12-05-2024, 07:15 AM
इष्टोपदेश
यस्य स्वयं स्वभावाप्तिरभावे कृत्स्नकर्मणः । तस्मै सञ्ज्ञानरूपाय नमोऽस्तु परमात्मने ।। 1 ।।
अन्वयार्थ - (यस्य) जिने भगवान् के (कृत्स्नकर्मणः) समस्त कर्मों का (अभावे) अभाव हो जाने पर (स्वयं) अपने आप (स्वभावाप्तिः ) स्वभाव की प्राप्ति हो गयी है (तस्मै) उस (संज्ञानरूपाय) अनन्तज्ञान स्वरूप (परमात्मने) परमात्मा के लिए (नमः अस्तु) नमस्कार हो ।
भावार्थ - जिस तरह दर्पण पर तैल, धूल आदि लग जाने पर उसकी चमक ढक जाती है, उसमें मुख दिखाई नहीं देता है और जब वह मैल साफ कर दिया जाता है तब सभी वस्तुऐं साफ झलकने लगती हैं, इसी तरह ज्ञानावरणादि कर्मों से आत्मा का अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख आदि स्वभाव ढक जाता है, जब वे ज्ञानावरण आदि कर्म शुक्लध्यान द्वारा आत्मा से दूर हो जाते हैं, तब आत्मा अपने स्वच्छ ज्ञान, सुख आदि स्वभाव को प्राप्त कर सिद्ध परमात्मा बन जाता है। ग्रन्थकार ने इष्टोपदेश ग्रन्थ प्रारम्भ करते हुये उन्हीं सिद्ध परमात्मा को नमस्कार किया है।
उत्थानिका-"स्वयं स्वभावाप्तिः" इस पद को सुन शिष्य बोला- भगवन् आत्मा को स्वयं ही सम्यक्त्व आदि अष्ट गुणों की अभिव्यक्ति रूप स्वरूप की उपलब्धि कैसे हो जाती है? क्योंकि स्व-स्वरूप की स्वयं प्राप्ति को सिद्ध करने वाला कोई दृष्टान्त नहीं पाया जाता है और बिना दृष्टान्त के उपर्युक्त कथन को कैसे ठीक माना जा सकता है ? आचार्य इस विषय में समाधान करते हुए कहते हैं -
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यस्य स्वयं स्वभावाप्तिरभावे कृत्स्नकर्मणः । तस्मै सञ्ज्ञानरूपाय नमोऽस्तु परमात्मने ।। 1 ।।
अन्वयार्थ - (यस्य) जिने भगवान् के (कृत्स्नकर्मणः) समस्त कर्मों का (अभावे) अभाव हो जाने पर (स्वयं) अपने आप (स्वभावाप्तिः ) स्वभाव की प्राप्ति हो गयी है (तस्मै) उस (संज्ञानरूपाय) अनन्तज्ञान स्वरूप (परमात्मने) परमात्मा के लिए (नमः अस्तु) नमस्कार हो ।
भावार्थ - जिस तरह दर्पण पर तैल, धूल आदि लग जाने पर उसकी चमक ढक जाती है, उसमें मुख दिखाई नहीं देता है और जब वह मैल साफ कर दिया जाता है तब सभी वस्तुऐं साफ झलकने लगती हैं, इसी तरह ज्ञानावरणादि कर्मों से आत्मा का अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख आदि स्वभाव ढक जाता है, जब वे ज्ञानावरण आदि कर्म शुक्लध्यान द्वारा आत्मा से दूर हो जाते हैं, तब आत्मा अपने स्वच्छ ज्ञान, सुख आदि स्वभाव को प्राप्त कर सिद्ध परमात्मा बन जाता है। ग्रन्थकार ने इष्टोपदेश ग्रन्थ प्रारम्भ करते हुये उन्हीं सिद्ध परमात्मा को नमस्कार किया है।
उत्थानिका-"स्वयं स्वभावाप्तिः" इस पद को सुन शिष्य बोला- भगवन् आत्मा को स्वयं ही सम्यक्त्व आदि अष्ट गुणों की अभिव्यक्ति रूप स्वरूप की उपलब्धि कैसे हो जाती है? क्योंकि स्व-स्वरूप की स्वयं प्राप्ति को सिद्ध करने वाला कोई दृष्टान्त नहीं पाया जाता है और बिना दृष्टान्त के उपर्युक्त कथन को कैसे ठीक माना जा सकता है ? आचार्य इस विषय में समाधान करते हुए कहते हैं -
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