आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज द्वारा पद्यानुवाद एवं विवेचना

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गाथा 4

उत्थानिका – शंका का निराकरण करते हुए आचार्य बोले “व्रतादिकों का आचरण करना निरर्थक नहीं है” (अर्थात् सार्थक है)। इतनी ही बात नहीं, किन्तु आत्म भक्ति को अयुक्त बतलाना भी ठीक नहीं है। इसी कथन की पुष्टि करते हुए आगे श्लोक लिखते हैं-

यत्र भावः शिवं दत्ते द्यौः कियद्दूरवर्तिनी ।

यो नयत्याशु गव्यूतिं क्रोशार्धे किं स सीदति ?॥४॥

अन्वयार्थ – (यत्र भावः) जहाँ भाव (शिवं दत्ते) मोक्ष को देता है [वहाँ] (द्यौः) स्वर्ग की प्राप्ति (कियद्दूरवर्तिनी) कितनी दूर है ? (यः गव्यूतिं) जो मनुष्य दो कोश तक (आशु नयति) [भार को] शीघ्र ले जाता है। (सः) वह (क्रोशाधे) आधा कोश ले जाने में (किं सीदति) क्या दुःखी हो सकता है ? अर्थात् नहीं ।

जिन-भावों से नियम रूप से, मिलता है जब शिवपुर है,

उन भावों से भला! बता दो, क्या? ना मिलता सुर-पुर है।

द्रुतगति से जो वाहन यात्रा, कई योजनों की करता,

अर्ध-कोश की यात्रा करने में भी क्या? वह है डरता ॥४॥

The soul that is capable of conferring the divine status when medi- tated upon, how far can the heavens be from him? Can the man who is able to carry a load to a distance of two koses feel tired when carrying it only half a kos?

Note – This verse is intended to settle the doubt that might now arise in the mind as to the respective merits of self-contemplation and the obser- vance of vows. especially in regard to the ability of the former to secure a rebirth in the heavenly-regions. The answer is that the soul’s contemplation cant grant both moksha as well as heavens, which are much nearer so to speak; since he who can easily cover a distance of four miles with out being fatigued is not likely to experience trouble in going only a mile. Self-con- templation thus, is much superior to the mere observance of vows, though the latter are able to lead to heavens for the time being.

विवेचना-जिन भावों के द्वारा मुक्ति का लाभ होता है उनके द्वारा स्वर्ग प्राप्ति की बात सोच रहे हो! यह अपने आपमें एक विरोधाभास है, क्योंकि जिसके द्वारा महान् वस्तु का लाभ होता है, उसके द्वारा जघन्य वस्तु की प्राप्ति की बात तो सोचना ही नहीं चाहिए। यह निश्चित बात है कि रत्नत्रय के द्वारा यदि अलौकिक वस्तु मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती तो स्वर्ग की प्राप्ति तो अवश्य ही होगी। वहाँ पर भी सामान्य देव नहीं, देवेन्द्र बन सकता है।

जैसा कि आचार्य समन्तभद्रस्वामी जी ने अपनी अनुपम कृति रत्नकरण्डक श्रावकाचार में लिखा है-

देवेन्द्रचक्रमहिमानममेयमानं,

राजेन्द्रचक्रमवनीन्द्रशिरौर्चनीयं ।

धर्मेन्द्रचक्रमधरीकृतसर्वलोकं,

लब्ध्वा शिवं च जिनभक्तिरुपैति भव्यः ॥४१॥

सम्यग्दृष्टि जीव देवेन्द्र, चक्रवर्ती जिसके संकेत पर ३२००० मुकुटबद्ध राजा कार्य करते हैं, मनचाही चीज उनके चरणों में समर्पित करते हैं, उसके साथ ही एक बड़ा पद धर्मेन्द्र चक्र का भी है जो तीनलोक में तहलका मचाने वाला होता है। सारे के सारे आकर्षण के केन्द्र जिसकी ओर आकर्षित हो जाते हैं। रूप की अपेक्षा, भवितव्य की अपेक्षा, लाभ, हुकुमत, वैभव की अपेक्षा, ज्ञान के क्षयोपशम की अपेक्षा आदि जो कोई भी अच्छी वस्तुयें हैं वे सारी की सारी केन्द्रित हो जाती है, आश्रय पा जाती हैं, जिस प्रकार ढलान पर पानी डालो तो लुढ़कता चला जाता है, उसी प्रकार तीन लोक का सारा वैभव लुढ़कते-लुढ़कते जिनके चरणों में आश्रय पा जाता है ऐसे उस धर्मेन्द्र अर्थात् तीर्थंकर पद को सम्यग्दृष्टि जीव प्राप्त करता है।

