08-06-2014, 11:45 AM
ग्रहों का हमारे जीवन पर प्रभाव-
ग्रहों की जैनमत में मान्यता है ही नहीं! अन्य मतियों के अनुसार नवग्रहों में सूर्य और चंद्रमा दोनों है! यह नवग्रह अनादिकाल से अपनी गति से गमन करते है, ये हमारा कुछ भी निष्ट/अनिष्ट नहीं करते! इनके गमन से ज्योतिष लोग हमारे भविष्य की कुछ गणना कर, हमारा अनिष्ट/निष्ट जान कर बता देते है! जैन मतानुसार सूर्य और चंद्रमा ग्रह ही नहीं है!तत्वार्थसूत्र के अनुसार,सूर्य,चंद्रमा,ग्रह,नक्षत्र,तारे पांच ज्योतिष्क देव है!
हम अपने परिग्रहों के कारण ग्रहों, कालसर्प योग आदि से डरते है!सम्यगदृष्टि कभी नहीं डरता क्योकि उसे मालूम है की जब तक लाभान्तराय का उदय नहीं तब तक रुपया जाने वाला नहीं है,आयुकर्म जब तक है कोई मरने वाला नहीं,इसलिए वह इनसे नहीं डरता !
जो कहते है नवग्रह विधान में भगवान् की पूजा ही तो है,पूजा करने में क्या हानि हो सकती है?
समाधान-
विधान करने में हमारा आशय गलत है, हम विधान में भगवान् की पूजा इस आशय से कर रहे है की नवग्रह से होने वाला अनिष्ट शांत हो जाए/टल जाए! नवग्रह से डरने की आवश्यकता नहीं है! पंचम काल में मिथ्यात्व का बहुत प्रचार-प्रसार हो रहा है,हमें जबरदस्ती मिथ्यात्व की ऒर ढ़केला जा रहा है! स्वकल्याण के लिए इनसे हमें बचना अत्यंतआवश्यक है!प्रथमानुयोग के किसी भी ग्रन्थ में एक भी उद्धाहरण ऐसा नहीं है जिसमें वर्णन हो की राजा ने काल सर्प योग विधान अथवा नवग्रह विधान करवाया हो!
अनेक साधु नवग्रह अरिष्ट निवारक विधान करवा रहे है और पूजा की पुस्तकों में भी इन विधानों की पूजा मिलती है, यह सब क्यों हो रहा है?ऐसा होना उचित नहीं है!
ये आयोजको का भोले भाले जीवों से लाभ अर्जित करने का माध्यम है और कुछ नहीं! इनको हमारी पूजन की पुस्तकों में प्रकाशकों ने इसलिए समावेशित कर लिया है जिससे आराधक शनि के प्रकोप का निवारण के लिए अन्य मतियों के पास नहीं जाये, यद्यपि वे स्वयं जानते है की नवग्रह कुछ भी नहीं करते! ऐसा नहीं कर,स्पष्ट लिखना चाहिए की नवग्रह हमारा कुछ नहीं बिगाड़ते! उन्होंने पूजा छाप दी और हम अज्ञानी बिना,सोचे समझे पूजा करने लग जाते है!
आजकल विधानों में देखने में आता है,देवी देवताओं के अर्घ समावेशित कर दिए और हम अज्ञानी भोले भाले, बिना समझे, उन पूजाओं को करने लगे,अर्घों को चढाने लगे! विचारये, हम लोग जैनमत को क्यों नष्ट कर रहे है!ये नवग्रह निवारक विधान जैन आगम के अनुसार नहीं है!
नव ग्रह अरिष्ट निवारक मंदिर बनाये जा रहे है जिनमे भगवान् की प्रतिमा विराजमान करी जा रही है, इसमें क्या आपत्ति है?
