में कितने भव बाकी हैं, मेरा मोक्ष कब होगा? भगवान से पूछना। श्रावक भगवान के समवशरण में गया। तत्त्वज्ञान प्राप्त किया और मुनि के संसारी भवों को भी मालूम किया। वापिस समवशरण से आया तो इसी बीच मुनिराज पलाश वृक्ष के नीचे से उठकर इमली के वृक्ष के नीचे पहुंच गये। श्रावक मुनि को इमली के वृक्ष के नीचे बैठा देख खिन्न होता है। मुनि पूछते हैं क्या कारण है? तेरे दु:ख मनाने का। श्रावक बोलता है कि महाराज ! भगवान ने अपनी दिव्य वाणी में आपके प्रश्न का उत्तर दिया है कि आप जिस वृक्ष के नीचे बैठे हैं उतने ही भव बाकी हैं। इस बात से मुझे खुशी हो गई थी क्योंकि आप उस पलाश वृक्ष के नीचे बैठे थे, जिसमें कि इनेगिने पत्ते थे। लेकिन अब आप इमली के नीचे बैठे हैं। जिसके पत्तों की गणना करना कठिन है। इसी बात को विचारकर मन में क्लेश हो रहा है कि अभी आपके इतने अधिक भव संसार के पड़े हैं। मुनि खुश होते हैं और श्रावक को समझाते हैं कि इसमें अप्रसन्न होने की बात नहीं, खुशी मनाने की बात है। अनादि से कितने भव बीते सो क्या पता? अब यह तो निश्चय हो गया कि इतने ही भव शेष हैं अधिक नहीं। और भैया देखो इतने भी भव थोड़े काल में निकल सकते हैं। एक अन्तर्मुहूर्त में 66336 भवों से निपट लिया जाता है। अब मुमुक्षु को मोक्षमार्ग में प्रयत्न करने की सच्ची प्रेरणा हासिल करना चाहिये, घबड़ाहट तो कुछ काम भी नहीं। मोक्ष मार्ग में भी सम्यग्दर्शन जो खास महत्त्व रखता है, इसकी प्राप्ति के लिये कमर कस लेना चाहिये। जीव और शरीर का भेद विज्ञान और फिर आत्मस्वरूप का अनुभव जिस किसी तरह करने की चेष्टा पूरी-पूरी करना चाहिये। तब ही पुरुषार्थी कहलाओगे।
आत्मा का धर्म चैतन्य स्वभाव है जो मलिन है, न विमल है किन्तु अपने स्वभाव से ही सदा एक स्वभाव सर्वचिद्वृत्तियों का स्रोत है। उसकी दृष्टि से कार्यधर्म होता है। कारणधर्म की दृष्टि अथवा उपादत्ति बिना कार्यधर्म होता नहीं है। यह कार्यधर्म न पापवृत्तियों से प्रकट होता है और न पुण्यवृत्तियों से। किसी भी विचार से धर्म प्रकट नहीं होता। सनातन निर्मल स्वभाव की दृष्टि व उपादत्ति से निर्मल पर्याय प्रकट होती है। निर्मल पर्याय आकुलता के अनुभव से रहित पूर्ण सुखमय होती है। अत: सुख प्राप्ति के अर्थ अनादि अनन्त अहेतुक चैतन्यस्वभावमय निज सहजसिद्ध भगवान के दर्शन करना चाहिये।
आत्मा का धर्म चैतन्य स्वभाव है जो मलिन है, न विमल है किन्तु अपने स्वभाव से ही सदा एक स्वभाव सर्वचिद्वृत्तियों का स्रोत है। उसकी दृष्टि से कार्यधर्म होता है। कारणधर्म की दृष्टि अथवा उपादत्ति बिना कार्यधर्म होता नहीं है। यह कार्यधर्म न पापवृत्तियों से प्रकट होता है और न पुण्यवृत्तियों से। किसी भी विचार से धर्म प्रकट नहीं होता। सनातन निर्मल स्वभाव की दृष्टि व उपादत्ति से निर्मल पर्याय प्रकट होती है। निर्मल पर्याय आकुलता के अनुभव से रहित पूर्ण सुखमय होती है। अत: सुख प्राप्ति के अर्थ अनादि अनन्त अहेतुक चैतन्यस्वभावमय निज सहजसिद्ध भगवान के दर्शन करना चाहिये।