तीर्थंकर का अर्थ समझते हो…? जिससे संसार से तिरा जाये उसे तीर्थ कहते हैं। ऐसे तीर्थ के जो निर्माता या सम्पादक होते हैं वे तीर्थंकर कहलाते हैं। जिनके जन्म से ही तीर्थ प्रारम्भ हो जाता है। यहाँ तक की अभी वे स्वर्गों में ही हैं किन्तु मनुष्य लोक में सुख शांति का विस्तार प्रारम्भ हो जाता है क्योंकि वे तीन लोक के नाथ माने जाते हैं। छः खण्ड के अधिपति चक्रवर्ती माने जाते हैं, लेकिन तीर्थंकर तीन लोक के अधिपति माने जाते हैं। वे लोक को एक प्रकार से हिला देते हैं। संसार का पूरा वैभव उनके पास होता है। नहीं चाहते हुए भी सारा वैभव उनके पास आ जाता है। ऐसा क्यों…? उन्होंने धर्म की साधना की है, साधना करने वालों को अनेक प्रकार का श्रेय मिलता है और फिर, तीर्थंकरों के द्वारा जो साधना, उपासना होती है वह तो अद्भुत और अलौकिक होती है। तीर्थंकरों के वर्तमान काल में तो साधना होती ही हैं लेकिन अतीत में भी उन्होंने ऐसी-ऐसी भावनायें भायी कि सभी प्रजा का, राजाओं का कल्याण हो। सभी सत्पथ पर चले, सभी को ऐसा दिव्यनेत्र प्राप्त हो जिसके द्वारा वे अपनी आत्मा का अवलोकन कर सकें। सोलहकारण भावनाओं के फलस्वरूप तीर्थंकरत्व प्राप्त होता है। बारह भावना और सोलहकारण भावना में बहुत अन्तर होता है। “बारहभावना वैराग्य प्राप्ति के लिए कारण होती है, लेकिन सोलहकारण भावना वैराग्य के वातावरण के निर्माण में कारण होती है।”

तीर्थंकर का जीवन एक ऐसे मंच के समान होता है जिसमें बहुत सारे आकर्षण केन्द्र होते हैं, जिसके फलस्वरूप असंख्यात जीव एक साथ अपना कल्याण कर लेते हैं। धार्मिक भावना भाने से इस प्रकार के पद मिलते हैं, साथ में विषय और कषायों से बचने से ऐसे परिणाम निकलते हैं। केवल विषयों से बचने का नाम सम्यक् चारित्र नहीं है, किन्तु विषय और कषायों से बचने का नाम चारित्र है। हालांकि विषयों से बचने से व्यक्ति कषायों से भी बच जाता है और विषयों के सामने रहने से कषायें उद्दीप्त हो जाती है। कषायों के उद्दीप्त होने से हमारे परिणाम क्षुब्ध हो जाते हैं। परिणाम क्षुब्ध होने से हमारा भविष्य बिगड़ जाता है। इसलिए कषायों से बचने के लिए विषयों से बचना आवश्यक है। रत्नत्रय की आराधना करने का मुख्य लक्ष्य भी यही होता है कि जब तक संसार में हैं तब तक विषय-कषायों से बचें। ऐसा करने से रत्नत्रय का आराधक निश्चित रूप से शिवफल को प्राप्त कर सकता है जब तक शिवफल नहीं मिलता तब तक के लिए बीच में देवेन्द्र, चक्रवर्ती आदि पदों के रूप में फल को प्राप्त करता है, इसी को ‘लब्ध्वा’ इस शब्द से स्पष्ट किया है कि जिनेन्द्र भगवान् का जो भक्त होता है, वह क्या करता है? इन समस्त पदों को प्राप्त करता हुआ, अन्त में शिवपद को प्राप्त कर लेता है।

प्रश्न-जिनेन्द्र भगवान् का भक्त क्या करता है?