दर्शनार्थी, इन मंदिरों में इस नवग्रह निवारण की भावना, की नवग्रहों से उनका अनिष्ट नहीं हो, रख कर पूजा करने जाएगा, जिसके फलस्वरूप वह मंदिर में घुसने से पहले ही मिथ्यादृष्टि हो जायेगा वह पूजा क्या करेगा !ऊपर लिखा है "नव ग्रह अरिष्ट निवारक मंदिर "!जब नवग्रह अनिष्ट होता ही नहीं ,तो उसका निवारक मंदिर कैसे होगा? उस मंदिर को लिखना चाहिए "चन्द्र प्रभु भगवान् का मंदिर "!जिन लोगो ने इस प्रकार के बोर्ड लगा रखे है उन्हें बदलवाना चाहिए ताकि भोले भले लोग भ्रमित नहीं हो!
मुनिसुव्रतनाथ भगवान् के मंदिर में गत ५-६ वर्षों से, शनिवार को बहुत भीड़ देखने में आने लगी है क्यों?
लोगो में गलत धारणा है कि, 'मुनिसुव्रतनाथ भगवान् शनि के प्रकोप को दूर कर देते है ' इसलिये शनिवार को उनकी पूजा करने वालों की भीड़ होती है! यह बिलकुल गलत धारणा है क्योकि सभी सिद्ध भगवानों में सामान शक्ति होती है ,यह मानना कि मुनिसुव्रत भगवान् शनि का प्रकोप ,चन्द्र प्रभु भगवान् सोम के कष्ट, के निवारक है! पार्श्वनाथ भगवान् -संकट मोचक है,शांति नाथ भगवान् -शांति दाता, ऐसे मान्यताये मिथ्यात्व है! जो शांतीनाथ भगवान् कर सकते है वो ही बाकी भी कर सकते है! हम लोग किसी भी वीतराग भगवान् की पूजा कर अपने असातावेदनीय कर्म का संक्रमण,साता वेदनीय में करते है, जिससे सांसारिक सुख और परम्परा से मोक्ष मिलता है!
दक्षिण भारत में आज कल शनि अमावस्या महत्व कहा तक उचित है?
किसी भी जैनशास्त्र में नहीं लिखा है कि, शनि यदि अमावस्य को पड़े तो महान पर्व होता है! हमारे पर्व शनि और अमावस्या दोनों ही नहीं है,अन्य मतियों के है,इन्हें उन्ही का रहने देना चाहिए! उनके पर्वों को हम जैनपर्वों में क्यों समावेशित कर रहे है! इन गलत धारणों से हमें बचना चाहिए,क्योकि मिथ्यात्व है!
शनि के साढ़े सातसती -यह भी कालसर्प योग आदि की तरह एक पाखण्ड है और कुछ नहीं है!
निष्कर्ष-हमें विवेकी होना है,नवरात्रि से कुछ लेना देना नहीं,नवग्रह के प्रकोप से डरने का कोई काम नहीं, ग्रह हमारा कुछ भी निष्ट/अनिष्ट नहीं कर सकते,कालसर्प योग कुछ नहीं होता यह पंडितों का धनार्जन हेतु मक्कड़ जाल है,साढ़े सात सती दिमाक से हटा दीजिये,शनि अमावस्या जैन धर्म में कुछ नहीं है इन सबसे बचना हमारा कर्त्तव्य है अन्यथा हम मिथ्यात्व में ही रहेंगे जिससे जन्मो तक मुक्त नहीं हो पायेगे!पापों के दूर करने के लिए हमारे पास सर्व शक्तिशाली अस्त्र ‘णमोकारमन्त्र’ है!हमारे नवदेवता अराध्य
पञ्चपरमेष्टि,जिनमंदिर,जिनवाणी,जिनबिम्ब,जिनधर्म है इसके अतिरिक्त अन्य कोई नहीं! हम उन अर्हन्त देवों की पूजा करते है जिनके समक्ष, शरण में १०० इंद्र निरंतर हाथ जोड़े खड़े रहते है!
मिथ्यादृष्टि जीव कुदेव,कुगुरु,कुशास्त्र का श्रद्धां अनादी काल से करता आ रहा है!मिथ्यात्व से छुटने के लिए सच्चे देव,शास्त्र,गुरू का ज्ञान होना आवश्यक है!
सच्चे देव वीतरागी, सर्वज्ञ और हितोपदेशी है!
