महावीर जैन मंदिर सिविल लाइन्स जयपुर मैं दसलक्षण पूजा बड़े धूमधाम से की गई , यहाँ पर दिगम्बर जैन समाज के सभी लोग श्रद्धा भक्ति से जिन आराधना करते हैं |
आज पहले दिन उत्तम क्षमा पूजन का अर्घ चढ़ाया गया , इस दसलक्षण पर्व बिना किसी दिखावे के भावो से श्रावक-श्राविका भगवान के गुणो का गुणानुवाद करते हैं | इस मंदिर में जिन पूजा और भक्ति का अनुपम संयोग यहां देखने को मिलता है |
दसलक्षण पूजा के दौरान समाज में एक अद्वितीय और शांतिपूर्ण आत्मस्पर्श और आत्मसमीक्षा का माहौल बनता है। यह पर्व भक्ति और साधना का अच्छा मौका प्रदान करता है और समाज को धार्मिक मानवता और तात्म्यवाद की महत्वपूर्ण शिक्षाएं देता है।
इस पूजा के दौरान, लोग भगवान के साथ अपने आत्मा के संयोग को अनुभव करते हैं और उनके गुणों का सान्त्वना और प्रेरणा से पालन करते हैं। यह पर्व जैन धर्म के मूल तत्वों को जीवन में अपनाने का एक अच्छा मौका होता है और व्यक्तिगत और सामाजिक उन्नति की दिशा में मदद करता है।
Daslakshan Dharma Pravachan by Munishri Kshamasagar Ji
दशलक्षण धर्म प्रवचन – मुनि श्री 108 क्षमा सागर जी महाराज
2005 Chaturmas (चातुर्मास) Parsvnath digamber jain mandir, morena ( MP)
पीढें दुष्ट अनेक, बाँध-मार बहुविधि करे।
धरिये छिमा विवेक, कोप न कीजे पीतमा।।
(चौपाई)
उत्तम क्षमा गहो रे भाई, यह भव जस-पर भव सुखदाई।
गाली सुनि मन खेद न आनो, गुन को औगुन कहे अयानो।।
(गीतिका)
कहि है अयानो वस्तु छीने, बाँध मार बहुविधि करे।
घर तें निकारे तन विदारे, बैर जो न तहँ धरे।।
जे करम पूरब किये खोटे, सहे क्यों नहीं जीयरा।
अति क्रोध अग्नि बुझाय प्राणी, साम्य-जल ले सीयरा।।
आदरणीय कविवर पंडित द्यानतराय जी कहते हैं, “दुष्ट-चित्त (मन) के धारकों द्वारा अनेक प्रकार की पीड़ा (बाधाएँ, परेशानियाँ, रुकावट) पहुंचाए जाने पर भी, बाँधने पर भी, मारने इत्यादि पर भी विवेकी जीवों को क्षमा तथा विवेक का त्याग नहीं करना चाहिए तथा कोप (क्रोध, गुस्सा) नहीं करना चाहिए।”
आगे कविवर कहते हैं, “हे भव्य जीवो! उत्तम क्षमा को गहो (ग्रहण,धारण करो) क्योंकि यह इस भव में यश तथा पर (दूसरे, आगे के) भव में भी सुख का कारण है।”
“विवेकी जन गाली को सुनकर भी मन में खेद नहीं करते हैं।”
तथा, “गुण को अवगुण कहने पर भी, स्वभाव के विपरीत बात कहने पर भी उन्हें क्रोध नहीं आता।”
“अब चाहे वह उल्टी बात करे, अपनी वस्तु छीन ले, बाँधे, मारे, घर से निकाले, तन (शरीर) को छिन्न-भिन्न कर दे, तो भी उनसे बैर करना श्रेयस्कर नहीं है।”
क्योंकि, “हमारे द्वारा पूर्व में किये गए पापों का फल तो आएगा ही, उनको सहन हम नहीं तो कौन सहन करेगा? इसलिए क्रोध-रूपी अग्नि को बुझाकर साम्य (समता) भाव रूपी जल उस अग्नि पर सिंचन करना चाहिए।”