उत्तर-जिनेन्द्र भगवान् का भक्त भगवान् की भक्ति करके सम्यग्दर्शन प्राप्त करके देवेन्द्र, राजेन्द्र-चक्रवर्ती आदि पदों को प्राप्त करके मुक्ति को प्राप्त करता है।

आचार्य समन्तभद्र स्वामी जैसे बुद्धिमन्त महान् दार्शनिक ने अपनी कृति “रत्नकरण्डक श्रावकाचार” में सम्यग्दर्शन का महत्त्व दर्शाते हुए अनेक श्लोकों की रचना की है। उन्होंने कहा है कि-संसारी प्राणी अनन्तसुख चाहते हुए भी सम्यग्दर्शन के द्वारा सांसारिक सुख मिलता है या नहीं, यह भी देखना चाहता है। आचार्य महाराज ने कहा-जिसके द्वारा मुक्ति मिलेगी उसके द्वारा भुक्ति क्यों न मिलेगी, लेकिन लक्ष्य भुक्ति का नहीं मुक्ति का होना चाहिए। यदि भुक्ति का लक्ष्य होता है तो मुक्ति नहीं मिलेगी। मुक्ति का साधन रूप भुक्ति तभी तक आवश्यक है जब तक मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती क्योंकि भुक्ति एक प्रकार से पेट्रोल का काम करती है। आप गाड़ी क्यों खरीद लेते हैं? पेट्रोल डालने की अपेक्षा से या यात्रा करने की अपेक्षा से ? उसी प्रकार आचार्य कहते हैं मुक्ति की यात्रा के लिए भक्ति और भुक्ति रूपी पेट्रोल स्वतः ही मिलेगा। कंपनी से गाड़ी निकलने से पहले उसकी खुराक उसमें रखी रहती है फिर बाद में गाड़ी बाहर आती है क्योंकि बिना पेट्रोल के गाड़ी बाहर कैसे निकलेगी ? पेट्रोल तो पहले आवश्यक है। जिसको सामने मुक्ति नजर आ रही है उसको तो हमेशा मुक्ति के लिए भक्ति करते चले जाना चाहिए, भुक्ति रूपी पेट्रोल स्वयं मिलता चला जायेगा इसलिए पेट्रोल की चिंता मत करो, यात्रा की चिंता करो।

हिन्दू समाज में तो ऐसा कहते हैं कि फल की इच्छा न करते हुए कर्म करते जाना चाहिए। एक ज्ञानयोग होता है और एक कर्मयोग। ज्ञानयोग साधु संन्यासियों को होता है और कर्मयोग उनके अनुचरों को होता है, जो घरों में रहते हैं। वे कर्म तो करेंगे लेकिन फल की ओर दृष्टि नहीं रखेंगे। महाराज ! यह तो और कठिन है। सब जगह कठिनाई ही कठिनाई है। घर में भी कठिनाई और बाहर भी कठिनाई।