सच्चे शास्त्रों के सन्दर्भ में रत्नकरंडश्रावकाचार में एक श्लोक ह
“आप्तोपज्ञमनुल्लंघ्यमदृष्टेष्टविरोधकम्।
तत्वोपदेशकृत्सार्व शास्त्रं कापथघट्टनम् “!!
संधि विच्छेद- आप्तोपज्ञं अनुल्लंध्यम् अदृष्टेष्टविरोधकम् तत्वोपदेशकृत् सार्वं शास्त्रं कापथघट्टनम्-
अर्थ–आप्तोपज्ञं-जो आप्त,सर्वज्ञ द्वारा कहा गया हो,वर्तमान में सर्वज्ञ द्वारा कहा गया हुआ कोई शास्त्र दिखता नहीं, ऐसी बात नहीं है,जैसे सर्वज्ञदेव ने अपनी दिव्यध्वनि द्वारा कहा,तदानुसार गन्धरदेव ने उसका प्रतिपादन किया,आचर्यो ने उसको सुनकर शास्त्रों में ज्यो का त्यों लिपिबद्ध किया,उसी के अनुसार हमारी शास्त्र परम्परा चली आ रही है! आचार्य सत्यमहाव्रती होते है अपनी मर्जी से कुछ भी नहीं लिखते है! सर्वप्रथम जो सर्वज्ञदेव द्वारा कहा गया, गन्धर देव द्वारा गुथित और आचार्यों द्वारा लिपिबद्ध किया गया है, सच्चे शास्त्र है
अनुल्लंध्यम्-अन्य मतियों द्वारा अखंडित हो,इसका कोई उल्लंघन नहीं करे,अदृष्टेष्टविरोधकम्-प्रत्यक्ष-इष्ट /अनुमान आदि के विरोध से रहित हो,तत्वोपदेशकृत् -तत्वों का उपदेश करने वाला हो.सार्वं-सब के लिए हितकारी/ कल्याणकारी हो शास्त्रं - वह शास्त्र हमारे स्वाध्याय करने योग्य है,कापथघट्टनम्-मिथ्या मार्ग का निराकरण करने वाला हो
भावार्थ- जिस शास्त्र में अनेकांत रूप से वस्तुस्वरुप का प्रतिपादन हो! जैसे कुछ पंथ वर्तमान में एकांत से अर्थात केवल निश्चयनय से ही वस्तुस्वरुप का प्रतिपादन कर,व्यवहार नय को छोड़ रहे है! वे चारित्र को छोड़ कर,मात्र स्वाध्याय पर बल देते है!इसीलिए उनके द्वारा रचित शास्त्रों का स्वाध्याय नहीं करना चाहिए! इनके स्वाध्याय करने से बुद्धि विकृत होगी, हम मिथ्यात्व का पोषण करेंगे! जो शास्त्र अनेकांत से वस्तु स्वरुप का प्रतिपादन करते हो,स्यादवाद के द्वारा कहे गए हो,हमारे स्वाध्याय योग्य है!
शास्त्रों का स्वाध्याय करते समय ध्यान देने योग्य बाते!-
१-स्वाध्याय के लिए, सच्चे आगम सम्मत,शास्त्रों का चयन करना आवश्यक है! उद्धाहरण के लिए बीसवी सदी के आचार्य सुधर्मसागर द्वारा रचित,सुधर्म श्रावकाचार आगम सम्मत नहीं है 'पंचाध्यायी'-पण्डे राजवनरोगन जी ने १६ वी सदी में रचा है,ये आगम सम्मत शास्त्र नहीं है! इसमें लिखा है की चौथे गुणस्थान में शुद्धोपयोग है ऐसा मानने से हमारी बुद्धि विकृत हो जायेगी! 'त्रिवर्णाचार'- में अनेकों बाते आगम सम्मत नहीं है, अत: इनका स्वाध्याय नहीं करे अन्यथा विचार आगम विरुद्ध हो जायेगे!
२- शास्त्र के रचियता,टीकाकार ,भावार्थ कर्ता की प्रमाणिकता जानना अत्यंत आवश्यक है,क्योकि भावार्थ कर्ता,अपने मत की पुष्टि के लिए भाव ही बदल रहे है!