आप सामायिक नहीं कर सकते हैं, तो रसोई बनाओ, लेकिन एक शर्त है कि जो सामायिक करते हैं, उनका भोजन जब तक नहीं होगा तब तक तुम भी भोजन नहीं कर सकते। यह तो बहुत बड़ी शर्त हो गई। रसोई घर में रहना और भोजन नहीं करना। मंदिर में रहो या घर में रहो, लेकिन भोजन नहीं करो। किसी श्रावक को यदि यह स्वीकार होता है और वह सामायिक करने वाले को भोजन कराने के उपरान्त स्वयं भोजन करता है तो परिणाम रूप से हम यह कह सकते हैं कि पहले वह मोह के कारण भोजन बनाता था, अब वह भक्ति के कारण बना रहा है। अतिथि के लिए, व्रतियों के लिए भोजन बना रहा है इसलिए पहले स्वयं भोजन नहीं करता, अतिथि को आहार देकर स्वयं संतुष्ट हो जाता है। वह सोचता है आज जो अतिथि सत्कार का शुभ अवसर प्राप्त हुआ, आज यह मेहमान हमारे घर आये हैं, अतिथि आये उनको आहार करा दिया अब हम भोजन कर लेंगे। इस विवेचना से अपने को यह देखना कि सामने इन्द्रियों के विषय उपस्थित होने के बाद भी उसका मन कैसे पलट गया ? यह इसलिए पलट गया कि अतिथि के आने से मुक्ति सामने होते हुए  भी भक्ति की ओर मन चला जाता है और श्रावक ऐसा आनंदित होता हुआ कहता है कि हम तो ऐसा हमेशा करने के लिए तैयार हैं। अपने कर्तव्य के प्रति जागरुक हो जाता है। वह सोचता है कि अब मुझे और कौन सी इच्छा करनी है। बस मेहमान को तृप्त करने की भावना है और साधु की भक्ति करने में लग जाता है। हाँ इसी भक्ति के माध्यम से वह “लब्ध्वा शिवं च” अर्थात् इन्द्र का वैभव पा जाता है। नीचे आने पर चक्रवर्ती, बलभद्र या तीर्थंकर हो जाता है। तीर्थंकर पद तीन लोक के वैभवशाली पदों में अंतिम पद है। यह वैभवशाली पद चाहने से नहीं मिलता, निदान के माध्यम से चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण पद तो मिल सकते हैं, पर तीर्थंकर का पद निदान से नहीं मिलता, ऐसा पुराणों में उल्लेख है। यदि सोलहकारण भावना भा लेते हैं और तीर्थंकरप्रकृति का बन्ध कर लेते हैं तो निश्चित रूप से इस प्रकार के पद की प्राप्ति हो सकती है। चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण बनने के लिए पूर्व में निश्चित रूप से मुनि पद धारण करके रत्नत्रय की आराधना आवश्यक है, परन्तु तीर्थंकरप्रकृति के बन्ध के लिए मुनि पद धारण करने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन सम्यग्दर्शन होना अनिवार्य है और सम्यग्दर्शन के साथ सोहलकारण भावना भाना भी आवश्यक है। कैसी भावना ? निर्दोष भावना भायी जाती है दर्शनविशुद्धि आदि। दर्शन के प्रति विशुद्धि का अर्थ क्या ? क्या केवल सम्यग्दृष्टि की भावना निर्दोष मानी जायेगी ? क्या क्षायिक सम्यग्दृष्टि ही तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध कर सकता है? नहीं-नहीं ऐसा कुछ भी नहीं है क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि और उपशम सम्यग्दृष्टि भी निर्दोष सोलहकारण भावनाओं के द्वारा तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध कर सकते हैं। राम को तीर्थंकर होने का सौभाग्य नहीं मिला लेकिन रावण, लक्ष्मण को मिलेगा यह निश्चित हो गया। सोचने की बात है कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम उस प्रकार के भाव नहीं कर पाये जबकि उनको परोपकारी, परिश्रमी, निरीह, प्रेम-वात्सल्य युक्त, प्रजावत्सल आदि अनेक उपाधियाँ प्राप्त थीं। इससे यह फलित होता है कि सम्यग्दर्शन अकेला रहकर भी तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध करा सकता है, किन्तु नारायण, प्रतिनारायण पद प्राप्त करने के लिए पूर्व में निश्चित रूप से मुनि बनना पड़ता है।

अन्ततः यह अर्थ निकलता है कि भक्ति भाव के द्वारा उस सम्यग्दृष्टि को जब तक मुक्ति नहीं मिलती तब तक उच्च पदों को प्राप्त करता है, पश्चात् अगले भवों में निश्चित ही शिव को प्राप्त करने के योग्य होता है। यदि किसी के यहाँ आप मेहमानी को चले गये, भोजन का समय है और कोई यह कहे कि हमारे दादाजी बारह बजे आयेंगे। तब तक क्या मेहमान को भूखा रखेंगे ? इसके बीच मेहमान को नाश्ता का प्रबन्ध किया जाता है ताकि उसकी भूख न मर पाये। नाश्ता पेट भर नहीं करवाते अन्यथा बारह बजे भोजन कैसे करेंगे ? नाश्ता में आस्था नहीं, किन्तु भोजन में आस्था होती है और भोजन में आस्था बनाये रखने के लिए नाश्ता होता है। उसी प्रकार मुक्तिरूपी भोजन प्राप्त करने की आस्था बनाये रखने के लिए भक्ति रूपी नाश्ता के प्रति आस्था बनाये रखना आवश्यक होता है। उस भक्ति के फलस्वरूप उसे वर्तमान में मुक्ति की प्राप्ति भले ही न हो पर नाश्ते के रूप में स्वर्ग आदि उच्च पदों की प्राप्ति अवश्य होती है। देखो, संसार में रहते हुए भी यदि किसी का लक्ष्य बदल जाता है तो कितना परिवर्तन आ जाता है। सारे के सारे भोग व्यर्थ हो जाते हैं। सारे के सारे रोग चले जाते हैं तथा सामने योग की तैयारी हो जाती है। रोग तो शरीर में है आत्मा में नहीं। देखो, दृष्टि कितनी बदल गई, बहुत परिवर्तन हो जाता है। वह योगी सोचता है कि ये रोग तो शरीर के हैं, भोग आत्मा के लिए नहीं हैं। यह तो शरीर बनाये रखने के लिए हैं लेकिन भोग तो आत्मा की शुद्धिकरण के लिए हैं। इस प्रकार जब दृष्टि में परिवर्तन आ जाता है तब वह निश्चित रूप से संसार में रहते हुए भी विषय कषायों से बचता चला जाता है।