३- उनमे भावार्थ आगम सम्मत होने चाहिए,टीकाकार जो अपने विचार लिखता है उन्हें भावार्थ कहते है!सोनगढ़ से एक तत्वार्थसूत्र की टीका का प्रकाशन हुआ जिसमे तत्वार्थसूत्र के दसवे अध्याय के सूत्र ८ ''धर्मास्तिकायाभावात्" का अर्थ टीकाकार ने किया की,“द्रव्य का अभाव होने से,सिद्ध आत्माये लोकांत तक जाती है!” किन्तु, भावार्थ टीकाकार ने बिलकुल गलत,आगम के विरुद्ध कर दिया की,"सिद्ध आत्माओं में लोकांत तक गमन करने की ही शक्ति होती है इसलिए उससे ऊपर नहीं जाती है”!जबकि आत्मा में तो अनंत शक्ति होती है!वे चूँकि निमित्त को नहीं मानते,इसलिए उन्होंने धर्मस्तिकाय,जो की गमन में निमित्त है, को नहीं मानते हुए,आत्मा की सामर्थ्य को ही कम कर,लोकांत तक ही जाने का सामर्थ्य बताया है! यह तत्व का प्रतिपादन गलत हो गया! यह कथन आगम विरुद्ध है,मिथ्यात्व का पोषण करने वाला है! ऐसे शास्त्रों का स्वाध्याय करने से हम केवल स्वाध्याय को ही उपयोगी मानेगे और चरित्र को शून्य, जो की आगम सम्मत नहीं है!इसके फलस्वरूप तत्वों का गलतश्रद्धानं होने के कारण मिथ्यात्व की ऒर अग्रसर करेगे! ऐसे आगम विरोधी शास्त्रों के स्वाध्याय से हमारा अभिप्राय गलत होजाएगा, हम मिथ्यादृष्टि बन जायेगे! सम्यग्दृष्टि नहीं बन पायेगे जो की हमारा वास्तविक ध्येय है!
अन्यमतियों के शास्त्रों का अध्ययन करना उचित है या अनुचित १-अन्य मतियों के द्वारा रचित शास्त्र न तो सर्वज्ञ द्वारा कहे गए है,न ही गन्धर देव द्वारा गुथित है और न ही दिगंबर जैन आचार्यों द्वारा लिपिबद्ध है,इसलिए स्वाध्याय करने योग्य नहीं है
२-जिन्होंने स्वयं मोक्ष प्रोप्त नहीं किया वे मोक्ष मार्ग का प्रतिपादन नहीं कर सकते है! अन्य मतों के शास्त्रों मे जीव हिंसा की पुष्टि है,कषायों की पुष्टि है अत: वे शास्त्र अध्ययन करने योग्य नहीं है! कुछ लोगे की धारणा है की, अन्य मतियों के शास्त्रों में भी आत्मा सम्बन्धी चर्चा है, उनमे भी अहिंसा के पालन लिखा है! कही कही एक दो बिंदु सही लिख दिया किन्तु निश्कर्ष में तो कोई भी हितकारी, कल्याणकारी नहीं है क्योकि वे सात तत्वों ,नव पदार्थों का प्रतिपादन नहीं करते! उनके यहाँ ये नव पदार्थ आदि है ही नहीं! उनके यहाँ कर्म सिद्धांत,स्यादवाद, अनेकांत है ही नहीं,समस्त वस्तुओं का प्रतिपादन वहां एकांत से है इसलिएउन्हें नहीं पढना चाहिए !यदि कोई अन्य मतियों के शास्त्रों को उनमें कमियों को जान्ने की इच्छा से पढना चाहता है तब भी अपने शास्त्रों में परिपक्वता प्राप्त करने तक नहीं पढना चाहिए क्योकि परिपक्वता प्राप्त होने के बाद जैन शास्त्रों में दृढ श्रद्धां हिल नहीं पायेगा और उस दृढ़ता में वृद्धि होगी क्योकि अन्य मतियों के शास्त्रों में वह नहीं है जो हमारे शास्त्रों में है!
अन्य मत के शास्त्रों का उद्धारहण भी नहीं देना चाहिए! क्योकि इससे जैनमतियों का रुझान अन्यमतियों के शास्त्रों,साहित्य की ऒर हो सकता है!
ग्रहों की जैनमत में मान्यता है ही नहीं! अन्य मतियों के अनुसार नवग्रहों में सूर्य और चंद्रमा दोनों है! यह नवग्रह अनादिकाल से अपनी गति से गमन करते है, ये हमारा कुछ भी निष्ट/अनिष्ट नहीं करते! इनके गमन से ज्योतिष लोग हमारे भविष्य की कुछ गणना कर, हमारा अनिष्ट/निष्ट जान कर बता देते है! जैन मतानुसार सूर्य और चंद्रमा ग्रह ही नहीं है!तत्वार्थसूत्र के अनुसार,सूर्य,चंद्रमा,ग्रह,नक्षत्र,तारे पांच ज्योतिष्क देव है!
हम अपने परिग्रहों के कारण ग्रहों, कालसर्प योग आदि से डरते है!सम्यगदृष्टि कभी नहीं डरता क्योकि उसे मालूम है की जब तक लाभान्तराय का उदय नहीं तब तक रुपया जाने वाला नहीं है,आयुकर्म जब तक है कोई मरने वाला नहीं,इसलिए वह इनसे नहीं डरता !
जो कहते है नवग्रह विधान में भगवान् की पूजा ही तो है,पूजा करने में क्या हानि हो सकती है?
समाधान-
विधान करने में हमारा आशय गलत है, हम विधान में भगवान् की पूजा इस आशय से कर रहे है की नवग्रह से होने वाला अनिष्ट शांत हो जाए/टल जाए! नवग्रह से डरने की आवश्यकता नहीं है! पंचम काल में मिथ्यात्व का बहुत प्रचार-प्रसार हो रहा है,हमें जबरदस्ती मिथ्यात्व की ऒर ढ़केला जा रहा है! स्वकल्याण के लिए इनसे हमें बचना अत्यंतआवश्यक है!प्रथमानुयोग के किसी भी ग्रन्थ में एक भी उद्धाहरण ऐसा नहीं है जिसमें वर्णन हो की राजा ने काल सर्प योग विधान अथवा नवग्रह विधान करवाया हो!
अनेक साधु नवग्रह अरिष्ट निवारक विधान करवा रहे है और पूजा की पुस्तकों में भी इन विधानों की पूजा मिलती है, यह सब क्यों हो रहा है?ऐसा होना उचित नहीं है!
ये आयोजको का भोले भाले जीवों से लाभ अर्जित करने का माध्यम है और कुछ नहीं! इनको हमारी पूजन की पुस्तकों में प्रकाशकों ने इसलिए समावेशित कर लिया है जिससे आराधक शनि के प्रकोप का निवारण के लिए अन्य मतियों के पास नहीं जाये, यद्यपि वे स्वयं जानते है की नवग्रह कुछ भी नहीं करते! ऐसा नहीं कर,स्पष्ट लिखना चाहिए की नवग्रह हमारा कुछ नहीं बिगाड़ते! उन्होंने पूजा छाप दी और हम अज्ञानी बिना,सोचे समझे पूजा करने लग जाते है!
आजकल विधानों में देखने में आता है,देवी देवताओं के अर्घ समावेशित कर दिए और हम अज्ञानी भोले भाले, बिना समझे, उन पूजाओं को करने लगे,अर्घों को चढाने लगे! विचारये, हम लोग जैनमत को क्यों नष्ट कर रहे है!ये नवग्रह निवारक विधान जैन आगम के अनुसार नहीं है!
नव ग्रह अरिष्ट निवारक मंदिर बनाये जा रहे है जिनमे भगवान् की प्रतिमा विराजमान करी जा रही है, इसमें क्या आपत्ति है?
दर्शनार्थी, इन मंदिरों में इस नवग्रह निवारण की भावना, की नवग्रहों से उनका अनिष्ट नहीं हो, रख कर पूजा करने जाएगा, जिसके फलस्वरूप वह मंदिर में घुसने से पहले ही मिथ्यादृष्टि हो जायेगा वह पूजा क्या करेगा !ऊपर लिखा है "नव ग्रह अरिष्ट निवारक मंदिर "!जब नवग्रह अनिष्ट होता ही नहीं ,तो उसका निवारक मंदिर कैसे होगा? उस मंदिर को लिखना चाहिए "चन्द्र प्रभु भगवान् का मंदिर "!जिन लोगो ने इस प्रकार के बोर्ड लगा रखे है उन्हें बदलवाना चाहिए ताकि भोले भले लोग भ्रमित नहीं हो!