महाराज ! आज कुछ ऐसे व्यक्तित्व भी देखने को मिलते हैं कि जब-जब देखो उसमें देवता का रूप ही दिखाई देता है। कषाय की भूमिका में रहते हुए भी कषाय नहीं करता है, इसी का नाम तो देवता है, मंदकषायी है। भरत घर में वैरागी थे, तो उनको पूजना चाहिए था, ऐसा नहीं। वैरागी का मतलब यह है कि इतना सारा का सारा वैभव बत्तीस हजार मुकुट बद्ध राजा, सब कुछ होते हुए भी वे भगवद्भक्ति करना नहीं भूलते थे, चक्रवर्ती थे, अविरति थे, संयम से बिल्कुल दूर थे “गेही पे गृह में न रचे ज्यों” प्रवृत्ति वाले थे। महापुराण में भरत चक्रवर्ती का उल्लेख करते हुए लिखा है कि वे तीनों सन्ध्याकालों में सामायिक करने बैठ जाते थे। बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा जिनके चरणों में बैठ जाते थे और भरत चक्रवर्ती तीनों संध्याओं में सामायिक करने बैठ जाते थे। संयमी मुनिराज ही भगवान् की भक्ति और सामायिक आदि करते हैं, ऐसा कोई नियम नहीं है। भरत चक्रवर्ती स्वयं उत्साहित होकर सामायिक के लिए उठते थे। तुम्हें उठाना पड़ता है लेकिन चक्रवर्ती को उठाना नहीं पड़ता ।

ब्रह्ममुहूर्त में उठने वाले महापुरुष होते हैं और उसमें सोने वाले कौन होते हैं? सोचो, आलसी, प्रमादी होंगे। उन्हें यह सब वैभव प्राप्त नहीं होता। चक्रवर्ती होते हुए भी तीनों संध्या कालों में तीन लोक के नाथ आदिनाथ भगवान् की स्तुति में लीन हो जाते हैं। आष्टाह्निक पर्षों में वे मुनि की भाँति भगवान् की भक्ति में तल्लीन हो जाते हैं। साथ में ९६००० रानियाँ, सब एक से एक अप्सरा जैसी मानों आर्यिकायें बैठी हों, उन्हें देखकर ऐसा लगता है जैसे कि पूरा का पूरा संघ बैठा हो। सफेद वस्त्र पहनकर ९६००० रानियाँ धर्मचर्चा में लीन हैं “जो मुक्ति की ओर आकर्षित होता है वह भक्ति करने वाला भक्त सामने सभी सुविधाओं को भूल जाता है।” सामने वाला देखकर भी यह सोचता है कि यह कौन व्यक्ति है जो भगवान् की भक्ति में लीन है? यह भी एक आकर्षण है। इस प्रकार का वातावरण धर्मात्माओं के द्वारा अपने आप तैयार होता चला जाता है। अगर ऐसा वातावरण न बने तो विषय-कषायों में कमी नहीं आ सकती। चक्रवर्ती के यहाँ तो अथाह विषय- सामग्री है। फिर भी तीनों सन्ध्यायों में वह नियम से भक्ति व सामायिक करता है। उस समय वह सारे के सारे प्रमाद छोड़कर, विषयों को गौण करके, कषायों को गौण करके, निःकषाय स्वरूप आत्म स्वभाव के चिंतन में लग जाता है। इसको बोलते हैं-” यत्र भावः शिवं दत्ते” जहाँ पर जिन भावों के द्वारा मुक्ति मिलती है वहाँ पर उन भावों के द्वारा स्वर्ग की क्या बात करते हो ? स्वर्ग तो बीच का स्टेशन है, वह तो निश्चित मिलेगा ही।

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