मुनिसुव्रतनाथ भगवान् के मंदिर में गत ५-६ वर्षों से, शनिवार को बहुत भीड़ देखने में आने लगी है क्यों?
लोगो में गलत धारणा है कि, 'मुनिसुव्रतनाथ भगवान् शनि के प्रकोप को दूर कर देते है ' इसलिये शनिवार को उनकी पूजा करने वालों की भीड़ होती है! यह बिलकुल गलत धारणा है क्योकि सभी सिद्ध भगवानों में सामान शक्ति होती है ,यह मानना कि मुनिसुव्रत भगवान् शनि का प्रकोप ,चन्द्र प्रभु भगवान् सोम के कष्ट, के निवारक है! पार्श्वनाथ भगवान् -संकट मोचक है,शांति नाथ भगवान् -शांति दाता, ऐसे मान्यताये मिथ्यात्व है! जो शांतीनाथ भगवान् कर सकते है वो ही बाकी भी कर सकते है! हम लोग किसी भी वीतराग भगवान् की पूजा कर अपने असातावेदनीय कर्म का संक्रमण,साता वेदनीय में करते है, जिससे सांसारिक सुख और परम्परा से मोक्ष मिलता है!
दक्षिण भारत में आज कल शनि अमावस्या महत्व कहा तक उचित है?
किसी भी जैनशास्त्र में नहीं लिखा है कि, शनि यदि अमावस्य को पड़े तो महान पर्व होता है! हमारे पर्व शनि और अमावस्या दोनों ही नहीं है,अन्य मतियों के है,इन्हें उन्ही का रहने देना चाहिए! उनके पर्वों को हम जैनपर्वों में क्यों समावेशित कर रहे है! इन गलत धारणों से हमें बचना चाहिए,क्योकि मिथ्यात्व है!
शनि के साढ़े सातसती -यह भी कालसर्प योग आदि की तरह एक पाखण्ड है और कुछ नहीं है!
निष्कर्ष-हमें विवेकी होना है,नवरात्रि से कुछ लेना देना नहीं,नवग्रह के प्रकोप से डरने का कोई काम नहीं, ग्रह हमारा कुछ भी निष्ट/अनिष्ट नहीं कर सकते,कालसर्प योग कुछ नहीं होता यह पंडितों का धनार्जन हेतु मक्कड़ जाल है,साढ़े सात सती दिमाक से हटा दीजिये,शनि अमावस्या जैन धर्म में कुछ नहीं है इन सबसे बचना हमारा कर्त्तव्य है अन्यथा हम मिथ्यात्व में ही रहेंगे जिससे जन्मो तक मुक्त नहीं हो पायेगे!पापों के दूर करने के लिए हमारे पास सर्व शक्तिशाली अस्त्र ‘णमोकारमन्त्र’ है!हमारे नवदेवता अराध्य
पञ्चपरमेष्टि,जिनमंदिर,जिनवाणी,जिनबिम्ब,जिनधर्म है इसके अतिरिक्त अन्य कोई नहीं! हम उन अर्हन्त देवों की पूजा करते है जिनके समक्ष, शरण में १०० इंद्र निरंतर हाथ जोड़े खड़े रहते है!
मिथ्यादृष्टि जीव कुदेव,कुगुरु,कुशास्त्र का श्रद्धां अनादी काल से करता आ रहा है!मिथ्यात्व से छुटने के लिए सच्चे देव,शास्त्र,गुरू का ज्ञान होना आवश्यक है!
सच्चे देव वीतरागी, सर्वज्ञ और हितोपदेशी है!
सच्चे शास्त्रों के सन्दर्भ में रत्नकरंडश्रावकाचार में एक श्लोक ह
“आप्तोपज्ञमनुल्लंघ्यमदृष्टेष्टविरोधकम्।
तत्वोपदेशकृत्सार्व शास्त्रं कापथघट्टनम् “!!
संधि विच्छेद- आप्तोपज्ञं अनुल्लंध्यम् अदृष्टेष्टविरोधकम् तत्वोपदेशकृत् सार्वं शास्त्रं कापथघट्टनम्-
अर्थ–आप्तोपज्ञं-जो आप्त,सर्वज्ञ द्वारा कहा गया हो,वर्तमान में सर्वज्ञ द्वारा कहा गया हुआ कोई शास्त्र दिखता नहीं, ऐसी बात नहीं है,जैसे सर्वज्ञदेव ने अपनी दिव्यध्वनि द्वारा कहा,तदानुसार गन्धरदेव ने उसका प्रतिपादन किया,आचर्यो ने उसको सुनकर शास्त्रों में ज्यो का त्यों लिपिबद्ध किया,उसी के अनुसार हमारी शास्त्र परम्परा चली आ रही है! आचार्य सत्यमहाव्रती होते है अपनी मर्जी से कुछ भी नहीं लिखते है! सर्वप्रथम जो सर्वज्ञदेव द्वारा कहा गया, गन्धर देव द्वारा गुथित और आचार्यों द्वारा लिपिबद्ध किया गया है, सच्चे शास्त्र है
अनुल्लंध्यम्-अन्य मतियों द्वारा अखंडित हो,इसका कोई उल्लंघन नहीं करे,अदृष्टेष्टविरोधकम्-प्रत्यक्ष-इष्ट /अनुमान आदि के विरोध से रहित हो,तत्वोपदेशकृत् -तत्वों का उपदेश करने वाला हो.सार्वं-सब के लिए हितकारी/ कल्याणकारी हो शास्त्रं - वह शास्त्र हमारे स्वाध्याय करने योग्य है,कापथघट्टनम्-मिथ्या मार्ग का निराकरण करने वाला हो
भावार्थ- जिस शास्त्र में अनेकांत रूप से वस्तुस्वरुप का प्रतिपादन हो! जैसे कुछ पंथ वर्तमान में एकांत से अर्थात केवल निश्चयनय से ही वस्तुस्वरुप का प्रतिपादन कर,व्यवहार नय को छोड़ रहे है! वे चारित्र को छोड़ कर,मात्र स्वाध्याय पर बल देते है!इसीलिए उनके द्वारा रचित शास्त्रों का स्वाध्याय नहीं करना चाहिए! इनके स्वाध्याय करने से बुद्धि विकृत होगी, हम मिथ्यात्व का पोषण करेंगे! जो शास्त्र अनेकांत से वस्तु स्वरुप का प्रतिपादन करते हो,स्यादवाद के द्वारा कहे गए हो,हमारे स्वाध्याय योग्य है!
शास्त्रों का स्वाध्याय करते समय ध्यान देने योग्य बाते!-
१-स्वाध्याय के लिए, सच्चे आगम सम्मत,शास्त्रों का चयन करना आवश्यक है! उद्धाहरण के लिए बीसवी सदी के आचार्य सुधर्मसागर द्वारा रचित,सुधर्म श्रावकाचार आगम सम्मत नहीं है 'पंचाध्यायी'-पण्डे राजवनरोगन जी ने १६ वी सदी में रचा है,ये आगम सम्मत शास्त्र नहीं है! इसमें लिखा है की चौथे गुणस्थान में शुद्धोपयोग है ऐसा मानने से हमारी बुद्धि विकृत हो जायेगी! 'त्रिवर्णाचार'- में अनेकों बाते आगम सम्मत नहीं है, अत: इनका स्वाध्याय नहीं करे अन्यथा विचार आगम विरुद्ध हो जायेगे!
२- शास्त्र के रचियता,टीकाकार ,भावार्थ कर्ता की प्रमाणिकता जानना अत्यंत आवश्यक है,क्योकि भावार्थ कर्ता,अपने मत की पुष्टि के लिए भाव ही बदल रहे है!
३- उनमे भावार्थ आगम सम्मत होने चाहिए,टीकाकार जो अपने विचार लिखता है उन्हें भावार्थ कहते है!सोनगढ़ से एक तत्वार्थसूत्र की टीका का प्रकाशन हुआ जिसमे तत्वार्थसूत्र के दसवे अध्याय के सूत्र ८ ''धर्मास्तिकायाभावात्" का अर्थ टीकाकार ने किया की,“द्रव्य का अभाव होने से,सिद्ध आत्माये लोकांत तक जाती है!” किन्तु, भावार्थ टीकाकार ने बिलकुल गलत,आगम के विरुद्ध कर दिया की,"सिद्ध आत्माओं में लोकांत तक गमन करने की ही शक्ति होती है इसलिए उससे ऊपर नहीं जाती है”!जबकि आत्मा में तो अनंत शक्ति होती है!वे चूँकि निमित्त को नहीं मानते,इसलिए उन्होंने धर्मस्तिकाय,जो की गमन में निमित्त है, को नहीं मानते हुए,आत्मा की सामर्थ्य को ही कम कर,लोकांत तक ही जाने का सामर्थ्य बताया है! यह तत्व का प्रतिपादन गलत हो गया! यह कथन आगम विरुद्ध है,मिथ्यात्व का पोषण करने वाला है! ऐसे शास्त्रों का स्वाध्याय करने से हम केवल स्वाध्याय को ही उपयोगी मानेगे और चरित्र को शून्य, जो की आगम सम्मत नहीं है!इसके फलस्वरूप तत्वों का गलतश्रद्धानं होने के कारण मिथ्यात्व की ऒर अग्रसर करेगे! ऐसे आगम विरोधी शास्त्रों के स्वाध्याय से हमारा अभिप्राय गलत होजाएगा, हम मिथ्यादृष्टि बन जायेगे! सम्यग्दृष्टि नहीं बन पायेगे जो की हमारा वास्तविक ध्येय है!
अन्यमतियों के शास्त्रों का अध्ययन करना उचित है या अनुचित १-अन्य मतियों के द्वारा रचित शास्त्र न तो सर्वज्ञ द्वारा कहे गए है,न ही गन्धर देव द्वारा गुथित है और न ही दिगंबर जैन आचार्यों द्वारा लिपिबद्ध है,इसलिए स्वाध्याय करने योग्य नहीं है
२-जिन्होंने स्वयं मोक्ष प्रोप्त नहीं किया वे मोक्ष मार्ग का प्रतिपादन नहीं कर सकते है! अन्य मतों के शास्त्रों मे जीव हिंसा की पुष्टि है,कषायों की पुष्टि है अत: वे शास्त्र अध्ययन करने योग्य नहीं है! कुछ लोगे की धारणा है की, अन्य मतियों के शास्त्रों में भी आत्मा सम्बन्धी चर्चा है, उनमे भी अहिंसा के पालन लिखा है! कही कही एक दो बिंदु सही लिख दिया किन्तु निश्कर्ष में तो कोई भी हितकारी, कल्याणकारी नहीं है क्योकि वे सात तत्वों ,नव पदार्थों का प्रतिपादन नहीं करते! उनके यहाँ ये नव पदार्थ आदि है ही नहीं! उनके यहाँ कर्म सिद्धांत,स्यादवाद, अनेकांत है ही नहीं,समस्त वस्तुओं का प्रतिपादन वहां एकांत से है इसलिएउन्हें नहीं पढना चाहिए !यदि कोई अन्य मतियों के शास्त्रों को उनमें कमियों को जान्ने की इच्छा से पढना चाहता है तब भी अपने शास्त्रों में परिपक्वता प्राप्त करने तक नहीं पढना चाहिए क्योकि परिपक्वता प्राप्त होने के बाद जैन शास्त्रों में दृढ श्रद्धां हिल नहीं पायेगा और उस दृढ़ता में वृद्धि होगी क्योकि अन्य मतियों के शास्त्रों में वह नहीं है जो हमारे शास्त्रों में है!
अन्य मत के शास्त्रों का उद्धारहण भी नहीं देना चाहिए! क्योकि इससे जैनमतियों का रुझान अन्यमतियों के शास्त्रों,साहित्य की ऒर हो सकता है!